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माटी

शैलेन्द्र सागर

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3817
आईएसबीएन :81-7119-560-1

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शैलेन्द्र सागर का यह तीसरा कहानी-संग्रह समय के अलक्षित किंतु असहनीय आतंक को अद्भुत रचनात्मक दक्षता के साथ अभिव्यक्त करता है...

Mati

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शैलेन्द्र सागर का यह तीसरा कहानी-संग्रह समय के अलक्षित किंतु असहनीय आतंक को अद्भुत रचनात्मक दक्षता के साथ अभिव्यक्त करता है। लेखक ने मानो यथार्थ की केंचुल उतार कर उसे और चमकदार बना दिया है। परिचित जीवन में अप्रत्याशित का अन्वेषण करते हुए शैलेन्द्र सागर ने संबंधों, आस्थाओं और मूल्यों के आत्मसंघर्ष को शब्दबद्ध किया है। समकालीन समाज का कलह और कोलाहल इन कहानियों में पार्श्व-संगीत की भाँति अनुभव किया जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि ये कहानियाँ जाने-अनजाने जीवन के शाश्वत प्रश्नों से टकराती हैं। कई बार चरित्रों के अंतर्द्वंद्व से छनती दार्शनिकता पाठक को मन के अगाध में उतरने का अवसर देती है। इसे कहानीकार का कौशल कहा जाएगा कि कथा-रस का पूर्ण परिपाक तथा प्रतिबद्ध रचनाकर्म का अनुशासन यहाँ संभव हुआ है।

मध्यवर्ग की विसंगतियाँ, राजनीति के दारुण सच, जीवन की अतृप्त कामनाएँ और रागरंजित संसार में रक्तरंजित संवेदनाएँ इन कहानियों की अंतर्वस्तु का हिस्सा हैं। शैलेन्द्र सागर ने शिल्प की प्रयोगधर्मिता के स्थान पर ‘निरायास विन्यास’ को अंगीकार किया है। यही ‘सहज शिल्प’ इन समस्त कहानियों का सौंदर्य है।
इसे उपलब्धि के रूप में स्वीकार किया जाएगा कि विमर्शों की उखाड़-पछाड़ के स्थान पर लेखक ने अनुपलब्ध होती आत्मीयता पर ध्यान केंद्रित किया है। ये कहानियाँ एक अर्थवान प्रतिवाद का पक्ष निर्मित करती हैं।

खून ! खून !!


जब उसकी आंखें खुली तो उसने अपने को नितांत अपरिचित अनजान स्थान पर पाया लेटे-लेटे सिर उठाकर उसने इधर-उधर नज़रें दौड़ाई। यह एक हॉलनुमा कमरा था। लंबा और बेढब...रेलगाड़ी के बंद डिब्बे जैसा। कमरे में एक बदरंग धुँधलका स्लेटी उजास दबोचे फैला था। घुटन-भरी बदबू भरी थी। बीच में एक दरवाजा और उसके ठीक सामने डेढ़-दो फिट चौड़ी, ऊँची एक खिड़की, बल्कि खिड़की क्या एक जंगला....माहौल की इस नीरवता को खर्राटों के विविध, बेहूदा और रागहीन स्वर बुरी तरह बेध रहे थे।

वह अभी भी उनींदा था। पूरे दिमाग में झनझनाहट हो रही थी। कानों में एक विचित्र सनसनी और दृष्टि में अजीब भोथरापन था......उसने अपनी पलकें झपकाईं। आँखों के ऊपर वजन चलने जैसी अनुभूति उसे हुई। ऐसा लगा, पलकों पर मांस की एक दूसरी परत चढ़ गई है। उसने आँखें जोर से मल डालीं....पर वह एहसास बरकरार रहा।
अपने को उन दस-बारह अपरिचित लोगों के बीच पाकर वह विस्मित तो था ही, भयभीत भी कम नहीं था.....उसने झटके के साथ उठना चाहा पर एक अजीब शक्तिहीनता ने उसे दबोच रखा था। धीरे-धीरे वह उठा और सहमें कदमों से दरवाजे की ओर बढ़ा...पैरों में मनों बोझ बँधा था। जमीन पर नजरें गड़ाए, धकधक करते हृदय से वह आदमी-दर-आदमी आगे बढ़ रहा था।

