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टेरोडैक्टिल

महाश्वेता देवी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3802
आईएसबीएन :81-7119-284-x

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अप्रतिम कथाकार महाश्वेता देवी की नवीनतम कथाकृति है-टेरोडैक्टिल, जिसमें यथार्थ और फैंटेसी के अद्भुत समन्वय से ऐसे वातावरण का सृजन किया गया है

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत की आदिवासी जनजाति की चेतना, संस्कृति, उत्पीड़न, संघर्ष और मानवीय गरिमा का एक और ज्वलंत प्रमाण प्रस्तुत करनेवाली अप्रतिम कथाकार महाश्वेता देवी की नवीनतम कथाकृति है-टेरोडैक्टिल, जिसमें यथार्थ और फैंटेसी के अद्भुत समन्वय से ऐसे वातावरण का सृजन किया गया है जो न केवल जनजातियों की भौतिक पीड़ाओं को स्वर देता है, अपितु उनकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना को भी नये आयाम देता है और उनके प्रति मुख्य धारा के विकसित भारतीय जनमानस के दायित्वों के प्रति उसे सतर्क करता है। टेरोडैक्टिल एक अर्धमानव, अर्धपक्षी जीव है, जो नागेसिया आदिवासी जाति के पूर्वपुरुषों की आत्मा के रूप में अवतरित होता है और शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध उस पूरी जाति के संघर्ष को एक नए मिथ से जोड़ता है। मध्यप्रदेश के एक काल्पनिक पहाड़ी स्थल-पिरथा-की पृष्ठभूमि में रचित यह उपन्यास पाठक को सर्वग्रासी पूँजीवादी प्रगति और आदिम समाजवादी सांस्कृतिक, सामाजिक परम्परा के बीच दो जीवन- पद्धतियों और दो प्रकार के जीवन-मूल्यों के संघात को दर्शाता है। पूरे कथानक में अद्भुत और सामान्य, चिरंतन और आधुनिक का ऐसा संतुलन पैदा किया गया है कि पाठक साँस रोके आधिभौतिक से भौतिक जगत् तक की यात्रा करता हुआ उस मानवीय त्रासदी का साक्षात्कार करता है, जो उसके वर्तमान ही नहीं उसके भविष्य को भी उघाड़कर उसके सामने रख देता है।




एक

ब्लाक कार्यालय में बैठे-बैठे ही पूरन सहाय को उस रोंगटे खड़े करने वाले मायावी आतंक की कहानी सुनने को मिली।
पूरन सहाय का नाम उनके दादा ने प्रार्थना पूरन रखा था, क्योंकि पूरन की माँ को एक के बाद दूसरी लड़कियाँ ही पैदा हो रही थीं। पूरन के पिता उन्हीं दिनों कांग्रेस सेवा दल छोड़ कर नए-नए कम्युनिस्ट हुए थे और पुत्र प्राप्ति के लिए दूसरा विवाह करने को एकदम राजी न थे—उन दिनों उनके इस काम को एक तरह से विद्रोह माना गया था। बेटे पर कोई वश नहीं, पर वंश चलाने के लिए पोता तो होना चाहिए ही। इसीलिए उनके दादा चारों धाम की तीर्थयात्रा करके देवी-देवताओं की मनौती कर आए। पूरन के पिता के मित्रों में कवि, लेखक पत्रकार भी थे और आते-जाते रहते थे। नामकरण के पीछे उनकी बातचीत का कुछ असर तो होना चाहिए था। दादा के स्वर्गवासी होने के बहुत बाद में जब पूरन सहाय खुद ही पत्रकार, समाजसेवी और स्वतंत्र हुए, तब उन्होंने अपना नाम बदल लिया।

