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वंशबेल

विजय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 401
आईएसबीएन :81-263-0983-0

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विजय की उत्कृष्ट कहानियों का संकलन।

Vanshbel - A Hindi Book by - Vijay वंशबेल - विजय

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


विजय ऐसे कथाकार हैं जिनकी कहानियों में भारत की विविधता झलकती है। उनके कथा संसार को भाषा की सरहदें नहीं बाँध पातीं। देश के विभिन्न प्रान्तों के सामान्य लोगों, मध्यवर्गीय परिवार के ? अस्तित्वगत् संघर्षों और उनकी विडंबनाओं को विजय इस खूबसूरती से उस परिवेश का चित्रण करते हुए रच देत हैं, जैसे वे उन्हीं के सुख-दुःख के बरसों के साथी हो। विजय की कहानियों में विषय की विविधता में जीवन के रंग भी हमें कई प्रकार के देखने को मिलते हैं। उनमें मुम्बई के झोपड़पट्टियों में जीने वालों की कराह सुनाई पड़ती है तो सम्प्रदायिक लोगों की गुण्डई की आंच भी महसूस होती है। एक तरफ गुजरात की त्रासदियों की सिसकारियाँ व्यथित करती हैं तो दूसरी तरफ आदिवासियों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिये जाने की पीड़ा भी दिल पर बोझ बनकर उतर आती है। औरत तो अपनी नियति से हर जगह से दुःखी है चाहे वह गुजरात की हो या राजस्थान की या बंगाल की। विजय की हर कहानी में मानवीय सरोकार स्थान-काल-पात्र के वैविध्य के बावजूद मूल विषय के रूप में ही अभिव्यक्त होते हैं।

विजय की कहानियों के पात्र पाठकों के सामने जैसे एक चुनौती के रूप में नज़र आते हैं। वे जिन्दगी की सच्चाइयों को सामने लाते हैं और उनसे गुजरने वालों को अपने ढंग से समाधान के लिए प्रेरित करते हैं। इस संग्रह की कहानियों को पढ़ते हुए कोई भी जागरूक पाठक अपने को तटस्थ नहीं महसूस कर पायेगा। निश्चित ही यह कहानियाँ पाठक के अनुभव-संसार में कुछ जोड़ेंगी।

खबरों से परे...तथागत

छोटे-मोटे धक्के फिर दिन में एक-बार आये मगर इमारतें सलामत रहीं। लोग आतंकित हो खुले मैदानों की तरफ दौड़े मानों खुला आकाश ही उनकी जिन्दगी का अन्तिम आसरा हो। इमदाद में लगे विदेशी और  फौजियों के चेहरे भी उतर गये....क्या अहमादाबाद भी भुज या अंजार बनेगा ? हजारों खँडहर शहर को इतिहास बना देंगे और कतार में लगी होंगी लाशें। उनमें से एक लाश हमारी भी होगी। झटका रुका तो हँसे, तत्त्वज्ञान जाग उठा...मौत का वक्त और भूगोल निश्चित रहता है। मौत वहीं पहुँच जाती हैं जहां उसे जाना है।
पारीख भवन की गिरी पाँच मंजिल इमारत के पीछे सदी पुरानी दो मंजिला इमारत अपनी जर्जर अवस्था में अभी भी शान से खड़ी है। इसमें एक रिटायर्ड फौजी अँग्रेज रहता था जिसने गुजराती लड़की से शादी की थी, मगर गुजरातियों ने उसे अपनाया नहीं। प्रकृति का आक्रोश भी उसका बहिष्कार कर गया।
टी.वी पर देखकर लौटा एक किशोर बता रहा था.....कुत्ते ने ढ़ूँढ़ लिया मलबे के नीचे। मेरी उमर का है। बस एक टाँग फँसी है शायद काटनी पड़े।

