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पुनरागमन

उर्मिला शिरीष

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3808
आईएसबीएन :81-8018-058-

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उर्मिला शिरीष की सृजनयात्रा के नये आयाम खोलती कहानियां.....

punragaman

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


समकालीन कहानी की चर्चित और सशक्त लेखिका उर्मिला शिरीष का यह संकलन कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है। इन कहानियों में घटनाएँ सीधे-सीधे न आकर परोक्ष रूप में आई हैं, इसलिए जीवन की आंतरिकता, अजेयता, असीमता तथा शाश्वतता के सवाल मानस में उतरकर चिंतन की धारा को उद्भूत करती हैं।

‘साहसा एक बूँद उछली’, ‘मुक्ति’, ‘भय’, ‘अंतरात्मा की आवाज’, ‘मरीचिका’ आदि कहानियाँ जीवन की अंतःशक्ति को तलाशती हैं, थामती हैं, विस्तार देती हैं और आस्था को मज़बूत करती हैं। जीवन...मृत्यु...फिर जीवन प्राप्ति की कामना, शरीर से परे आत्मा का आस्तित्व, सत्य के प्रति समर्पण, प्रेम और प्रेम का गहरा मौन, एहसास, स्पर्श। स्वयं की सत्ता को सीमित करने की चाह में भौतिकतावादी मनुष्य किस तरह प्रकृति से टकराता है, छेड़छाड़ करता है ‘प्रत्यारोपण’ कहानी में इस सत्य को बखूबी चित्रित किया गया है। मनुष्य के होने न होने की स्थिति पर सवाल उठाती कहानियों में संबंधों के कितने ही रूप देखे जा सकते हैं। विश्व सिर्फ आतंकवाद, हिंसा, पूँजीवाद, भूख तथा ग़रीबी से ही नहीं जूझ रहा है, उसके अस्तित्व पर जो ख़तरे मंडरा रहे हैं, इस सोच को भी इन कहानियों में महसूस किया जा सकता है। संवेदना और विचार का बेहद सुंदरमेल इन कहानियों को अप्रतिम बनाता है।

भाषा और शिल्प का सधा हुआ ख़ूबसूरत प्रयोग इन कहानियों की पठनीयता को बढ़ाता है। अनायास निःसृत होती भाषा कहानी के भीतर फैले संसार को आत्मसात करने में मदद करती है। कहानी में कहानीपन का बोध इनकी सहजता को बढ़ाता है। पाठकों के अंतर्मन में उतरती ये कहानियाँ उर्मिला शिरीष की सृजनयात्रा के नये आयाम खोलेंगी। इसी अपेक्षा के साथ इन्हें प्रस्तुत किया जा रहा है।

सहसा एक बूँद उछली


कैसे बताऊँ उसे ? पर बताना तो पड़ेगा ही। क्या इस सत्य को छुपाया जा सकता है ? दोनों हाथों की मुट्ठी पर चेहरा टिकाये डॉ. काचरू गहन सोच में डूबी निश्चेष्ट बैठी थी। पता नहीं कितनी देर तक यूँ ही बैठी रहती यदि साथी डॉक्टर ने उनके कंधों को न थपथपाया होता।
‘‘आप ही हिम्मत हार जायेंगी तो कैसे काम चलेगा, डॉ. काचरू ?’’
‘‘बात मेरी हिम्मत की नहीं है। मैं तो दुःख तकलीफ सहन करने की आदी हो चुकी हूँ। मिनी कैसे सहन कर पायेगी ? मासूम बच्ची ! कितने साल जिंदा रहूँगी मैं ? फिर कौन संभालेगा इसे ?’’
‘‘नहीं डॉ. काचरू...नहीं ? यह क्या, आपकी आँखों में आँसू ! आप इतनी कमज़ोर कब से हो गईं ?’’
‘‘क्यों ! क्यों नहीं मेरी आँखों में आँसू आने चाहिए ? मेरा हृदय क्या माँस-मज्जा का नहीं है ? काम में लगी रहती हूँ ताकि अपना दुख दूसरों पर व्यक्त न कर पाँऊ...’’