दरवाजा बाहर से बंद था। पता नहीं क्यों, देखकर उसे एक अप्रत्याशित भय से मुक्ति मिली। तब खिड़की के पास आकर उसने साँकल पर हाथ देखा। चारों ओर एक अजीव-सा ताना-बाना बुना था। पहले आँखों को यह एक भ्रम लगा.....उसने वहाँ हाथ फेरकर देखा। फिर झटके से खिड़की के पाटों को खोल दिया। ठंडी हवा का झोका अंदर तक सिहरन पैदा कर गया। एक अकथनीय आह्लाद कुछ पलों के लिए उस पर हावी हो गया। अंदर छाया भय और आतंर का कुहासा तनिक छँट गया....

खिड़की में सींखचे और जाली दोनों लगे थे। बाहर धुँधलाकर फैला था। थोड़ी दूर झाड़ियों की एक बाड़ थी और उसके पार एक साँवली, वीरान सड़क.....इससे अधिक कुछ और नहीं दीख रहा था। उसके मन में आया कि वह चीखकर पूछे कि वह कहाँ है। क्या वह अभी भी जेल में है ? किसी नई जेल में....? या....
सब गहरी नींद में डूबे थे। वह किसको उठाए और फिर उसका परिणाम....
एक अज्ञात भय ने उसे बुरी तरह जकड़ लिया। उसने खिड़की के पाट धीरे से बंद कर दिए और सहमा हुआ अपने स्थान पर आकर धम्म से पसर गया।

जेल से छूटने के लगभग एक घंटे पहले ही उसे नंबरदार से अपनी रिहाई की सूचना मिली थी। उसे अविश्वसनीय तो लगी ही, हास्यास्पद भी। जेल में लगभग दो माह में उसने इस तरह के मजाक खूब देखे-सुने थे। एकाएक चार बजे किसी से कहा जाता, ‘‘चल, तेरी रिहाई की इत्तला आई है। उठ....’’ मारे उत्साह और हर्षातिरेक के वह बाहर गेट तक आता और शर्म और खीझ से लौट जाता। उसे जैसे नए प्रलासियों के साथ अक्सर ऐसा विनोद किया जाता। दाखिले के दूसरे दिन, तीसरे दिन से ही ये किस्से शुरू हो जाते। हालाँकि उसके साथ कभी ऐसा नहीं हुआ। शायद सभी को उसका इतिहास, वर्तमान का पता चल गया था। सभी को पता था कि वह एकदम लावारिस और लादावा है। जब एक बार पकड़ा गया तो भला कौन छुड़ाएगा उसे। जमानत, जामिनदर शब्द उसने सुने तक नहीं थे, न ही उसको इसकी जरूरत महसूस होती। वह जेल में बडा निश्चिंत और सुखी अनुभव करता। थोड़ा-बहुत काम और दोनों वक्त की ईमानदारी की रोटी....

....रोटी, हाँ रोटी के लिए ही सारी जलालत देख, सुन और सहकर भी वह लगभग पाँच वर्ष रेहाना के कोठे पर बना रहा था। दो वक्त की रोटी और पाँच रुपये रोज की दिहाड़ी पर। मुश्किल से बारह का था वह कि माँ-बाप का साया ऐसा उठा कि दाने-दाने को मोहताज हो गया। बाप किराए का रिक्शा चलाता था। एक दुर्घटना में फौत हो गया और माँ..., उसका आज तक पता ही नहीं चला....तरह-तरह की अफवाहें फैली थीं। कोई कहता कि कहीं और चली गई है, तो कोई कहता कि अपने पुराने आशिक के साथ भाग गई है। तभी उसने अपनी माँ की बदचलनी के किस्से भी सुने थे। यह भी सुना था कि मुहल्लेवाले उसे भी माँ की नाजायज औलाद मानते हैं। उसे यह भी कहा गया है कि माँ किसी कोठे पर बैठ गई है।