कोई निःश्वास खींच कहता है....अजीब ट्रेजडी है। मलबे में दबे जिन्दा लोग चीख भी नहीं पा रहे हैं। चीखें भी तो आवाज सुनाई नहीं देगी। उन्हें मुर्दों में गिनना ही ठीक है।
तरुण आगे बढ़ता है। पारीख भवन की इमारत औंधी पड़ी थी मानों बालों ने किसी औरत का चेहरा ढँक लिया हो। कुत्ते मलबे पर टहल रहे थे एक निःश्वास गहरा उठती है.... इसी में दबे हैं पिता। तीसरा दिन है आज। भारी थुलथुल बदन क्या लम्बा संघर्ष कर सकता है ? खोजी कुत्ता घूमकर दूसरी इमारत की तरफ बढ़ गया था। अचानक चौंकता है तरुण....ये छायाएं कैसी ? तरुण पहचान लेता है, बोरा उठाये खँडहरों पर मँडराते लोगों को। लो जाए जो मिले। क्या फर्क पड़ता है उनको जिन्हें दीवारें गिरकर अब अपने साथ सुलाये हुए हैं।

 तरुण परिसर की बाउण्ड्रीवाल पर बैठ जाता है.....आईसाबेला की स्मार्ट देह, उसकी तोप जैसी हरदम फटती रहनेवाली मॉम और गिटारों को जाँचते डैड। सब अन्दर, एक-दूसरे से मूक भाषा में बात कर रहे होंगे। आईसाबेला उसे अच्छी लगती थी चाहे उससे उम्र में कुछ बड़ी थी। उसके डैड, गुजरात में पनपती होटल संस्कृति और पाप म्यूजिक को लेकर खासे खुश थे। डाँडियाँ को डण्डा डांस कहकर मजाक उड़ाते थे मगर अपनी ही बेटी को ही साबरमती से सटी कालोनी में अशरफ़ ख़ान की बाँहों में देख गिटार भूल बन्दूक लिए घूमते थे।....और वैद्यनाथ नागर का परिवार। माता, पिता, पत्नी, आया और शिशु अभिज्ञान। सब दब गए। नीचे लॉन पर जब आया प्रेम में बच्चों को घुमाती होती,  तरुण को देख किलकारी भरने लगता था। तरुण की सारी उदासी क्षणांश में अदृश्य हो जाती थी। और भी लोग थे....किसलिए चटर्जी जो फ्लैट में ही स्टूडियो खोले हुए था। सनाथ मेहता....सब ही तो गये। सिर्फ फर्स्ट फ्लोर के दो परिवार बच सके। मेहरा की पत्नी को कुत्तों से एलर्जी थी और कल सुबह ही सरकारी कुत्ता चारों तरफ उनकी सांस सूँघने में नाकाम हो लौट गया।

जिन्दा होतीं तो चीख उठतीं विरोध में। मगर कुत्ता भौंका भी नहीं।
तरुण हवा में व्याप्त ठण्डक को अहसासते हुए पहनी गई विण्डशीटर के बटन बन्द करता है और मफलर कान से लपेट लेता है। दोनों चीजें ही बड़ौदा से उसके लिए मयंक लेकर आया है। तरुण आया है। तरुण आँखें मूँद लेता है..... सब कुछ बेच पाँच मंजिला इमारत के किराये पर ऐश करते थे उसके पिता नरेश पारीख ! सोचता रहता है तरुण। मलबे के नीचे दबी किसी घड़ी की टिकटिक, मलबे पर घूमती छायाओं को भी व्यस्त रखती है।

टेण्ट के अन्दर फैली निस्तब्धता, पेट्रोमैक्स की रोशनी, चार बिस्तरों पर लेटे बेहोश से घायल, हिलती हुई कनात और कभी-कभी ऊपर उठ जाता तम्बू ! मयंक पाँचवें खाली बिस्तर की तरफ देखता है। उसपर लेटे घायल व्यक्ति को मौत दर्द और बेहोशी से निजात दे चुकी थी। तरुण मोटी चादर में लिपटी लाश के साथ श्मशान घाट गया था। लौटकर बता रहा था....बहुत बड़ी चिन्ताएँ थीं। एक पर पैंतालीस लाशें पहले से लेटी थीं। चार और मुर्दे आने पर दूसरी चिता को भी सुलगा दिया जाना था। सामूहिक विवाह कि बात सुनी थी मयंक ने, अब सामूहिक दाह भी शुरू हो गये। ऐसे में पण्डित सोचता होगा...एक-एक कर करता तो लखपति बन जाता। धर्म की भी तो अब देह बची है धरती पर, आत्मा कूच कर चुकी है।
 