‘‘आप मिनी के पास जाइए। थोड़ा ठहरकर बताइए। ऐसा न हो कि वह सदमे में चली जाये। डा. काचरू उठीं। आँखें पोंछी चेहरा पानी से धोया। अपनी भारी देह को संतुलित करती हुई चलने की कोशिश करने लगी। लगा पाँवों में ताकत ही न हो फिर लगा चक्कर आ रहे हैं-पर्स से ब्लड प्रेशर की गोली निकालकर खाई। जब कुछ ठीक लगा तो फूलों का गुलदस्ता हाथ में लेकर मुस्कराते हुए कमरे में प्रवेश किया।
‘‘मम्मा, बेबी कैसी है ?’’
‘‘बहुत ख़ूबसूरत फूल जैसी !’’ उन्होंने वाक्य उतनी ही ख़ुशी के साथ बोला जो शिशु के जन्म पर व्यक्त होनी चाहिए।
‘‘आप ख़ुश नहीं दिख रही हैं मम्मा ?’’
‘‘पगली हो तुम ! मैं तो बेहद ख़ुश हूँ। इतनी प्यारी बच्ची है कि....’’
‘‘आपने उसे छुआ ? गोदी में लिया ?’’

‘‘हाँ हाँ छुआ भी, खिलाया भी.... पर थोड़ी-सी प्रॉब्लम है...। हल्का सा निमोनिया है इसलिए आइसोलेशन में रखा है। घबराने की कोई बात नहीं है। तुम्हें तो कोई तकलीफ नहीं है ?’’
‘‘मम्मा क्या आपका वहाँ रहना जरूरी थी ?’’ मिनी ने शर्माते हुए कहा।
‘‘मेरे लिए क्या आपका वहाँ रहना जरूरी था’’ मिनी ने शर्माते हुए कहा।
‘‘मेरे लिए तुम उस समय मेरी बेटी नहीं थी, समझी। डॉ. काचरू वहाँ बैठने की बजाय नर्सिग होम के कारीडोर के बाहर निकल आई। उनका गला भर आया। इस कृत्रिम ख़ुशी के पीछे जो विराट दुःख छुपा था, उसे दबाने की कोशिश में वे नाकामयाब होती जा रही थी। वे वहाँ बैठकर इस सत्य को बेटी से नहीं छुपा सकती थी।
‘‘राजेश को फोन कर दिया ?’’ उनके पुनः आने पर मिनी ने पूछा।
‘‘वे लोग कल सुबह तक पहुँच जायेंगे।’’

