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चुने हुए उपन्यास

अमृता प्रीतम

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :680
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 398
आईएसबीएन :81-263-0973-3

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अमृता जी के बहुआयामी कथा-साहित्य में से चुने श्रेष्ठतम आठ उपन्यास...

Chuney Huaey Upanyas - A Hindi Book by - Amrita Pritam चुने हुए उपन्यास - अमृता प्रीतम

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अमृता प्रीतम ज्ञानपीठ पुरस्कार से अपने कविता-संग्रह ‘काग़ज़ ते कैनवस’ के लिए सम्मानित हुई है; लेकिन उनकी अनूठी प्रतिभा ने कथा साहित्य को भी उतना ही देदीप्यमान किया है। अमृता जी ने अपने बहुआयामी कथा-साहित्य में से चुनकर श्रेष्ठतम आठ उपन्यास इस संकलन के लिए स्वयं निश्चित किये हैं । सामाजिक अन्याय किस प्रकार व्यक्ति को तोड़ता है और स्वयं समाज को ध्वस्त करता है, प्रथम प्रेम की पींगों पर उड़ान भरती हुई भावुक नारी किस प्रकार छली जाती है और धराशायी होती है, वर्तमान जीवन के घात-प्रतिघातों के कैसे अभिशप्त और वरदानी रूप हैं- यह सब इस पुस्तक में जीवन्त रूप में विद्यमान है। जीवन का दुःखद यथार्थ और भविष्य का आशान्वित उल्लास यहाँ जिन पात्रों के माध्यम से रूपायित है, वे सब अमृता प्रीतम की प्रखर लेखनी द्वारा साहित्य में अपना अमरत्व स्वयं सँजोये बैठे हैं ।
प्रतिष्ठित उपन्यासकार अमृता प्रीतम की इस कृति का प्रस्तुत है यह नवीनतम संस्करण।

 

1935

 