बताते वक्त तरुण के चेहरे पर आतंक या दर्द का कोई अहसास नहीं उभरा था। मगर जब बोला था कि वहाँ खूब गर्मी थी, उसके चेहरे पर चमक फैल उठी थी। उसने होंठ तिरछा कर कहा था, ‘‘ड्यूटी पर मौजूद पुलिसवाला पत्थर की बेंच पर बैठ जम्हाई ले रहा था, मानो टी. वी. पर लहर नमकीन पर इश्तहार चल रहा हो....क्या करें ? कण्ट्रोल ही नहीं होता है।’’

मयंक को लगा कि जहाँ-जहाँ जिन्दगी है वहीं-वहीं ठण्ड भी है। गर्मी का हक मुर्दों के पास पहुँच गया है। फिर भी श्मशान के अन्दर प्रवेश करने से लोग कतराते हैं जबकि मुर्दों के साथ मुर्दा लेट जाए या जिन्दा कोई फर्क नहीं पड़ता है। जातपांत, धर्म, गरीबी और अमीरी की बू से शायद आदमी मरकर ही मुक्त हो सकता है। कुछ देर के लिए मयंक की आँखों के सामने गर्म रोशनी फैल जाती है, मानो कैम्पफायर हो रहा हो आस-पास। फिर निःश्वास उभरती है.....मरघटों में अँधेरा होता है, धुआँ होता है और कुछ नहीं। वहाँ वर्तमान को अतीत बनाने जाते हैं लोग।

मयंक डॉक्टर से जान चुका है अर्पिता की चोट के बारे में। डॉक्टर का सही नाम नून या नू कुछ ऐसा ही है। उसे हिन्दी या अंग्रेजी नहीं आती है, सिर्फ चोट और उपचार से मतलब रखता है। मगर साथ आयी जापानी नर्स हिन्दी में बताती रही, सिर की चोट घातक नहीं है। कमर और कोहनी का जख्म भी गहरा नहीं है मगर हलकी चोटें बेहद दर्द देती हैं। चोट से ज्यादा हादसे से आतंकित है औरत। नींद का इन्जेक्शन आज भी दिया है। सुबह तक होश आ जाएगा।

शायद मंयक अहमदाबाद आता भी नहीं। उसे तो अंजार जाना था। दो जूनियर रिपोर्टर को भुज और अहमदाबाद आना था। दूसरी जगहों पर आस-पास के संवादाताओं को ही कवर करना था मगर जाने कैसे तरुण ने फौजी फोन की लिंक से छब्बीस की रात बड़ौदा से निकलने से पहले ही सम्पर्क कर लिया। भुज या अंजार न जा पाने का अफसोस उभरा था, क्योंकि वहीं सबसे ज्यादा नुकसान हुआ था, मगर एडीटर नानूभाई देसाई ने समझाया था’’, बहुत नुकसान हुआ हैं वहाँ पर भी। अंजार में भी राष्ट्र प्रेम के गीत गाते सैकड़ों स्कूली बच्चे गली की दीवारों के बीच जिन्दगी खो बैठे। कोई कैरियर की उत्तेजना में कहीं स्कूल चला गया।

