महान व्यक्तित्व >> लालबहादुर शास्त्री लालबहादुर शास्त्रीविनोद तिवारी
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फर्श से अर्श तक का सफर तय करने वाले भारतीय स्वाधीनता के एक निर्भीक सिपाही की साहसिक गाथा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
एक साधारण परिवार में जन्मे और विपदाओं से जूझते हुए सत्य, स्नेह,
ईमानदारी कर्तव्यनिष्ठा एवं निर्भीकता के दम पर विश्व के सबसे बड़े
प्रजातांत्रिक देश भारत के प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की अपने आपमें एक
अनोखी मिसाल हैं-
लालबहादुर शास्त्री।
अपने अदम्य साहस से सन् 1965 के युद्ध में पाकिस्तान के छक्के छुड़ा देने वाले दबंग शास्त्रीजी आज भी भारतीय एवं विश्व जनमानस के प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने यह ऐलान किया था-‘‘भारत को कोई कमजोर समझने की भूल न करे।’’
‘जय जवान जय किसान’ जैसा जोशीला नारा देने वाले छोटे कद के शास्त्रीजी के बुलन्द हौसलों का प्रामाणिक दस्तावेज है प्रस्तुत पुस्तक।
लालबहादुर शास्त्री।
अपने अदम्य साहस से सन् 1965 के युद्ध में पाकिस्तान के छक्के छुड़ा देने वाले दबंग शास्त्रीजी आज भी भारतीय एवं विश्व जनमानस के प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने यह ऐलान किया था-‘‘भारत को कोई कमजोर समझने की भूल न करे।’’
‘जय जवान जय किसान’ जैसा जोशीला नारा देने वाले छोटे कद के शास्त्रीजी के बुलन्द हौसलों का प्रामाणिक दस्तावेज है प्रस्तुत पुस्तक।
प्रकाशकीय
‘‘हम चाहे रहें या न रहें, हमारा देश और तिंरगा झंडा
रहना
चाहिए। और मुझे पूरा विश्वास है कि हमारा तिंरगा रहेगा। भारत विश्व के
देशों में सर्वोच्च होगा। यह उन सबमें अपनी गौरवाशाली विरासत का संदेश
पहुंचाएगा।’’ ये शब्द भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री
श्री
लालबहादुर शास्त्री के हैं, जो उन्होंने लालकिले की प्राचीर से 15 अगस्त,
1965 को कहे थे।
छोटी कद काठी में विशाल हृदय रखने वाले श्री शास्त्री के पास जहां अनसुलझी समस्याओं को आसानी से सुलझाने की विलक्षण क्षमता थी, वहीं अपनी खामियों को स्वीकारने का अदम्य साहस भी उनमें विद्यमान था। हृदय में छिपी देशप्रेम की चिंगारी से शास्त्रीजी को स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ जूझ मरने की शक्ति प्राप्त हुई। सन् 1965 में जब पड़ोसी देश पाकिस्तान ने हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करने की भूल की तो उनका सरल स्वभाव उग्र होकर दहक उठा। उनकी ललकार का मनोबल पाकर भारतीय सैनिकों ने पाक-सेना को अपने इरादे बदलने के लिए विवश कर दिया।
शास्त्रीजी के नारे ‘जय जवान, जय किसान’ ने किसानों और सैनिकों के माध्यम से देश में चमत्कार भरा उत्साह फूंक दिया। शास्त्रीजी प्रतिनिधि थे एक ऐसे आम आदमी के, जो अपनी हिम्मत से विपरीत परिस्थितियों की दिशाएं मोड़ देता है।
आज देश को ऐसे ही सशक्त नेतृत्व की जरूरत है।
शास्त्रीजी उस समय रेल मंत्री थे। सन् 1956 में अशियालूर में रेल दुर्घटना हुई। सारा देश स्तब्ध रह गया। इस दुर्घटना की जिम्मेदारी स्वयं लेते हुए शास्त्रीजी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। काश ! हम आज उनसे कुछ सीख पाते।
नेहरूजी के स्वर्गवास के बाद ऐसा लगा था, मानो वक्त थम गया है। ऐसे में उभरकर आए थे छोटी कद काठी में पर्वत के समान दृढ़ निश्चयी लालबहादुर शास्त्री। उनका हृदय भारत से दोस्ती रखने वालों के लिए लाल गुलाब की तरह कोमल और सुगंध से भरा था, लेकिन दुश्मनों के लिए था-अत्यंत कठोर और आक्रोश युक्त।