‘‘वहाँ सभी लोग ख़ुश है ?’’ मिनी ने चहकते हुए पूछा।
‘‘हाँ हाँ, क्यों नहीं...।’’
‘‘मम्मा, पंडित जी को समय लिखवा दिया आपने समय तो सही नोट किया था ?’’
‘‘एकदम सही समय नोट किया है बेटी !’’ डॉ. काचरू ने दूसरी तरफ देखते हुए कहा। मिलने वालों में से वे बाहर ही मिल लेना चाहती थी। उनके परिचय का दायरा बहुत बड़ा है। शहर के इकलौते मेडिकल कॉलेज की नामी-गिरामी मेडिकल टीचर्स में से एक हैं वे। उनके व्यक्तित्व की भव्यता ज्ञान की गहनता तथा व्यवहारिकता के अभिभूत होना ही पड़ता है। कश्मीरी पंडित की लड़की। अपने जमाने में बेइंतिहा ख़ूबसूरत लगती थीं। मेडिकल की पढ़ाई पूरी होते-होते शादी के लिए ढेरों प्रस्ताव आ गये थे। शादी का जिम्मा उनकी नानी ने उठाया हुआ था। नानी की बात टाल नहीं सकती थीं। नानी ही पर अभियान था। नानी कमला नेहरू से लेकर आसिफा अली तक उस ज़माने की तमाम महिलाओं के बारे में चर्चा करती थीं। नानी ने जो लड़का पसंद किया था वह फ़ौज में कैप्टन था। छः फीट लंबा फ़ौजी। ख़ूबसूरत। व्यक्तित्व में ऐसा चुंबकीय आकर्षण कि डॉ. काचरू ने देखते ही सहमति दे दी थी। विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए एम.डी. की थी। जीवन अपनी मधुरता उल्लास और स्निग्धता के साथ मज़बूत पहियों पर दौड़ रहा था। शादी के चौथे बरस प्यारा सा बेटा उनकी गोद में आ गया था। डेढ़ बरस बाद मिनी का जन्म। बच्चे, पति-पत्नी और नौकरी इन सबके बीच तालमेल बैठाते हुए वे अपने काम में अत्यधिक व्यस्त रहती थीं। तभी उन्होंने देश का काफी कुछ हिस्सा पति के साथ घूम लिया था। साहित्य और संगीत में अभिरुचि रखनेवाली डॉ. काचरू के जीवन में कुछ आदर्श भी रहे। मेडिकल का प्रोफेशन और फ़ौजी जीवन का संकल्प।

जब बेटा चार बरस का था और बेटी डेढ़ बरस की तभी उनकी हँसती मुस्कराती जिंदगी पर जैसे वज्रपात हो गया था। उन्होंने पहाड़ों के बीच रहते हुए देखा था चट्टानों को धसकते हुए...बादलों को फटते हुए वही धसान, वही शोर, वही गड़ागड़ाहट उनके हृदय में उठी थी। एक्सीडेंट में उनके पति का देहांत हो गया था। यद्यपि नानी ने संभाला था उसे पर..... धीरे- धीरे वे पत्थर सी होती गई।

‘‘दोनों बच्चों का जीवन तेरे सामने है....कौन संभालेगा ? नानी एक ही वाक्य बोलती थी उनके सामने। बच्चों का दुःख मासूमियत और भविष्य का खयाल कर डॉ. काचरू ने अपना विषाद छुपा लिया था। किसी भी हालत में उबरना था उन्हें।
‘‘बेटी, कहीं एक जगह अपना घर मकान बना ले ताकि बच्चों के साथ यहाँ-वहाँ भाग दौड़ न करनी पड़े।’’
संयोग से उसी समय मेडिकल कॉलेज में उनके विषय की पोस्ट निकली थी और उन्होंने डिमोंस्ट्रेटर के पद पर ज्वाइन कर लिया था। उनके अकेलेपन को देखकर लोग शादी करने की सलाह देते लोगों की सौंदर्यलोलुप दृष्टि भी उन पर बनी रही...पर उन्हें तो जैसे अपने बच्चों का जीवन सँवारना था। स्वयं के सुख, आराम की कहाँ परवाह थी ?.... बस कैरियर।
बूढ़ी होती नानी की काया में चिंता भरा मन अकुलाता रहता था...जवान बेटी को यूँ मशीन की तरह काम करते देख वे ख़ुश तो होती पर दुख भी कम न था। जीवन क्या देहिक सुखों का पर्याय है..इन तमाम सुखों के बीच भी इंसान इतना अतृप्त क्यों रहता है ! क्यों शांत नहीं होती उसकी पिपासा...!

