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गंधर्व की पहचान

शकुन्तला दुबे

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3828
आईएसबीएन :81-214-0189-5

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सावित्री और सत्यवान के जीवन पर आधारित उपन्यास..

Ghandarva Ki Pahchan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते मेरी लेखनी ने इस उपन्यास में निरंतर प्रयत्न किया है कि वह किसी अमुक पात्र के प्रति पक्षपात न करे। यद्यपि एक महिला होने का नाते मुझे यह लिखने में यह संकोच नहीं है कि इस उपन्यास के नायक सत्यवान के व्यवहारों की सबसे बड़ी विडम्बना को सावित्री ने मानसिक रोगी बनकर भोगा, अन्य पात्रों ने कैसे भोगा और क्यों नहीं भोगा, इसका निर्णय पाठकगण उपन्यास को पढ़कर स्वयं करें। किन्तु इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक मनोचिकित्सक सावित्री के मनोरोग का कारण सत्यवान जनित मानसिक त्रासदी को नहीं मानेंगे।

यह सब जानकर भी मेरे इस उपन्यास के ताने-बाने में प्रेम संबंधों का तनाव प्रतिध्वनित है, मानो ऐसी स्थिति को तदनुभूति ने मेरे मन में आतंक जगाया है और सभ्य समाज में ऐसे व्यवहार को अवांछनीय और उसके आघात को दुष्परिणाम को कहने के लिए उद्वेलित किया। नायिका सावित्री की मूक वेदना को मुखरित करने के लिए मैंने निजी भावुकता और करुणा से उभरकर उसके व्यक्तित्व विकास को ऐसे ऊँचे आयाम पर पहुँचाया है जिसे मने विज्ञान में वियोजन-व्यष्टीयन (speartion-individuation) कहा जा सकता है, बहुधा इसे उदात्तिकरण (Sublimation) भी कहते हैं। किन्तु दर्द के लंबे सिलसिले की परिणति उदात्तीकरण बतलाकर मेरी संवेदना को ग्लोरीफाई (अत्यधिक श्लाषपूर्ण रूप वर्णन) करना, यह ध्येय नहीं है, न ही ऐसी विषम स्थिति से उभरने के लिए नारी स्वतंत्रता की समाज में गुहार लगाना। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में पाठकों के सह्रदयी और सहयोगी बनाकर उन्हें मानवीय संबंधों की सुखद एवं विषय परिस्थितियों से उपजे ‘व्यक्तित्व’ की मानों सही पहचान कराने के लिए, मुझे लगा कि साहित्य की शैली उपन्यास ही इसके लिए सही माध्यम रहेगा।

आशा है पाठकगण इस उपन्यास को पढ़ते समय चेतन और अचेतन मन की परतों को खोलकर पात्रों को समझने का भरसक प्रयत्न करेंगे, केवल कथावस्तु को जान लेने मात्र से अपनी जिज्ञासा समाप्त नहीं करेंगे। मनोविज्ञान की गहन गहराइयों में उतरने के लिए पाठक को तटस्थ होने और सतत संघृत अवधान (sustained free floating attention) की आवश्यकता पड़ती है। किन्तु इस उपन्यास को पढ़ लेने के पश्चात यदि पाठक अपने आसपास के समाज में ऐसे पात्रों के व्यक्तित्व से टकराकर उन्हें पहचान कर, सहज उपजी अपनी प्रतिशोध की भावना के आवेग में उन्हें झकझोर (Confront) कर बेनकाब (Unmask) कर देना उचित समझते हों तो उनसे मेरा सविनय निवेदन है कि अधकच्चा मनोविज्ञान कहलाएगा। ‘व्यक्तित्व’ के विकास में एक साथ बड़ी विरोधी प्रेरणाएँ निरंतर सक्रिय रहती हैं, इन्हीं अंतर्विरोधी प्रवृत्तियों से हमारा मन चेतन और अचेतन की परतों में बंट जाता है। मनुष्य केवल परिस्थितियों का दास बन जाता है। जो उसे मानवीय गुणों से अधिक पशुवत् व्यवहार करने के लिए उद्वेलित करता रहता है।