मटमैला दिन था। बोरी के टुकड़े पर बैठी पूरो मटर छील रही थी। उँगलियों में पकड़ी हुई फली के मुँह को खोलकर जब उसने दानों को मुट्ठी में सरकाना चाहा, तो एक सफेद कीड़ा उसके अँगूठे पर लग गया।
जैसे एकाएक कीच़ड़ भरे गड्ढे में पाँव जा पड़ने पर एक सिरहन-सी उठती है, वैसी ही सिरहन पूरो के सारे शरीर में दौड़ गयी। हाथ झटककर उसने कीड़े को परे फेंक दिया और अपने हाथो को घुटनों में भींच लिया।
पूरो के सामने मटर की फलियाँ, निकाले हुए दाने और खाली छिलके बिखरे पड़े रहे। उसने जोड़े हुए घुटनों के बीच में से दोनों हाथ निकालकर अपने को थाम लिया। उसे लगा, मानों सिर से पाँव तक उसका शरीर मटर की उस फली की भांति हो जिसके भीतर मटर के स्वच्छ दानों के स्थान पर कोई गन्दा कीड़ा पल रहा है।
पूरो को अपने शरीर के अंग-अंग से घिन आने लगी। उसका मन चाहा कि वह अपने पेट में पल रहे कीड़े को झटकार दे, उसे अपने शरीर से दूर झाड़ दे, ऐसे ही कोई चुभे हुए काँटे को नाखूनों में फँसाकर निकाल देता है, जैसे कोई हुए गोखरू को उखाड़कर फेंक देता है, जैसे कोई चिपटी हुई किलनी को नोचकर अलग कर देता है, जैसे कोई चिपटी हुई जोंक को तोड़ फेंकता है !
पूरो सामने दीवार की ओर देखने लगी। बीते हुए दिन एक-एक करके वहाँ से गुजर रहे थे।
पूरो गुजरात जिले के एक गाँव छत्तोआनी के शाहों की बेटी थी-शाह, दिनका साहूकारी का काम कब बन्द हो चुका था, किन्तु फिर भी वह कहलाते शाह ही थे। समय के कुचक्र से शाहों के उस घर का यह हाल हो गया कि देग और कण्डाल जैसे उनके बड़े-बड़े बरतन भी बिक गये-वे बरतन जिस पर उनके पूर्वजों के नाम खुदे हुए थे। प्रतिदिन की इसी जीती-जागती ग्लानि से बचने के लिए पूरो पिता और चाचा अपना गाँव छोड़कर सियाम चले गये। वहाँ उनके दिन पलक मारते ही पलट गये।
उन दिनों पूरो दौड़ती फिरती थी और उसकी माँ की गोद में एक लड़का था उज़ड़े हुए शाहों का यह परिवार फिर अपने गाँव छत्तोआनी आया। पूरो के पिता ने अपना गिरवी पड़ा हुआ मकान छुड़वाकर अपने बाप-दादों के नाम की लाज रख ली। यद्यपि उसके पिता को नया मकान बनवाने में इससे भी कम पैसे खरचने पड़ते, पर उसने अन्धाधुन्ध लगाये हुए ब्याज की भी परवा न की और एक बार दाँत भींचकर अपने पूर्वजों के नाम की रक्षा कर ली।
अनाज, चारा और अन्य वस्तुओं की ठीक-ठीक व्यवस्था करके वह सियाम चले गये, किन्तु इनका मकान, उनका नाम, उनके पीछे गाँव में रहता रहा। अगली बार जब वह अपने गाँव लौटे, उस समय पूरो पूरे चौदह वर्ष की थी। उससे छोटा उसका एक भाई था, उससे छोटी पूरो की ऊपर तले की तीन बहनें थीं, और अबकी पूरो की माँ को छठी बार फिर किसी बच्चे की उम्मीद थी।
शाहों के उस परिवार ने गांव आकर पहला काम किया कि पास के गाँव रत्तोवाल के एक अच्छे खाते-पीते घर में पूरो के लिए लड़का देखा। पूरो की माँ सोचती थी जब वह नहा-धोकर उठेगी तो बड़े चाव से पूरो का काज आरम्भ करेगी। इस बार वह पक्की तरह सोचकर आये थे कि इस भार को उतारकर ही लौटेंगे।
पूरो की होनेवाली ससुराल में उन दिनों तीन दुधार पशु थे, और गाँव में उनका मकान पहला था जिसके ऊपर ईटों की बरसाती बनी हुई थी। मकान के माथे पर उन्होंने ‘ऊ’ लिखवाया हुआ था। लड़का सूरत का अच्छा और बुद्धिमान दीख पड़ता था।
पूरो के पिता ने पाँच रुपये और गुड़ की भेली देकर लड़का रोक लिया था। उन दिनों गुजरात जिले में अदला-बदली के सम्बन्ध होते थे। जिस लड़के से पूरो की सगाई हुई, उस लड़के की बहन की सगाई पूरो के भाई के साथ की गयी, यद्यपि पूरो का भाई उस समय मुश्किल से बारह बरस का था और उसकी मँगेतर बहुत ही छोटी थी।
दो-दो बरस के अन्तर से ऊपर तले तीन लड़कियों को जन्म देने के कारण पूरो की माँ का मन क्षुब्ध हो गया था। अब जबकि उसके दिन फिर गये थे, घर में मन-भर खाने को था, जी-भर पहनने को था, उसका मन करता था कि उसके फिर एक लड़का हो।
इस बार आकर पूरो की माँ ने दूसरा काम यह किया कि विधि-माता की पूजा की। गाँव की कुछ स्त्रियों ने पूरो के घर में गोबर की एक गुड़िया बनायी लाल चुनरी की किनारी लगाकर उसे उस गुड़िया के सिर पर चढा दिया, दो माशे सोने की छोटी सी नथ बनाकर उसकी नाक में डाली, और सबने मिलकर गायाः

 

बिधमाता रुस्सी आवीं ते मन्नी जावीं।
विधमाता रुस्सी आवीं ते मन्नी जावीं।

 

उनके अपने गाँव में और आसपास के गाँव में स्त्रियों का यह विश्वास था कि प्रत्येक बालक के जन्म के समय विधिमाता स्वयं आती है। यदि विधिमाता अपने पति से हँसती-खेलती आती है तो आकर झटपट लड़की बनाकर चली जाती है, क्योंकि उसे अपने पति के पास लौटने की जल्दी होती है। किन्तु यदि विधिमाता अपने पति से रूठकर आती है तो उसे लौटने की कोई विशेष जल्दी होती नहीं, वह आकर बहुत समय तक बैठती है और आराम से लड़का बनाती है। सो सब स्त्रियों ने मिलकर गाना आरम्भ कियाः