नाम का कौन हिस्सा रखें, कौन छोड़ें—बड़ी समस्या थी। ‘प्रार्थना’ तो लड़कियों का नाम होता है, पत्नी का नाम था अर्चना। इसीलिए उन्होंने अपना पूरा नाम पूरन रख लिया। पत्नी खूब तेज-तर्रार थीं। पूरन कहते थे कि अगर उनके बेटी हुई तो उसका नाम प्रार्थना रखेंगे। पर अर्चना की गोद में प्रार्थना नहीं आई, आया अर्जुन। पर अर्जुन के आने के बाद ही प्रसूति-ज्वर में अर्चना विदा ले गई। पूरन ने दुबारा विवाह नहीं किया। अर्जुन कुछ साल अपने मामा के यहाँ बिताकर पूरन की माँ के पास आ गया। ‘माँ’ के नाम पर हँसती हुई अर्चना की एक धुँधली तश्वीर थी। अर्जुन अब पन्द्रह वर्ष का था—न किशोर, न युवक और उद्योग विद्यालय का नामी छात्र था। पूरन की माँ पचहत्तर साल की होकर भी पूरी मुस्तैद से गृहिणी थीं पति और ससुर जो पैसे कमाकर रख गए थे उसकी और कदमकुआँ के माकान की जी-जान से रक्षा कर रही थीं। पूरन पर उन्हें भरोसा न था। उन्होंने तय किया था कि बीस वर्ष का होते ही वह पूरन का ब्याह कर देंगी।

पूरन की दीदी मुहल्ले में ही थीं, इसलिए कहा जा सकता है कि पूरन की माँ एकदम बेआसरा नहीं थीं। ‘पटना दिवसज्योति’ (जिसका पूरा नाम ‘पटना डेलाइट’ था) के दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्रसमूह का पत्रकार पूरन इसी कारण जी भर कर घूमता-फिरता था। अब उसकी दीदी की कुमारी शिक्षिका ननद सरस्वती को पूरन से ब्याह करने की साध हुई। पहले करना चाहती तो आसानी से हो जाता। अब अर्जुन बड़ा हो रहा है। सरस्वती और पूरन के बीच संकोच की एक दीवार उठ खड़ी हुई थी। अर्जुन क्या कहेगा, इस बात का पूरन को पता न था। अँगरेजी मीडियम में शिक्षित, ‘कराटे’-भक्त, हाकी का बेहतरीन खिलाड़ी अर्जुन पूरन के लिए अपरिचित-सा था। अचानक विज्ञान और गणित के ‘क्विज’ में अर्जुन का दिमाग खुल जाने से वह और दुर्बोध्य हो उठा।

पूरन जानता था कि अगर वह इधर-उधर चला जाय तो उसके घर का कोई कोना उसके बिना सूना न होगा, क्योंकि बहुत दिनों से घर में रहकर भी जैसे वह नहीं रहता था। माँ की अर्जुन और गीता-प्रवण गृहस्थी-पटना-स्थित दो बेटियों को लेकर लगभग परिपूर्ण थी। अर्जुन के लिए उसकी अपनी दुनिया काफी महत्त्वपूर्ण थी। दीदियाँ काफी दूर रहती थीं। पूरन, पुरुष होकर भी, गर्जन-तर्जन, प्रताप, उत्ताप में अपना पौरुष दिखाता था। यह बात उसकी दीदियों की समझ में न आती थी। सरस्वती यह बात बखूबी समझती थी कि वास्तव में पूरन के साथ उसका कोई संबंध नहीं बन पाया है। सरस्वती को लगता है उसका जीवन व्यर्थ जा रहा है। छठ के पर्व पर दिए गए अर्घ्य की तरह उसका जीवन समय की सतह पर बहता हुआ सड़ता जा रहा है, जो सूर्य को समर्पित तो है पर सूर्य उसे स्वीकार नहीं कर रहा है। नदी उस अर्घ्य को नहीं खाती, मनुष्य अथवा अन्य किसी प्राणी का भी वह भोज्य नहीं बन पाता, सिर्फ पानी की सतह पर डूबता-उतराता चला जाता है—और उसी हालत में सड़-गल जाता है।

