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कहानी संग्रह >> आतिशी शीशा

आतिशी शीशा

दीपक शर्मा

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4006
आईएसबीएन :81-7043-447-5

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नारी आन्दोलन से जुड़ी हुई कहानियों का संग्रह...

Aatishi Shisha a hindi book by Dipak Sharma - आतिशी शीशा - दीपक शर्मा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘आपकी ‘महिला’ स्त्री के आकारगत रूप को सुधारने में दिलचस्पी रखती है, उसकी आधारभूत स्थिति को सुधारने में नहीं...।’
‘क्या मतलब ?’ मैं कुछ समझा नहीं।
‘आपने वे कहानियाँ और चित्र रद्द कर दिए थे...।’
‘किन्तु उनमें एक भी स्त्री मुस्करा नहीं रही थी...परेशान...उद्दगिन...आंसू-सिक्त...विक्षिप्त..भ्रभंगी....विरूपित वे स्त्रियां अशुभ लगती थीं...’’
‘नहीं,’ मैं हँसा।
‘स्त्री की शारीरिक मोहकता आपकी ‘महिला’ जैसी पत्रिका के लिए एक अनुकूल परिस्थिति हो सकती है किन्तु उन कहानियों की वे स्त्रियाँ अपने आपको एक दूसरे चौखटे पर रख रही थीं...।’ यूं समझिए हेलेन सिक्सज़ ने जो पिछले दिनों कहा था कि नारी आन्दोलन से जुड़ी स्त्रियों को लिंग..भेद अभिशून्य करने की बजाए अनुप्राणित करने चाहिए तो उन कहानियों के केन्द्र में स्त्री का वही सापेक्ष महत्व रहा...वही सापेक्ष फटका और वही सापेक्ष अवलोकन...?’’

छोटी रस्सी


सन् सत्तर के उस अक्टूबर में मैं पटियाले में लोक-सेवा की परीक्षा दे रहा था। अपनी मौसी के बंगले से। मनबहलाव के नाम पर मेरे पास रेडियो था, रिकार्ड-प्लेयर था, रिकार्ड थे और था बंगले का गेट।
संयोगवश जो कमरा मौसी ने मुझे मेरे अनन्य प्रयोग के लिए दे रखा था उसकी खिड़की गेट की तरफ खुलती थी और वह गेट जब भी खुलता या बन्द होता, मैं अपनी आँखें उधर मोड़े बिना न रह पाता।
गेट का सबसे ज्यादा इस्तेमाल ऊपर वाली किराएदारिन के मेहमान किया करते।
शाम गहराते ही वे आना शुरू कर देते। कुछ मित्रगण चौका-दल बनाकर आते तो कुछ त्रयी या द्वय के गुटों में। प्रत्येक टोली में एक-दो लड़कों अथवा पुरुषों का रहना लगभग अनिवार्य होता और किसी-किसी समूह में तो केवल पुरुष ही रहते।
वह किराएदारिन एक स्नातक कालेज में भूगोल पढ़ाती थी और सन् सत्तर तक उनके दो कविता-संग्रह छप चुके थे। दोनों पंजाबी में थे : पहले का नाम था, ‘दो-दो चुन्झां’ (दो-दो चोंच) और दूसरे का नाम था, ‘गरम इटां’ (गर्म ईंटें)। उम्र उसकी उस समय सत्ताईस के करीब थी और नाम था : दिलबाग औलख।
