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पंचतंत्र की 101 कहानियां

विष्णु शर्मा

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3974
आईएसबीएन :81-1833-436-1

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राजनीति और जीवन के रहस्यों को उजागर करनेवाला प्रेरक-शिक्षाप्रद कथा संकलन...

Panchtantr Ki 101 Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


विश्व के कथा-साहित्य को संस्कृत भाषा की अपूर्व देन हैं पंचतंत्र की कहानियां। बाल मनोविज्ञान के आधार पर शिक्षा जगत् में किया गया एक ऐसा अनूठा प्रयोग है यह जिसने सिद्ध कर दिया कि कुशल व पारंगत शिक्षक मूढ़ शिष्य को भी विवेकवान बना सकते हैं। ऐसा ही तो कर दिखाया था इस पुस्तक में मूल लेखक पंडित विष्णु शर्मा ने। उन्होंने मूर्ख राजपुत्रों को बना दिया था राजनीति में परम निपुण।

‘पंचतंत्र’ नीतिशास्त्र का प्रतिनिधि ग्रंथ है। इसमें कथाओं की ऐसी रुचिकर श्रृंखला है कि पढ़ने वाला अनचाहे ही उसमें बंधता चला जाता है। बाल साहित्य के रूप में भी इसे विश्व में सराहा गया है। नीति की समझ व मूल्यों की जानकारी देने वाली इन कथाओं के अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए हैं।

पंचतंत्र की ये कथाएं मानव-स्वभाव को परखते हुए सावधानीपूर्वक व्यवहार करने की समझ देती हैं। प्रत्येक कथा जीवन को एक नए कोण से देखना सिखाती है। इन्हें पढ़कर यह ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कैसे सफल हों।
बच्चे-बड़ों सभी के लिए एक समान सदैव उपयोगी अपूर्व ग्रंथ।

दो शब्द


विश्व साहित्य में कुछ ही ऐसी कृतियां हैं, जिन्हें प्रत्येक भाषा में एक समान लोकप्रियता प्राप्त हुई है। ऐसी ही एक कृति है ‘पंचतंत्र’। इसकी रचना मूर्ख राज पुत्रों को नीति को गूढ़ रहस्यों को सरल भाषा शैली में समझाने के लिए तत्कालीन परम विद्वान विष्णु शर्मा ने की थी और वे ऐसा करने में सफल भी हुए। मूर्ख राज पुत्र राजनीति में पारंगत हो गए।

मूल रूप में संस्कृत में रचित इस ग्रंथ का हिंदी भाषा में प्रकाशन कई विदेशी भाषाओं में प्रकाशन के बाद हुआ। यह हैरानगी की बात है। इससे हमारी मानसिकता का भी अंदाजा लगता है। हमें, हमारी कीमत दूसरे बताते हैं। विदेशी विद्वान डॉ. विंटर से जब किसी ने यह प्रश्न पूछा, ‘‘आपकी सम्मति में भारतवर्ष की संसार को मौलिक देन क्या है ?’’ तो उनका उत्तर था-‘केवल एक पुस्तक-जिसका नाम मैं डंके की चोट पर ले सकता हूं। पशु-पक्षियों पर आधारित एक नई-नवेली शैली पर रचा कहानी साहित्य ‘पंचतंत्र’। विंटर जैसे विद्वान के मुख से निकले इन शब्दों से आप यह बात तो जान ही गए होंगे कि ‘पचतंत्र’ की कहानियों की विशेषता क्या है।

मैं नहीं समझता कि किसी लेखक ने कभी ऐसा प्रयास भी किया हो। जानवरों व पशु-पक्षियों द्वारा भाषित इस कृति को ज्ञान और मनोरंजन का खजाना ही कहा जा सकता है।
पाठकों के लिए बात भी बहुत आश्चर्यजनक होगी कि जिस समय उन्होंने इस ग्रंथ की रचना का कार्य सम्पूर्ण किया उस समय उनकी आयु अस्सी वर्ष की करीब थी। इस ग्रंथ के प्रारंभ में अपनी इस शैली के बारे में संकेत देते हुए उन्होंने अपने प्रयोजन को भी स्पष्ट किया है-