‘‘नानी, मैं अपने अनुभव से कह सकती हूँ कि कोई एक सुख या कामना ही अंतिम नहीं होती। भाग्य और विधाता का विधान, दोनों की सत्ता है यहाँ।’’ नानी उनकी बातें सुनकर भी अनसुना कर देती थीं। वे देखती थीं कि उनकी डॉक्टर नातिन ने स्वयं को पूर्ण रूप से अपने प्रोफेशन में समर्पित कर दिया है...वे चाहती थी बच्चे पढ़ाई में होशियार निकलें। डॉक्टर बनें। फ़ौज में जायें। पर उन्होंने अनुभव किया कि बच्चों की रुचि इस ओर न थी। किसी तरह जर्नलिज़्म का कोर्स करवाया था कि बेटा प्रेम विवाह करके बैठ गया। दूसरा बेटा उससे भी बढ़ चढ़कर निकला। वे देखती कि उनमें हर काम को लेकर अपने भविष्य को लेकर पूर्ण उदासीनता है। इस उम्र में न उत्साह था न जिज्ञासा थी। न कोई सोच न कोई सपना। जिम्मेदारी का एहसास तो रत्तीभर भी नहीं। मेहनत और संघर्ष वे करना नहीं चाहते थे। डॉ. काचरू सुबह पाँच बचे जो उठती तो रात बारह एक बजे तक लगी रहती थी। उन्हें कभी नहीं लगता कि माँ के बूढ़े होते झुकते कंधों को आराम दें। सहारा दें। दुनिया देखी थी डॉ. काचरू ने। हज़ारों लड़कों को पढ़ाया था। समझ गई थी कि पढ़ाई के अलावा जीवन के अन्य कामों में भी वे हताश होंगी।

निराशा उन्हें स्वयं को लेकर नहीं बच्चों के भविष्य को लेकर होती थी। इसलिए जब बेटी बी.एससी. पास कर चुकी तो उन्होंने इंजीनियर व्यवसायी लड़के से शादी कर दी..वे स्वयं को और व्यस्त रखने के लिए शाम को होम्योपैथी की प्रैक्टिस करने लगी थी..। लोगों से मेल- मिलाप बातचीत...। जीवन के संघर्ष में उनका नज़रिया जाँचती परखती थी। उनके भूरे बालों में ग़ज़ब का आकर्षण था। उनके चेहरे पर गरिमा और दया झलकती थी। पाँवों में स्लीपर या चमड़े की चप्पल सफेद ब्लाउज और सूती साड़ियाँ बस, यही उनका पहनावा था उनकी पहचान थी। न वे थकती थी। न नाराज़ होती थीं।..... उन्हें संतोष था कि बेटी ससुराल में ख़ुश है....। डिलीवरी के लिए उन्होंने उसे अपने पास बुला लिया। उसकी सारी जाँचें और स्वयं की उपस्थिति में हुई डिलीवरी के बाद भी जो हुआ था उसने डॉ. काचरू को हिलाकर रख दिया था। इतना दुख। ऐसा सघन अवसाद तो उन्हें अपने विधवा होने पर भी नहीं हुआ था...यह एक ऐसा घाव था जिसे बरसों बरस तक रिसना था। उनका विश्वास खंड-खंड हो चुका था।

‘‘मैडम ! ईश्वर ने यह क्या कर दिया ?’’
‘‘...मैं तो उसका अभिशाप भी सहजता से जी रही थी...। पर मेरी आस्था को इस आघात ने खंडित कर दिया है। मुझे लगता है कि मिनी को सच्चाई का सामना जल्दी से जल्दी करना चाहिए। उसको बता देना चाहिए.... इससे पहले कि वह बेबी को देखे।
‘‘यह इमोशनल स्टेज है। इसके पति को आने दीजिए ताकि दोनों मिलकर इस दुख को सहन कर सकें।’’
बेबी ने पाँखुरी-सी पलके हल्के से खोली..... रोशनी से चौंधियाकर उसने फिर पलके बंद कर ली।
बेबी को माँ के पास भिजवाना ही था।
‘‘मम्मा, उसका नाम क्या रखेंगे ?’’
‘‘जो तुम लोगों को अच्छा लगे।’’
डॉ. काचरू की निगाहों में बेबी का चेहरा सिमट आया।
‘‘मम्मी, क्या बात है ? कोई बात तो है जो आप छुपा रही हैं अन्यथा आप परेशान होने वालों में से नहीं हैं। बताइए आप क्या छुपा रही हैं ?’’