प्रस्तावना


गंधर्वों का कामातुर आकर्षण सुंदर कन्या और तरूणियों पर ही होता है। शायद आप भी जानते होंगे। भोले ग्रामवासी तो अपनी सयानी लड़की के विवाह में तनिक भी देरी नहीं करते, क्योंकि लोकमान्यता है कि गंधर्व का आवेष पजेश़न (Possession)  हो जाने पर उस कन्या का झाड़-फूंक द्वारा उपचार करवाना पड़ता है। संस्कृत की एक पुरानी कहावत है-‘योषित् कामा वै गंधर्वाः’। अस्तु भारतीय जनमानस इस लोकमान्यता से कब तक त्रसित रहेगा। मनोविश्लेषण की चिकित्सा द्वारा व्यक्तित्व के उपचार का सतत अनेक गत वर्षों से मेरा व्यवसाय रहा है। इस व्यवसाय में जुड़े लोगों को पाश्चात्य एवं साहित्य में साइकोएनालिटिक साइकोथेरापिस्ट (Psychoanalytic Psychotherapist)  के नाम से जाना जाता है। इस उपचार को आर्थिक  अभाव के कारण अमेरिका जैसे संपन्न देश में साधारण लोगों के लिए करवाना संभव नहीं हो पाता। सौभाग्यवश मुझे इस उच्चस्तरीय प्रशिक्षण के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (ए.आई.आई.एम.एस.,नयी दिल्ली) द्वारा सन् 1969-71 फुलब्राइट फेलोशिप (Fulbright Fellow-Ship) के अंतर्गत न्यूयार्क शहर के एक प्रख्यात संस्थान में भेजा गया और मुझे इस प्रशिक्षण पर आधारित चिकित्सा प्रणाली को मुक्त रूप से (बिना फीस लिए) उपचार करने एवं अपने शोधकार्य को अनेक वैज्ञानिक लेखों और अन्य पुस्तकों में प्रस्तुत करने के लिए प्रोत्साहन मिलता रहा है। संस्थान में सन् 1995 में अवकाश प्राप्त करने के बाद भी मैं इस व्यवसाय में ‘मनोबल स्टडी’ नामक एक गै़र-सरकारी संस्था में सक्रिय हूं।

साहित्य चर्चा में स्वर्गीय जैनेन्द्र जी से मैंने घंटों उनके स्त्री-पुरूष के संबंधों का मनोवैज्ञानिक लेखा-जोखा किया किंतु यह वैज्ञानिक चिंतन अब तक आधा-अधूरा रहा है। कथाचित् इसलिए मेरी लेखनी चल पड़ी सत्वान-सावित्री की एक पौराणिक कथा का चोला पहनाकर आधुनिक सत्यवान-सावित्री की इस त्रिकोणी ट्रेजडी को उजागर करने। इस उपन्यास के पाठकगण, आप अपनी अपनी दृष्टि, संवेदना, परिवेश की सीमा और मान्यताओं के अनुसार इन काल्पनिक पात्रों के मनोविज्ञान को समझने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन स्मरण रहे कि एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते मेरी लेखनी ने इस उपन्यास में निरंतर प्रयत्न किया है कि वह किसी अमुक पात्र के प्रति पक्षपात न करे। यद्यपि एक महिला होने के नाते मुझे यह लिखने में संकोच नहीं है कि इस उपन्यास के नायक सत्यवान के व्यवहार की सबसे बड़ी विडंबना को सावित्री ने मानसिक रोगी बन कर भोगा, अन्य पात्रों ने कैसे भोगा और क्यों नहीं भोगा, इसका निर्णय पाठकगण उपन्यास को पढ़कर स्वयं करें। किंतु इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक मनोचिकित्सक सावित्री के मनोरोग का कारण सत्यवान जनित मानसिक त्रासदी को नहीं मानेंगे। यह सब जानकर भी मेरे इस उपन्यास के ताने-बाने में प्रेम संबंधों का तनाव प्रतिध्वनित है, मानो ऐसी स्थित की तदनुभूति ने मेरे मन में आतंक जगाया है और सभ्य समाज में ऐसे व्यवहार को अवांछनीय और उसके आघात के दुष्परिणाम को कहने के लिए उद्वेलित किया।

नायिका सावित्री की मूक वेदना को मुखरित करने के, लिए मैंने निजी भावुकता और करूणा से उभर कर उसके व्यक्तित्व विकास को ऐसे ऊंचे आयाम पर पहुँचाया है जिसे मनोविज्ञान में वियोजय-व्यष्टीयन (Speration-Individuation) कहा जा सकता है, बहुधा इसे उदात्तीकरण (Sublimation)  भी कहते हैं। किंतु दर्द के लंबे सिलसिले की परिणति उदात्तीकरण बतला कर मेरी संवेदना को ग्लोरिफा़ई (अत्यधिक श्लाषापूर्ण रूप वर्णन) करना, यह ध्येय नहीं है, ना ही ऐसी विषम स्थिति से उभरने के लिए नारी स्वतंत्रता की समाज में गुहार लगाना। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में पाठकों को सहृदयी और सहयोगी बना कर उन्हें मानवीय संबंधों की सुखद एवं विषम परिस्थितियों से उपजे ‘व्यक्तित्व’ की मानो सही पहचान करवाने के लिए, मुझे लगा कि साहित्य की शैली-उपन्यास ही इसके लिए सही माध्यम रहेगा। आशा है पाठकगण इस उपन्यास को पढ़ते समय चेतन और अवचेतन मन की परतों को खोल कर पात्रों को समझने का भरसक प्रयत्न करेंगे, केवल कथा वस्तु को जान लेने मात्र से अपनी जिज्ञासा समाप्त नहीं करेंगे। मनोविज्ञान की गहन गहराइयों में उतरने के लिए पाठकों को तटस्थ होने और सतत संघृत अवधान (Sustained free floating attention)  आवश्यकता पड़ती है। किंतु इस उपन्यास को पढ़ लेने के पश्चात् यदि पाठक अपने आसपास के समाज में ऐसे पात्रों के व्यक्तित्व से टकरा कर उन्हें पहचान कर, सहज उपजी अपनी प्रतिशोध की भावना के आवेग में उन्हें झकझोर (Confront) कर बेनकाब (Unmask) कर देना उचित समझते हों तो उनसे मेरा सविनय निवेदन है कि यह अधकच्चा मनोविज्ञान कहलायेगा। ‘व्यक्तित्व’ के विकास में एक साथ बड़ी विरोधी प्रेरणाएं निरंतर सक्रिय रहती हैं, इन्हीं अंतर्विरोधी प्रवृत्तियों से हमारा मन चेतन और अवचेतन की परतों में बंट जाता है। मनुष्य केवल परिस्थितियों का दास बन जाता है जो उसे मानवीय गुणों से अधिक पशुवत् व्यवहार करने के लिए उद्वेलित करता रहता है।