गणतन्त्र दिवस की छुट्टी होते हुए भी वह घर नहीं लौटा। बच्चों को दूध पिलाती औरतें, अखबार पढ़ते लोग, बीमार पिता की सेवा में लगे नौजवान, जिन्दगी की सुकबुगाहट लिये बच्चे, नौजवान....सब अपने-अपने नन्दावन में चिर निद्रा में सो गये। ये सारी ट्रेजडी इमारत और इनसान को खा गयी। उतना नुकसान नहीं हुआ अहमदाबाद में। मगर वह शहर हमारे लिए खास, इम्पार्टेण्ट है। वहां अपने पब्लिकेशन के बोर्ड का चेयरमैन रहता है, बड़ा बिजनेस है, विशाल इमारतें गिरी हैं वहाँ, बिल्डर, माफिया, बिजनेस और पालिटिकल स्कूप्स हैं वहाँ और सबसे पहले फारेन एड वहाँ लांच होगी। रेस्क्यू आपरेशन्स की गहनता का पता चलेगा। फिर तुम्हारी रिलेटिव भी तो वहीं है। तुम औरों की तरह खबरें नहीं, सुर्खियाँ भेज सकोगे।’’
मयंक स्तब्ध-सा देखता रहता है....एडीटर की आँखों से खबरों की रील गुजर रही थी जिसमें हर लाश पर टार्च की रोशनी पड़ रही थी। सुर्खियों में नेता, बिल्डर और ऊँची ढहती इमारतों पर सर्चलाइट घूम रही थी। भूख मौत का सन्नाटा, अनाथ हुए बच्चों का बिलखता स्वर और टूटी चूड़ियों के ढेर से उन खबरों का कोई रिश्ता नहीं था। शायद खबरों की बिसाद पर इनसान तो मात्र एक मोहरा होता है। भुज मिटे या अंजार, लातूर टूटे या उत्तरकाशी, खबर तो अहमदाबाद की ऊँची इमारतों से बड़ी होती है। दिल्ली अगर ढह जाती तो बनती बहुत बड़ी खबर क्योंकि वहाँ राष्ट्रपति प्रधानमंत्री मन्त्रालयों के सचिव और सरमायादार रहते हैं।

कितना कुछ जान गये हैं लोग एन्वायरमेण्ट और इकालाजिकल बैलेंस के बारे में, मगर ठेकेदार, दलाल और राजनीतिक मिल कर उन्हें बर्बाद करने पर तुले हैं। मयंक को याद आयी दिल्दी से आये राजीव खुराना की, जो अब बडौदा में अपना बिल्डिंग बनाने का काम शुरू कर चुका है। जगमोहन, केन्द्रीय मन्त्री को कोसता रहता था जिसकी वजह से उसके फार्म हाउस की इमारत टूटी और कई इमारतें नींव खुदने से आगे नहीं बढ़ी- साला एकदम ताड़ का पेड़ है, जितना चढ़ो उतना ही ऊँचा होता जाता है।

मयंक को लगता है कि अर्पिता के मुँह से आह निकली है। झुककर चेहरा देखता है, मगर अर्पिता तो नींद बेहोशी में गाफिल थी। उसे तो यह भी नहीं पता होगा कि झूलती बाल्कनी की रेलिंग से कैसे फिसलकर नीचे गिरी थी। मलबे पर गिरी थी अर्पिता अन्यथा क्या कुछ साबुत बचता ? कैसी सुड़ौल देह है शादी के पाँच वर्ष बाद भी नरेन्द्र पारीख इसे शीशम का लठ्ठा कहता था। अब मलबे में दबी उसकी लाश क्या कुछ सोच पा रही होगी ? क्या अर्पिता को पता है कि वह विधवा है ‍? यह खयाल मयंक को चौंकाता है मगर शीध्र ही वह अपनी अस्थिरता को सँभाल लेता है, यह सोचकर कि अर्पिता ने तो कभी खुद को सधवा भी नहीं माना था। पारीख भवन के बगीचे में बबूल का झाड़ थी वह।

मंयक दिमाग पर जोर देकर अन्दाजा लगाना चाहता है कि जब तरुण अर्पिता को उठाकर बाल्कनी की तरफ दौड़ा और अर्पिता गिर गई तो क्या तरुण ने बा कहकर पुकारा होगा ? शायद नहीं। न ही तरुण ने और न ही अर्पिता ने यह रिश्ता स्वीकारा था।