एक शाम गेट पर मैंने कुछ लोग देखे। सभी पुरुष थे। ऊपर जाते समय वे एक चौका और एक त्रयी रहे, किन्तु नीचे वे दो त्रयी के रूप में उतरे। देर रात तक जब गेट के दोबारा खुलने या बन्द होने की आवाज मुझ तक न आई तो मेरे कुतूहल को एक नया विषय मिल गया। किन्तु अगले दिन दोपहर में मेरा अन्तर्राष्ट्रीय कानून का परचा रहने के कारण मुझे अपनी जिज्ञासा दबाकर अपने कमरे में बने रहने की मजबूरी रही। अन्तर्राष्ट्रीय कानून मेरे लिए एकदम नया विषय था और उनकी तैयारी यथेष्ट होनी मेरे लिए बहुत जरूरी थी। यों दिलबाग के पास ऊपर जाने की मुझे कभी मनाही न रही, गीता दत्त और जोन बायज़ के रिकार्ड अथवा आएन रैन्ड और सार्त्र की किताबों की अदला-बदली के अन्तर्गत मैं अक्सर उसके कमरे में चला जाया करता। दिलबाग के पास संगीत का भी अच्छा संकलन था और साहित्य का भी।
अन्तर्राष्ट्रीय कानून का मेरा पर्चा खराब हुआ। अपने परीक्षा-केन्द्र से मौसी के घर तक खबरगीरी की अपनी बुरी आदत को कोसता हुआ अभी मैं गेट पर ही पहुँचा था कि एक भरपूर पुलिसिया हाथ मुझ पर झपट लिया। मेरी पगड़ी मेरे सिर से खिसक ली।
सबलोग नहीं जानते इसलिए मैं बता रहा हूँ हमारे जाट सिक्ख समुदाय में पगड़ी का विशेष महत्त्व है और इसके संग किया गया खिलवाड़ बरदाश्त नहीं किया जाता।
‘‘क्या है ?’’ मैं चीखा, ‘‘किस पर हाथ छोड़ रहे हो ? और क्यों ?’’
‘‘तू इधर कहाँ जा रहा है ?’’ वह गरजा।
‘‘पहले तू बता-’’ मैं भी गरज लिया।
शोर सुनकर मौसी का नौकर तुरन्त गेट पर पहुँच आया। मौसी के दोनों बेटे उन दिनों स्नावर पब्लिक स्कूल में पढ़ रहे थे और बैंक मैनेजर, मेरे मौसा, को अपनी फियट में उनके बैंक पहुँचा देने के बाद मौसी अक्सर ताश खेलने या किट्टी पार्टी में भाग लेने मौसा जी के साथ-साथ सुबह ही निकल लेती थीं और शाम को मौसाजी को लिवाते हुए ही घर लौटा करतीं।
‘‘क्या बात है, भई ?’’ मौसी के नौकर ने उस पुलिसिया को झपटा।
‘‘आप जैसी सूरत के एक नक्सलवादी के यहाँ होने की खबर थी’’, पुलिसिए का हाथ तत्काल मुझसे अलग होकर अपनी वर्दी की जेब में गया और एक तस्वीर लेकर लौटा।
मैंने वह तस्वीर हथियायी। मेरी दाढ़ी और आँखें उससे जरूर मिलती रहीं लेकिन उसकी नाक भिन्न थी। मेरी नाक अच्छी, सुगठित है।
मेरी माँ मुझे बताती हैं, बचपन से ही लोग मेरी नाक को देखकर उसकी तुलना कटार से करते रहे हैं, ‘‘कैसी कटार सरीखी नाक है !’’
‘‘मालूम भी है हमारे यह काका जी कौन हैं ?’’ मौसी के नौकर ने उस पुलिसिए को मेरे आए.ए.एस. का नम्बर और मेरा पहचान-पत्र दिखाया।
‘‘माफी देना, साहब,’’ पुलिसिए ने एक सलाम ठोंकी और अपनी राह चल दिया।
‘‘आइए काका जी अन्दर चलिए’’, मौसी के नौकर ने मेरे सम्मान में मेरी नेकनामी को यथोचित मान्यता देने में तनिक देर न लगाई, ‘‘आपके चाय-नाश्ते के लिए मेरी कड़ाही में पनीर के पकौड़े तैयार हो रहे हैं मेयोनीज़ के आपके सैंडविच्च बीबी जी सुबह जाने से पहले तैयार कर गई थीं....’’