अपनी माँ को ही ढ़ूँढ़ने वह निकला था। कहाँ-कहाँ भटकता रहा वह .....सबसे पूछता, ‘‘मेरी अम्मा का कोठा बता दो...’’ कुछ लोग हँसते तो कुछ तरस खाकर उसे दो-चार रुपये पकड़ा देते। आखिर कोई राहगीर उसे रेहाना के कोठे पर ले आया था। उम्र बीस-बाईस साल, साँवले तीखे नाक-नक्श और आँखों में एक अचूक चमक....रेहाना ने उसकी पूरी बात सुनी और तरस खा गई। लौंडा भला-सा लगा....रख लिया। खूब प्यार भी दिया और लताड़ भी...एकाध साल यों ही खिलाया। फिर काम समझाया....ग्राहकों को लाने और बदन दबाने का काम....पहला काम आसान नहीं था। समझने में पूरा साल लग गया। इस काम के लिए बड़ी पैनी और पारदर्शी नजर चाहिए थी। पैनी, आदमी की परख के लिए, और पारदर्शी जेब का जायजा लेने के लिए...

धीरे-धीरे वह समझने लगा कि वह कहाँ है, लोग वहाँ क्यों आते हैं। वहाँ आने-जाने वाले लोगों को वह बड़े गौर से देखता...इत्र से महकते, आँखों से धधकते और चाल से बहकते अंदाज उसे समझ में आने लगे थे। रेहाना तब खुश रहने लगी....कोई ठीक आसामी ले आता तो प्रसन्न होकर दस का नोट पकड़ा देती, ‘‘जा, कल फिल्म देख लीजियो...’’
बरस यों ही गुजर गए। वह भी जवान हो चला। अब वह रेहाना के बदन को दबाता तो अपने अंदर की झंकार उसे सुनाई पड़ती। हाथ घुटने पर आकर रुकने लगते। बेसुध रेहाना तब चीखती, ‘‘अबे हरामी, पिंडलियाँ तेरा बाप दबाएगा....?’’
जब उसके हाथ गोल, मुलायम जाँघों पर चलते तो एक उत्तेजना उसमें तरंगें भरने लगती.....वह सहसा और रोमांचित-सा कहीं खोया रहता। तभी पीठ खोलकर मालिश का क्रम चलता.....खुली, चौड़ी पीठ, पतली कमर और गदराए से दो मोटे, गोल नितंब....घुटनों तक खुले पैर.....इस मांसलता का असर उस नशे की तरह चढ़ने लगता....तब वह उठकर नीचे सीढियों पर बैठ जाता ....देर रात की वीरानी चारों ओर फैली रहती पर उसकी आँखों से नींद फुर्र हो जाती।
उस रात रेहाना ने अचानक करवट ले ली थी। वह बेसुध थी। उसके सामने उसकी भरी-पूरी छातियाँ थीं। उसके अंदर का ज्वालामुखी फटने को उद्यत हो चला। वह अपने को रोक नहीं सका। अपने दोनों हाथों से उसने उन्हें समेट लिया और फिर अपने होंठ उन पर लगा दिए।

तभी रेहाना की नींद खुल गई।
‘‘मादरचोद, तेरी यह हिम्मत....!’’ एक भरपूर झापड़ उसके गालों पर पड़ा, ‘‘हरामी, मेरी छातियाँ छूता है। ले देख....हिम्मत है तो हाथ लगा...’’
वह शेरनी की तरह उस पर झपटी और पागलों की तरह उस पर चढ़कर मारने लगी, ‘‘कुत्ते, हरामी....अपनी अम्मा की छातियाँ छुई हैं कभी या मेरी ही....देखूँ, कैसा जवान हुआ है तू....’’ रेहाना ने अपने हाथ उसके गुप्तांगों को दबोचने के लिए बढ़ाए। तब झटककर उसने अपने को मुक्त किया। सीढ़ियों से लुढ़कते नीचे आ गिरा....बुरी तरह घायल। रुकने, देखने का मौका मिला ही कहाँ था। सीधे स्टेशन की शरण ली उसने....
स्टेशन की बेंच पर पड़ा-पड़ा रात व दिन वह यों ही कराहता रहा। बदन पर जगह-जगह चोटें थीं। कुल्हड़ के टुकड़ों को लगा-लगाकर उसने बहते खून को सुखाया। जेब में पाँच रुपए पड़े थे। गहरे आघात ने उसकी भूख गायब कर दी थी। रात देर तक आँखों पर ही उतरती रही। सब कुछ इतनी तेजी से घटित हुआ था कि वह वास्तविक हादसा न लगकर मात्र एक दु:स्वप्न जैसा लग रहा था। रह-रहकर उसे अजीब-सी कोफ्त होती। अंदर की पीड़ा उस पर इस बुरी तरह हावी हुई कि वह अपनी चोटों और उनसे रिसते खून को बिलकुल भूल गया। पहली बार उसे यह अहसास हुआ कि मानसिक चोट शारीरिक चोट से कितनी अधिक गहरी और कष्टप्रद होती है।

