महान व्यक्तित्व >> डॉ.राजेन्द्र प्रसाद डॉ.राजेन्द्र प्रसादधरमपाल बारिया
|
9 पाठकों को प्रिय 278 पाठक हैं |
कुटिया से राष्ट्रपति भवन तक की यात्रा का प्रेरणादायी ब्योरा...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘शील-स्वभाव, दिल-दिमाग, भीतर-बाहर, रहन-सहन और
वेशभूषा ही नहीं बौद्धिक प्रखरता, सरलता, नैतिकता, सह्रदयता और सहज
गम्भीरता-सब बेमिसाल। भारतीयता की सजीव मूर्ति हैं राजेन्द्र
बाबू।’’
डॉ.राजेन्द्र प्रसाद के विषय में यह टिप्पणी उनके पूरे व्यक्तित्व का निचोड़ है। वे एक ऐसे राजनीतिज्ञ थे, जो सदा सत्य और अहिंसा के लिए लड़े। और एक गांव से राष्ट्रपति भवन तक के इस लम्बे सफर में उनका कोई शत्रु नहीं था, इसलिए गांधीजी ने उन्हें कहा था-अजातशत्रु।
डॉ.राजेन्द्र प्रसाद के विषय में यह टिप्पणी उनके पूरे व्यक्तित्व का निचोड़ है। वे एक ऐसे राजनीतिज्ञ थे, जो सदा सत्य और अहिंसा के लिए लड़े। और एक गांव से राष्ट्रपति भवन तक के इस लम्बे सफर में उनका कोई शत्रु नहीं था, इसलिए गांधीजी ने उन्हें कहा था-अजातशत्रु।
दो शब्द
कहते हैं कि प्रत्येक चमकने वाली वस्तु सोना नहीं हुआ करती। इसी तरह
साधारण दिखने वाले व्यक्ति में कितना असाधारण व्यक्तित्व छिपा है, कोई
अंदाजा नहीं लगा सकता। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र
प्रसाद इस बात का जीता-जागता उदाहरण हैं। उन्होंने जो कहा, उसे अपने जीवन
में उतारा भी। जिसे उन्होंने जिया, उसे ही उन्होंने शब्द दिए, हम ऐसा भी
कह सकते हैं—वे उन नेताओं में से नहीं थे, जो लफ्फाजी द्वारा
मानवीय आदर्शों की खरीद-फरोख्त करते हैं। उन्होंने बापू की अध्यात्मनिष्ठ
राजनीति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया और उसी में आदर्श भारत के विकास तथा
उन्नति का स्वप्न देखा। यदि यह कहा जाय कि ये शब्द उनके जीवन-दर्शन का सार
हैं, तो अतिशयोक्ति न होगी—
‘‘मेरा मानना है कि देशभक्तों के लिए कभी भोग का समय आता ही नहीं है। योद्धा या तो लक्ष्य प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हैं या फिर उसकी रक्षा के लिए अपनी पूरी सातर्कता के साथ जुटे रहते हैं।
‘‘मेरा यह मानना है कि इस समय देश की जैसी स्थिति है, उसे देखते हुए हममें से किसी को भोग की इच्छा नहीं करनी चाहिए। इसी के साथ; आज तक जिस देश का काम हम प्रेम से करते आए हैं, उससे भी अधिक प्रेम और उत्साह के साथ आज काम करने की आवश्यकता है। हमें चाहिए कि हम अपने में त्याग की भावना पैदा करें और समय आने पर हर प्रकार के त्याग के लिए तैयार रहें।’’
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने स्वयं भी ऐसा करके दिखाया। आज जो बापू का नाम लेकर वोटों की राजनीति कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि वे एकता और अहिंसा के उस पुजारी के दर्शन को समझने के लिए राजेन्द्र बाबू जैसे राष्ट्रीय नेताओं के जीवन चरित्र को पढ़ें, क्योंकि बापू का समग्र जीवन-दर्शन उनके कार्यों में स्पष्ट झलकता है।
राजेन्द्र परिवार के लाडले थे, लेकिन लाड-प्यार ने उनके संस्कारों को बुराई का पुट नहीं दिया। माता से प्राप्त संस्कारों ने जहां राजेन्द्र में सादगी और सहजता के गुणों को पुष्ट किया—वहीं रामायण, महाभारत जैसे महान ग्रंथों के स्वाध्याय ने विपत्तियों से घबराए बिना अपनी मर्यादा में रहते हुए सत्य के लिए संघर्ष करने की भावना भरी। बिहार के एक साधारण गाँव में जन्मे राजेन्द्र ने स्वतंत्र भारत के राषट्रपति पद तक की जो यात्रा की उसमें कुछ तो ऐसा था कि जिसके कारण उनके नाम का किसी ने विरोध नहीं किया और वे बने देश के प्रथम नागरिक।