चाय के बाद मैंने अपने बालों पर पटका बाँधा और सीढ़ियों से ऊपर जा पहुँचा। दबे पाँव।
बरामदे में दिलबाग दो अजनबी लड़कियों के साथ बैठी थी। एक लड़की ने एक मोटे, दबीज़ दुपट्टे से अपने बाल और ठुड्डी छिपा रखी थी और दूसरी लड़की सामान्य सलवार कमीज में रही।
‘‘आओ, मुबारक, आओ’’, हमेशा की तरह दिलबाग ने मेरे स्वागत में मुझे बरामदे की एक कुर्सी पर बैठने का संकेत दिया।
वह बरामदा दिलबाग की बैठक का काम करता था। दिलबाग के कमरे के अन्दर जाते हुए मैंने किसी को न देखा था। जब कभी दिलबाग अपने मेहमानों को बरामदे में कहीं न दिखाई देती तो वे बीच की गोल मेज पर धरी हाथ की घन्टी बजा दिया करते। अपनी उपस्थिति दर्ज कराने हेतु।
‘‘यह जीवणी है’’, सामान्य सलवार कमीज वाली लड़की की दिशा में दिलबाग ने इंगित किया, ‘‘मेरे लिए अपने गाँव से काम करने वाली लाई है।’’
‘‘हम दोनों रसोई का काम देखते हैं’’, जीवणी दूसरे अजनबी को इशारे से अन्दर उठा ले गई।
‘‘आपकी काम करने वाली के कपड़े भी खूब हैं,’’ मैंने चुटकी ली।
सन् सत्तर में लड़कियाँ या तो खूब चौड़े और खुले-खुले ऊँचे कुरतों के साथ चूड़ीदार पहना करतीं अथवा माप-माफिक फिट कमीज के साथ खुली लम्बी सलवारें- चार-चार इंच सलवार तो उनकी एड़ियों को उनकी सैंडिलों में दबाकर रखनी पड़ती-‘‘नीली कमीज के साथ पीली सलवार पहने है और वह भी इतनी ऊँची कि उसके टखने साफ नजर आ रहे हैं...’’
क्या वह वही थी जो पिछली शाम पुरुष-वेश में ऊपर आई थी ?
या स्त्री-वेश में वह कोई पुरुष था ?
और केशधारी सिक्ख होने के नाते बिना किसी नकली विग का सहारा लिए वह स्त्री-भूषा में लड़की होने का भ्रम पैदा करने में सक्षम रहा ?
क्या उस पुलिसिए को इसी की तलाश थी ?
‘‘कपड़े इसके मैले रहे सो मैंने अपने दे दिए। इसके माप से छोटे जरूर हैं मगर हैं तो साफ,’’ अपनी तेज आवाज की उस गफी चहचहाहट के बावजूद दिलबाग अपनी घबराहट को ओट न दे पाई, ‘‘चप्पल भी उसकी रास्ते में टूट गई थी और इसीलिए चप्पल भी वह मेरी पहनें हैं...’’
‘‘तुमने वह किस्सा सुना है क्या ?’’ दिलबाग की घबराहट मुझसे सहन न हुई, ‘‘एक दयालु मालिक ने अपने बूढ़े नौकर से पूछा, तुम किस का जूता पहनते हो ? तो बूढ़े ने जवाब दिया, किसी भी माप का, मगर फिट मुझे दस नम्बर का बैठता है...’’
दिलबाग को वह किस्सा पसन्द आया और उसने मेरी हँसी का पीछा किया बराबर दो मिनट तक।
‘मगर आपकी काम करने वाली बूढ़ी नहीं’’, ढीली छोटी डोरी मैंने पुनः डेवढ़ी गाँठ में बाँध देनी चाही।
‘‘बूढ़ी नहीं है तो हो जाएगी,’’ किस्सों के अपने भंडार से ढक्कन उठाने की बारी इस बार दिलबाग की रही, ‘‘याद है ? कलिन्ट ईस्टवुड की ही कोई फिल्म थी जिसमें उससे जब पूछा जाता है, तुम्हारा बचपन कैसा था ?....तो वह जवाब देता है, छोटा...’’