अगली सुबह दोपहर के सफर तक वह भूख, क्षोभ, दर्द और अकेलेपन से कसमसाता रहा। पेट की कुलबुलाहट भी असहनीय हो चली थी। जेब में रखे पाँच रुपयों से उसने वह दिन और रात गुजार लिए। सुबह अठा तो जेब खाली और पेट उससे भी ज्यादा... उसने इधर-उधर नजरें दौड़ाईं और एक यात्री का जेब से बटुआ निकाल लिया। अगले दो-तीन दिन सुख से बीते। अब यह क्रम कई हफ्तों तक चलता रहा। जेब काटता, मिले रुपयों को खर्च करता और फिर ‘काम’ कर डालता।
पर एक दिन वह रँगे हाथों पकड़ा गया। जमकर धुनाई की गई उसकी। स्टेशन पर मौजूद सिपाही बीच में न पड़ते तो प्लेटफार्म ही उसके जीवन का आखिरी पड़ाव होता। थाने पर अलग मारकूट हुई। गिरोह, नेता के अटपटे सवाल पूछे गए। वह कुछ जानता, समझता तो बता पाता....पुलिस को उसके शातिर होने का शक बढ़ता गया और उसके अनुपात में उसकी पिटाई भी। आखिर जेल में आ गया वह। आरंभ में बड़ा आतंकित और क्षुब्ध अनुभव किया उसने, पर एक सप्ताह में ही उसने अपने को वहाँ का अभ्यस्त बना लिया। धीरे-धीरे अब उसे अच्छा लगने लगा। सभी का व्यवहार उसके प्रति अच्छा था। उसकी ड्यूटी जेलर के घरेलू कामकाज में लगा दी गई। जेलर तक उसको छुड़वाने की बात करते पर वह स्वयं मना कर देता, ‘‘बाहर कौन है मेरा जो दो वक्त की रोटी मुझे देगा।’’

और उस दिन जब उसकी जमानत की खबर आई तो सभी चकित थे, वह सबसे ज्यादा। जमानत कैसे, किसके द्वारा हुई, उसे आज तक पता नहीं चला।
जेल के बाहर भी उसे कोई नहीं मिला। खुली-खुली दुनिया में वह चकरा-सा गया। किंकर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा रहा, कहाँ जाए....? स्टेशन की वह दुनिया.....जेलर के वह शब्द याद आने लगे, ‘‘मंगल तुम अच्छे लड़के हो। मेहनत करो, जुर्म नहीं....कुछ भी कर सकते हो तुम.....रिक्शा चलाने से लेकर बोझा ढोने तक। मेहनत की रोटी बड़ी मीठी होती है। जब परेशान हो, मेरे पास चले आना। पर कैदी बनकर नहीं....’’
निरुद्देश्य-सा वह आगे चला गया। स्टेशन पर कुलीगिरी का विचार उसे आया किंतु वहाँ जाने का साहस नहीं हुआ। उसकी जेब में जेलर के दिए सौ रुपए थे। किराये पर रिक्शा लेकर चलाने का मन उसने बनाया। आखिर पिता का पुराना धंधा था। ‘‘कैसे खड़े हो....’’  अचानक किसी ने उससे पूछा।


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