चंपारन के किसानों को न्याय दिलाने में गांधीजी ने जिस कार्यशैली को अपनाया, उससे राजेन्द्र बाबू अत्यंत प्रभावित हुए। बिहार में सत्याग्रह का नेतृत्व राजेन्द्र बाबू ने किया। उन्होंने गांधी जी का संदेश बिहार की जनता के समक्ष इस तरह से प्रस्तुत किया कि वहां की जनता उन्हें ‘बिहार का गांधी’ ही कहने लगी।
सन 1947 भारत के लिए प्रसन्नता और वेदना से भरा वर्ष था। एक ओर जहां अनगिनत देशप्रेमियों का बलिदान रंग लाया आर्थात् आजाद हुए वहीं दूसरी ओर एक ऐसे शर्मनाक सांप्रदायिक संघर्ष ने हमारे आदर्शों को छिन्न-भिन्न कर दिया, जिसे इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा।
बँटवारे ने कांग्रेस को हिलाकर रख दिया। पटना भी साम्प्रदायिकता की आग में झुलसने लगा। राजेन्द्र बाबू उस आग को शांत करने में लगे थे। उनकी पुत्रवधू की मृत्यु का समाचार जब उन्हें मिला तो उनकी प्रतिक्रिया थी—‘साम्प्रदायिक दंगों के कारण हजारों लोगों को अपने प्रियजनों की मृत्यु का जो दुख है, उसके समक्ष मेरा दुख तुच्छ है।’ और वे पुत्रवधू की अन्त्येष्टि में शामिल नहीं हुए।
उच्च आदर्शों के लिए तुच्छ अपनत्व का त्याग करना पड़ता है।
शक्ति सामर्थ्य और अवसर होते हुए भी राष्ट्रपति जैसे उच्च पद का त्याग कोई आसान काम नहीं था, लेकिन राजेन्द्र बाबू ने ऐसा कर दिखाया। महात्मा गांधी के बाद ऐसा प्रयोग करने वाले राजेन्द्र बाबू ही थे।
यहाँ उल्लेखनीय है कि राजेन्द्र बाबू द्वारा राष्ट्रपति भवन छोड़ने के साथ ही भारतीय राजनीति से मानो गांधी युग का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया था। राजेन्द्र बाबू अपनी संपूर्ण ऊर्जा और प्रकाश लेकर सदाकत आश्रम पहुंचे थे। बापू की वजह से जो स्थान साबरमती के आश्रम को प्राप्त हुआ, वही सम्मान राजेन्द्र बाबू की वजह से सदाकत आश्रम को प्राप्त है। बापू को जहां महात्मा कहा जाता था, वहीं राजेन्द्र बाबू को सच्चे अर्थों में एक संन्यासी मानने वालों की भी कोई कमी नहीं थी। और ऐसा मानना यथार्थ की स्वीकृति था, थोथी प्रशंसा नहीं।
‘‘मेरा मानना है कि देशभक्तों के लिए कभी भोग का समय आता ही नहीं है। योद्धा या तो लक्ष्य प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हैं या फिर उसकी रक्षा के लिए अपनी पूरी सातर्कता के साथ जुटे रहते हैं।
‘‘मेरा यह मानना है कि इस समय देश की जैसी स्थिति है, उसे देखते हुए हममें से किसी को भोग की इच्छा नहीं करनी चाहिए। इसी के साथ; आज तक जिस देश का काम हम प्रेम से करते आए हैं, उससे भी अधिक प्रेम और उत्साह के साथ आज काम करने की आवश्यकता है। हमें चाहिए कि हम अपने में त्याग की भावना पैदा करें और समय आने पर हर प्रकार के त्याग के लिए तैयार रहें।’’
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने स्वयं भी ऐसा करके दिखाया। आज जो बापू का नाम लेकर वोटों की राजनीति कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि वे एकता और अहिंसा के उस पुजारी के दर्शन को समझने के लिए राजेन्द्र बाबू जैसे राष्ट्रीय नेताओं के जीवन चरित्र को पढ़ें, क्योंकि बापू का समग्र जीवन-दर्शन उनके कार्यों में स्पष्ट झलकता है।