‘‘बेटी ! मेरे पास कोई शब्द नहीं है। क्या कहूँ या...। डॉ. काचरू ने स्वयं को रोका अभी वक़्त नहीं है।
बोलिए मम्मा बोलिए न। मेरा धैर्य टूटा जा रहा है।
‘‘........................’’
‘‘मम्मा प्लीज ! प्लीज मम्मा बताइए न ?’’
डॉ. काचरू ने सारी स्थिति बताई।
‘‘कैसे ! कैसे मम्मा क्यों मिनी की रुलाई का वेग इतना तीव्र था कि उसे संभालना मुश्किल हो गया...।
‘‘बेटी, मैं तुम्हें धोखे में नहीं रखना चाहती हूँ जो है-उस सच्चाई का सामना करो !’’
‘‘तो क्या वह कभी भी नहीं चल पायेगी...बैठ भी नहीं पायेगी...माँस का जीता जागता लोथड़ा बनकर रह जायेगी ? यह क्या हो गया मम्मा ? कभी किसी का बुरा नहीं चाहा फिर यह सब मेरी बच्ची के साथ क्यों हुआ ?’’
पता नहीं कितनी देकर तक मिनी का विलाप चलता रहा। उसने खाना-पीना छोड़ दिया था। बेबी को स्तनपान भी नहीं करवा रही थी। निश्चेष्ट पड़ी रहती। आँसू थम नहीं रहे थे...। हर स्थिति का सामना करना सीखो मिनी। यही जिंदगी है। कभी सोचा भी न था कि ‘सेरेवल पाल्सी’ का शिकार हमारी ही बच्ची होगी। कहने को तो डॉ. काचरू कह गई, मगर बेबी का अबोध चेहरा देखकर उनका मन भी भर आया। वे जानती हैं कि ऐसे बच्चों का कोई इलाज नहीं है। अगर है भी तो बहुत लंबा और न्यूनतम प्रभावकारी। यहीं आकर मनुष्य प्रकृति के सामने पराजित हो जाता है। आज उनका आत्मविश्वास पंगु हो गया था...। मगर इस समय।

बेबी ने आँखें खोली....। टुकुर- टुकुर देखती रही वह। भूखी थी...इसलिए जोर- जोर से रोने लगी।
‘‘दूध पिलाओ। भूखी है !’’
‘‘भूखी ही मर जाने दो मम्मा। उसे मर जाने दो। मैं उसकी मौत बर्दाश्त कर लूँगी पर ऐसा अपंग जीवन नहीं। डॉ. काचरू स्तब्ध सी मिनी का चेहरा देखती रह गई। फिर संयत होकर उन्होंने कहा-नहीं बेटी नहीं। मृत्यु की कामना करना पाप है। इसमें इस मासूम का क्या दोष ?’’
सचमुच घर से लेकर बाहर तक बेबी का जन्म उदासी, व्यथा तथा हताशा का विषय बन गया था। जब भी वह रोती तो मिनी से ज्यादा उनका कलेजा फटने लगता।
अभी दो महीने ही गुजरे थे।
बच्ची का नामकरण संस्कार होना था।