शास्त्रीजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। अनाज के संकट से निपटने के लिए उन्होंने सप्ताह में एक दिन का या कम से कम एक समय का उपवास रखने की अपील की थी। ऐसा उन्होंने स्वयं भी किया।
उनका कहना था कि भारत का गौरव बनाए रखने तथा अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए देशवासी किसी के आगे हाथ न फैलाएं।
सन् 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत की सरहदों में घुसपैठ करने की कोशिश की तो उसका करारा जवाब दिया था भारतीय सैनिकों ने। उन सैनिकों की कुर्बानियों के पीछे जोशीले शब्द थे-भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री के। शास्त्रीजी ने तब नारा दिया था-‘जय जवान, जय किसान’ और यह ऐलान किया था कि भारत को कोई कमजोर समझने की भूल न करे।
छोटी कद काठी में विशाल हृदय रखने वाले श्री शास्त्री के पास जहां अनसुलझी समस्याओं को आसानी से सुलझाने की विलक्षण क्षमता थी, वहीं अपनी खामियों को स्वीकारने का अदम्य साहस भी उनमें विद्यमान था। हृदय में छिपी देशप्रेम की चिंगारी से शास्त्रीजी को स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ जूझ मरने की शक्ति प्राप्त हुई। सन् 1965 में जब पड़ोसी देश पाकिस्तान ने हमारी सीमाओं का अतिक्रमण करने की भूल की तो उनका सरल स्वभाव उग्र होकर दहक उठा। उनकी ललकार का मनोबल पाकर भारतीय सैनिकों ने पाक-सेना को अपने इरादे बदलने के लिए विवश कर दिया।
शास्त्रीजी के नारे ‘जय जवान, जय किसान’ ने किसानों और सैनिकों के माध्यम से देश में चमत्कार भरा उत्साह फूंक दिया। शास्त्रीजी प्रतिनिधि थे एक ऐसे आम आदमी के, जो अपनी हिम्मत से विपरीत परिस्थितियों की दिशाएं मोड़ देता है।
आज देश को ऐसे ही सशक्त नेतृत्व की जरूरत है।
शास्त्रीजी उस समय रेल मंत्री थे। सन् 1956 में अशियालूर में रेल दुर्घटना हुई। सारा देश स्तब्ध रह गया। इस दुर्घटना की जिम्मेदारी स्वयं लेते हुए शास्त्रीजी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। काश ! हम आज उनसे कुछ सीख पाते।
नेहरूजी के स्वर्गवास के बाद ऐसा लगा था, मानो वक्त थम गया है। ऐसे में उभरकर आए थे छोटी कद काठी में पर्वत के समान दृढ़ निश्चयी लालबहादुर शास्त्री। उनका हृदय भारत से दोस्ती रखने वालों के लिए लाल गुलाब की तरह कोमल और सुगंध से भरा था, लेकिन दुश्मनों के लिए था-अत्यंत कठोर और आक्रोश युक्त।
शास्त्रीजी की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। अनाज के संकट से निपटने के लिए उन्होंने सप्ताह में एक दिन का या कम से कम एक समय का उपवास रखने की अपील की थी। ऐसा उन्होंने स्वयं भी किया।
उनका कहना था कि भारत का गौरव बनाए रखने तथा अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए देशवासी किसी के आगे हाथ न फैलाएं।
सन् 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत की सरहदों में घुसपैठ करने की कोशिश की तो उसका करारा जवाब दिया था भारतीय सैनिकों ने। उन सैनिकों की कुर्बानियों के पीछे जोशीले शब्द थे-भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री के। शास्त्रीजी ने तब नारा दिया था-‘जय जवान, जय किसान’ और यह ऐलान किया था कि भारत को कोई कमजोर समझने की भूल न करे।
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