राजेन्द्र परिवार के लाडले थे, लेकिन लाड-प्यार ने उनके संस्कारों को बुराई का पुट नहीं दिया। माता से प्राप्त संस्कारों ने जहां राजेन्द्र में सादगी और सहजता के गुणों को पुष्ट किया—वहीं रामायण, महाभारत जैसे महान ग्रंथों के स्वाध्याय ने विपत्तियों से घबराए बिना अपनी मर्यादा में रहते हुए सत्य के लिए संघर्ष करने की भावना भरी। बिहार के एक साधारण गाँव में जन्मे राजेन्द्र ने स्वतंत्र भारत के राषट्रपति पद तक की जो यात्रा की उसमें कुछ तो ऐसा था कि जिसके कारण उनके नाम का किसी ने विरोध नहीं किया और वे बने देश के प्रथम नागरिक।
चंपारन के किसानों को न्याय दिलाने में गांधीजी ने जिस कार्यशैली को अपनाया, उससे राजेन्द्र बाबू अत्यंत प्रभावित हुए। बिहार में सत्याग्रह का नेतृत्व राजेन्द्र बाबू ने किया। उन्होंने गांधी जी का संदेश बिहार की जनता के समक्ष इस तरह से प्रस्तुत किया कि वहां की जनता उन्हें ‘बिहार का गांधी’ ही कहने लगी।
सन 1947 भारत के लिए प्रसन्नता और वेदना से भरा वर्ष था। एक ओर जहां अनगिनत देशप्रेमियों का बलिदान रंग लाया आर्थात् आजाद हुए वहीं दूसरी ओर एक ऐसे शर्मनाक सांप्रदायिक संघर्ष ने हमारे आदर्शों को छिन्न-भिन्न कर दिया, जिसे इतिहास कभी क्षमा नहीं करेगा।
बँटवारे ने कांग्रेस को हिलाकर रख दिया। पटना भी साम्प्रदायिकता की आग में झुलसने लगा। राजेन्द्र बाबू उस आग को शांत करने में लगे थे। उनकी पुत्रवधू की मृत्यु का समाचार जब उन्हें मिला तो उनकी प्रतिक्रिया थी—‘साम्प्रदायिक दंगों के कारण हजारों लोगों को अपने प्रियजनों की मृत्यु का जो दुख है, उसके समक्ष मेरा दुख तुच्छ है।’ और वे पुत्रवधू की अन्त्येष्टि में शामिल नहीं हुए।
उच्च आदर्शों के लिए तुच्छ अपनत्व का त्याग करना पड़ता है।
शक्ति सामर्थ्य और अवसर होते हुए भी राष्ट्रपति जैसे उच्च पद का त्याग कोई आसान काम नहीं था, लेकिन राजेन्द्र बाबू ने ऐसा कर दिखाया। महात्मा गांधी के बाद ऐसा प्रयोग करने वाले राजेन्द्र बाबू ही थे।
यहाँ उल्लेखनीय है कि राजेन्द्र बाबू द्वारा राष्ट्रपति भवन छोड़ने के साथ ही भारतीय राजनीति से मानो गांधी युग का एक महत्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया था। राजेन्द्र बाबू अपनी संपूर्ण ऊर्जा और प्रकाश लेकर सदाकत आश्रम पहुंचे थे। बापू की वजह से जो स्थान साबरमती के आश्रम को प्राप्त हुआ, वही सम्मान राजेन्द्र बाबू की वजह से सदाकत आश्रम को प्राप्त है। बापू को जहां महात्मा कहा जाता था, वहीं राजेन्द्र बाबू को सच्चे अर्थों में एक संन्यासी मानने वालों की भी कोई कमी नहीं थी। और ऐसा मानना यथार्थ की स्वीकृति था, थोथी प्रशंसा नहीं।
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद
गांधीजी ने एक बार कहा था—‘‘मैं जिस भारतीय
प्रजातंत्र की कल्पना करता हूं, उसका अध्यक्ष कोई किसान ही
होगा।’’
और स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत के सर्वोच्च पद के लिए जनता के प्रतिनिधियों ने एकमत होकर जिस महानपुरुष का चुनाव किया, वह पेशे से किसान तो नहीं था, किंतु प्रकृति से वह किसान ही था।