 

विधमाता रुस्सी आवीं ते मन्नी जावीं,
बिधमाता रुस्सी आवीं ते मन्नी जावीं।

 

विधिमाता शायद कहीं पास ही थी, उसने उनका कहा मान लिया। पन्द्रह-सोलह दिन बाद पूरो की माँ के लड़का हो गया। शाहों के दूर-पास के सम्बन्धियों को भी बधाइयाँ मिलने लगीं। चिन्ताजनक केवल एक बात थी, और वह यह कि लड़का तेलड़ था। तीन बहनों पर भाई हुआ था। पूरो की माँ को बड़ी चिंता थी, राम करे किसी प्रकार लड़का बच जाय, और बच जाय तो माता-पिता को भारी न हो। विधिमाता को मनानेवाली स्त्रियाँ फिर एक बार इकट्ठी हुईं और काँसे के एक बड़े-से थाल के बीच में बड़ा-सा छेद करके लड़के को उसमें आर-पार निकाला, साथ में गाती रहीं:

 

त्रिखलाँ दी धाड़ आयी,
त्रिखलाँ की धाड़ आयी।

 

तीन लड़कियों के दल के बाद ईश्वर की कृपा से उत्पन्न हुए लड़के के सारे शगुन मनाकर अब सबको विश्वास हो गया कि लड़का बच जाएगा।
पन्द्रहवाँ वर्ष आरम्भ होते-होते पूरो के अंग-प्रत्यंग में एक हुलार-सा आ गया। पिछले बरस की सारी कमीजें उसके शरीर पर तंग हो गयी। पूरो ने पास की मण्डी से फूलोंवाली छींट लाकर कुरते सिलवाये। कितना सारा अबरक लगाकर चुनरियाँ तैयार कीं।
पूरो की सहेलियों ने उसे दूर से उसका मँगेतर रामचन्द दिखा दिया था। पूरो की आँखों में उसकी छवि पूरी की पूरी उतर गयी थी। उसका ध्यान आते ही पूरो का मुंह लाल हो जाता था।
पूरो निःशंक होकर बहुत कम ही बाहर निकल सकती थीं, क्योंकि पास के गाँववालों को इस गाँव में आना-जाना था। उसकी ससुराल के गाँववाले कहीं पूरो को देख न लें इस बात से पूरो बहुत डरती थी। और फिर वह गाँव बहुत करके मुसलमानों का ही हो गया था।
वैसे जरा दिन-ढले पूरो और उसकी सहेलियाँ खेतों में घूम-फिर आती थीं। कई बार पूरो अपने खेतों के पास से गुजरती हुई कच्ची सड़क के आसपास अटक रहती, कभी कोई साग चुनने बैठ जाती, कभी किसी बेरी के पेड़ से लगकर खड़ी हो जाती, बेर गिराती, उन्हें चुनती और सहेलियों को बातों में लगाये रखती। वह सड़क उसकी होनेवाली ससुराल को जाती थी।
मन-ही-मन वह सोचती, यदि उसका मँगेतर आज इधर से गुजर जाय !
वह उसे गुजरते हुए एक बार देख ले ! पूरो का दिल उस सड़क के किनारे खड़े होते ही धक-धक होने लगता। फिर सारी रात पूरो अपने युवा मँगेतर के स्वप्नों में मग्न रहती।
एक दिन पूरो की नयी जूती उसकी एड़ी में बहुत लग रही थी। सहेलियों के साथ चलते वह पीछे रह-रह जाती थी। पूरो और उसकी सहेलियाँ खेतों में से होकर घर लौट रही थीं। साँझ का अन्धकार पिघले हुए सिक्के के भाँति चारों ओर बिखर गया था। लड़कियाँ खेतों की डौल–डौल चलती अब गाँव की पगडण्डी पर आ गयी थीं। यह पगडण्डी कहीं चौड़ी और खुली भूमि पर होकर जाती थी और कहीं कुछ पेड़ों, पीपलों और झाड़ियों के साथ-साथ मानो उसकी बाँह पकड़-पकड़कर आगे बढ़ती थी। सब लड़कियाँ आगे-पीछे इसी पगडण्डी पर चली जा रही थीं। पूरो जरा पीछे रह गयी थी। दायें पाँव की एड़ी के पास एक बड़ा छाला-सा उभर आया था। पूरो ने तंग जूती दोनों पैरों से उतारकर हाथों में ले ली और पाँव तेजी से बढ़ाने लगी।
लड़कियाँ पूरो से कहा करती थीं कि उसका दायाँ पैर बायें पैर से भारी था, इसलिए उसके दाहिने पैर में जूती लगती थी। इसी तरह पूरो का दायाँ हाथ भी बायें हाथ से भारी था। ‘हाँ जी, चू़डी पहनते हुए पता चलेगा’ कहकर लड़कियाँ पूरो को छेड़ा करती थीं। पूरो की आँखों के सामने आ गया, मानो सच्चे हाथी दांत की लाल चूड़ियां उसके हाथों में पहनायी जा रही हैं। पिछली बड़ी-बड़ी खुली चूड़ियाँ पहनाने के बाद आगे की छोटी चूड़ियाँ उसके दायें हाथ में फँस गयी हैं। नाई ने तेल से उसके अगूँठे की हड्डी को मला और हाथीदाँत की लाल चूड़ी को उसके हाथ में जोर से धकेलने लगा। पूरो को ख्याल आया, कहीं उसकी हाथीदाँत की लाल चूड़ी उसके दाहिने हाथ में टूट जाए तो !