‘‘कौन-सी फिल्म है यह ?’’ मेरा ध्यान बँट गया। फिल्मों में मुझे शुरू से ही सनक की हद तक दिलचस्पी रही है।
‘‘शायद सरजिओ लिऔ की ‘डौलरज़’ ट्रायोलोजी में से कोई एक...’’
‘‘ ‘अ फिस्टफुल आव डौलरज़’ ? ‘फ़ौर अ फ़िजू डौलरज़ मोर ?’ या ‘द गुड द बैड एंड द अगली, ?’’ इतालवी फिल्म निर्देशक सरजिओ लिओ का मैं भारी प्रशंसक था और सन् चौंसठ तथा सन् सड़सठ में बनी ये तीनों ‘स्पैघिटी वैस्टर्नज़’ अभी हाल में ही मैंने अपने अमृतसर में देखी थी। किन्तु उक्त वार्तालाप सुनने में मैं जरूर चूक गया था।
‘‘अब याद नहीं आ रहा’’, दिलबाग मुस्कराई, ‘‘और बताओ तुम्हारा अन्तर्राष्ट्रीय कानून का पर्चा कैसा रहा ?’’
‘‘अच्छा नहीं हुआ। लगता है अगले साल मुझे फिर पटिलाये आना पड़ेगा।’’
‘‘मेरे लिए अच्छा रहेगा। इसी बहाने तुमसे फिर भेंट हो जाएगी। वरना आए.ए.एस. में पहुँचकर तुम फिर इधर क्यों देखने लगे ?’’
ऐसा नहीं है’’, मैं अप्रतिभ हो गया और बात का रुख पलटने के लिए मैंने मेज़ पर रखी किताब अपने हाथ में ले ली, ‘‘द डेयरिंग यंग मैन औन द फ़्लाइंग ट्रैपीज़ एंड अदर स्टोरीज़ बाए विलियम सारोयान।’’
‘‘तुम इसे पढ़ना चाहो तो बेशक नीचे ले जाओ। बड़ी उम्दा कहानियाँ हैं।’’
‘‘देखता हूँ’’, मेरा अगला परचा चार दिन बाद था और सारोयान खत्म करने में मुझे कोई खटका न रहा।
सारोयान मैंने केवल जिज्ञासावश ही खत्म किया, उसके प्रस्तुतीकरण के दबाव के अन्तर्गत नहीं। सारोयान की वापसी का बहाना लेकर अगले दिन मैं फिर ऊपर पहुँच लिया।
दोपहर के अढ़ाई बजे। बरामदा खाली था।
‘‘कोई है क्या ?’’ मेरे पैरों की आहट दिलबाग को अपने कमरे के दरवाजे पर आई।
जीवणी उसके ऐन पीछे थी।
क्या उन्हें किसी की प्रतीक्षा रही ?
अजनबी दिलबाग के कमरे में ही क्यों थी/था ? बाहर बनी दिलबाग की रसोई में क्यों नहीं ?
‘‘आपका सारोयान’’, मैंने कहा।
‘‘कैसा लगा ?’’ दिलबाग फौरन मेरी ओर बढ़ ली।
‘‘आपकी जीवणी के सामने बताऊँगा’’, संकोची जीवणी के सम्मुख दिखावटी और अतिरंजित मुस्कान प्रदर्शित करने में मैंने आनन्द लिया, ‘‘वे क्या करती हैं ?’’
‘‘अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. कर रही हैं, चंडीगढ़ से...’’
‘‘कहिए,’’ जीवणी भी बरामदे में चली आई।
‘‘सारोयान मुझे पसन्द नहीं आया,’’ किताब मैंने मेज पर टिका दी, ‘‘साहित्य की गुणवत्ता मैं शिल्प के पैमाने से नापता हूँ और सारोयान कहानी की शिल्पविधि के साथ ढिलाई बरतता है। बिना किसी प्रकरण के कहानी की विषय-वस्तु को केवल एक भावावेग के माध्यम से पसारना शुरू करता है और फिर अकारण पसारता ही जाता है...’’