और स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत के सर्वोच्च पद के लिए जनता के प्रतिनिधियों ने एकमत होकर जिस महानपुरुष का चुनाव किया, वह पेशे से किसान तो नहीं था, किंतु प्रकृति से वह किसान ही था।
वह महान पुरुष थे डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद।
वे किसान जैसे सादगीपसंद और कर्मठ थे। उनका हृदय एक किसान की भांति ही
भोला और विश्वासी था। देश के किसी भी वर्ग से यदि उनके गुण, कर्म और
स्वभाव मिलते थे तो वह किसान वर्ग ही था।
26 जनवरी सन् 1950 को वे भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने।
उस दिन पूरे देश में खासकर देश की राजधानी दिल्ली में बड़े ही उल्लास का वातावरण था। लगता था दिल्ली में कोई महोत्सव मनाया जाने वाला है।
यह वही दिल्ली थी, जिसने कितने ही राजा-महाराजाओं के उत्थान और पतन देखे थे, कितने ही राजा-महाराजाओं और सम्राटों के तख्त को अपनी भुजाओं से आलिंगन किया था। न्याय-अन्याय की जांच की थी। देशी-विदेशी मेहमानों को प्रश्रय दिया था। अन्याय का मुंहतोड़ जवाब दिया था और अन्यायी एवं अत्याचारी राजाओं को गद्दी से नीचे धकेला था। विदेशी शासन को तो उसने पलट ही दिया था। वही दिल्ली आज भारत माता के एक सच्चे सपूत को ‘भारतीय गणतंत्र’ के पद पर सुशोभित कर रही थी। देश को स्वतंत्र देखकर आज वह भी प्रसन्न थी।
राजेन्द्र बाबू ईश्वर का स्मरण कर राजकीय सवारी पर सवार हुए, राजकीय कर्मचारी उनकी अगवानी कर रहे थे। सवारी क्वीन विक्टोरिया रोड से गवर्नमेंट हाउस के लिए चली। वहां भूतपूर्व जनरल श्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने उनका स्वागत किया। श्री गोपालाचारी राजा जी के नाम से प्रसिद्ध थे, वे नर-रत्न थे। राजनीति, विचार और बुद्धि में अपना कोई सानी नहीं रखते थे।
भारत के प्रथम राषट्रपति का शपथ-ग्रहण समारोह कोई साधारण घटना नहीं थी। यह इतिहास को पलटने वाली अद्वितीय घटना थी। एक अमर तिथि हो गई 26 जनवरी, 1950।
शपथ ग्रहण समारोह गवर्नमेंट हाउस के दरबार में होना था जहां देश-विदेश के गणमान्य व्यक्ति, विदेशी कूटनीतिज्ञ आदि उपस्थित थे। सारे संसार की नजर इस समय इस ऐतिहासिक समारोह पर टिकी थी।
दरबार हॉल पहुंचकर राजेन्द्र बाबू ने गणमान्य व्यक्तियों के सम्मुख उच्चासन ग्रहण किया। उनकी बगल में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती राजवंशी देवी सुशोभित हुईं। इसके बाद भारत सरकार के गृहसचिव एच.बी.आर आयंगर ने विधिवत घोषणा की कि डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद भारत गणतंत्र के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। तत्पश्चात माननीय राष्ट्रपति ने शपथ ग्रहण की—
‘‘मैं राजेन्द्र प्रसाद, ईश्वर के नाम से शपथ लेता हूं कि मैं श्रद्धापूर्वक भारत के राषट्रपति पद का कार्य पालन अथवा राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करूंगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा तथा मैं भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूंगा।’’
इसके बाद बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए अपने भाषण में कहा—