कहीं कोई मांसल, भूख और प्यास का मानवीय संबंध नहीं बन सका। सरस्वती की आँखें कहती हैं—यह तुम्हारी असफलता है। पूरन को भी ऐसा ही लगता है और अपनी उम्र के पैंतालिसवें वर्ष में ही वह अपने को सिर्फ आधा मनुष्य समझने लगा है। एक नैतिक प्रश्न भी उसके मन में बार-बार उठता है—दुनिया में जो सहज स्पष्ट बात है, माँ-बेटे और सरस्वती किसी के साथ वह मानवीय संपर्क स्थापित नहीं कर पाया है, कैसे वह एक पत्रकार के रूप में अपने विषय के साथ न्याय कर सकेगा ?

फिर भी एक संवाददाता के रूप में उसका अरवल संबंधी समाचार भी प्रशंसित हुआ था। और पत्रकारों की तरह उस पर भी पटना की कोपदृष्टि पड़ी थी। बानझी की कहानी भी उसने धारदार कलम से लिखी थी। ‘काली चमड़ी का लाल रक्त, या आग की चिनगारी ?’’ इसके आलावा नालिपुरा में एक पानी का अकाल। हटावरी में हैजे का प्रकोप। भागलपुर के बादिया का अंधा बनाना। दिवसज्योति समाचार-पत्रसमूह के मालिक एक पंजाबी उद्योगपति हैं। बिहार की राजनीति दाँव-पेंच का तूफान, या जात-पाँत की प्रगैतिहासिक किस्म की लड़ाई उन्हें विचलित नहीं करती। राँची में उनके कई उद्योग हैं, दिल्ली और बिहार में उनके जबर्दस्त खूँटे हैं और पटना में समाचारों का समूह। इनमें से सबसे मुनाफे के समाचार पत्र थे—‘कामिनी’ नामक नारी-संबंधी पत्रिका और सिनेमा-संबंधी एक सचित्र पत्रिका। खुदकुशी या आत्महत्या की खबरों के पास ही ‘घर के लिए’ स्तंभ के अंतर्गत रसोईघर के लिए उपयोगी नुस्खे होते हैं। जगतगुरु शंकराचार्य के विदेश-भ्रमण समाचार के बगल में सेक्स-बम अभिनेत्रियों-तारिकाओं की ज़वानी की नुकीली तस्वीरों के साथ ‘मातृत्व नारी की सबसे बड़ी संपत्ति है’ जैसे आप्त वचनों वाला चाऊ-मिंग परोसा जाता है।

इसी कारण उसे पिरथा जाना था। उसके जाने के पहिले उसे चौंकाते हुए सरस्वती ने कहा था, ‘‘मैं अब बेकार में और इंतजार नहीं कर सकती ?’’
‘‘क्या करोगी ?’’
‘‘चली जाऊँगी किसी ऐसे आश्रम में, जहाँ स्कूल हो।’’
‘‘अभी-अभी तो नहीं जा रही हो ?’’
‘‘नहीं, क्यों ?’’ सरस्वती ने मुस्कुराकर कहा था। उन दिनों उसने सफेद कपड़े पहनना शुरू कर दिया था। सफेद साड़ी, सफेद ब्लाउज और लंबी चोटी में, बड़ी-बड़ी उदास आँखोंवाली सरस्वती ‘सरस्वतीचंद्र’ की वियोगांति फिल्म (इस फिल्म को पूरन और सरस्वती ने एक साथ देखा था) की नायिका नूतन की तरह लगी और चंदन-सा बदन, चंचल चितवन’ गाने का सुर उसके मन में बजता रहता।