------एक----


यह प्रेम संवाद किसी गहन जंगल में एक सावित्री ने सत्यवान को देख एकाएक किसी अलौकिक प्रेरणा से ओत-प्रोत हो कर नहीं किया, यह तो महानगरी के एक संभ्रांत बस्ती के बीचोंबीच की दुर्घटना है। दो आहत हुए स्त्री-पुरूष एक तनावपूर्ण जीवन घटनाचक्र में कई वर्षों से प्रभावित होते गये, उन दोनों में लंबे समय तक प्रेम-प्रसंग चलता रहा, किंतु इनका मिलन-बिछोह एक ऐसे बिंदु पर आ पहुंचा जहां पहुंच कर उनकी शारीरिक आवश्कताएं सामाजिक मान्यता के लिए छटपटाने लगीं।

मानव समाज की संरचना में गृहस्थ जीवन का अपना स्थान है क्योंकि दांपत्य बंधन का समाजीकरण शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति और अभिव्यक्ति सहज कर देता है, जैसे घर में हवा, पानी, भोजन आदि सब कुछ सहज उपलब्ध हो जाता है। जब कभी शारीरिक भूख असहनीय मनुष्य को विचलित कर बाध्य कर देती है कि वह उस क्षुधा को तुरंत शांत करे, विशेषकर प्रेम की विफलता की स्मृतियों के कारण जो तनाव अवचेतन में बना रहता है, समय की तेज़ रफ्तार में धूमिल पड़ जाने के बजाय वे स्मृतियां, पैनी हो कर रात्रि के सघन अंधकार में विचारों का ताना-बाना बना कुछ ऐसा रौद्र रूप धारण कर लेती हैं कि विरहाकुल व्यक्ति सो नहीं पाता। ऐसी त्रासदी की क्या मानसिक परिणति होती है, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। इस कथा की नायिका सावित्री ने अपने को ऐसे तनाव से मुक्त होने के लिए अपने प्रेमी सत्यवान का एकाएक शपथपूर्वक परित्याग किया। यह जानकर आप विचलित न हों, इस कथानक को जान लेने से आपका सावित्री के इस भावनात्मक आत्मदाह के प्रति संवेदनशील हो उठना स्वाभाविक है।

माना प्रेम का संवेग आदिकाल से स्त्री-पुरूष में अद्भुत संचारी भाव पैदा करता आया है, किंतु विरले प्रेमी इस आकर्षण में आ जाने के बाद अपनी भूख, प्यास, नींद आदि खो देते हैं। बहुधा प्रेमीजन अपने जीने की इच्छा को नहीं खोते हैं, परिणामतः उसने हमारी नायिका सावित्री को नष्ट करके रख दिया।

पौराणिक कथा की नायिका सावित्री ने यमराज से अपने सत्यवान को जीवित करने के वाकयुद्ध में अपने जीने की इच्छा को नहीं खोया था, उसने तो अनेक पुत्रों की मां बनने का वरदान यमराज से मांगा था। लेकिन इस उपन्यास की नायिका सावित्री पढ़ी-लिखी अति आधुनिक होते हुए भी, प्रेम के संचारी भंवर में फंस कर सत्यवान को अपनी कल्पना के ताने-बाने में संजो, जन्म-जन्मांतर तक उसे अपना पति मान बैठी। अतएव उसकी चरमनिष्ठा और अटल विश्वास के कारण उसे इस उपन्यास की नायिका होने का गौरव प्रदान किया जा रहा है।