यन्नवे भाजने लग्न: संस्कारो नान्यथा भवेत्।
कथाच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते।


जिस प्रकार नए बने बरतन (कच्चे) में किसी भी तरह का पड़ा हुआ संस्कार मिटता नहीं, इसी प्रकार इन कथाओं के बहाने बालमन में पड़ा संस्कार अन्यथा नहीं जाता। यही कारण है जो नीतिशास्त्र के गूढ़ रहस्यों को बालमन में उड़ेलने के लिए मैंने इस कथा माध्यम को चुना (कथाओं द्वारा मैं नीति की चर्चा कर रहा हूं)।
आज से एक हजार चार सौ पचास वर्ष के करीब के युग की, क्या कोई कल्पना कर सकता है कि डेढ़ हजार (1500) वर्ष पूर्व कोई लेखक ऐसी रचना को जन्म दे सकता था ? परन्तु जब हम आज के युग की प्रगति को देखते हैं तो कुछ भी असंभव नजर नहीं आता।

कथा साहित्य के इस महान् ग्रंथ की महक विदेशों में कैसे पहुंची यहां इसी का जिक्र किया जा रहा है। इस यात्रा की पहली कड़ी 550 ई. से प्रारंभ होती है, जब ईरानी सम्राट ‘खुसरू’ के राजवैद्य और मंत्री ने ‘पंचतंत्र’ को अमृत कहा। ईरानी राजवैद्य ने किसी पुस्तक में यह पढ़ा था कि भारत में एक संजीवनी बूटी होती है जिससे मूर्ख व्यक्ति को भी नीति-निपुण किया जा सकता है। इसी बूटी की तलाश में वह राजवैद्य ईरान से चलकर भारत आया और उसने संजीवनी की खोज शुरू कर दी।

उस वैद्य को जब कहीं संजीवनी नहीं मिली तो वह निराश होकर एक भारतीय विद्वान के पास पहुंचा और अपनी सारी परेशानी बताई। तब उस विद्वान ने कहा-‘देखो मित्र ! इमसें निराश होने की बात नहीं, भारत में एक संजीवनी नहीं, बल्कि संजीवनियों के पहाड़ हैं उनमें आपको अनेक संजीवनियां मिलेंगी। हमारे पास ‘पंचतंत्र’ नाम का एक ऐसा ग्रंथ है जिसके द्वारा मूर्ख अज्ञानी (हम विद्वान जिन्हें मृतप्राय ही समझते हैं) लोग नया जीवन प्राप्त कर लेते हैं।’’
ईरानी राजवैद्य यह सुनकर अति प्रसन्न हुआ और उस विद्वान से पंचतंत्र की एक प्रति लेकर वापस ईरान चला गया, उस संस्कृति कृति का अनुवाद उसने ‘पहलवी’ भाषा में करके अपनी प्रजा को एक अमूल्य उपहार दिया।
यह था पंचतंत्र का पहला अनुवाद जिसने विदेशों में अपनी सफलता और लोकप्रियता की धूम मचानी प्रारंभ कर दी। इसकी लोकप्रियता का यह परिणाम था कि बहुत जल्द ही पंचतंत्र का ‘लेरियाई’ भाषा में अनुवाद करके प्रकाशित किया गया, यह संस्करण 570 ई. में प्रकाशित हुआ था।