‘‘आश्रम क्यों जाना चहाती हो, सरस्वती ?’’
‘‘बत्तीस साल की हो गई मैं।’’
‘‘मुझे वापस तो आने दो।’’
सरस्वती किसी दिन चली न जाए इस दुश्चिंता का भार सिर पर लिए हुए ही इस बार पूरन पिरथा गया। पिरथा मध्यप्रदेश का एक ब्लाक है। इस ब्लाक के सुदूरस्थित ग्रामों में उसे जाना था, जहाँ जिले के ग्यारह लाख सात हजार तीन सौ इक्यासी वाशिंदों में से प्रायः अस्सी हजार आदिवासी हैं। पिरथा में बहुत दिनों से लोग मर रहे हैं, सो जिस राज्य का मुख्यमंत्री भोपाल गैस जैसी त्रासदी के बाद अपना विलास भवन बनवाता है उसी राज्य के पिरथ ब्लाक को अकाल पीड़ित क्षेत्र’ घोषित करने से उसे गुरेज है। पूरन के एक पुराने मित्र हरिशरण उन दिनों पिरथा के ब्लाक के अधिकारी थे। उन्होंने उसे लिखा—‘आकर यहाँ के हालात देख जाओ। सरकारी भाषा में ‘नो स्टोरी’ पर सूर्यप्रताप की रिपोर्ट भेज रहा हूँ। इसी के आधार पर आओ, देख जाओ।’

इसी कारण पूरन को पिरथा जाना पड़ा, पर पत्रकार के बारे में, ब्लाक ही क्यों, पूरे जिले में लोगों की धरणा खराब है यह बात वह माधोपुरा में ही समझ गया था। एस.डी.ओ. साहेब ने कहा था, ‘‘क्यों जा रहे हैं पिरथा ?’’ वहाँ कुछ भी नहीं है। आदिवासी इलाके में कुछ भी देखने को नहीं है। और वहाँ जा कर बेकार में आप अखबार में हल्ला मचायेंगे और भी पत्रकार आयेंगे, बेकार में शोरगुल होगा...।’’
‘‘उससे आपका तो कुछ बनता-बिगड़ता नहीं ?’’   

‘‘आप समझते नहीं। आजकल किसी की बात से किसी का कुछ भी बनता-बिगड़ता नहीं। लीजिए, इसे देखिए।’’
पूरन ने देखा, उसके सामने पिरथा का मानचित्र था, गोंडवाना के किसी प्रगैतिहासिक विलुप्त जंतु की तरह। मेसोजोयिक काल में जब भारत वर्ष मूल गोंडवानालैंड से विच्छिन्न हुआ था, तभी से पृथ्वी के इतिहास में नये युग का सूत्रपात हुआ था। लगता था, उसी युग का कोई प्रागैतिहासिक जीव मुँह के बल पड़ा हुआ है। पिरथा ब्लाक का मानचित्र उसे देख कर ऐसा ही लगा था।
‘‘देख रहे हैं, कैसा जानवर की तरह लगता है यह नक्शा ? नहीं ?’’
‘‘हाँ, मगर यहाँ के रहनेवाले वाकई तो जानवर नहीं हैं।’’
पता नहीं।’’

एस.डी.ओ. ने सिर खुजलाया—‘‘इसी भोपाल गैस ने तो सत्यानाश किया।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘भोपाल को लेकर बात चली थी। और भोपाल में जब गैसकांड हुआ था, उस बीच पिरथा ब्लाक में सरकार ने स्वास्थ्य केन्द्र नहीं खेलने दिया और आदिवासी इलाके से हैजा-पीड़ित रोगियों को शहर ले गई। एस.डी.पी.ओ. ने अँधेरे में गोली चलाई, तीन आदमी मारे गए। हैजा हुआ पानी के टैंकर से। हमने पानी भेजा पानी आ रहा है, पानी आ रहा है, पर टैंकर नहीं पहुँचा। ट्रक, ट्रैंकर सब गायब। जिस कुँए पर मैंने खुद पहरा लगाया था, उसके पहरेदारों को मारकर भगा दिया गया और पानी पीया गया। इसी से हैजा हुआ।’’
‘‘तो फिर आप लोगों ने क्या किया ?’’
‘‘हंगामा रोकने के लिए पुलिस भेजी।’’
‘‘फिर पुलिस ?’’
‘‘पत्रकार महाशय ! पिरथा तो कृषि भूमि भी नहीं है, वहाँ पर कोई लड़ाई भी नहीं है। ऐसे आदिवासी इलाके में पुलिस क्या करती है ?’’

