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कविता संग्रह >> अपने जैसा जीवन

अपने जैसा जीवन

सविता सिंह

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3810
आईएसबीएन :81-7119-631-4

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श्रेष्ठ कविता संग्रह

Apne Jaisa Jivan - A hindi Book by Savita Singh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपने तरह का जीवन एक नयी तरह की कविता के जन्म की सूचना देता है। यह ऐसी कविता है जो मनुष्य के बाहरी और आंतरिक संसार की अज्ञात-अपरिचित मनोभूमियों तक पहुँचने का जोखिम उठाती है और अनुभव के ऐसे ब्योरे या संवेदना के ऐसे बिंब देख लेती है जिन्हें इससे पहले शायद बहुत कम पहचाना गया है। सविता सिंह ऐसे अनुभवों का पीछा करती हैं जो कम प्रत्यक्ष हैं, अनेक बार अदृश्य रहते हैं, कभी-कभी सिर्फ अपना अंधेरा फेकते हैं और ‘न कुछ’ जैसे लगते हैं। इस ‘न कुछ’ में से ‘बहुत कुछ’ रचती इस कविता के पीछे एक बौद्धिक तैयारी है लेकिन वह स्वतःस्फूर्त्त ढंग से व्यक्त होती है और पिकासो की एक प्रसिद्ध उक्ति की याद दिलाती है कि कला ‘खोजने’ से ज्यादा ‘पाने’ पर निर्भर है। प्रकृति के विलक्षण कार्यकलाप की तरह अनस्तित्व में अस्तित्व को संभव करने का एक सहज यत्न इन कविताओं का आधार है।
ऐसी कविता एक स्त्री ही शायद लिख सकती है। लेकिन सविता की कविताओं में प्रचलित ‘नारीवाद’ से अधिक प्रगतिशील अर्थों का वह ‘नारीत्व’ है जो दासता का घोर विरोधी है और स्त्री की मुक्ति का और भी गहरा पक्षधर है। इस संग्रह की अनेक कविताएँ स्त्री के ‘स्वायत्त’ और ‘पूर्णतया अपने’ संसार की मूल्य-चेतना को इस विश्वास के साथ अभिव्यक्ति करती हैं कि मुक्ति की पहचान का कोई अंत नहीं है। यह सिर्फ संयोग नहीं है की सविता की ज्यादातर कविताएँ स्त्रियों पर ही हैं और वे स्त्रियाँ जब देशी-विदेशी चरित्रों और नामों के रूप में आती हैं तब अपने दुख या विडंबना के जरिये अपनी मुक्ति की कोशिश को मूर्त कर रही होती हैं। उनका रुदन भी एकांतिक आत्मालाप की तरह शुरु होता हुआ सार्वजनिक वक्तव्य की शक्ल ले लेता है।
सविता सिंह लगातार स्मृति को कल्पना में और कल्पना को स्मृति में बदलती चलती हैं। यह आवाजाही उनके काव्य-विवेक की भी रचना करती है, जहां यथार्थ की पहचान और बौद्धिक समझ कविता को वायवीय और एकालापी होने से बचाती है। मानवीय संवेगों को बौद्धिक तर्क के संसार में पहचानने का यह उपक्रम सविता की रचनात्मकता का अपना विशिष्ट गुण है। इस आश्चर्यलोक में कविता बार-बार अपने में से प्रकट होती है, अपने भीतर से ही अपने को उपजाती रहती है और अपने को नया करती चलती है।

जब पत्ते झर रहे होते हैं

लगातार जब पत्ते झर रहे होते हैं।
बेआवाज़ एक चुप में
जब वीतराग-सा पुराना पेड़
पुराने क़िले की तरफ़ देखता है एकटक
बुढ़ाते वक़्त को बूढ़े पत्थरों में
चले जाते हैं एक-एक कर ढेर सारे शब्द
जो मेरे थे क्षण भर पहले
मुझसे निकलकर

ऐसे में क्या करती हो तुम
जब यह समझ चुकी हो
बहुत दूर तक सिर्फ़ अपनी आत्मा साथ रहती है
या अपने दुख
जब पत्ते झर रहे होते हैं एक कठोर निरंतरता में
जब प्रकृति उदास मुख लिये हवा-सी
बहती रहती है तुमसे लगकर
यों ही रखती अपना सिर तुम्हारे वक्ष पर
बटोरती तुम्हारे शब्द जो झर रहे थे तुमसे
बनाती उससे अपना संगीत

