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पौराणिक कथाएँ >> सम्पूर्ण श्रीकृष्ण लीला

सम्पूर्ण श्रीकृष्ण लीला

इजैन बी.

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3934
आईएसबीएन :81-8133-386-1

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नटखट गोपाल के बालपन की सुंदर झांकी...

Sampoorn Shri Krishan Lila

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

धरती मां की व्यथा

सहस्रों वर्ष पूर्व, एक समय, धरती पर पापियों का साम्राज्य फैलने लगा और अधर्म, फैलानेवाली राक्षसी शक्तियों का बोलबाला हो गया। सत्य, धर्म, और अच्छाइयां लुप्त होने लगीं। धरती मां के लिए पापों का बोझ सहना असंभव हो गया। व्याकुल धरती मां अपनी व्यथा लेकर सृष्टि रचने वाले ब्रह्मा जी के पास गईं और कुछ उपाय कर उसका उद्धार करने की प्रार्थना की। ब्रह्मा जी धरती को लेकर जगत् पालनकर्ता भगवान विष्णु के पास गए। धरती की व्यथा सुनकर विष्णु बोले, ‘‘देवी धरती ! चिन्ता न करें। मैं कृष्ण के रूप में अवतार लेकर राक्षसी शक्तियों का विनाश करूंगा और तुम्हें पापियों से मुक्ति दिलाऊंगा।’’

कुछ समय पश्चात्, धरती पर मथुरा में राजकुमार कंस की चचेरी बहन देवकी का विवाह कंस के ही अभिन्न मित्र वासुदेव से हुआ। विवाह के पश्चात् कंस स्वयं अपने रथ में देवकी और वासुदेव को उनके निवास पर छोड़ने ले जा रहा था कि अचानक आकाशवाणी हुई, ‘‘अरे दुष्ट कंस ! जिस देवकी को तू इतने प्यार से विदा कर रहा है, इसके गर्भ से उत्पन्न होने वाली आठवीं सन्तान ही तेरी मृत्यु का कारण होगी।’’
यह सुनकर कंस, देवकी और वासुदेव पर वज्रपात-सा हुआ।

कंस की दुष्टता


उस आकाशवाणी को सुनकर कंस एकाएक क्रोध से कांपने लगा। अब न वह देवकी का चहेता भाई था और न ही वासुदेव का मित्र।
रथ से कूद कर उसने म्यान से तलवार निकाली और गरज कर बोला- ‘‘मैं इसी समय देवकी का वध करूंगा, फिर देखता हूँ कि कैसे मेरी मृत्यु के रूप में उसकी आठवीं सन्तान जन्म लेगी ? जब देवकी ही नहीं रहेगी, तो सन्तान कैसे जन्म लेगी।’’
यह सुनकर वासुदेव गिड़गिडाए, ‘‘राजकुमार ! मेरी पत्नी का वध न करो। मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि हमारी जो भी संतानें होंगी, उसे पैदा होते ही मैं स्वयं तुम्हें सौंप दिया करूंगा। तुम जैसे चाहो उन्हें नष्ट कर देना। मित्र, अपनी बहन की हत्या का कलंक अपने माथे मत लगाओ।’’

कंस कुछ सोचकर बोला, ‘‘ठीक है। मैं देवकी का वध नहीं करता। परन्तु मैं तुम्हें मथुरा में ही कारागार में रखूंगा। ताकि तुम मेरे साथ कोई छल न कर सको।’’

इस प्रकार कंस ने देवकी और वासुदेव को कारागार में डाल दिया। उसने अपने पिता राजा उग्रसेन को भी बन्दी बना लिया और स्वयं राजा घोषित कर दिया गया। उसे भय था कि उग्रसेन राजा बने रहे तो वे उसे देवकी की संतानों का वध नहीं करने देंगे।

बाल हत्याएं


अब देवकी व वासुदेव कंस के कारागार के ऐसे बंदी थे, जिन तक परिन्दा भी नहीं पहुंच सकता था। समय आने पर देवकी ने अपनी प्रथम संतान, एक पुत्र को जन्म दिया। वचन के अनुसार वासुदेव ने नवजात शिशु को कंस को सौंप दिया। कंस ने कुछ देर तक शिशु को देखा, फिर उसे वासुदेव को लौटा दिया। उसे खतरा तो देवकी की आठवीं सन्तान से ही था। पुत्र के प्राण बचे जानकर वासुदेव पुलकित होते हुए शिशु को लेकर कारागार में लौट आए। किन्तु वासुदेव के जाने के कुछ क्षणों पश्चात् की कंस के दरबार में नारद मुनि पधारे और बोले, ‘‘राजन ! तुमने यह क्या किया ?