‘‘हैरत है’’, जीवणी चिहुँक उठी, ‘‘आपको सारोयान पसन्द नहीं। भूख, गरीबी और असुरक्षा के बीच भी सारोयान के पात्र अपनी जिन्दादिली बरकरार रखते हैं और जीवन का मोल ओझल नहीं होने देते...’’
‘‘मुझे एलेन सिलिटो ज्यादा पसन्द हैं,’’ मैंने कहा, ‘‘उसकी कहानी ‘द लोनलीनेस आव द लौंग डिसटेन्स रनर,’’ देखिए। उस बौरस्टल लड़के का विद्रोह और अराजकता प्रेम देखिए। इसटेब्लिशमेन्ट का प्रत्येक प्रस्ताव वह ठुकराता है, लाक्षणिक स्तर पर भी और शाब्दिक स्तर पर भी। वह भी असुरक्षा से घिरा है। किन्तु जिन्दादिली-शाब्दिक और खोखली जिन्दादिली की बजाय उसकी असुरक्षा उसके अन्दर विद्रोह को जन्म देती है, उसका सिनिक दर्शन उभारती है, उसकी दोषदर्षिता उभारती है...।’’
‘‘दोनों कहानियाँ एक्सट्रीम सिचुयेशन्ज की कहानियाँ हैं ?’’ दिलबाग बोली, ‘‘आत्यन्तिक स्थितियों की कहानियाँ हैं। सारोयान वाली कहानी में करुणा है तो सिलिटो वाली में क्रोध।’’
‘मुझे क्रोध ज्यादा पसन्द है...’’ मैंने कहा।
‘‘आप जरूर झूठ बोल रहे हैं,’’ जीवणी बोली।
‘‘कैसे ?’’
‘‘अगर आपको सिलिटो सचमुच पसन्द होता तो आपने अपने हाथ आए.ए.एस. के परचों पर रखने की बजाय इतिहास को नए सिरे से धुनकने और कातने में लगाए होते,’’ जीवणी का स्वर उग्र हो आया।
‘‘मैं समझता हूँ इतिहास की चरखा-पूनी के लिए व्यवस्था की सत्ता में साझेदारी जरूरी है...’’।
‘‘सभी अवसरवादी ऐसा ही कहते हैं’’, जीवणी अड़ गई, ‘‘लेकिन अन्दर से केवल वे अपने आपको ऊपर पहुँचाने के रास्ते देख रहे होते हैं मी-फ़र्स्ट, औल लास्ट-पहले मैं, बाकी बाद में...’’
‘‘फ़ैलेक्स ग्रीन ?’’ मैं हँसा। सन् सत्तर के उस साल में ग्रीन की पुस्तक ‘द एनिमी’ का पहला भारतीय संस्करण कागज की जिल्द में प्रकाशित हुआ था, ‘‘और उसके नाइस, रीज़नेबुल मेन (शालीन, समझदार लोग) ?’’
‘‘बेशक, फ़ैलेक्स ग्रीन,’’ जीवणी ने अपनी गरदन को एक फेरा दिया, ‘‘इट इज दीज रीज़नेबुल मेन फौर औल देयर प्लौज़िबिलिटी हू हैव मेड दे वर्लड् वौट इट इज़ दीज़ रीज़नेबुल मेन...दे हैव फूल्ड अस टू लौंग..दीज़ रीज़नेबुल मेन...दे डोंट डिलीवर द गुड्ज़ दे प्रौमिस...दे बीलीव इन मनी एंड पावर एंड वी बीलीव इन पीपल...(इस दुनिया की वर्तमान स्थिति के लिए यही समझदार लोग और उनके दिए झूठे सत्याभास जिम्मेदार हैं...ये हमें बहुत ज्यादा अवधि तक मूर्ख बना चुके हैं...ये समझदार लोग..हमें विश्वास दिलाकर हमारे साथ विश्वासघात करते हैं..ये धन और सत्ता में विश्वास रखते हैं और हम जनशक्ति में...’’।
फ़ैलेक्स ग्रीन जीवणी को मुँह-जुबानी याद रहा क्या ?
