पौराणिक कथाएँ >> भक्त प्रहलाद भक्त प्रहलादएम. आई. राजस्वी
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विष्णु भक्त बालक की दिव्य कथा....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
देवर्षि नारद के उपदेशों का प्रभाव बालक प्रह्लाद के हृदय पर गहरे तक पड़ा
था। इसलिए गुरुकुल में जब शुक्राचार्य के पुत्र ने श्रीविष्णु को हत्यारा
कहा, तो बालक प्रह्लाद ने अस्वीकृति में तर्क दिया। प्रह्लाद का मन जगत के
पालनकर्ता विष्णु को हत्यारा मानने को तैयार नहीं था। आचार्य ने जब
सुकुमार को दैत्यविरोधी विष्णु का पक्ष लेते देखा, तो उसे आश्चर्य हुआ।
क्योंकि वह जानता था कि इसकी खबर यदि असुरराज हिरण्यकशिपु तक पहुंच गई, तो
अनर्थ हो जाएगा। दैत्याचार्य ने काफी प्रयास किया कि प्रह्लाद विष्णु को
दैत्यों का अपराधी माने, लेकिन कोई लाभ न हुआ।
प्रह्लाद गंभीरता से बोला, ‘‘पिताश्री ! भगवत धर्म ही वास्तव में सृष्टि का शाश्वत धर्म है। सभी प्राणियों को इस धर्म का पालन करना चाहिए, तभी उनका उद्धार हो सकता है।’’
‘‘ओ मेरे शत्रु के दूत !’’ हिरण्यकशिपु दहाड़ उठा, ‘‘हमारे शत्रु की महिमा-गान करने का दुस्साहस तेरे अंदर किसने उत्पन्न किया ?’’
‘‘पिताश्री ! जो भी प्राणी श्रीहरि की शरण में चला जाता है, उसमें स्वतः इतना साहस उत्पन्न हो जाता है कि महाप्रभु की परम पवित्र शक्ति के अलावा सृष्टि की शक्तियां उसे तुच्छ प्रतीत होने लगती हैं। वह केवल महाप्रभु की शक्ति के सम्मुख ही नतमस्तक होता है, अन्य किसी के सामने नहीं।’’
प्रह्लाद ने पूरे विश्वास के साथ प्रभु को पुकारा, ‘‘प्रभु ! आज इस धातु के लाल तप्त स्तंभ से प्रकट होकर मेरी इच्छा पूर्ण करो।’’
भक्त पुकारे और प्रभु न सुने-ऐसा तो कभी न हुआ और न ही होगा।
सभी दरबारियों ने देखा कि महाभयंकर गर्जना करते हुए वह धातु का लाल तप्त स्तंभ दो भागों में विभाजित हो गया और उसमें से एक दिव्य आकृति प्रकट हुई। इस आकृति का मुख सिंह का और शेष शरीर मनुष्य का था। यह और कोई नहीं, बल्कि भक्त-वत्सल श्रीहरि महाविष्णु ही नृसिंह के रूप में भक्त प्रह्लाद की पुकार सुनकर स्तंभ से प्रकट हुए थे।
भगवान नृसिंह ने हिरण्यकशिपु को बड़ी सहजता से इस प्रकार दबोच लिया, जैसे गरुड़ सर्प को दबोच लेता है। हिरण्यकशिपु को घसीटकर भगवान नृसिंह महल के द्वार पर ले आए और उसे उठाकर अपनी जंघा पर डाल लिया। भगवान नृसिंह की जंघा के एक ओर हिरण्यकशिपु का सिर और हाथ लटकने लगे तथा दूसरी ओर उसके पैर।
भगवान नृसिंह ने गर्जना की, ‘‘देख अहंकारी ! इस समय तू पृथ्वी पर है या आकाश में ?’’ यह कहते हुए भगवान नृसिंह ने अपने लंबे और तेज नाखूनों से असुराज हिरण्यकशिपु का पेट फाड़ डाला।
भगवान नृसिंह ने प्रेमपूर्वक भक्त प्रह्लाद को गोद में उठा लिया और उसकी पीठ थपथपाते हुए बोले, ‘‘वत्स प्रह्लाद ! अपनी इच्छानुसार वर माँगो।’’
‘‘भगवान !’’प्रह्लाद आह्लादित होकर बोला, ‘‘आपके साक्षात दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ....मैंने सबकुछ पा लिया।’’
‘‘नहीं वत्स महाप्रभु ने आग्रह किया, ‘‘कुछ और वर मांगो।’’
‘‘तब मेरे प्रभु !’’ प्रह्लाद महाप्रभु से बोला, ‘‘मेरे हृदय में आपके चरण-कमलों के प्रति अखंड श्रद्धा-भक्ति हो और ‘कामना’ के बीज का सर्वथा नाश हो जाए।’’
महाप्रभु ने हाथ उठाकर कहा, ‘‘तथास्तु !’’