‘‘हमारे इतिहास में यह स्मरणीय दिवस है। सर्वशक्तिमान परमात्मा को मैं धन्यवाद देता हूं कि उसने हमें आज का यह शुभ दिन दिखाया। और राष्ट्रपिता को भी मैं धन्यवाद देता हूं जिन्होंने हमें और संसार को अपना सत्यग्रह जैसा अमोघ अस्त्र प्रदान किया और हमें स्वतंत्रता के पथ पर आगे बढ़ाया। मैं उन अनेकानेक नर-नारियों को भी धन्यवाद देता हूं जिन्होंने अपने त्याग और तपस्या से स्वतंत्रता की प्राप्ति तथा भारत में सर्वप्रभुता सम्पन्न प्रजातंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना संभव की। हमारे लंबे और घटनापूर्ण इतिहास में यह सर्वप्रथम अवसर है, जब उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पश्चिम में काठियावाड़ तथा कच्छ से लेकर पूर्व में कोकनाडा और कामरूप तक यह विशाल देश सबका-सब इस संविधान और एक संघ राज्य के छत्रासीन हुआ है, जिसने इनके बत्तीस करोड़ नर-नारियों के कल्याण का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया है। अब इसका प्रशासन इसकी जनता द्वारा और इसकी जनता के हितों में चलेगा। इस देश के पास अनंत प्राकृतिक सम्पत्ति साधन हैं और अब इसको वह महान अवसर मिला है, जब वह अपनी विशाल जनसंख्या को सुखी और सम्पन्न बनाए तथा संसार में शांति स्थापना के लिए अपना अंशदान करे। हमारे गणतंत्र का यह उद्देश्य है कि अपने नागरिकों को न्याय, स्वतन्त्रता और समानता प्राप्त कराए तथा इसके विशाल प्रदेशों में बसने वाले तथा भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले लोगों में भाईचारे की अभिवृद्धि हो। हम सब देशों के साथ मैत्रीभाव से रहना चाहते हैं। हमारा उद्देश्य है कि हम अपने देश में सर्वतोन्मुखी प्रगति करें। रोग, दारिद्रय और अज्ञानता के उन्मूलन का हमारा प्रोग्राम है। हम सब इस बात के लिए उत्सुक और चिंतित हैं कि हम पीड़ित भाइयों को, जिन्हें अनेक यातनाएं और कठिनाइयाँ सहनी पड़ी हैं और पड़ रही हैं, फिर से बसाएं और काम में लगाएं। जो जीवन की दौड़ में पीछे रह गए हैं, उनको दूसरों के स्तर पर लाने के लिए विशेष कदम उठाना आवश्यक और उचित है।’’
यह था उनका पहला भाषण जो राष्ट्रपति का पद ग्रहण करने के बाद उन्होंने पढ़ा। और उन्होंने जो कुछ भी कहा, वह केवल कहने मात्र के लिए नहीं था। वे वैसा तन और मन से करने के लिए समर्पित भी थे।
बाबू राजेन्द्र प्रसाद एक निष्ठावान देशभक्त थे। गांधीजी के आदर्शों एवं विचारों में उनकी पूरी आस्था थी।
सादगी, सरलता, सत्यता एवं कर्त्तव्यपरायणता आदि उनके जन्मजात गुण थे। अपने समय में वे एक विलक्षण और मेघावी छात्र थे—एण्ट्रेन्स एफ.ए. बी.ए., बी.एल.. इन सभी परीक्षाओं में उन्होंने विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था। उनकी देशसेवा की भावना का परिचय इसी से मिलता है कि यदि वे चाहते तो मजिस्ट्रेट आदि जैसा कोई उच्च सरकारी पद प्राप्त कर सकते थे, किंतु ऐसा कुछ न करके वे स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।
जब वे कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज के विद्यार्थी थे, तभी उनके हृदय में देश के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया था। उसे विकसित होने का सही अवसर चम्पारण आंदोलन के समय पर प्राप्त हुआ। इस आंदोलन के बाद गांधीजी के भक्त बन गए। उनके व्यक्तिगत विचारों में भी एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आ गया। वे मात्रभूमि की आजादी के एक समर्पित साधक बन गए। अपने जीवन की सभी सुख-सुविधाओं का त्याग कर वे लक्ष्य प्राप्ति में जुट गए—गांधी, नेहरू और दूसरे सभी महान नेताओं की भांति उनका भी एक ही लक्ष्य था और वह था—आजादी।