तभी मेरी निगाह सीढ़ियों पर पड़ी।
तीन अनजान मेहमान उन्हें पार कर रहे थे।
‘‘वे आ रहे हैं’’, मैंने चुभती कही ‘‘फ़ैलेक्स ग्रीन के जंगबाज...सड़कों का खमीर लिए..नौट नाइस नौट रीज़नेबुल बट अदरवाइज़..द पीपल...(शालीन नहीं, समझदार नहीं, अन्य प्रकार के मगर जनोन्मुख)...’’।
‘‘तू यहाँ क्या कर रहा है छोकरे ?’’ एक घुड़की के साथ एक ने मेरे हाथ कूल्हों पर जा चिपकाए और दूसरे ने अपना एक हाथ मेरी गरदन पर आ टिकाया तो दूसरे हाथ से एक घूँसा मेरे जबड़े पर ला जमाया और तीसरे ने मेरी जामातलाशी शुरू कर दी।
ये जरूर सादी वरदी में सुबह वाले पुलिसिए के साथी थे, मेरे दिमाग में बिजली कौंधी।
क्यों न मैं उस अजनबी पनाहगीर को इन पर जाहिर कर दूँ ?
और अपनी जान छुड़ाऊँ।
मगर क्यों ?
क्यों मैं उसे पनाह देने वालियों का भंडा फोडूँ ?
खुद जोखिम उठाने की बजाय उन्हें जोखिम में डालूँ ?
क्यों ?
क्यों नहीं ?
नहीं, मुझे चुप लग गई।
‘‘छोड़ो इसे,’’ लपककर दिलबाग उन पर झपटी, ‘‘यह हमारा आदमी है...’’
‘‘मालूम है यह कौन है ?’’ मुझे घुड़कने वाली आवाज फिर बुलन्द हुई, ‘‘एक आए.पी.एस का बेटा। यहाँ जासूसी करने आया है...’’
तो क्या वे पुलिसिए न थे ? पुलिस, के संदेहभाजन थे ?
‘‘बिना सरकार से तनख्वाह लिए ?’’ दिलबाग चिल्लाई, ‘‘होश में आओ। इसके पिता के पास साधन की कमी है या अक्ल की जो वे अपने जवान बेटे को दाँव पर लगाकर उससे जासूसी करवाएँगे ?’’ सभी हाथ मुझसे तत्काल अलग हो लिए।
उसी शाम दिलबाग और जीवणी उस अजनबी के साथ कहीं चली गईं, बिना मुझसे विदा लिए।
मेरी आए.ए.एस. परीक्षा का परिणाम जून, इकहत्तर में निकला।
पिछली अक्टूबर से लेकर उस जून तक की अपनी व्यस्तता और विचारमग्नता के कारण दिलबाग के साथ मैं कोई सम्पर्क न स्थापित कर पाया था।
दो-एक पत्र तथा नए साल के कार्ड जो मैंने उसे तथा उसकी मार्फत जीवणी को उसके कालेज के पते पर भेजे भी थे तो वे अनुत्तरित ही रहे थे। टेलिफोन उसके पास था नहीं। फिर मौसी के फोन पर ट्रंक काल बुक कराकर उससे बात करना भी असम्भव रहा। आज सोचता हूँ उन दिनों भी एस.टी.डी. तथा ई-मेल जैसी सुविधाएँ रहनी चाहिए थीं।
अलबत्ता पास होने की खुशी में मौसी से मिलने के बहाने मैं पटियाले जा पहुँचा।
पोर्च में मौसी की फियट के पास एक स्कूटर खड़ी मिली।
‘‘दिलबाग ने स्कूटर ले लिया क्या ?’’
‘‘वह अब यहाँ कहाँ ? उसे तो यहाँ से गए एक अरसा बीत गया है...’
‘‘उसकी कोई खबर ?’’
‘‘हाँ उसके जाने के दूसरे-तीसरे हफ्ते पुलिस ने उसके घर पर छापा मारा था...’’