एस.डी.ओ. साहेब हिंस्र आनंद से हँसे। ‘‘बारिश होती है तो पहाड़ों का पानी नीचे आता है। क्या पता कोई विषैली चीज उस पानी में मिल कर नीचे आई हो !’’
‘‘इसका मतलब, बारिश होती है वहाँ ?’’
‘‘कभी–कभी होती है, वर्ना वे जिंदा कैसे हैं !’’
‘‘सरकार कोई सहायता नहीं देती ?’’
‘‘कैसी सहायता ? इस मैप को देखिए, इस जंतु के पाँवों की तरफ एक गिरजाघर है; मिशनरी नहीं है वहाँ। इसी गिरजाघर से चालीस किलोमीटर उत्तर में हम बैठे हैं। माधोपुरा सिंचाई परियोजना की ओर से इस जंतु की पूँछ से माथे तक एक नहर जाती है, एकदम सीधी। परियोजना सूची में यह नहर है। यह नहर पिरथा नदी के साथ भी मिलती थी। अब इधर देखिए।’’
‘‘जी देख रहा हूँ।’’

इस जंतु के जबड़े में आदिवासी रहते हैं। गले के पास वर्षा का पानी उतरता है, तीन माइल डाउन में एक, उसके एक माइल डाउन में दूसरा बाँध बन जाता तो पिरथा का आदिवासली इलाका हरा-भरा हो जाता।’’
‘‘ऐसा नहीं हुआ ?’’
‘‘जी नहीं, ग्यारह साल पहले स्वाधीनता दिवस पर खूब धूमधाम हुई। यहाँ से खाने-पीने की चीजें गईं। कैंप लगा, मंत्री आए, भाषण हुआ, ढेर सारे पत्रकार भी आए थे।’’
‘‘मैं तो नहीं आया था।’’
‘‘यह सब जहाँ शुरू हुआ, वहीं खत्म हो गया।’’
‘‘काम आगे नहीं बढ़ा।’’
‘‘शुरू हुआ होता, तब न आगे बढ़ता। एक के बाद एक-तीन एस.डी. ओज़ ने कोशिश की, पर माधोपुरा और भोपाल के बीच, कहीं वे फाइलें गुम होती रहीं। हर बार फाइल गुम। अगर फाइल ही गुम होती जाए...’’
‘‘अभी तक कुछ नहीं हुआ।’’

‘‘जी नहीं, और कभी कुछ होगा भी नहीं। अब सुनता हूँ, पिरथा में बहुत पानी है।’’
‘‘कौन कहता है ?’’
शायद एस.डी.ओ. की बदली होने वाली थी।
‘‘मान लीजिए, कोई आदमी बरसात के दिनों में, सावन-भादों में, पिरथा नाला देखने जाय तो, उस समय वहाँ का रूप वैसा ही होगा। पिकनिक बास्केट लेकर तो वहाँ चार-छह घंटे बड़े आराम से काटे जा सकते हैं। सभी तो पिरथा नाला की बात नहीं जानते ? बस, कह दिया—पिरथा में तो बहुत पानी है।’’
‘‘आप सब लोग आदिवासी उत्थान के पैसों से सड़कें बनवाते हैं, बंगले बनवाते हैं। यह सब कई सालों से हो रहा है।’’
‘आपका अखबार कितना छपता है ?’’
‘‘पचास-साठ-सत्तर हजार। दीवाली में एक लाख तक। कोई निश्चित संख्या नहीं है।’’
‘‘तब तो और कुछ पूछिए। चाय लीजिए।’’
‘‘बस और नहीं।’’