पूरो के कलेजे को एक धक्का-सा लगा। हाय ! यह शगुन कितना बुरा है। उसकी शगुन की चूड़ी, उसके सुहाग चूड़ी, उसके हाथों में क्यों टूटे ! पूरो ने अपने दाहिने हाथ को तिरस्कार से देखा। भगवान ! उसका मँगेतर युग-युग ! हजार-लाख वर्ष जिये ! पूरो के हृदय ने कामना की। फिर पूरो को याद आया, उसके गाँव में चूड़ा चढ़ाते समय एक लड़की की चूड़ी सचमुच टूट गयी थी। पास खड़ी स्त्रियाँ ‘राम, राम’ कहकर भगवान से उसके पति के लिए कुशल-याचना करने लगी थीं। फिर सुनार से सोने का एक पतला-सा तार टूटी हुई चूड़ी में पुरवाहकर उस लड़की को फिर वही चूड़ी पहनायी थी, मानो उन्होंने उसके पति को टूटी हुई जीवन-डोरी को जोड़ लिया हो।
पूरो इन्हीं शगुन-अपशगुन के विचारों में फँसी हुई थी कि बायें हाथ की ओर के पीपल के पीछे से एक व्यक्ति निकलकर पूरो के सामने खड़ा हो गया। पूरो के कलेजे पर मानों हथौड़ा-सा पड़ा। पूरो ने जल्दी से देखा, उसके गाँव का जवान लड़का रशीद उसके सामने खड़ा था। रशीद की आयु बाईस-चौबीस वर्ष की होगी। उसकी भरी हुई जवानी उसके मुँह पर प्रत्यक्ष बोल रही थी।
पूरो ने देखा, रशीद की दोनों बड़ी-बडी आँखें पूरो के मुँह पर गड़ी हुई हैं। वह काँप उठी। उसके मुँह से एक हल्की-सी चीख निकली और वह रशीद के पास से बचती हुई भाग खड़ी हुई।
पूरो भागती-भागती लड़कियों से जा मिली। अब वे अपने घरों के पास पहुँच गयी थीं। पूरो का साँस ठिकाने न था। इतना ही भला हुआ कि रशीद ने उसके हाथ न लगाया, रशीद ने उससे मुँह से कुछ न कहा।

