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महान व्यक्तित्व >> मीराबाई

मीराबाई

महेन्द्र मित्तल

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3941
आईएसबीएन :81-310-0121-0

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कृष्ण भक्ति की प्रेमी मीराबाई....

Meerabai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मेरा वर कौन है

मारवाड़ी राठौरों की राजधानी मेड़ता के राजभवन के रनिवास के ऊपर तल्ले में एक बालिका नीचे सड़क पर जाती हुई एक बारात देख रही थी। उसने अपनी माता से पूछा, ‘‘यह क्या है मां ?’’
यह बारात है बेटी।’’ मां ने उत्तर दिया।
‘‘बारात क्या होती है मां ?’’ बालिका ने जिज्ञासा से पूछा।
‘‘बारात वह होती है बेटी ! जिसमें वर पक्ष के लोग वर को साथ लेकर दुल्हन के घर जाते हैं और विवाह रचाते हैं।’’ माँ ने उसे समझाया।

‘‘वर क्या होता है माँ ?’’ बालिका ने फिर पूछा।
‘‘वर वह लड़का होता है, जिसका दुल्हन बनी कन्या से विवाह होता है। विवाह के बाद कन्या वर के घर चली जाती है। जैसे मैं ब्याह करके तुम्हारे पिता के साथ यहां आ गई।’’ मां ने उसकी जिज्ञासा शांत की।
‘‘मां ! मैं भी तो कन्या हूं। मेरा वर कौन होगा ? कब होगा मेरा ब्याह ?’’
बालिका मीरा ने इस बार मां को दुविधा में डाल दिया था।

यह है तुम्हारा वर


मां को दुविधा में देखकर मीरा ने हठ पकड़ ली और बार-बार मां से पूछने लगी, ‘मां ! बताओ न, कौन है मेरा वर ?’’
मीरा की उतावली को देखकर मां परेशान हो उठी। अब वह उसे कैसे बताए कि उसका वर कौन है। बाल हठ के सामने उसे उत्तर नहीं सूझ रहा था। उसी समय मीरा की सहेली भागती हुई वहां आई और बोली, ‘‘कुंवरानी जी ! पुरोहित जी एक बहुत सुंदर मूर्ति बनवाकर आपके लिए लाए हैं। वे आपको दिखाना चाहते हैं।’’

‘‘ललिता ! पुरोहित जी को यहीं ले आ।’’ कुंवरनी ने आदेश दिया। वह मीरा से पीछा छुड़ाना चाहती थीं।
पुरोहित जी कृष्ण कन्हैया की एक अति सुंदर मूर्ति हाथों में उठाए ललिता के साथ वहां आए। अपनी मां को व्यस्त होते देख मीरा फिर से उसका आंचल खींचते हुए बोल पड़ी, ‘‘बताओ न मां ! कौन है मेरा वर ?’’
पुरोहित जी चौंके। ललिता ने भी हैरानी से मीरा की ओर देखा। तभी कुंवरानी जी बोल पड़ीं, ‘‘यही है तेरा वर।’’ उसने श्रीकृष्ण की मूर्ति की ओर इशारा कर दिया।

सांवरिया की दीवानी मीरा


मीरा ने अपनी मां के हाथों से मोर-मुकुट मुरलीधारी श्रीकृष्ण की मूर्ति को ले लिया और अपनी सखी ललिता के साथ उसे लेकर अपने कक्ष में चली आई। मूर्ति को उसने एक सुंदर चौकी पर स्थापित कर दिया और उसे अपलक निहारने लगी।
‘‘तेरा दूल्हा तो बड़ा काला है।’’ ललिता ने उसे छेड़ा।
‘‘कुछ भी हो, कैसा भी हो, अब तो यह संवारिया ही मेरा पति है ललिता। मैं रोज इसे सजाऊंगी-संवारूंगी, भोग लगाऊंगी और उसे रिझाने के लिए इसके सामने नाचूंगी-गाऊंगी।’’ मीरा ने मूर्ति को निहारते हुआ कहा। ‘और जब इसे देखकर तेरी सखियाँ तुझे छेड़ेंगी तब तू क्या कहेगी उनसे ?’’ कहती हुई ललिता मुस्कराई।

‘‘कहूंगी...मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।’’ मीरा जैसे उस मूर्ति के रूप माधुर्य में डूब गई।

मां का वियोग


मीरा के पिता रत्नसिंह तो राजकाज में व्यस्त रहते थे। मीरा का लगाव अपनी माता, अपनी सखी ललित, अपने ताऊ के बेटे जयमल से ही अधिक था। कृष्ण कन्हैया के प्रति मीरा के प्रेम में ये सभी उसका पूरा साथ देते थे।
एक दिन काल ने मीरा की प्यारी मां को छीन लिया। मीरा को तब इस बात का कोई एहसास नहीं था कि आदमी मरता क्यों है ? मरकर वह कहां चला जाता है ? सब रो रहे थे तो वह भी रो रही थी। उसे क्या पता था कि उसे लाड़ करने वाली मां अब उसे लाड़ करने नहीं आएगी। भाई जयमल और बालसखी ललिता ने मीरा को सांत्वना दी। लेकिन मां के वियोग ने मीरा के जीवन में खालीपन पैदा कर दिया था।

ब्याह का संदेशा


धीरे-धीरे मीरा बचपन छोड़कर किशोर हो गई। समय के साथ-साथ मां के बिछुड़ने का दुख कम हो गया और कृष्ण-कन्हैया के रूप-लवण्य में मीरा का मन रमता चला गया। अब वह आठों प्रहर श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन रहने लगी। वह एकतारा लेकर कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचती-गाती। महल में दास-दासियां मीरा का साथ देतीं।
एक दिन मीरा श्रीकृष्ण के भक्ति भाव में डूबी नृत्य करके रुकी ही थी कि जयमल उसके पास आया और बोला, ‘‘मीरा ! मेरे पिता और चाचा के बीच बात चल रही थी कि अब तेरा ब्याह होगा। बाजे बजेंगे, दावतें होंगी और फिर तू अपनी ससुराल चली जाएगी।’’

‘‘क्या ?’ मीरा सिहर उठी, ‘‘पर मेरा ब्याह तो कब का हो चुका है। श्री गिरधर नागर ही मेरे पति हैं। उन्हीं को रिझाने के लिए तो मैं हर-पल नाचती-गाती रहती हूं। उन्हें छोड़कर मैं किसी दूसरे से विवाह कैसे कर सकती हूं ?’’


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