‘‘पत्रकार-लेखक-कवि तो खूब चाय पीते हैं, दारू पीते हैं, तरह-तरह के नशे करते हैं।’’
‘‘सभी क्या एक जैसे होते हैं।’’
‘‘जी, यह तो है।’’
पूरन ने बाहर की ओर देखा।
एस. डी. ओ. कार्यालय का बाग बोगनबेलिया की लताओं से ढँका हुआ था। वहाँ की मिट्टी बोगनबेलिया के लिए एकदम उपयुक्त थी, रुखी और नीरस। सामने अमलतास के पेड़ पर एक लंगूर बैठा था, जिसका झूलती लम्बी पूँछ दीख रही थी।
मुँह ऊपर किए, वह दृश्य देखते-देखते पूरन ने कहा, ‘‘सूर्यप्रताप ने किसी रोमांचक आतंक की बात लिखी है।’’
‘‘हरिशरण ब्लाक से जीप भेजेंगे ?’’
‘‘क्या लिखा था सूर्यप्रताप ने ?’’
‘‘गढ़ी हुई कहानी।’’

‘‘अच्छा ! वह गढ़ी हुई कहानी थी ?’’
‘‘आपको कैसे समझाऊँ ? सालोंसाल भूखे रहते हैं वे। उनके वहाँ शिशु-जन्म-दर कम होती जा रही है। सरकार अभी भी पिथरा को कोई महत्व नहीं दे रही है। उन्होंने बहुत दिनों से मान लिया है कि सरकार ने उन्हें त्याग दिया है। ऐसे में अपने दुर्भाग्य का कारण वे क्या बताएँ ? इसीलिए कहानी गढ़ रहे हैं।’’
‘‘चलिए, वह गढ़ी हुई कहानी ही सुनते हैं।’’
‘‘आप मध्यप्रदेश में आये हैं—ग्वालियर, इंदौर, जबलपुर, धारमांडू, भोपाल—सब देख आइए। जानते हैं आज भी शिवपुरी में उत्सव होता है। मूर्ति-उत्सव। राजाओं की मूर्तियों की सेवा प्राचीन राजाओं के सेवक वंश के लोग आज भी कर रहे हैं। ‘मध्य भारत में मध्य युग’—कैसा रहेगा निबंध का शीर्षक ? अच्छा है न ? बस्तर जाइए, आदिवासियों को देखिए।’’
‘‘क्या बात है ? आप भी यह मान बैठे हैं कि कोई आतंककारी घटना घटी है ?’’
‘‘यह तस्वीर देखिए।’’
‘‘लगता है, किसी गुफा की तस्वीर है।’’
‘‘एक बच्चे ने अपने घर की दीवार पर यह तस्वीर बनाई थी। यह फोटो सूर्यप्रताप ने खींचा है। मगर यह तस्वीर किसी अखबार में छपने कि लिए नहीं है, नॉट फॉर पब्लिसिटी’।’’
‘‘यह तस्वीर कहीं छपी नहीं ?’’
‘‘नहीं, निगेटिव तो हमने ले लिया था। वह इसे छपा ही नहीं सकता था उसके वश में नहीं था ऐसा करना।’’
‘‘यह है क्या ? चिड़िया ? चमगादड़ की तरह जुटे डैने हैं और एक विशालकाय गोह की तरह का शरीर। चार पाँव। बीभत्स मुँह बाए हुए है। मुँह में दाँत नहीं हैं।’’

‘‘यह तो...।’’
‘‘बताइए न ! सुनूँ तो, यह क्या है ?’’
‘‘इसे उसने बनाया कैसे ?’’
‘‘नहीं जानता। लड़का गूँगा था, मर गया।’’
‘‘कहाँ है उसके द्वारा बनाई यह तस्वीर ?’’
‘‘पिरथा में।’’
अब एस.डी.ओ. थम-थमकर बोल रहा था, जैसे बोलने में उसे काफी जोर लगाना पड़ रहा हो। जैसे कोई घायल आदमी मरने के पहले पूरी ताकत लगा कर अस्पताल में या पुलिस के सामने बयान दे रहा हो।