‘‘अरी लड़का था या कोई शेर था !’’ सहेलियों ने उससे ठिठोली की, किन्तु अभी तक पूरो की जान में जान नहीं आयी थी।
‘‘शेर तो सिर्फ फाड़कर खा जाता है, कहते हैं कि अगर रीछ को कोई औरत अकेली मिल जाये तो वह उसे मारता नहीं उठाकर ले जाता है। अपनी गुफा में ले जाकर उसको अपनी स्त्री बना लेता है।’’ सहेलियों में से एक ने यह बात सुनायी। पूरो की जान फिर सूखने लगी। हाय, उस करमोंजली का क्या हाल होगा जिसे रीक्ष अपनी स्त्री बना ले ! यह सोच-सोचकर पूरो का रंग उड़ने लगा। पूरो को फिर रशीद की फैली-फैली आँखें याद आ गयीं।

अब पूरो अपने घर पहुँच गयी थी। सहेलियाँ हँसती-बोलती आगे बढ़ गयीं।
दूसरे दिन जब पूरो और उसकी सहेलियाँ खेतों में सींगरे तोड़ रही थीं, जल्दी से पूरो दो मुट्ठी सींगरे पास ही चलते हुए रहँट पर धोने ले गयी। छोटे-छोटे सींगरों की डण्डियाँ तोड़कर दो-चार सींगरे पूरो ने अपने मुँह में डाल लिए। तभी उसने देखा कि पास के पेड़ के साथ रशीद खड़ा हुआ है। उसकी टाँगों में से मानो किसी ने जान ही खींच ली। भय उसके मुँह पर छा गया।
‘‘अजी डरती क्यों हो ? हम तो तुम्हारे चाकर हैं।’’ आज रशीद बोल उठा उसके मुंह से शरारत टपक रही थी।
पूरो को ऐसा लगा जैसे अभी रसीद रीछ के चौड़े पंजे की भाँति उसके मुख पर झपट पड़ेगा, उसकी लम्बी-लम्बी उँगलियाँ रीछ के नाखूनों की भाँति उसकी गरदन के चारों ओर फैल जाएगी। फिर वह उसे खींचता हुआ ले जाएगा और फिर....?
सौभाग्यवश पूरो ने देखा सामने से दो किसान चले आ रहे हैं। रशीद वैसे का वैसा खड़ा था। पूरो लाल टमाटरों से भरी हुई क्यारी के ऊपर से छलाँग मारकर जल्दी-जल्दी पाँव फेंकती सहेलियों से जा मिली।

उस दिन पूरो बहुत निढाल-सी रही। सारे रास्ते लड़कियों का हाथ पकड़-पकड़कर चलती रही। परछाइयों से भी काँप-काँप उठती, जरा-जरा-सी खड़खड़ाहट से भी चौक-चौक उठती।

पूरो ने न तो कुछ अपनी माँ को बताया, न अपने पिता को। उसकी सहेलियाँ ? कहती थीं, भला यह भी माँ-बाप से कहने की कोई बात है ! जवान लड़कियों को रास्ता चलते शोहदे सदा से ही ताकते-झाँकते आये हैं। मुँहजबानी कभी उनके गुलाम बनते है, कभी अपने आपको उनका चाकर कहते हैं, ऐसे ऊलजलूल बकते ही आये हैं। वह बका करें, भला कोई कुत्तों के भूकने से डरकर सड़कों पर चलना छोड़ देता है !

उस दिन उनके गाँव में एक छह-सात बरस के लड़के को एक पागल कुत्ते ने काट खाया। गली–मुहल्ले की स्त्रियों ने मिलकर लड़के के घाव पर लाल मिरचें बाँध दीं। मिरचों की तेजी से कुत्ते के दाँतों का जहर कट जाता है। पूरो ने जब यह खबर सुनी तो तुरत ही उसके मन में विचार आया कि वह लाल मिरचे कूटकर रशीद की आँखों में झोक दें। जितना वह रशीद की आँखों के सम्बन्ध में सोचती थी उतना ही उसे जहर चढ़ता था।
सहेलियाँ पूरो की बाँहें पकड़कर खींचती थीं, पर पूरो को साहस न होता कि वह खेतों की ओर जाए।