आधुनिक भारतीय जनमानस में बसी सावित्री- सत्यवान की कथा का बड़ा महत्त्व है, क्योंकि उसे भारतीय नारी की अस्मिता से जोड़ दिया गया है। नायिका सावित्री को इस आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत करने के पश्चात पाठकगण को बतलाना आवशयक हो गया है कि जब सावित्री ने सत्यवान से शपथपूर्वक परित्याग ले लिया तब उसे सती-सावित्री का गौरव कैसे प्रदान किया जा सकता है ? इस उपन्यास की अंतिम जीवन घटना को पाठकगण के समक्ष पहले से प्रस्तुत करने का लक्ष्य उन्हें समय-काल आदि की सीमा को लांघ कर नायिका सावित्री के पूर्ण विश्वास से जोड़ देना है, क्योंकि हमारी सावित्री का पौराणिक कथा की नायिका जैसा ही पूर्ण विश्वास है कि उसका सत्यवान उस संसार में जहाँ भी होगा केवल वह उसका ही प्रेमी है। इस जन्म में क्या (हो सकता है कि सत्यवान आजकल इस संसार में नहीं है, परलोक में हो) अनेक जन्मों से वह उसका पति है इसलिए सावित्री को देखते ही सत्यवान विवाहित होते हुए भी मोहित हो उठा। यह अलौकिक शक्ति की प्रेरणा है जिसके वरदानस्वरूप जन्म-जन्मांतर तक उनका मिलन-बिछोह होता रहेगा।

पाठकगण इसे नियति का कठोर नियम मान करके न चलें। कथा विस्तार से जान लेने की जिज्ञासा मात्र से इस उपन्यास को उलटा (अप साइट डाउन) करके क्या इसका विश्लेषण किया जा सकता है कि सावित्री ने क्यों, कब और कैसे सत्यवान का परित्याग कर अपना आत्मदाह किया ? संसार में हमारा ज्ञानबोध इस पर निर्धारित रहता है कि हमारी आंखें तसवीर के किस कोण पर टिकी हुई हैं और किसे उसका बाहरी दायरा समझ बैठी हैं। अकसर हमारी दृष्टि इन्हीं नये-नये आयामों को खोज कर देखने में भ्रमित हो जाती है। इस उपन्यास की नायिका सावित्री, जो प्रेमी सत्यवान की परम प्रिया आह्लादिनी शक्तिरूपा, सहचरी रही थी, परित्याग के दृढ़ निश्चय के बाद परित्यक्ता, मायावी आदि का चोला पहन नायक के पास खड़ी हो अपने परित्याग के अभिनय में सफल हो जाती है। सत्यवान से बिदा ले लेने के बाद वह फिर खंडिता नायिका रात्रि के सघन अंधकार में आशाद्वीप जलाये प्रतीक्षा में बैठी रहती है कि शायद उसे खोजते हुए उसके जन्मांतर का पति वापस आ जाये। दोनों के इस प्रणय में परस्पर विश्वास की एक सी लगन होती तो अवश्य ही हमारे नायिका-नायक का मिलन संभव था, लेकिन इस कथानक के नायक सत्यवान का प्रेम क्षणिक आवेश में एक विवाहित कामुक पुरुष का कुछ काल तक दुर्व्यसनवश पथभ्रष्ट हो जाना मात्र था। उसने सावित्री से परित्यक्त हो कर यह जानने की कोशिश ही नहीं की कि क्यों उसकी सावित्री एकाएक शपथ ले कर उसका परित्याग कर बैठी ? सत्यवान इस निश्चय को सुन कर अवश्य दुखी और अवाक् हुआ था।

अपने समस्त पुरुषत्व के बल से प्रहार करते हुए बोल उठा था, ‘‘अब तुम्हें अपने जीवन में मेरी कोई आवश्यकता नहीं रही है। कितने सालों से मैंने प्यार किया है। अपनी पत्नी को छो़ड़कर तुम्हें प्रेम दिया, केवल इसीलिए तुम्हारे पास पागलों की तरह भाग कर आता रहा हूँ। तुमने मुझे मन-प्राण से अपना सब कुछ माना, मुझे अपना शरीर सौंप दिया, फिर अपनी निजी ज़रूरतों को पूरा करने के बाद आज मुझे छोड़ कर क्यों जा रही हो ?’’

‘‘बस, चुप रहिए, आपकी समझ में मेरा समर्पण केवल निजी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए था,’’ कह कर सावित्री का गला भर आया। नारी हृदय की कोमल भावनाओं पर आघात लग जाने के कारण सावित्री कुछ कहने-सुनने में असमर्थ थी। सत्यवान ने आगे बढ़ कर सावित्री के निढाल शरीर को अपने प्रेमपाश में बाँध लेने का दुस्साहस किया किंतु दर्पित सिंहनी की तरह सावित्री ने अपने शरीर को बंधन मुक्त करके कहा, ‘‘मुझे छूने का प्रयत्न न करें। आपकी समझ में हमारा पवित्र संबंध केवल शारीरिक भूख मात्र था जिसे आप... लेकिन अब आपकी समझ में जो आये, उसे मान कर चलें, यही कटु बातें हम दोनों को सदैव के लिए अलग हो जाने की प्रेरणा दे सकेंगी। आपके ये शब्द मेरे कानों में गूँज गूँज कर हमारे भावनात्मक बंधन को जला कर रख देंगे।’’