‘‘छापा ?’’ मेरा दिल बैठा गया।
‘‘हाँ। छापा। मालूम है वह कौन थी ? एक नक्सलवादी। पता नहीं वह पकड़ी गई, मारी गई या भाग गई। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि अपने किसी नक्सलवादी साथी के साथ वह कैनेडा में है...अब क्या मालूम क्या सच है ?’’
तुम कहाँ हो दिलबाग ?
और जीवणी, तुम ? छद्मवेशी उस अजनबी और दिलबाग की भाँति इतिहास की अलैया-बलैया से अलोप ?
अथवा मेरी तरह इतिहास से अलहदा ?
किसी छोटी रस्सी के अलल्ले-तलल्ले !

दई की घाली


देहली के एक बड़े हॉल में अगले माह मेरे चित्रों की एक एकल प्रदर्शनी आयोजित की जा रही थी।
उस शाम मैं एक महत्त्वपूर्ण चित्र पर काम कर रहा था। एक टूटे दर्पण में एक साबुत मानवी चेहरे के विभिन्न खण्ड उतार कर।
तत्पर घोड़ों की मानिन्द मेरे हाथ मेरे कैनवस पर दौड़ रहे थे।
सरपट।
फिर अचीते ही वह बिदक लिए।
मैंने उन्हें लाख एड़ी देनी चाही किन्तु उनकी दुलकी ने रफ्तार पकड़ने से साफ इनकार कर दिया।
बिगड़ैल घोड़ों की मानिन्द।
क्या उन्हें बाबूजी ने एड़ी लगाई थी ?
अथवा जिज्जी ने ?
काम रोककर मैं अपने स्कूटर पर बैठ लिया।
साधन सम्पन्न मेरे एक मित्र ने विशाल अपने बंगले के एक कमरे को मुझे मेरे स्टूडियो के लिए दे रखा था और पिछले कुछ महीनों की अपनी अतिव्यस्तता के कारण रात में भी मेरा अपने घर जाना बहुत कम हो गया था।
अजीब और अटपटा तो जरूर लगता था कि एक ही शहर में अरे-परे एक भरी-पूरी रौनकी सड़क पर मेरे पास मंगलप्रद एवं सुविधाजनक अपना यह अस्थाई ठौर था और सरासर बोझिल एक संकरी रेलवे कालोनी में रेल की धमक और धुएँ से शापित एवं कष्टप्रद वह स्थाई ठिकाना। एक आवास में प्रतापी और प्रतिष्ठित मेरे मित्र थे, सावकाश और मिलनसार उनकी पत्नी थी प्रफुल्लित और स्फूर्तिगत, उनकी दो बेटियाँ थीं- सलोनी और कस्तूरी और दूसरे निवास पर व्यग्र और रुग्ण बाबू जी थे तथा विषाद प्रवण और अन्तर्ग्रस्त जिज्जी !
और यह बात भी कम हैरत की नहीं थी जो इस छोर से गुजरती हुई हवा उधर मेरे स्टूडियो में अक्सर आ धमकती थी और इस घर की धड़कने मुझे अपने स्टूडियों में साफ सुनाई दे जाती थीं और बिना किसी दूर-भाष अथवा दूर-संचार के बाबूजी और जिज्जी के दूर-संवेदी संदेश मुझ तक हमेशा पहुंच लेते थे और मैं इधर की तरफ उड़ आता था।

(2)


हमेशा की तरह उस शाम भी सोलह सीढ़ियों पर बैठे मेरे घर ने मुझे देखते ही अपना ज्वारनदमुख खोल दिया।
‘किशोरी लाल जी आए हैं ?’ मेरे स्कूटर की आवाज सुनते ही बाबूजी उसके मुहाने पर आ खड़े हुए।
इधर अपनी सेवा-निवृत्ति के बाद से मेरे संग बाबूजी अपने व्यवहार में औपचारिक बाह्याचार बरतने लगे थे।
‘हाँ’, यथा नियम मैंने भी हाजिरी भरी, ‘मैं, किशोरीलाल।’
‘इन्दु बीमार है’, सीढियाँ पार कर जैसे ही मैं बाबूजी के पास पहुँचा बाबूजी ने मुझे चेताया, ‘अच्छा किया जो आप इधर चले आए...बेचारी तीन दिन से मुँह औंधे बिस्तर पर पड़ी है...अपने काम पर नहीं जा रही...’