चितौरा के उस आदमी की तरह, जहाँ पूरन उपस्थित था; झगड़ेवाले लंबे-चौड़े भूखंड पर पासी लोग दखल करना चाहते थे और ब्रह्मर्षि सेना के लोगों की प्रतिज्ञा थी कि वे इसे कभी नहीं होने देंगे, किसी तरह भी नहीं। उस समय वह जमीन निश्चय ही पाशियों के कब्जे में थी, मगर मालिकाना बदल तो हो सकता ही था। पूरन के प्रदेश में जमीन अपनी जात बहुत बदलती है। पूरन और उसके साथी संवाददाता-पत्रकार अस्पताल गए। वह आदमी टुकड़े-टुकड़े बोल रहा था, ‘‘सबसे आगे था...रामनगीना, और लखन और नथुनीराम...और दूसरे...बहुत से लोग—पाँच-बंदूकें थीं....रामनगीना ने गोली चला दी....मैं पुलिस बुलाने दौड़ा...पुलिस बुलाने...’’ मंडल-स्वास्थ्य केंद्र अस्पताल था, इसीलिए पत्रकार लोग वहाँ आ जुटे थे। अखिल भारतीय समाचारपत्र समिति के आदित्य नौलखा के होने से उन्हें सुविधा हुई थी।

एस.डी.ओ. उसी आदमी की तरह टुकड़ों-टुकड़ों में बोल रहा था। हाथ हिलाकर, उँगलियाँ नचाकर वह समझाने की कोशिश कर रहा था। जैसे पूरन से उसका भयानक ‘कम्युनिकेशन गैप’ या मानसिक तथा भाषागत विच्छेद हो। जैसे दोनों दो द्वीपों पर हों और एक-दूसरे की बेहद जरूरी बातें समझ न पा रहे हों, और दूसरा समुद्र तट पर खड़ा हाथ-पाँव के इशारे से अपनी बात कहता जा रहा हो। अब तो यह रोग संक्रामक हो गया है। माहंदी में एक आदमी रहता है, उसकी भैंस को किसी ने जहर देकर मार दिया था, इसी कारण उसने अपराधी का सिर फाड़ दिया था। पुलिस-कचहरी भी हुआ था। कि एक भैंस की कितनी कीमत है कि उसके लिए वह आदमी बीस साल तक जेल में सड़ता रहा ? इस प्रश्न का उत्तर वह आदमी गले की घंटी नचाकर, मुँह से फेन उगलकर पूरन को समझा रहा था—बता रहा था कि ग्राम जीवन में भैंस की क्या हैसियत है—वह अपनी कोशिश में सफल हुआ था।
उसकी उद्विग्नता और उसके समाचार के पीछे की व्याकुलता को पूरन समझ नहीं पाया था हालाँकि उसने उस आदमी को खूब मर्मस्पर्शी बनाकर एक छोटा समाचार बना दिया था ! शीर्षक था—‘एक भैंस के लिए’।
एस.डी.ओ. बोलता जा रहा था।

शुक्लपक्ष की चाँदनी रात थी। उस दिन पूर्णिमा भी हो सकती थी, पता नहीं। सरपंच माधोपुरा तक आया था, साथ में पिथरा के कुछ लोग थे। आप आसानी से शंकर को पा जायेंगे उस गाँव में, वही एक पढ़ा-लिखा आदमी है। वह बीच-बीच में शहर आता है। मर्दशुमारी के वक्त। सड़क के काम के लिए आदमी जुटाने के लिए आपके मित्र बीच-बीच में इस्तेमाल करते हैं। वह उनका अपना ही आदमी है।’’
‘‘अपना आदमी’’—इन शब्दों का उच्चारण करते समय एस.डी.ओ. की आवाज में पर्याप्त अवहेलना मुखरित नहीं हुई।
‘‘उसके बाद क्या उसने उस प्राणी को देखा ?’’
‘‘नहीं।’’