‘‘लेकिन तुम्हारे एकाएक इस कठोर निर्णय से मुझे चोट लगी है। क्या यह मृत्यु के समान मेरे लिए असहनीय वेदना नहीं है ?’’ सत्यवान ने खीजकर पूछा।
‘‘मृत्यु आ जाने पर सारा परिवार एकजुट होकर रोता है, सब रिश्तेदार, मित्र शोक मनाते हैं, किंतु संबंध विच्छेद पर आंसू बहाने वाला यहाँ कोई नहीं है। आपके मन में मेरे प्रति जो घृणा, क्रोध, अवहेलना उपज आयी, उस अन्याय की सुनवाई किस न्यायालय में की जा सकती है ? संसार के किसी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती है,’’ कह कर सावित्री कुछ देर के लिए ठगी, मौन सत्यवान की आँखों में भरी घृणा को आत्मसात् करती रही। मन ग्लानि से भर उठा। जो बात अपने अंतःकरण को छू जाती है, उसे मुंह से कहने की क्या ज़रूरत थी ?

सत्यवान को यह मौन असहनीय लगने लगा। उसने सावित्री के हाथ को अपने हाथों में बांध लेने की पुनः कोशिश की। सावित्री की चेतना उस स्पर्श से हिल गयी, अपनी नयी स्वतंत्रता व्यवहार में लाने के प्रयास में वह बोल उठी, ‘‘आपके लिए कुछ करना जीवन में कभी असंभव नहीं रहा है, किंतु मेरा यह निश्चय मृत्यु के समान है। एक बार अचानक आ जाने पर जिसे टाला नहीं जा सकता।’’

‘‘यह मृत्यु तो हार्ट अटैक (हृदय आघात) सी है, जीवित शरीर पर मानो बिजली एकाएक कड़क कर गिर पड़ी हो,’’ सत्यवान ने क्रोधित हो कर सावित्री को ललकारते हुए पूछा, ‘‘मुझसे प्रेम का नाटक क्यों किया था ?’’
सावित्री ने धीरज से कहा, ‘‘यदि मुझे किसी न्यायालय में जा कर अपने लिए न्याय मिलने की आशा होती तो मैं कदापि इस निर्णय को न लेती। प्रेम तो मैंने पूर्वजन्म के बंधनवश किया किंतु आपसे विवाह न करने का निर्णय...

सत्यवान ने वाक्य को पूरा होने से पहले टोक कर सुझाव दिया, ‘‘तो क्यों न तुम किसी न्यायालय की खोज करो ? मैं तुम्हें पूरे विश्वास से कह सकता हूँ कि न्याय अवश्य मिलता है। मैं हाई कोर्ट से अपना केस हार चुका था, बिलकुल निराश हो गया था, लेकिन मुझे सुप्रीम कोर्ट में केस दाख़िल करने का परिवार के लोगों का सुझाव मानना पड़ा। मेरी पत्नी और उसके मायके वालों का यह चमत्कार था, कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट में जा कर जीत अवश्य होती है,’’ कह कर सत्यवान शून्य में ताकने लगा, जैसे किसी गंभीर समस्या के समाधान की सोच में फंस गया हो !

मेरा केस बहुत जटिल है। मुझे पता नहीं है, किस न्यायालय में जाकर अर्जी दूँ, कौन वकील मेरा केस ले सकेगा, फिर इतने समय तक इस अन्याय के प्रति मैंने उत्कंठा तक नहीं की है। मैं अपने जीवन के सांध्यकाल में न्याय की अपील (प्रार्थना) करने का साहस कैसे जुटा सकती हूँ ? मुझे तो आपसे कुछ कहना-सुनना नहीं है, आपके दुर्व्यवहार की निंदा सुनना मेरे लिए असहनीय है, आप पर दोषारोपण करने से मुझमें स्वयं अपराध भावना जाग्रत हो आयी है। जैसे सुतली की रस्सी में कहीं बट लग जाने पर वह कट कर रह जाती है, ऐसे अपराधबोध के साथ किसी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकती। यदि मैंने यह निर्णय पहले ले लिया होता तो इतने सालों तक मुझे मानसिक त्रासदी की घुटन से कब का छुटकारा मिल गया होता,’’ यह कह कर सावित्री  मौन हो गयी।

सत्यवान उसकी अंतरतम की पीड़ा को देख भावुक हो बोल उठा, ‘‘अरे, तुम तो सावित्री हो, यमराज को भी बाध्य कर सकने में सशक्त, आज क्यों एकाएक इतनी टूट गयी हो ?’’ कुछ देर चुप रहकर पुनः बोला,. ‘‘मेरा दोष क्या है ? मैंने अपनी पत्नी को तन दिया, तुम्हें मन दिया है। इस तरह से इतने सालों तक समझौते करने में मैंने कितनी बार अपनी पत्नी से झूठ बोलने के लिए क्षमा भी माँगी है। मैं अपने भयंकर अपराधों के लिए क्षमा याचना करने में अभ्यस्त हो गया हूं, तुम्हारे लिए न्यायाधीश के पास जा कर...’’