जब सब कुछ तुम्हार तुमसे निकल चुका हो
तुम्हारे रुदन के प्रकंपित एकांत में उतरने
कौन आता है उसे भरने
लीपने किसी नये क्षोभ से
जब पत्ते झर रहे होते हैं।
क्या कुछ झर रहा होता है तुम्हारा

परंपरा में

दूर तक सदियों से चली आ ही परंपरा में
उल्लास नहीं मेरे लिए
कविता नहीं
शब्द भले ही रोशनी के पर्याप्त रहो हों औरो के लिए
जिन्होंने नगर बसाये हों
युद्ध लड़े हों
शब्द लेकिन छिपकर
मेरी आँखों में धुँधलका ही बोते रहे हैं
और कविता रही है गुमसुम
अपनी परिचित असहायता में
छल-छद्म से बुने जा रहे शब्दों के तंत्र में
इस नगरों के साथ निर्मित की गयी एक स्त्री भी
जिसकी आत्मा बदल गयी उसकी देह में

दूर तक सदियों से चली आ रही परंपरा में
वह ऊँचे ललाट वाली विदुषी नहीं
जो पैदा करे स्पर्द्धा
वह रही सभ्यता के तल में दबी
मधुमक्खियों सरीखी बुनती छत्ता
समझती उनकी संगठन कला को
प्रतीक्षारत वह रही
कि अगली बार बननेवाले नगरों में
काम आयेगी यक़ीनन उसकी यह कला
शब्दों के षड्यंत्र तब होंगे उसकी विजय के लिए
बनेंगे नये नगर फिर दूसरे
युद्ध और शांति पर नये सिरे से
लिये जायेंगे फ़ैसले

मन ही नदी है

मन के पार
नहीं होती है कोई नाव
वह तो मन के भीतर ही होती है कहीं
कभी स्थिर
कभी हिचकोले खाती
जैसे कि वह पानी हो
न कि लकड़ी का कोई तख़्ता

मन के इस तरफ़ भी
नहीं होती कोई पृथ्वी
वह भी मन में ही होती है कहीं
चाँद-तारे उगाती
कभी बुझी-सी भी घुप्प अँधेरी

मन ही दरअसल नदी है
यदि नाव है कोई पानी
यही है वह अँधेरा
जिसमें है बुझी-सी पृथ्वी बैठी

दुख

क्या होता है दुख का भी कोई रंग
पीला उदास
थकी रात में जैसे थका चाँद
क्या दुख की होती है कोई गति
मद्धिम धीमी
जैसे रुकी हुई हवा बेमन चलती हो
क्या दुख सबके हिस्से मिलता है
माँ-बाप भाई-बहनों की तरह
क्या दुख किसी भी दिन आ सकता है
किसी के भी घर
जीवन की नींव में धँस जाने के लिए

या दुख सादा होता है
ढूँढता अपने ही रंग
कभी थके चाँद में
कभी बुझे मन में
कभी ख़ाली आँखों के बेरंग सपनों में
हममें तुममें

गति

हूँ ऐसी गति में
उद्धिग्न इतनी कि
तोड़ती हर उस डोर को जिससे हूँ बँधी
जगी कई रातों से
थकी
शताब्दियों से कई
जगी वैसे भी हूँ नींद में ही चलती फिर भी
रात की मुँडेर पर बैठी बड़ी चिड़िया को पकड़ने की चेष्टा करती

गिरने से बचने के यत्न में लगी
पग-पग पर समेटती रात के विस्तार को
गति में हूँ बढ़ती
उद्धग्नि इतनी कि समझती भी नहीं इसके ख़तरे

मैं तारों का एक घर
न जाने कितने तारे
मेरी आँखों में आ-आ कर धवस्त होते रहे हैं
उनकी तेज़ रोशनी
गहन ऊष्मा उनकी
आकर मेरी आँखों में बुझती रही हैं
और मैं इन तारों का
एक विशाल दीप्त घर बन गयी हूँ
जिसमें मनुष्यों की भांति ये मरने आते हैं