भारत माता की स्वतन्त्रता।
26 जनवरी सन् 1950 को वे भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने।
उस दिन पूरे देश में खासकर देश की राजधानी दिल्ली में बड़े ही उल्लास का वातावरण था। लगता था दिल्ली में कोई महोत्सव मनाया जाने वाला है।
यह वही दिल्ली थी, जिसने कितने ही राजा-महाराजाओं के उत्थान और पतन देखे थे, कितने ही राजा-महाराजाओं और सम्राटों के तख्त को अपनी भुजाओं से आलिंगन किया था। न्याय-अन्याय की जांच की थी। देशी-विदेशी मेहमानों को प्रश्रय दिया था। अन्याय का मुंहतोड़ जवाब दिया था और अन्यायी एवं अत्याचारी राजाओं को गद्दी से नीचे धकेला था। विदेशी शासन को तो उसने पलट ही दिया था। वही दिल्ली आज भारत माता के एक सच्चे सपूत को ‘भारतीय गणतंत्र’ के पद पर सुशोभित कर रही थी। देश को स्वतंत्र देखकर आज वह भी प्रसन्न थी।
राजेन्द्र बाबू ईश्वर का स्मरण कर राजकीय सवारी पर सवार हुए, राजकीय कर्मचारी उनकी अगवानी कर रहे थे। सवारी क्वीन विक्टोरिया रोड से गवर्नमेंट हाउस के लिए चली। वहां भूतपूर्व जनरल श्री चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने उनका स्वागत किया। श्री गोपालाचारी राजा जी के नाम से प्रसिद्ध थे, वे नर-रत्न थे। राजनीति, विचार और बुद्धि में अपना कोई सानी नहीं रखते थे।
भारत के प्रथम राषट्रपति का शपथ-ग्रहण समारोह कोई साधारण घटना नहीं थी। यह इतिहास को पलटने वाली अद्वितीय घटना थी। एक अमर तिथि हो गई 26 जनवरी, 1950।
शपथ ग्रहण समारोह गवर्नमेंट हाउस के दरबार में होना था जहां देश-विदेश के गणमान्य व्यक्ति, विदेशी कूटनीतिज्ञ आदि उपस्थित थे। सारे संसार की नजर इस समय इस ऐतिहासिक समारोह पर टिकी थी।
दरबार हॉल पहुंचकर राजेन्द्र बाबू ने गणमान्य व्यक्तियों के सम्मुख उच्चासन ग्रहण किया। उनकी बगल में उनकी धर्मपत्नी श्रीमती राजवंशी देवी सुशोभित हुईं। इसके बाद भारत सरकार के गृहसचिव एच.बी.आर आयंगर ने विधिवत घोषणा की कि डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद भारत गणतंत्र के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। तत्पश्चात माननीय राष्ट्रपति ने शपथ ग्रहण की—
‘‘मैं राजेन्द्र प्रसाद, ईश्वर के नाम से शपथ लेता हूं कि मैं श्रद्धापूर्वक भारत के राषट्रपति पद का कार्य पालन अथवा राष्ट्रपति के कृत्यों का निर्वहन करूंगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा तथा मैं भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूंगा।’’
इसके बाद बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए अपने भाषण में कहा—
‘‘हमारे इतिहास में यह स्मरणीय दिवस है। सर्वशक्तिमान परमात्मा को मैं धन्यवाद देता हूं कि उसने हमें आज का यह शुभ दिन दिखाया। और राष्ट्रपिता को भी मैं धन्यवाद देता हूं जिन्होंने हमें और संसार को अपना सत्यग्रह जैसा अमोघ अस्त्र प्रदान किया और हमें स्वतंत्रता के पथ पर आगे बढ़ाया। मैं उन अनेकानेक नर-नारियों को भी धन्यवाद देता हूं जिन्होंने अपने त्याग और तपस्या से स्वतंत्रता की प्राप्ति तथा भारत में सर्वप्रभुता सम्पन्न प्रजातंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना संभव की। हमारे लंबे और घटनापूर्ण इतिहास में यह