पिछले पाँच वर्षों से जिज्जी रेलवे स्टेशन पर उद्घोषक का काम कर रही थीं।
अपनी सेवा-निवृत्ति से एक साल पहले ही जिज्जी को बाबूजी ने यह नौकरी दिला दी थी। अपने रेलवे क्वार्टर को अपने अधिकार में रखने हेतु।
‘मलेरिया न हो ?’ दो कमरों के उस मकान में रसोई की बगल वाले कमरे में जिज्जी अपनी चारपाई पर लेटी रहीं।
‘हो सकता है,’ बाबूजी की आवाज उनके हाथों के संग-संग कांपी-इधर कुछ समय से वे पारकिनसनज़ डिज़ीज़ के तेजी से शिकार हो रहे थे। ‘बुखार के साथ-साथ कँपकँपी रहती है....’
‘क्या बात है जिज्जी ?’ मैंने जिज्जी का कंधा हिलाया, ‘डॉक्टर बुलाऊँ क्या ?’
जिज्जी ने सिर हिलाया।
तिरछी दिशा में।
किसी कठपुतली की ऐंठन के साथ।
अल्पभाषी जिज्जी बीमारी में अपनी जुबान पर ताला लगा लिया करतीं।
‘मैं डॉक्टर ला रहा हूँ,’ मैंने कहा।
जिज्जी की आँखों में आँसू तैर आए।

(3)


इस रेलवे कालोनी का दूसरा सिरा गोटे बाजार में खुलता था।
उधर गए मुझे एक अरसा बीत चला था और उस शाम मैंने उसी तरफ अपनी स्कूटर बढ़ाया।
गोटे बाजार के बाद की गली चूड़ियों की रही और उससे अगली जेवरात की।
उसके बाद एक तिराहा आया जिसका एक रास्ता प्लास्टिक की बालटियों से भरा रहा और दूसरा स्टोव की मरम्मत करने वाली दुकानों से।
मैं तीसरे रास्ते पर निकल लिया।
वहाँ पहली दुकान परचून की थी, दूसरी अचार-मुरब्बे की और तीसरी एक डॉक्टर की।
बोर्ड पर डॉक्टर का नाम सूर्यपाल वशिष्ट लिखा था और नीचे मिलने के घन्टे दर्ज थे, सुबह आठ से दोपहर एक बजे तथा शाम पाँच से आठ बजे।
उस समय मेरी घड़ी पौने छः बजा रही थी।
‘आप रजिस्टर्ड डॉक्टर हैं क्या ?’ डॉक्टर की कुरसी पर बैठा युवक मुश्किल से चौबीस का रहा होगा। लगभग मेरी ही उम्र का।
‘नहीं मैं अभी पढ़ रहा हूँ। मेडिकल कालेज के फोर्थ ईयर में। यह दुकान मेरे पिता की है। इधर कुछ महीनों से वे अस्वस्थ चल रहे हैं और मैं उनके मरीजों को देखने चला आता हूँ।’
‘आपको अपने घर ले जाना चाहता हूँ’, मैंने कहा, ‘मेरी बहन बीमार है...’
घर जाने की हम दुगुनी फीस लेते हैं, अस्सी रुपया...’
‘आइए, मेरे पास स्कूटर है....’
युवक ने मेज की दराज से स्टेथोस्कोप निकाला, आलमारी से कुछ दवाइयाँ लीं और अचार-मुरब्बे वाली दुकान के काउंटर पर बैठे अधेड़ व्यक्ति को आवाज दी ‘चाचा कोई आए तो उसे बैठा लीजिएगा, मैं जल्दी ही लौट आऊँगा।’
‘ठीक है’, अधेड़ ने मुँह छिपाकर अपनी हँसी दबाने का प्रयत्न किया, ‘बिल्कुल ठीक।’




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