नामकरण संस्कार डॉ. काचरू अपने घर में ही करना चाहती थी। उसकी अपंगता से ज्यादा उसके सेब से फूले लाल गालों पर सबकी नजरें टिक जातीं। वह मुस्कराती तो चाँदनी सी बिखर जाती थीं। डॉ. काचरू एक सामान्य बच्ची की तरह उसको सबके बीच लाना चाहती थी। इसीलिए उन्होंने सारे नेग दस्तूर पूरे करके मिनी को विदा किया लेकिन विदाई के दो हफ्ते बाद ही डॉ., काचरू ने देखा, मिनी अपनी सास तथा पति के साथ आई हुई है।
‘‘अचानक !’’ डॉ. काचरू ने मुस्कुरा कर पूछा।
‘‘आप लोगों ने फ़ोन पर ख़बर नहीं की वरना मैं स्टेशन पर ले ने आ जाती।’’ कहकर उन्होंने बच्ची को गोदी में उठा लिया और उसके गाल चूमते हुए बोली-यह तो बड़ी प्यारी लग रही है। पहचाना अपनी नानी को पहचाना !’’
‘‘मिनी का चेहरा उदास था। आँखें सूजी हुई। दामाद एकदम ख़ामोश थे।
‘‘क्या बात है ?’’ डॉ. काचरू ने अपने सफेद बालों को कसते हुए कहा। दिनभर का बँध जूड़ा पसीने व चिपचिपाहट के कारण ढीला पड़ गया था

‘‘मैं चाय बनाती हूँ। आप लोग थके होंगे। चल बेबी, दादी की गोद में जा...ओह कितनी सुंदर हो गई है।’’
हम लोग आज ही रात वापस लौट रहे हैं। रात की गाड़ी से रिजर्वेशन है।’’ दामाद ने कहा।
रुककर जाते। यह भी कोई आना हुआ।
‘‘छुट्टियाँ नहीं हैं।’’
‘‘मम्मा मिनी ने उन्हें टोका।
‘‘आखिर बात क्या है ? मैं पागलों की तरह बक- बक किए जा रही हूँ और आप लोग...’’
‘‘मैं इस विकलांग बच्ची को नहीं रख सकता। आप और आपके डॉक्टरों का ग़लती की वजह से।
क्या कहा मिस्टर...क्या कहा आपने, विकलांग बच्ची किसको कह रहे हो, अपनी बेटी को ? तुम्हारे मुँह से कैसे निकला यह शब्द कैसे ?’’
जो सच्चाई है वही कह रहा हूँ। आप लोगों की लापरवाही की वजह से ऐसा हुआ, गलत फोरसिस लगाने के कारण। अब आप ही संभाले।’’

डॉ. काचरू मेडिकल कॉलेज में इतने वर्षों से हैं...कभी किसी की हिम्मत नहीं हुई कि इस अंदाज में उनसे बात करे।
‘‘बेबी का बहाना है या। कुदरत की नाइंसाफी की सजा बेबी को क्यों ? मेरे लिए यह विकलांग नहीं है, न ही बोझ।’’
‘‘मैं इसके बिना नहीं रह पाऊँगी मम्मा। प्लीज राजेश समझने की कोशिश करो। यह हमारी जिम्मेदारी है न कि मम्मा की। हमारा दुर्भाग्य कहो या कुछ और मैं।

नहीं मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा। एक घिसटता हुआ अपंग शरीर। राजेश ने मुँह बनाते हुए कहा।
मिनी गिड़गिड़ानाबंद करो। बेबी तो शारीरिक व मानसिक विकलांग ईश्वर की इच्छा से है पर ये तो सिर्फ मानसिक विकलांग ही नहीं कुंठित व्यक्ति भी है। डॉ. काचरू ने जोर से कहा।
‘‘राजेश, प्लीज....’’ फिर मिनी ने राजेश का हाथ पकड़ा और याचकमुद्रा में बोली एक बार सोच लो। मैं बच्ची का बोझ तुम्हारे ऊपर नहीं डालूँगी।’’