और फिर अब पूरो का विवाह भी दिन-दिन पास आ रहा था। पूरो के पिता ने घी और मैदा इकट्ठा करके घर में धर लिया था, पूरो की माँ ने पीले रेशम से कढ़ी हुई लाल फुलकारियों से लकड़ी का सन्दूक भर लिया था। सियाम से लाये हुए रेशम जोड़ों से उसने दहेजवाला सफेद ट्रंक मुंह तक भर दिया था। चुनरियों की छोटी बाँकडी चुन-चुनकर उसके पोरवे के इक्यावन बरतन जोड़े थे, झमाझम कर रहा था। उन दिनों देहातों में क्रोशिये के काम का बड़ा चलन था। पूरो ने क्रोशिये से बनाये हुए फूल जोड़-जोड़कर पलंग की पूरी चादर बनायी थी। दुसूती के तार गिन-गिनकर उसने फूल काढ़ने सीखे थे। अपने हाथ से अपने दहेज के लिए डलिया और मूढे़ बनाये थे।

एक दिन पालक के नरम-नरम पत्तों को तोड़कर पूरो ने साग काटा। पूरो की माँ सुतली की बुनी हुई पीढ़ी पर बैठी अपने लड़के को दूध पिला रही थी। पूरो ने मिट्टी की हँडिया को बान के छोटे-से गुच्छे से अच्छी तरह माँजा, फिर साग को पानी में दो बार धोकर और उसमें चने की दाल मिलाकर हँडिया को मुँह तक भर दिया दिया हारे की मीठी-मीठी आग पर दूध पड़ा कढ़ रहा था। पूरो ने चूल्हे में दो-चार छिपटियाँ लगाकर साग चढ़ा दिया।

पूरो का विवाह अब बस बिलकुल पास आ गया था। पूरो की माँ को प्रतीक्षा थी कि कौन जाने आज या कल पूरो को ससुराल से कोई नाप लेने ही आ जाय। पूरो कितनी सुन्दर सुघड़ लड़की है ! रोटी-टुकड़ा तो वह आँगन में इधर-से उधर चलते-फिरते ही कर लेती है। पूरो की सहेलियाँ कहती थीं पूरो को जवानी भी तो भरपूर चढ़ी है। पूरो के गोरे निर्मल मुख पर आँख ठहरती न थी। पूरो की माँ ने तो चाहत-भर दृष्टि से पूरो की ओर देखा, शायद वह सोचती थी कि पूरो अब ससुराल चली जाएगी, पूरो के मायके का घर भाँय-भाँय करेगा। पूरो अपनी माँ का दाहिना हाथ थी। माँ की आँखों में आँसू भर आये। हर बेटी की माँ को रोना पड़ता है। बैठी-बैठी पूरो की माँ गाने लगीं

 

लावीं ते लावीं नी कलेजे दे नाल माए
दस्सीं ते दस्सीं इक बात नीं।
बाताँ ते लम्मीयाँ नी धीयाँ क्यों जम्मियाँ नी,
अज्ज बिछोड़ेवाली रात नीं।

 

पूरो की माँ का कलेजा भरक आया। पूरो चौके के छोटे-छोटे काम निबटाती हुई अपनी माँ की आवाज सुन रही थी। पूरो के दिल में बिछोड़े की एक हौल-सी उठी। पूरो की माँ आगे गाने लगीं।

 

चरखा जु डाहनीयाँ मैं छोपे जु पानीयाँ मैं,
पिड़ियाँ ते लावे मेरे खेस नीं।
पुत्राँ नू दित्ते उच्चे महल ते माड़ियां
धीयाँ नू दित्ता परदेस नीं।

 

पूरो दौड़ी-दौडी आकर माँ के गले से लिपट गयी। माँ- बेटी दोनों रो पड़ी हर लड़की का यौवन उस, अपनी माँ से अलग कर देता है।
पूरो की माँ ने जी कड़ा किया। बेटी के कन्धे पर प्यार किया। सन्ध्या समय का अन्धकार उसके आँगन में उतर आया था। पूरो की माँ को याद आया कि दूसरी चीज चढा़ने को इस समय घर में कुछ नहीं थी, कौन जाने पूरो की ससुराल से कोई आदमी आता ही हो।
पूरो से उसने कहा कि छोटी बहन की उँगली पकड़कर पास के खेतों में से चार भिण्डियाँ ही तोड़ ला। और चावलों की एक मुट्ठी और गुड़ की भेली डालकर मीठे चावल भी चढा़ दे। पूरो का दिल भी आज भर-भर आता था। उसने अपनी छोटी बहन को साथ लिया और बाहर चली गयी।


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