सावित्री ने बीच में टोक दिया, ‘‘केवल मेरा भगवान ही साक्षी है और वही है मेरा न्यायाधीश। आपका दोष इतना है कि आपने पति की मर्यादा का निर्वाह कभी नहीं किया है, न अपनी विवाहित पत्नी उमा के  साथ जिसे आप सदैव प्रियतमा की पदवी देते रहे हैं। आपके लिए नारी भोग्यामात्र है। काश, मैं सती सावित्री होती और आपको सत्यवान सा निष्ठावान पति बना कर इसी जन्म में अंगीकार कर पाती ! मैं तो आपसे विलग हो पल भर के विरह को सहन नहीं कर पाती, बिछुड़ कर मानसिक रोगी बन जाती हूँ किंतु आपके आचरण में इस तनाव का कोई भी असर नहीं दिखलायी पड़ता। जैसा उत्तरदायित्वहीन आचरण आपका मेरे प्रति रहा है...’’ कहते हुए सावित्री रो पड़ी।

‘‘मुझे दंड दो न ! मैं कब कहता हूं, मैंने कोई अपराध नहीं किया है ? विवाहित हो कर तुमसे प्रेम करना अपराध है, मैं तुम्हारा दोषी हूं, किंतु तुम्हारा भी इसमें योगदान रहा है। इसलिए कहता हूं, इतने सालों बाद अविभाज्य अंग आज काट करके क्यों अलग छोड़ा जा रहा है ? मैंने अपनी पत्नी को वह स्थान नहीं दिया है जिसे मैंने तुम्हारे लिए सदैव सुरक्षित रखा है और अब वह स्थान जन्म-जन्मांतर  तक केवल तुम्हारे लिए सुरक्षित रहेगा। अब इस तरह से छोड़ देने का तुम्हारा यह निर्णय मुझ पर लागू नहीं हो सकता,’’ कह कर सत्यवान ने आगे बढ़ कर सावित्री का हाथ कस कर पकड़ लिया।
इस स्पर्श में अद्भुत चुंबकीय शक्ति थी। सावित्री काँप उठी। क्षण मात्र के लिए उसे ऐसा लगा, जैसे सत्यवान से अंतिम विदा लेने का निश्चय केवल उसके अहं का दंभ मात्र था। शायद इतने सालों से विरह में जलते रहने के कारण वह कठोरहृदया हो गयी और मानसिक रूप से थक कर चकनाचूर हो वह संबंध विच्छेद का आज प्रस्ताव कर बैठी है। दूसरे ही क्षण उसके मस्तिष्क में वास्तविकता (रियलिटी) के विचार कौंध गये। वह सत्यवान से इस जन्म में कदापि नहीं मिल सकेगी। वह इतने साल प्रेम में तप कर भी सत्यवान को अंतरतम में अपने पास नहीं बिठा सकी है। उसके लिए इस जन्म में चिरविरही रहने की नियति सुनिश्चित है। पत्नी और प्रेयसी में से किसके पास सत्यवान तन और मन से सुखी रह सकेगा, आज इसका निर्णय स्वयं उसे करना होगा, उसी को कठोर हो कर इस मोहपाश को सदैव के लिए तोड़ना होगा। सहसा सावित्री की विचार श्रंखला टूट पड़ी, मानो जलती पृथ्वी पर वर्षा की नन्ही बूंदें बरस कर उमस को अत्यधिक असहनीय बना गयी हों।

सत्यवान के ये कठोर शब्द उसके कानों में गूंज उठे, ‘‘मेरी भावना से खिलवाड़ करने का तुम्हें क्या अधिकार था ? तुम्हारा निश्चय सुन कर मुझे लग रहा है जैसे तुमने आम चूस कर उसकी गुठली को निकाल कर फेंक दिया हो। मैं यह अवहेलना किसी की सहन नहीं कर सकता,’’ कह कर सत्यवान ने अपने समस्त प्रेम को भस्मीभूत कर देने के लिए सावित्री की भर्त्सना करते रहने की अपेक्षा वहाँ से चला जाना उचित समझा। उसे पीछे मुड़ कर सावित्री पर उसके इन कठोर शब्दों की क्या प्रतिक्रिया हुई, इसकी जिज्ञासा न थी।