‘‘मिनी, रोना बंद करो इस अपाहिज व्यक्ति के सामने !’’ इस बार डॉ., काचरू जोर से चिल्लायी।
राजेश अपनी माँ को लेकर वापस चला गया था। मिनी अपने कमरे में बंद होकर रो रही थी और बेबी पलंग पर पड़ी थी-उसे नहीं मालूम था कि उसकी वजह से उसकी माँ के जीवन में कैसा वज्रपात हो गया था। घर में सन्नाटा छाया था। कमरे में बंद मिनी, स्टडीरूम की कुर्सी में धंसी बैठी शोक में डूबी डॉ. काचरू और ऊपर के कमरे में बैठा बेटा काश बेटा आकर मिनी के सिर पर हाथ रख दे....वह कहे कि कोई बात नहीं मम्मा मैं आपके साथ हूँ। डॉ. काचरू दिमाग में उठे तूफान के शांत होने की प्रतीक्षा कर रहीं थी। इधर विकलांग बेबी, उधर परित्यक्ता बेटी। दोनों का भविष्य अंधकार में लिपटा दिख रहा था।

कैसे रहेगी मिनी ? मात्र बी.एससी. पास है ! घर में इसी तरह बैठेगी तो बेबी को देख देखकर डिप्रेशन में चली जायेगी। क्या करूँ क्या नहीं...कैसे करूँ ? कोई छोर पकड़ में नहीं आ रहा था।
उन्होंने देखा...मिनी दिन ब दिन उदास होती जा रही थी। न वह किसी से बात करती न बाहर निकलती। बेबी के पास आकर बैठती तो लगता कुछ कर न बैठे। रात में कई बार उठकर देखती। डॉ. काचरू ने बेटे की आँखों में उपेक्षा का भाव पढ़ लिया था। वे समझ गई थीं कि बेबी का जीवन उनके ही सहारे है।
कुछ हो करना ही पड़ेगा बेटी इस तरह हारने से काम नहीं चलेगा। आगे बढ़ने के लिए पढ़ाई करो..... रास्ता वहीं से निकलेगा।

‘‘आपका हाथ बंटाना चाहती हूँ मम्मा !’’
डॉ. काचरू को लगा, मिनी का मन व्यथा और माहौल से बाहर निकलना चाहता है पर निकला नहीं पा रहा है। अक्सर ही वह गुस्से में बेबी को कोसती थी या परे धकेल देती थी या उसके देखकर रोती रहती थी या उसको गोदी में लिटाये बड़बड़ाया करती रहती। डॉ. काचरू समझ गई थी कि वह मानसिक रोगी बनती जा रही है।
‘‘यह आपकी जिम्मेदारी नहीं है मम्मा। उसकी है, राजेश की। मुझे इसी बात का आघात क्या है कि राजेश यानी पिता इतना कठोर कैसे हो गया कि अपनी ही बेटी को छोड़ दिया। बेटा भी बहिन की बात का समर्थन करने लगा। डॉ. काचरू ने उसे डाँटते हुए कहा। यह बच्ची तुम पर कभी बोझ नहीं बनेगी, मिस्टर !’’

‘‘आप भी कब तक और कैसे संभालोगी ? कई मिशनरियों में बेबी जैसे अपंग बच्चों की बहुत अच्छी देखभाल होती है। आप और मिनी दोनों फ्री हो जाओगी। इसको भी अपनी पढ़ाई करके नौकरी तलाशनी है।’’
डॉ. काचरू अवाक् अपने बेटे का चेहरा देखती रह गई। उनका मन क्षोभ से भर गया। लगता है तुममें और राजेश में कोई अंतर नहीं है। अच्छा है कि तुम अपना ठिकाना कहीं और ढूँढ़ लो। बड़े राजकुमार प्रेम की दीवानगी में चले गये, तुम भी चले जाओ। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तुम क्या चाहते हो कि मैं इसे सड़क पर छोड़ दूँ जैसे वो कायर छोड़कर चला गया है जब तक मैं जिंदा हूँ इसे अपने साथ रखूँगी। अगर मेरा साथ दे सको तो ठीक वरना...।’’
और अगले ही हफ्ते उन्होंने छोटे बेटे तथा बहू के लिए दो कमरों का मकान दिलवा दिया। साथ ही अपने व्यक्तित्व संबंधों के बल पर एक अखबार में दोनों को नौकरी दिलवा दी।
‘‘अब तुम अपना भविष्य ख़ुद सँवारों। स्पष्ट बता देती हूँ कि भविष्य में मैं कोई मदद नहीं कर पाऊँगी। उन्होंने निर्णायक मुद्रा में कहा।