सर्वप्रथम अवसर है, जब उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पश्चिम में काठियावाड़ तथा कच्छ से लेकर पूर्व में कोकनाडा और कामरूप तक यह विशाल देश सबका-सब इस संविधान और एक संघ राज्य के छत्रासीन हुआ है, जिसने इनके बत्तीस करोड़ नर-नारियों के कल्याण का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया है। अब इसका प्रशासन इसकी जनता द्वारा और इसकी जनता के हितों में चलेगा। इस देश के पास अनंत प्राकृतिक सम्पत्ति साधन हैं और अब इसको वह महान अवसर मिला है, जब वह अपनी विशाल जनसंख्या को सुखी और सम्पन्न बनाए तथा संसार में शांति स्थापना के लिए अपना अंशदान करे। हमारे गणतंत्र का यह उद्देश्य है कि अपने नागरिकों को न्याय, स्वतन्त्रता और समानता प्राप्त कराए तथा इसके विशाल प्रदेशों में बसने वाले तथा भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले लोगों में भाईचारे की अभिवृद्धि हो। हम सब देशों के साथ मैत्रीभाव से रहना चाहते हैं। हमारा उद्देश्य है कि हम अपने देश में सर्वतोन्मुखी प्रगति करें। रोग, दारिद्रय और अज्ञानता के उन्मूलन का हमारा प्रोग्राम है। हम सब इस बात के लिए उत्सुक और चिंतित हैं कि हम पीड़ित भाइयों को, जिन्हें अनेक यातनाएं और कठिनाइयाँ सहनी पड़ी हैं और पड़ रही हैं, फिर से बसाएं और काम में लगाएं। जो जीवन की दौड़ में पीछे रह गए हैं, उनको दूसरों के स्तर पर लाने के लिए विशेष कदम उठाना आवश्यक और उचित है।’’
यह था उनका पहला भाषण जो राष्ट्रपति का पद ग्रहण करने के बाद उन्होंने पढ़ा। और उन्होंने जो कुछ भी कहा, वह केवल कहने मात्र के लिए नहीं था। वे वैसा तन और मन से करने के लिए समर्पित भी थे।
बाबू राजेन्द्र प्रसाद एक निष्ठावान देशभक्त थे। गांधीजी के आदर्शों एवं विचारों में उनकी पूरी आस्था थी।
सादगी, सरलता, सत्यता एवं कर्त्तव्यपरायणता आदि उनके जन्मजात गुण थे। अपने समय में वे एक विलक्षण और मेघावी छात्र थे—एण्ट्रेन्स एफ.ए. बी.ए., बी.एल.. इन सभी परीक्षाओं में उन्होंने विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था। उनकी देशसेवा की भावना का परिचय इसी से मिलता है कि यदि वे चाहते तो मजिस्ट्रेट आदि जैसा कोई उच्च सरकारी पद प्राप्त कर सकते थे, किंतु ऐसा कुछ न करके वे स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।
जब वे कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज के विद्यार्थी थे, तभी उनके हृदय में देश के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया था। उसे विकसित होने का सही अवसर चम्पारण आंदोलन के समय पर प्राप्त हुआ। इस आंदोलन के बाद गांधीजी के भक्त बन गए। उनके व्यक्तिगत विचारों में भी एक क्रान्तिकारी परिवर्तन आ गया। वे मात्रभूमि की आजादी के एक समर्पित साधक बन गए। अपने जीवन की सभी सुख-सुविधाओं का त्याग कर वे लक्ष्य प्राप्ति में जुट गए—गांधी, नेहरू और दूसरे सभी महान नेताओं की भांति उनका भी एक ही लक्ष्य था और वह था—आजादी।
भारत माता की स्वतन्त्रता।
पूर्वज एवं जन्म
बाबू राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के
निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़
कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया, वे वहां से
बिहार के जिला सारन के एक गांव जीरादेई में आ बसे थे। इन परिवारों में कुछ
शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का
भी परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी—हथुआ।
चूंकि राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, अतः उन्हें हथुआ रियासत की
दीवानी मिल गई पच्चीस तीस सालों तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने
स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी। राजेन्द्र बाबू के पिता श्री महादेव सहाय
इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र प्रसाद जी के चाचा श्री जगदेव
सहाय भी घर पर ही रहकर जमींदारी का काम देखते थे। जगदेव सहाय जी की अपनी
कोई संतान नहीं थी।
बाबू राजेन्द्र प्रसाद का जन्मविक्रमी संवत् 1941 के मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा अर्थात् 3 दिसम्बर, 1884 के दिन हुआ था अपने पांच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे, इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
उनके चाचा के चूंकि कोई संतान नहीं थी, इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भांति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते, तो मां को भी जगा लिया करते और फिर उन्हें सोने नहीं देते। अतः मां भी उन्हें प्रभाती सुनाती, रामायण और महाभारत की कहानियां और भजन, कीर्तन आदि सुनातीं।
बाबू राजेन्द्र प्रसाद का जन्मविक्रमी संवत् 1941 के मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा अर्थात् 3 दिसम्बर, 1884 के दिन हुआ था अपने पांच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे, इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे।
उनके चाचा के चूंकि कोई संतान नहीं थी, इसलिए वे राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र की भांति ही समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ। दादी और माँ का भी उन पर पूर्ण प्रेम बरसता था।
बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते, तो मां को भी जगा लिया करते और फिर उन्हें सोने नहीं देते। अतः मां भी उन्हें प्रभाती सुनाती, रामायण और महाभारत की कहानियां और भजन, कीर्तन आदि सुनातीं।
शिक्षा
पांच वर्ष की आयु में उनकी पढ़ाई आरंभ हुई। एक मौलवी साहब उन्हें पढ़ाते
थे। राजेन्द्र प्रातः शीघ्र उठकर मदरसे पहुंच जाते थे। वे पढ़ने में बहुत
तेज थे। मौलवी साहब उन्हें जो भी पाठ घर से याद करने को देते, राजेन्द्र
बाबू सुबह मदरसे जाते ही उन्हें सुना देते, फिर जब तक कि दूसरे विद्यार्थी
आते, तब तक उनका अगला पाठ शुरू हो चुका होता था। अपनी कक्षा में वे सबसे
अव्वल थे। उनकी इसी प्रतिभा के कारण कई बार वे साल में दो-दो क्लास ऊपर
चढ़े।
खेल-कूद में भी वे बराबर रुचि रखते थे। खो-खो, कबड्डी आदि में उनकी विशेष रुचि थी। फुटबाल खेलने का भी आपको शौक था।
सन् 1893 में वे छपरा के स्कूल में दाखिल हुए। वहीं उनके बड़े भाई भी थे, जो छपरा में रहकर ही पढ़ रहे थे।
खेल-कूद में भी वे बराबर रुचि रखते थे। खो-खो, कबड्डी आदि में उनकी विशेष रुचि थी। फुटबाल खेलने का भी आपको शौक था।
सन् 1893 में वे छपरा के स्कूल में दाखिल हुए। वहीं उनके बड़े भाई भी थे, जो छपरा में रहकर ही पढ़ रहे थे।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book