आठवीं शताब्दी में पंचतंत्र की पहलवी अनुवाद के आधार पर ‘अब्दुलाइन्तछुएमुरक्का’ ने इसका अरबी अनुवाद किया जिसका अरबी नाम ‘मोल्ली व दिमन’ रख गया। आश्चर्य और खुशी की बात तो यह है कि यह ग्रन्थ आज भी अरबी भाषा के सबसे लोकप्रिय ग्रन्थों में एक माना जाता है।
पंचतंत्र का अरबी अनुवाद होते ही पंचतंत्र की लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ने लगी। अरब देशों से पंचतंत्र का सफर तेजी से बढ़ा और ग्यारहवीं सदी में इसका अनुवाद यूनानी भाषा में होते ही इसे रूसी भाषा में भी प्रकाशित किया गया।
रूसी अनुवाद के साथ पंचतंत्र ने यूरोप की ओर अपने कदम बढ़ाए, यूरोप की भाषाओं में प्रकाशित होकर पंचतंत्र जब लोकप्रियता के शिखर को छू रहा था तो 1251 ई. में इसका अनुवाद स्पैनिश भाषा में हुआ, यही नहीं विश्व की एक अन्य भाषा हिश्री जो प्राचीन भाषाओं में एक मानी जाती हैं, में अनुवाद प्रकाशित होते ही पंचतंत्र की लोकप्रियता और भी बढ़ गई।

1260 में ई. में इटली के कपुआ नगर में रहने वाले एक यहूदी विद्वान ने जब पंचतंत्र को पढ़ा तो लैटिन भाषा में अनुवाद करके अपने देशवासियों को उपहारस्वरूप यह रचना भेंट करते हुए उसने कहा, ‘साहित्य में ज्ञानवर्धन, मनोरंजक व रोचक रचना इससे अच्छी कोई और हो ही नहीं सकती।
इसी अनुवाद से प्रभावित होकर 1480 में पंचतंत्र का ‘जर्मन’ अनुवाद प्रकाशित हुआ, जो इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि एक वर्ष में ही इसके कई संस्करण बिक गए। जर्मन भाषा में इसकी सफलता को देखते हुए ‘चेक’ और ‘इटली’ के देशों में भी पंचतंत्र के अनुवाद प्रकाशित होने लगे।

1552 ई.में पंचतंत्र का जो अनुवाद इटैलियन भाषा में हुआ, इसी से 1570 ई. में सर टामस नार्थ ने इसका पहला अनुवाद तैयार किया, जिसका पहला संस्करण बहुत सफल हुआ और 1601 ई. में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ।
यह बात तो बड़े-बड़े देशों की भाषाओं की थी। फ्रेंच भाषा में तो पंचतंत्र के प्रकाशित होते ही वहां के लोगों में एक हलचल सी मच गई। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई लेखक पशु-पक्षियों के मुख से वर्णित इतनी मनोरंजक तथा ज्ञानवर्धक कहानियां भी लिख सकता है।
इसी प्रकार से पंचतंत्र ने अपना सफर जारी रखा, नेपाली, चीनी, ब्राह्मी, जापानी, भाषाओं में भी जो संस्करण प्रकाशित हुए उन्हें भी बहुत सफलता मिली।

रह गई हिन्दी भाषा, इसे कहते हैं कि अपने ही घर में लोग परदेसी बन कर आते हैं। 1970 ई. के लगभग यह हिन्दी में प्रकाशित हुआ और हिन्दी साहित्य जगत में छा गया। इसका प्रकाश आज भी जन-मानस को नई राह दिखा रहा है और शायद युगों-युगों तक दिखाता ही रहे। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत संकलन में हमने बच्चों के स्वस्थ्य मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन के लिए कुछ और भी शिक्षाप्रद, मनोरंजक व नीति-ज्ञान की कथाएं प्रकाशित की हैं। वे कथाएं भी उतनी ही प्राचीन हैं, जितनी प्राचीन पुस्तक पंचतंत्र है। बच्चों को नई दिशा व नैतिक शिक्षा देने का हमारा यह प्रयास कहां तक सफल रहा है यह निर्णय हम सुधी पाठकों पर छोड़ते हैं। हमें तो आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह प्रयास एक सार्थक कदम सिद्ध होगा।

-धरम बारिया


पशु-पक्षियों की ये कहानियां अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इनमें जीने की कला छिपी है ! बालमन कच्चे घड़े की तरह मुलायम होता है। उस पर खींची गई लकीर उसके पकने के साथ मजबूत हो जाती है, मिटाये नहीं मिटती। कथाएं, कहानियां ऐसा ही काम करती हैं। बालमन पर अनजाने में पड़ी इनकी छाप समय आने पर एक सशक्त प्रेरक का काम करती है।
मनोरंजन का जीवन के लिए परम उपयोगी सिद्ध होना, एक अलौकिक घटना है। इस संकलन को पढ़ कर आप प्रत्येक कदम पर ऐसा ही महसूस करेंगे, ऐसा हमें विश्वास है।