डॉ. काचरू के सामने लक्ष्य कठिन था। रास्ता कंटकाकीर्ण। टनों बोझ पीठ पर लादकर दुर्गम रास्तों पर चलने जैसा। मिनी का भविष्य सँवारना प्रथम प्राथमिकता थी। उन्होंने अपने प्रिय शिष्य एवं सहयोगी को बुलाया और बोली मिनी को क्या करवाना चाहिए। नौकरी की जरूरत कितनी है तुम समझ सकते हो। बेबी को लेकर वह टूट चुकी है। भयभीत है। ग्लानि से भरी है। यह स्वाभाविक है।
वे क्या करना चाहती हैं पहले उनसे पूछ लें।’’ उन्होंने कहा।
‘‘अभी तो वह सोचने समझने की स्थिति में नहीं है। हमें ही निर्णय लेना है कि इसे क्या करवाना चाहिए ?’’
एल.एल.बी करवा दें। नौकरी नहीं लगी तो प्रैक्टिस कर सकती हैं। बाकी फील्ड में नौकरी मिलना फिलहाल मुश्किल हो गया है।’’

‘‘तुम्हीं को तैयारी करवानी होगी या किसी ऐसे व्यक्ति को तलाशो, जो ठीक से पढ़ा सके। चार-पाँच साल का गैप आ गया है। उसकी मानसिक स्थिति को समझते हुए पढ़ाना होगा। वह जरा जरा सी बात पर आपा खो बैठती है। बेबी को मारती है। स्वयं को गालियाँ देती हैं। चीजें फैंकने लगती है या फिर घंटों रोती रहती है..। डॉक्टर तुम्हें हर हाल में उसकी मदद करनी है। उसे पाँवों पर खड़ा करना है। तुम समझ सकते हो न।
‘‘ईमानदारी से कोशिश करना हमारा प्रयास रहेगा, शेष इन्हीं को करना होगा...फिर ईश्वर की मर्जी।’’ डॉ. हरीश बोले।
और एकदम नया विषय लेकर वे तथा उनका शिष्य डॉ. हरीश मिनी के सामने बैठे थे।

‘‘मुझसे नहीं होगा मम्मा... बिस्कुल नहीं होगा। मेरे दिमाग में कुछ नहीं बैठेगा। मैं सब कुछ भूल चुकी हूँ। बस एक ही बात दिमाग में आती है कि सल्फास की दो गोलियाँ लूँ, एक बेटी को खिला दूँ और दूसरी खुद खा लूँ। क्या करूँगी इसको जिंदा रखकर। क्या है इसके जीवन का उद्देश्य ?’’ मिनी जल्लाद हो तुम जीवन का ऐसा निरादर दुनिया में लाखों लोग इससे बदतर हालात में जी रहे हैं या नहीं ? संघर्ष से बचने के लिए आत्महत्या का विचार मिनी..स्वयं को संभालो इतनी प्यारी बिटिया है हमारी भीतर से बेबी के रोने की आवाज आ रही थी। बरामदे के बीचों- बीचे बेबी का झूला डला था। आसपास तरह- तरह के खिलौने टँगे थे। घर में पहले से ही दो पब्पस् पले थे। अब डॉ. काचरू ने बिल्लियाँ और खरगोश पाल लिये। कॉलेज से लौटते हुए एक दिन वे हाट से तोता और पिंजरा ले आयी। लवबर्ड्स का बड़ा-सा पिंजरा बाहर बनवा लिया था। जहाँ से बेबी को चिड़ियाँ दिखती थीं। बेबी के आसपास उन्होंने ऐसा संसार बसा दिया था जो उसे ख़ुश रख सके। जो उसे शेष दुनिया से जोड़ सके।

 


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