फिर कयामत के वक्त उसे ही क्यों फोन किया तरुण ने ? शादी के दो माह बाद ही चुपके से उसे फोन कर पति के बारे में बताते हुए सौतेले बेटे तरुण के बारे में बताने लगी थी अर्पिता, ‘‘सोलह साल का है। सब समझता है। मेरी गैर मौजूदगी में जाने कैसे सन्दूकची का ताला खोल मेरी डायरी और तुम्हारा खत, जो मैं छुपाकर रखती थी, पढ़ गया।’’
‘‘फिर तो बाप को बोल दिया होगा,’’ मयंक ने कहा था।
‘‘न। मेरी खूब बात हुई लड़ाई की जगह। वह जितनी दूरी मुझसे रखता है उससे ज्यादा नफरत अपने बाप से करता है। शायद नफरत भी नहीं करता है। सिर्फ सम्बन्ध और सम्बोधन विहीन रिश्ता बनाये रखता है। मेरी विविशता पर भड़कता है जरूर .....कब तक अबला बनी रहोगी ?’’
‘‘ऐसा क्यों ?’’ पूछा था मयंक ने।  

‘अड़तालिस की उम्र में इक्कीस-बाईस की लड़की से शादी का बेटे ने प्रतिरोध किया था। वह तो चाहता था कि पिता शादी न करें। पोरबन्दर से विधवा बुआ को ले आएँ घर सँभालने के लिए।’’
‘‘फिर क्यों विवाह रचा पारीख ने ?’’
‘‘औरत ....गर्म औरत चाहिए थी उसे हर रात, इसलिए मुझे मेरे भाई से खरीद लिया, एक ऊँची जाति के लड़की को बघेला लड़के से बचाने के नाम पर समाज भी उसके साथ हो गया और तुम बुजदिल। तरुण हम दोनों को कायर कहता है। जबकि कायरता तुमने दिखायी।’’
‘‘नहीं अर्पिता। तुम्हारा भाई कह गया था कि अर्पिता को जान से मार देगा अगर मुझसे शादी की तो। क्या तुम्हारी मौत मैं बर्दाश्त कर सकता था।’’
हँसी थी अर्पिता, ‘‘बहन को बेच पैसा बटोर अमरीका चला गया। बलि चढ़ा गया मेरी। कहता था कि बड़ा सेठ है नरेन्द्र पारीख। तू राज करेगी। तूने इनकार किया तो मैं जहर खा लूँगा। झूठा ब्लैकमेलर।’’
‘‘अब क्या हो सकता हैं अर्पिता। सुगन, तुम्हारा भाई ही नहीं कई और बाँकुरे शपथ लिये हुए थे। बड़ौदा में हजारों पारीख, मेहता, गाँधी और दूसरे थे हमें जुदा करने को। गाँधी जी जिन्दा होते और हमारी तरफदारी करते तो उनको भी मार डालते। आज जाति से ऊपर कुछ नहीं है।’’
‘‘पर मैं आज भी तुम्हारी हूँ मयंक।’’

‘‘मैं भी। तुम्हारा हक हमेशा रहेगा मेरा अधिकार क्या कुछ है।’’
‘‘नहीं मयंक। मेरी वजह से तुम्हें दुख मिला है, मगर बलि मुझे ही चढ़ाया गया है। जुल्म का हथियार सबसे पहले औरत पर चलता है क्योंकि तन और मन कोमल होता है।’’
साँसे गूँजी थीं दोनों ओर कि अर्पिता फुसफुसायी थी, ‘‘बन्द करती हूँ। तरुण कपाट के पीछे खड़ा सुन रहा है।’’
‘‘कहीं ....’’
‘‘नहीं। वह किसी से कुछ नहीं कहेगा। सिर्फ व्यंग्य बोलता है....हड्डीविहीन प्यार के प्रतीक हो तुम दोनों। गुस्ताखी समझो पर मैं तुम्हें बा नहीं कह सकता, क्योंकि तुमसे मेरा नुकसान हुआ है।’’

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