प्रह्लाद गंभीरता से बोला, ‘‘पिताश्री ! भगवत धर्म ही वास्तव में सृष्टि का शाश्वत धर्म है। सभी प्राणियों को इस धर्म का पालन करना चाहिए, तभी उनका उद्धार हो सकता है।’’
‘‘ओ मेरे शत्रु के दूत !’’ हिरण्यकशिपु दहाड़ उठा, ‘‘हमारे शत्रु की महिमा-गान करने का दुस्साहस तेरे अंदर किसने उत्पन्न किया ?’’
‘‘पिताश्री ! जो भी प्राणी श्रीहरि की शरण में चला जाता है, उसमें स्वतः इतना साहस उत्पन्न हो जाता है कि महाप्रभु की परम पवित्र शक्ति के अलावा सृष्टि की शक्तियां उसे तुच्छ प्रतीत होने लगती हैं। वह केवल महाप्रभु की शक्ति के सम्मुख ही नतमस्तक होता है, अन्य किसी के सामने नहीं।’’
प्रह्लाद ने पूरे विश्वास के साथ प्रभु को पुकारा, ‘‘प्रभु ! आज इस धातु के लाल तप्त स्तंभ से प्रकट होकर मेरी इच्छा पूर्ण करो।’’
भक्त पुकारे और प्रभु न सुने-ऐसा तो कभी न हुआ और न ही होगा।
सभी दरबारियों ने देखा कि महाभयंकर गर्जना करते हुए वह धातु का लाल तप्त स्तंभ दो भागों में विभाजित हो गया और उसमें से एक दिव्य आकृति प्रकट हुई। इस आकृति का मुख सिंह का और शेष शरीर मनुष्य का था। यह और कोई नहीं, बल्कि भक्त-वत्सल श्रीहरि महाविष्णु ही नृसिंह के रूप में भक्त प्रह्लाद की पुकार सुनकर स्तंभ से प्रकट हुए थे।
भगवान नृसिंह ने हिरण्यकशिपु को बड़ी सहजता से इस प्रकार दबोच लिया, जैसे गरुड़ सर्प को दबोच लेता है। हिरण्यकशिपु को घसीटकर भगवान नृसिंह महल के द्वार पर ले आए और उसे उठाकर अपनी जंघा पर डाल लिया। भगवान नृसिंह की जंघा के एक ओर हिरण्यकशिपु का सिर और हाथ लटकने लगे तथा दूसरी ओर उसके पैर।
भगवान नृसिंह ने गर्जना की, ‘‘देख अहंकारी ! इस समय तू पृथ्वी पर है या आकाश में ?’’ यह कहते हुए भगवान नृसिंह ने अपने लंबे और तेज नाखूनों से असुराज हिरण्यकशिपु का पेट फाड़ डाला।
भगवान नृसिंह ने प्रेमपूर्वक भक्त प्रह्लाद को गोद में उठा लिया और उसकी पीठ थपथपाते हुए बोले, ‘‘वत्स प्रह्लाद ! अपनी इच्छानुसार वर माँगो।’’
‘‘भगवान !’’प्रह्लाद आह्लादित होकर बोला, ‘‘आपके साक्षात दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ....मैंने सबकुछ पा लिया।’’
‘‘नहीं वत्स महाप्रभु ने आग्रह किया, ‘‘कुछ और वर मांगो।’’
‘‘तब मेरे प्रभु !’’ प्रह्लाद महाप्रभु से बोला, ‘‘मेरे हृदय में आपके चरण-कमलों के प्रति अखंड श्रद्धा-भक्ति हो और ‘कामना’ के बीज का सर्वथा नाश हो जाए।’’
महाप्रभु ने हाथ उठाकर कहा, ‘‘तथास्तु !’’
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