लेकिन यदि पाठकगण जिज्ञासु हो उठे हो तो इस अनन्य (यूनिक) चिरबिदा को समझने के लिए उन्हें धैर्यपूर्वक इस कथानक के इन पात्रों के चरित्र निर्माण के ताने-बाने का अवलोकन करना होगा। यह कथन कि स्त्री प्रौढ़ा होने तक समझ नहीं पाती कि कैसे व्यक्ति से प्रेम करना चाहिए, शायद इसी कारणवश इस उपन्यास की नायिका सावित्री जीवन भर मानसिक त्रासदी का कष्ट उठाती रही, जब तक कि उसका अंतःकरण हिल नहीं गया। अपने प्रिय सत्यवान के चरित्र की मनोवैज्ञानिक खोज उसने नहीं की, उसे बुद्धि से तौल कर कभी नहीं परखा।
इस उपन्यास में सत्यवान बीसवीं सदी के अंतिम दशक के सुविख्यात वैज्ञानिक के रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित किया गया है किंतु उसकी परिकल्पना कोरी काल्पनिक न समझी जाए क्योकि

 ऐसा पुरूष हमारे आधुनिक संभ्रांत समाज में संभवतः किसी भी वर्ग में पाया जा सकता है। इस नायक की शिक्षा उच्चकोटि के विश्वविद्यालय में अवश्य हुई किंतु उसकी शिक्षा का ध्येय चरित्र निर्माण करना शायद नहीं था, क्योंकि सत्यवान का परम लक्ष्य सदैव ढेर सारी डिग्रियां बटोरना मात्र रहा है। मध्यवर्ग में जन्मा होने के कारण उच्च शिक्षा की डिग्रियां बटोर कर बड़ी से बड़ी नौकरी प्राप्त करने की लगन उसमें वैसी थी जैसी एक लोभी व्यापारी में धन कमाने की लालसा, जो उसे जीवनपर्यंत असुरक्षित रखती है। बाल्यकाल से विलक्षण बुद्धि होने के कारण केवल वह मेधावी छात्र बनता गया। उसके परिवार ने भी शिक्षा के लिए अपनी हैसियत से अधिक धन लगा कर उसे अच्छे से अच्छे मास्टरों से ट्यूशन दिलवायी। खान-पान, खेल-कूद आदि सब पर शुरू से अत्यधिक नियंत्रण रखा गया। सबसे छोटी अंतिम संतान होने के कारण प्यार से उसे ‘नन्हें’ कहकर सदैव दुलराया। माँ-बाप ने बाल्यकाल से ही जीनियस (असाधारण मेधा) के रूप में बड़ी सावधानी से उसका पालन-पोषण किया, जैसे उनका वह एक अरबी घोड़ा हो, जिसे अच्छी तरह से खिलाना-पिलाना, घंटों दौड़ाना और मालिश करके तैयारी के साथ रेस में दौड़ा कर ट्रॉफी (पारितोषिक) हासिल कर, पैसे कमाना उसके जीवन का मिशन (ध्येय) हो ! उनके मिशन में सत्यवान ने हर रेस में दौड़ कर सफलता की ख्याति पाई और एक दिन वह केवल होनहार विद्यार्थी ही नहीं साबित हुआ, उसे जीवन के हर क्षेत्र में प्रथम होने की जीत मिलती गयी। विश्वविद्यालय से निकलते ही उसे स्थानीय डिग्री कॉलेज में लेक्चररशिप (प्राध्यापक) मिल गयी। उस सहज उपलब्धि ने मानो उसे सफलता के झूले पर बिठा दिया हो, एक पैग लगाते ही वह दूसरा पैग लगा कर हवा से बातें करने लगता।

एक ख्यातिप्राप्त स्थानीय कॉलेज में नौकरी मिलते ही उसने कई जगह अपनी अर्जी भेजना शुरू कर दिया। फिर जहां भी अर्जी भेजी, वहीं से साक्षात्कार का बुलावा आया और उन सबमें उसे आशातीत सफलता मिलती गयी। स्थानीय कॉलेज की नौकरी छोड़ कर वह अपने प्रांत के विशिष्ट वैज्ञानिक संस्थान में लेक्चरर (प्राध्यापक) हो गया, जहाँ से उसे विदेश जाने का जल्दी ही सुनहरा मौका़ मिला। वह स्कॉलरशिप (छात्रवृत्ति) काफ़ी महीनों तक उसे अपने माँ-बाप के घर को छोड़ कर विदेश में कार्यरत रहने के लिए दिया गया था। सत्यवान माँ से अत्यधिक जुड़ा हुआ था। माँ को छोड़कर विदेश में अकेले रहना उसके लिए असंभव था। वह अपनी प्यारी माँ की गोद में लेट कर अपनी दिन भर की दिनचर्या सुनाने का आदी था और माँ भी उसकी शेखी भरी बातों को सुन कर खु़शी से फूली नहीं समाती थी। युवा सत्यवान के जीवन में रोज़मर्रा ही कोई न कोई सफलता मिल जाती जिसे बढ़ा-चढ़ा कर अपनी माँ को सुनाता और माँ उसकी आँखों में झाँक कर उसके सुनहरे भविष्य के सपने पिरोने लगती और अनेक आशीष दे कर उसकी झोली में ढेर सा आत्मविश्वास डाल देती। सत्यवान की माँ ने सदैव उसे विशिष्ट बालक, जिसे मनोवैज्ञानिक मेधावी बालक, (गिफिटेड) कहते हैं, के रूप में देखा। अपनी माँ की आँख की पुतली होने के कारण सत्यवान जो भी चाहता, उसकी माँ पूरे मनोयोग से उसे पूरा करना अपना परम कर्तव्य समझती। खाने-पीने में उसे घर के अन्य सदस्यों से अच्छा भोजन प्राप्त होता था। इसके अतिरिक्त वह रोज़ रात को एक गिलास भर करके दूध पीता जो नित्य उसकी माँ बड़े मनुहार से उसके सोने से पहले पिलाने आती।