1
गीदड़ की कूटनीति


मधुपुर नामक जंगल में एक शेर रहता था जिसके तीन मित्र थे, जो बड़े ही स्वार्थी थे। इनमें थे, गीदड़, भेड़िया और कौआ। इन तीनों ने शेर से इसलिए मित्रता की थी कि शेर जंगल का राजा था और उससे मित्रता होने से कोई शत्रु उनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देख सकता था। यही कारण था कि वे हर समय शेर की जी-हुजूरी और चापलूसी किया करते थे।
एक बार-एक ऊंट अपने साथियों से बिछुड़कर इस जंगल में आ गया, इस घने जंगल में उसे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। प्यास और भूख से बेहाल ऊंट का बुरा हाल हो रहा था। वह सोच रहा था कि कहां जाए, किधर जाएं, दूर-दूर तक उसे कोई अपना नजर नहीं आ रहा था।

इत्तफाक से उस ऊंट पर शेर के इन तीनों मित्रों की नजर पड़ गई। गीदड़ तो वैसे ही चालाकी और धूर्तता में अपना जवाब नहीं रखता, उसने इस अजनबी मोटे-ताजे ऊंट को जंगल में अकेला भटकते देखा तो उसके मुंह में पानी भर आया। उसने भेड़िये और कौए से कहा, ‘दोस्तों ! यदि शेर इस ऊंट को मार दे तो हम कई दिन तक आनन्द से बैठकर अपना पेट भर सकते हैं, कितने दिन आराम से कट जाएंगे, हमें कहीं भी शिकार की तलाश में नहीं भटकना पड़ेगा।’’
भेड़िये और कौए ने मिलकर गीदड़ की हां में हां मिलाई और उसकी बुद्धि की प्रशंसा करते हुए बोले-‘वाह..वाह...दोस्त,..क्या विचार सूझा है, इस परदेसी ऊंट को तो शेर दो मिनट में मार गिराएगा, वह इसका सारा मांस कहां खा पाएगा, बचा-खुचा सब माल तो अपना ही होगा।’
गीदड़, भेड़िया और कौआ कुटिलता से हंसने लगे। उन तीनों के मन में कूट-कूटकर पाप भरा हुआ था। तीनों षड्यंत्रकारी मिलकर अपने मित्र शेर के पास पहुंचे और बोले-‘‘आज हम आपके लिए एक खुशखबरी लेकर आए हैं।’’
‘‘क्या खुशखबरी है मित्रों, शीघ्र बताओ।’’ शेर ने कहा।

महाराज ! हमारे जंगल में एक मोटा-ताजा ऊंट आया हुआ है। शायद वह काफिले से बिछुड़ गया है और अपने साथियों के बिना भटकता फिर रहा है। यदि आप उसका शिकार कर लें तो आनन्द आ जाए। आह ! क्या मांस है उसके शरीर पर। मांस से भरा पड़ा है उसका शरीर। देखा जाए तो अपने जंगल में मांस से भरे शरीर वाले जानवर है ही कहां ? केवल हाथियों के शरीर ही मांस से भरे रहते हैं, मगर हाथी अकेले आते ही कहां है, जब भी आते हैं, झुंड के झुंड, उन्हें मारना कोई सरल बात नहीं।’’