आज भी हर रात
एक तारा उतरता है मुझमें
हर रात उतरना ही प्रकाश मरता है
उतनी ही ऊष्मा चली जाती है कहीं

कोई हवा

कोई हवा मुझे भी ले चले अपनी रौ में
उन नदियों, पहाड़ों, जगंलों में
जहाँ दूसरे जीवों का जीना होता है
मुझे भी दिखाये कठिनतम
स्थितियों में भी कैसे
बचा रहता है जीवन

दस बजिया फूल की एक डाल कैसे
टूटकर जीवन नहीं खोती
ज़रा-सी मिट्टी से लगकर
कहीं पत्थरों में बनी संकरी फाँक में
वह जीने लगती है नया एक जीवन

कोई एक डाल किसी मज़बूत पेड़ की
तेज़ तूफ़ान में गिरकर भी बची रहती है
हल्की-सी अपने तने से यदि
वह है अब भी लगी

कोई हवा मुझे भी दिखाये कैसे
लाखों करोड़ों जीवाणु
कीड़े-मकोड़े बड़े-छोटे
जीते हैं प्रछन्न प्रबल अपने जीवन
कैसे उन्हें कोई पीड़ा नष्ट नहीं कर सकती
गुमराह नहीं कर सकता कोई भी सुख उन्हें
छीन नहीं सकता कोई उनसे उनका सच
रोक नहीं सकता उन्हें जाने से इस जीवन के आगे

समाप्त होती तितलियाँ
किस ओर से आने लगी हैं
इतनी सारी सुंदर रंग-बिंरगी
ढेर सारी तितलियाँ
झाड़ती पराग पंखों से
भरती वातावरण को ईश्वर के अपने रंग से
लहराती हल्की हवाओं संग
फ़ुर्ती से दिशा बदलती
किस ओर चली जा रही हैं
इतनी सारी तितलियाँ
बाहर की टह टह धूप का रंग बदलती
उतारती जेठ की गर्मी को दोपहर के कलेजे में

किस मोहजाल की तरफ़ बढ़ती जा रही हैं
किस आकाश के नीलेपन में होने शामिल
खोने समय की किस खाई में

पराग बरसाने वाली
प्रफुल्ल नाचती इतनी सारी तितलियाँ
इतनी ख़ुशी से कैसे उड़ती जा रही हैं समाप्त होने

संशय

कुछ भी हो सकता है आज
कोई आत्महत्या या मौत
कोई गिर सकता है अपनी ही साइकिल से
लिख सकता है ख़त आख़िरी
आज शाम से पहले ही आ सकती है रात
डराती-रिझाती
खोलती द्वार पश्चाताप और मोह का एक साथ
या गिर सकता है पुराना कोई पेड़
बिला वजह
पकड़ कर ले जा सकती है पुलिस
पड़ोस की नेक महिला को
धमका जा सकती हैं अपनी ही भूलें
ख़ुद को

अँधेरे मेरे हिस्से के
मन पर न लूँ कोई बोझ
संताप न भर दे इसके ख़ालीपन को
कोई छाये न इस पर घनी छाया बन
यह बना रहे मेरा
मेरे मुक्त रहने की संभावना-सा
मेरे ही संवाद से भरा
मेरे ही शब्दों पर निछावर

मन पर न करने दूँ राज
किसी देवता को
धर्म में नतमस्तक होने को तैयार
किसी सुख को जो हो दुख का ही पर्याय
मन पर न झेलूँ कोई वार
न रोऊँ अकेले किसी कोने में
निरीह न आँखें भरूँ करुणा के जल से
न डूबने दूँ पश्चात्ताप के पाताल में अपने को
सोचती हूँ इतना सोचने से
कटता जायेगा दिन और रात का निर्मम प्रहार मुझ पर
क्रमशः कम होते जायेंगे अँधेरे मेरे हिस्से के

मुक्ति

समय की ख़ाली आँखों में
तैरती शताब्दियाँ
और वह उनमें तैरती मटमैली छायाओं की तरह
रोज़ मुझसे पूछती
कैसे मुक्त होऊँ

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