माँ के लाड़-प्यार में पले सत्यवान ने केवल अपने को ही प्यार किया और अपने बड़े भाई-बहनों तक को अपनी अकड़ के सामने बौना समझा। किशोरावस्था से ही वह अपना चेहरा शीशे में देख देख मुग्ध हो जाता और घंटों नहाने-धोने और सजने-संवरने में अपना अमूल्य समय लगा देता था। कभी कभी उसको लेकर माँ-बाप में कहा-सुनी होती। पिता को लगता, माँ के अधिक लाड़-प्यार ने सत्यवान को बिगाड़ कर रख दिया है लेकिन पढ़ाई में अच्छा होने के कारण पिता की डांट-फटकार का असर सत्यवान पर नहीं होता। फिर वह इसके अतिरिक्त कोई व्यसन भी नहीं करता था, अन्य हमउम्र के लड़कों की तरह उसने कभी भी पान, सिगरेट, बीड़ी का सेवन नहीं किया। मुहल्ले की किसी भी लड़की के चक्कर में नहीं पड़ा। उसकी साइकल की दौड़ केवल घर से कॉलेज, कॉलेज से घर तक सीमित रहती, और घर आकर भी वह अपनी किताबों में उलझा रहता। जिसको ले कर उसके माँ-बाप के मस्तिष्क में उसके लिए सुनहरे भविष्य की अनेक योजनाएं थीं, जिसे सत्यवान ने कभी भी कोरी कल्पनामात्र साबित नहीं होने दिया। सत्यवान की पढ़ाई को ले कर माँ-बाप दोनों ही अत्यधिक आश्वस्त थे, अतः उन्होंने उसके चरित्र निर्माण पर ध्यान नहीं दिया।

माँ-बाप और घर के अन्य किसी सदस्य को अनुमान भी न था कि उसका बेटा किशोरावस्था में ही हस्तमैथुन करने लगा है। उन बेचारों को पता भी कैसे लगता ? सत्यवान शुरू से अपने बुद्धि बल से ऐसी छवि बना कर रखता जैसे वह श्रवण कुमार की तरह अपने बूढ़े माँ-बाप को कंधे पर लाद कर उन्हें तीर्थाटन करवाएगा। सत्यवान का अधिकतर समय परिवार की चहारदीवारी के भीतर ही व्यतीत होता था। अंतर्मुखी होने के कारण उसके भीतर यदि कोई अन्य सदस्य आ भी जाये, तब भी वह उसके आकर्षण केन्द्रबिंदु में घुस नहीं पाता। माँ के परिवार के सदस्य उसके मामा, मौसी आदि उसकी भूरि भूरि प्रशंसा करने से नहीं थकते थे। पिता के परिवार के सदस्यों का उसके घर में आना जाना कम होता था क्योंकि उसके परिवार में माँ का ही दबदबा था। पिता के परिवार के लोगों को अतिथि सत्कार उचित न मिल पाता, भाजन बेचारा सत्यवान बनता। सबसे छोटा बालक होने के कारण उसे ताऊ, चाचा, फूफा आदि से प्रेम, प्रोत्साहन मिलने के बजाए भर्त्सना ही मिलती, ‘‘अरे, यह तो बाँस की तरह लंबू होता जा रहा है, क्या बात है रे,’’ कहकर वे ऐसी निगाहों से सत्यवान को घूरने लगते, जैसे उसे कच्चा ही खा जायेंगे। बेचारा सत्यवान दुबक कर एक कोने में खड़ा हो जाता मानो वह अपने अपराध का दंड लेने के लिए तत्पर है कि वह हस्तमैथुन करता है, न चाह कर भी वह इस आदत से मजबूर है। उसकी माँ अपने लाडले बेटे की पराये जनों से (माना वे पति के परिवार के निकटतम संबंधी ही क्यों न हों) इस तरह की भर्त्सना सहन न कर पाती, उन्हें आड़े हाथों लेते हुए बीच में आ जाती, ‘‘हड्डियों पर माँस कहां से चढ़े, खाया-पिया मुई सारी पढ़ाई चूस लेती है ! पढ़ने में अच्छा है, एक दिन जब बड़ा अफसर बन जायेगा, शरीर पर चर्बी अपने आप आ जायेगी, आप लोगों को तो तिल का ताड़ बनाने की....’’   

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