शेर ने उन तीनों की बात सुनी और फिर अपनी मूंछों को हिलाते हुए गुर्राया-‘‘ओ मूर्खों ! क्या तुम यह नहीं जानते कि हम इस जंगल के राजा हैं। राजा का धर्म है न्याय करना, पाप और पुण्य के दोषों तथा गुणों का विचार करके पापी को सजा देना, पूरी प्रजा को सम्मान की दृष्टि से देखना। मैं भला अपने राज्य में आए उस ऊंट की हत्या कैसे कर सकता हूं ? घर आए किसी भी मेहमान की हत्या करना पाप है, इसलिए तुम जाकर इस मेहमान को सम्मान के साथ हमारे पास लेकर लाओ।’’
शेर की बात सुनकर उन तीनों को बहुत दु:ख हुआ, उन तीनों ने भविष्य के कितने सपने देखे थे, खाने का कई दिन का प्रबंध, ऊंट का मांस...सब कुछ इस शेर ने चौपट कर दिया था। यह कैसा मित्र था जो पाप और पुण्य के चक्कर में पड़कर अपना स्वभाव भूल गया ? वे मजबूर थे क्योंकि उन्हें पता था कि शेर की दोस्ती छोड़ते ही उन्हें कोई नहीं पूछेगा, मरता क्या न करता, वाली बात थी।

तीनों भटकते हुए ऊंट के पास पहुंचे और उसे शेर का संदेश दिया।
ऊंट हालांकि जंगल में भटकते-भटकते दु:खी हो गया था। थकान के कारण उसका बुरा हाल हो रहा था, इस पर भी जब उसने यह सुना कि शेर ने उसे अपने घर पर बुलाया है तो वह डर के मारे कांप उठा, क्योंकि उसे पता था कि शेर मांसाहारी जानवर है और जंगल का राजा भी, उसके सामने जाकर भला सलामती कहां ? उसकी आँखों में मौत के साये थिरकने लगे।
उसने सोचा कि शेर की आज्ञा न मानकर यदि मैं न जाऊँ, तब भी जीवन खतरे में है। बाघादि दूसरे जानवर मुझे खा जाएंगे, इससे तो अच्छा है कि शेर के पास ही चलूं। क्या पता वह सचमुच दोस्ती करके अभयदान दे दे। यही सोचकर वह उनके साथ चल दिया।
शेर ने घर आए मेहमान का मित्र की भांति स्वागत किया, तो ऊंट का भी भय जाता रहा। उसने अपनी शरण में पनाह देने का उसे बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। शेर ने कहा-‘मित्र ! तुम बहुत समय से भटकने के कारण काफी थक गए हो। अत: तुम मेरी गुफा में ही आराम करो, मैं और मेरे साथी तुम्हारे लिए भोजन का प्रबंध करके लाते हैं।
मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था। उसी दिन शेर और हाथी में एक वृक्ष की पत्तियों को लेकर झगड़ा हो गया। दोनों में भयंकर युद्ध हुआ जिससे दोनों ही बुरी तरह जख्मी हो गए।
अंत में दोनों ने अलग-अलग राह ली।

शेर बुरी तरह घायल हो गया था उसके दांत भी हिलने लगे थे। जख्मी शेर अब कहां शिकार कर सकता था। कई दिन गुजर गए। शेर के सेवक कोई शिकार न ला सके। दरअसल, उन धूर्तों की दृष्टि तो ऊंट के मांस पर थी। वे किसी प्रकार शेर के हाथों उसका खात्मा कराकर दावत उड़ाना चाहते थे। अत: शेर के जख्मी होने के बाद उन्होंने एक दूसरी ही योजना बना ली थी।
एक दिन शेर के पास जाकर वे बोले-हे जंगल के राजा ! आप भूखे क्यों मरते हैं, देखो, हमारे पास यह ऊंट है, ऐसे अवसर पर इसे ही मारकर खा लें, जब तक हम इससे पेट भरेंगे, तब तक आप भी ठीक हो जाएंगे।’’
‘‘नहीं..नहीं...मैं शरण में आए की हत्या नहीं कर सकता।’’
उन्हें तो पहले से ही उम्मीद थी कि शेर उनकी बात नहीं मानेगा। अत: अपनी नई योजना के अन्तर्गत वे तीनों ऊंट के पास पहुंचे।
ऊंट ने उनकी कुशलक्षेम पूछी तो चालाक गीदड़ बोला-‘‘भाई ! हमारा हाल मत पूछो, हम बड़ी मुसीबत में फंसे हैं। हमारा तो जीना ही कठिन हो रहा है, शायद एक दो दिन बाद हम और हमारा राजा शेर भूख से तड़प-तड़प कर मर जाएँगे।’’
‘‘क्यों,..ऐसी कौन सी बात हो गई ? मुझे बताओ मित्र ! मैंने वनराज का नमक खाया है, मैं उन्हें बचाने के लिए हर कुर्बानी देने को तैयार हूँ।’’