एस.डी.ओ. का स्वर बदल गया। पूरन के स्वरकंठ से हल्की-सी चंचलता का उसने तिरस्कार किया ।
‘‘वे कई लोग लौट रहे थे। गाँव में खूब ढोल बज रहा था। कोई खास खबर देनी हो तो वे पाँच तीलियों से ढोल बजाते हैं। ढोल की आवाज वैसी ही थी। तो कुछ न कुछ घटा है, इसलिए उन्होंने कदम और तेज किये। चाँदनी रात थी। वहाँ चाँदनी रात में आप पेड़ों के पत्ते तक गिन सकते हैं। जहाँ पिरथा नाला बहुत चौड़ा और वहाँ बालू और पत्थर पर तेजी से चल रहे थे। ऐसे में उन्होंने एक अद्भुत छाया को उड़कर जाते देखा। एक चिड़िया, न बहुत बड़ी, न बहुत छोटी।’’
‘‘उन्होंने चिड़िया’ बताया था ?’’
‘‘पहले दिन तो ऐसा ही बताया था। उड़कर जाते देखकर चिड़िया ही तो सोचेंगे। और क्या सोचेंगे भला ?’’
‘‘हो सकता है कि वह किसी बड़ी जाति का चमगादड़ हो ?’’
‘‘नहीं, वहाँ ऐसा नहीं हो सकता। वह जैसे तिरता हुआ उड़ रहा था। लहर की तरह पल में थोड़ा ऊपर, पल में थोड़ा नीचे हो रहा था। ऊपर की ओर देखकर वे बहुत डर गये। बहुत ही डर गये थे—छाया उनके साथ-साथ उतरा रही थी।’’
‘‘कितनी देर तक ?’’

‘‘पता नहीं। आप अपने अखबार के मालिक को बोलिए न उन्हें एच.एम.टी. की घड़ियाँ देने को। रेडियम डायलवाली। और उन्हें प्रशिक्षण दीजिए, जिससे कोई भी अजीब चीज देखने पर वे समय नोट कर सकें।’’
‘‘माफी चाहता हूँ।’’

‘‘यह माफी माँगने या देने का वक्त नहीं है। यह समझ के बाहर का मामला है....। छाया तिरते-तिरते पहाड़ की ऊँचाई में लोप हो गई। गाँव पहुँचकर उन्होंने देखा, पिरथा के सभी लोग सड़क में जमा हैं और ग्राम-प्रधान ढोल पीट रहा है। ग्राम-प्रदान ने उन्हें आते देखकर कहा, ‘‘हमारे ऊपर से एक अच्छुड़ छाया गई है। हमारे ऊपर आफत आने वाली है।’’
‘‘यही वह मायवी आतंक है ? यह तो कोई प्राणी लगता है जो डैने फैलाकर उड़ा है।’’
‘‘पिरथा जाइए। मैं आपको समझा नहीं पाऊँगा। पिरथा को अकालग्रस्त इलाका नहीं कहा जाता। वहाँ तो हमेशा ही अकाल रहा है। उन्हें कोई सहारा नहीं है।
कभी होगा भी नहीं। हजारों लोगों ने इस सच्चाई को स्वीकार कर लिया है। माँगना जानते नहीं, देने पर ले लेते हैं। कैसे समझाऊँ ? ये आदिवासी तर्कपूर्ण ढंग से सोचेंगे, व्याख्या करेंगे, यह संभव नहीं लगता। शहर की मानसिकता लेकर आप उन्हें समझना चाहते हैं। एक फुटा से आप महासागर की गहराई नापना चाहते हैं !’’
   

    

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