अपने सात भांजों के होते क्या तुम आठवें का कोई अहित कर अपनी प्राण रक्षा कर पाओगे ? यदि कर भी लो तो क्या समय आने पर ये सातों ....?’’
नारद जी का संकेत समझकर कंस चौंक पड़ा। उसने तुरन्त ही अपना निर्णय बदला। क्रोध से फुंफकारता हुआ वह कारागार में पहुंचा और झपटकर उसने देवकी के हाथों से नवजात शिशु को छीन लिया। फिर उसकी टांगों से पकड़कर घुमाया और पत्थर की दीवाप पर दे मारा। आँखों के सामने नवजात शिशु का ऐसा प्राणान्त ! देवकी और वासुदेव का हृदय हाहाकार कर उठा। कंस ने इसी प्रकार पांच और शिशु मार डाले। सातवाँ शिशु देवकी के गर्भवती होने के बाद दैवी चमत्कार से वासुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित हो गया। रोहिणी उस समय गोकुल में रह रही थीं। इसी शिशु ने समय आने पर बलराम के रूप में जन्म लिया।

देवकी के गर्भ के एकाएक लुप्त होने का कारण कंस व उसके वैद्यों ने गर्भपात समझा।

जैसे ही देवकी में आठवीं बार गर्भवती होने के चिह्न उभरे, कारागार का पहरा बढ़ा दिया गया। वफादार पहरेदारों को पहरे पर लगाया गया।
देवकी व वासुदेव को हथकड़ियां और बेड़ियां पहना दी गईं, ताकि वे कहीं भाग न सकें। भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की रात, आकाश में बादल गरज रहे थे। बिजलियां कौंध रही थीं। बंदी दम्पत्ति भगवान विष्णु का नाम जप रहे थे कि एकाएक बंदी कक्ष एक अलौकिक प्रकाश से जगमगा उठा।
देवकी और वासुदेव ने जब अपने नेत्र खोले तो चतुर्भुज श्री विष्णु को साक्षात अपने सामने पाकर आत्म-विभोर हो उठे। उन्होंने अपने मस्तक भगवान विष्णु के चरणों पर टिका दिए।
होंठों से अस्पष्ट प्रार्थना फूटने लगी।


श्रीकृष्ण जन्म



भगवान विष्णु ने देवकी को सूचित किया कि वे शीघ्र ही आठवीं संतान के रूप में उनकी कोख में जन्म लेने वाले हैं। तत्पश्चात वे वासुदेव से बोले, ‘‘मेरे जन्म लेते ही आप मुझे लेकर अपने मित्र गोकुलवासी नंदबाबा के घर जाएं। वहां उनकी पत्नी यशोदा एक बालिका को जन्म दे चुकी होगी। मुझे उन्हें सौंपकर आप उनकी नवजात बालिका को ले आएं तथा माता देवकी की गोद में डाल दें। किसी प्रकार का भय न करें।’’ ऐसे कह विष्णु अंतर्धान हो गए।

अर्धरात्रि के समय देवकी ने बालक को जन्म दिया। बालक रोया नहीं। वासुदेव ने नवजात शिशु के लिए कंस द्वारा रखवाई गई टोकरी में बालक को रखा, फिर कई पल तक वात्सल्य भरे सजल नेत्रों से अपलक उसे निहारते रहे। तभी वासुदेव के मस्तिष्क में प्रश्न कौंधा- ‘जंजीरों से बंधा एक कैदी नवजात शिशु को कैसे सुरक्षित गोकुल पहुंचा सकता है ?’ इसका उत्तर तुरंत मिला। उनकी जंजीरें खुलकर नीचे गिर पड़ीं। वासुदेव समझ गए कि ईश्वर की लीला आरंभ हो चुकी है। तत्पश्चात् वे टोकरी उठाकर बाहर की ओर चल दिए। कारागार का द्वार खुला था और पहरेदार गहरी नींद में सो रहे थे। वासुदेव के मार्ग की सभी बाधाएं नष्ट हो चुकीं थीं।


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