‘‘देखो मित्र, शेर जख्मी भी है और भूखा भी, मांस के बिना उसका पेट नहीं भरेगा और उतना मांस हम जुटा नहीं पा रहे हैं। इसलिए हमने फैसला किया है कि हम वनराज के पास जाकर कहें कि वे हमें खाकर अपना पेट भर लें। इस संदर्भ में आपसे एक प्रार्थना है।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘यदि हम इतने भाग्यशाली हों कि अपने देवतातुल्य राजा के काम आ जाएं तो हमारे बाद आपको हमारे स्वामी का पूरा ख्याल रखना होगा।’’
‘‘मित्रों ! आप लोगों से भला वनराज की भूख क्या मिटेगी। बेहतर हो कि मेरा भक्षण करें।’’
‘‘यह तो तुम्हारी इच्छा है मित्र ! किन्तु पहले हम अपने आपको समर्पित करेंगे। यदि वे हमें स्वीकार न करें, तब आप भी कोशिश कर लेना।’’
‘‘हां, दोस्तों, मुझे मंजूर है। मैं आपके साथ हूँ। महाराज ने ही तो मुझे सहारा देकर मेरी प्राण रक्षा की है। अब यदि मैं इन प्राणों को अपने मित्र पर कुर्बान कर दूं तो मुझे इसका कोई दुख नहीं होगा।’’

ऊंट की यह बात सुनकर तीनों बहुत खुश हुए। गीदड़ ने भेड़िये को आंख से इशारा करके धीरे से कहा, फंस गया मूर्ख। अब चारों इकट्ठे होकर जख्मी शेर के पास पहुंचे, शेर गुफा के अंदर भूखा-प्यासा पड़ा था, शरीर पर असंख्य घाव थे। दर्द के मारे उसका बुरा हाल था।
‘‘आओ मेरे मित्रों ! आओ, पहले यह बताओ कि हमारे भोजन का कोई प्रबंध हुआ या नहीं ?’’
‘‘नहीं महाराज ! हमें इस बात का बहुत दुख है हम सब मिलकर भी आपके खाने का प्रबन्ध नहीं कर सके, लेकिन अब हम आपको भूखा भी नहीं रहने देंगे..। कौए ने आगे बढ़कर कहा-महाराज ! आप मुझे खाकर अपनी भूख मिटा लें।’’
‘‘अरे कौए ! पीछे हट, तुझे खाने से क्या महाराज का पेट भरेगा ? अच्छा तो यही होगा कि महाराज मुझे खाकर अपना पेट भर लें, मेरा क्या है।’’ गीदड़ बोला।

गीदड़ की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि भेड़िया अपने स्थान से उठकर आगे आया और बोला-भैया गीदड़ ! तुम्हारे शरीर पर भी इतना मांस कहां है, जो महाराज का पेट भर जाए, वह चाहें तो मुझे पहले खाएँ। हमारे लिए उन्होंने सदा शिकार किए हैं, आज पहली बार..।
यह सब देखकर ऊंट ने भी सोचा की मुझे भी अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। शेर नेकदिल है, वह भला घर आए मेहमान का क्या वध करेगा और यदि उसके उपकार के बदले मैं उसके किसी काम आ पाऊं तो मुझे खुशी ही होगी। यह सोचकर इन सबसे आगे आकर ऊंट ने कहा-‘अरे, तुम लोगों के मांस से महाराज का पेट भरने वाला नहीं, आखिर महाराज ने मुझ पर तो एहसान किया है, यदि तुम अपने इस मित्र के लिए कुर्बानी देने को तैयार पहले इनसे यही प्रार्थना करूँगा कि यह मेरे शरीर के मांस से अपना पेट भर लें....।’’




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