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जीवन कथाएँ >> प्रेम दीवानी

प्रेम दीवानी

राजेन्द्र मोहन भटनागर

प्रकाशक : एम. एन. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :365
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4012
आईएसबीएन :000000

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मीरा के जीवन पर आधारित उपन्यास..

Prem Diwani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मीरा अपनी मधुर वेदना की स्वयं अधिगायिका थी उसने स्वयं वासन्तिक सौरभ-सुषमा को अकेले अपने ऊपर लिया था। मेघोदय में उसका मेघानन्दमन कृष्ण को पाकर नाच उठा था। मेघाडम्बर से वह स्वयं लड़ी थी, विभावरी को उसने स्वयं विमंडित किया था। उसमें मात्सर्य नहीं था उसमें था असीम स्नेह, अनन्त प्रेमामृत ! वह अपने पावन मन में समग्र संसृष्टि को बसाये थी। वह प्रशान्तात्मा थी। न उसमें जिगीषा थी न जिघांसु की भावना। उसमें अद्भुत मोराई थी, उसकी

 श्वाँस-श्वाँस सुवासित थी, उसका रन्ध्र-रन्ध्र अलंकृत था। वह अनुगुणी थी। उस महादिव्या को लेकर लिखी गयी यह समर्पण सुकृति अपने सम्पूर्ण प्रेमोत्कर्ष, अपनी सम्पूर्ण अन्तर्पीड़ा के साथ, अपने आप में एक अप्रतिम जीवन रचना बनकर उभरी है।

परिमलोच्छ्वास


मेरा चित्त भक्त कवियों, सन्त-सन्यासियों में सदा सुख पाता है। मुझे उनमें दिव्य शक्तियों की दर्शनानुभूति होती हैं। मुझे लगा है कि तर्क-इयत्ता से परे का सत्य जीवन का वास्तविक पाथेय है।

यथार्थतः सत्य क्या है, यह समझना-समझाना अत्यन्त कठिन है। मैं किसे सत्य मानूँ और किसे असत्य, यह मैं आज तक निश्चित नहीं कर पाया क्योंकि जो सत्य माना था, वह सत्य नहीं निकला और जिसे असत्य समझा था, वह सत्यानुभूति करा गया। सत्य सत्य है, वह जानने नहीं, अनुभूति का विषय है। मुझे भक्त कवियों में बिना उनके काव्य की

 शल्य-चिकित्सा किए, यह अनुभव हुआ है कि वे सत्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं थे। जब-जब उनको समझने का प्रयास किया तब-तब मैं उसमें खो गया, अपने को नहीं सँभाल पाया।

मेरे चिंतन-अनुचंतन का प्रमुख विषय भक्ति युग के भक्त कवि रहा है। उनका समर्पण और उनका निष्काम सेवा सदा मुझे सोचने से आगे, बहुत दूर जहाँ धरती और आसमान मिलते नज़र आते हैं, ले जाते रहे हैं। उन क्षणों में मैं नहीं रहा हूँ और न मैंने अपने रहने की कभी चेष्टा की है। मैं सदा सहज भक्ति के आगे समर्पित हो गया हूँ।

निस्संदेह मीरा ने सम्मोहन की हद तक आकृष्ट किया है। उनके गीतों में मैं खूब डूबा हूँ। उनकी सहृदयता और सहजता में मेरे बावरे मन ने स्नान किया है।
वृन्दावन में एक पारवती थी। कलियुग में वह भक्ति युग का चरित्र थी। ब्रजक्षेत्र में घूमते हुए मुझे बार-बार यह अनुभव हुआ है कि आज भी वहाँ कृष्ण हैं, गोप-गोपिकाएँ हैं, राधा है, मीरा और सबकुछ है जो पूर्व में था।

‘भक्ति’ जीवन है। जीवन की एक साधना है, यह मैंने पारवती को देखकर अनुभव किया था। पारवती पढ़ी-लिखी नहीं थी। लेकिन उसकी बड़ी-बड़ी आँखें बेहद भावपूर्ण थीं। मैंने मीरा को नहीं देखा, पर पारवती की ईषत् चटुल तथा स्मित को कान्ति संकुल आँखों को देख कर मुझे लगा था कि मीरा की आँखें भी वैसी रही होंगी और उनमें भी वही तारल्य का लावण्य होगा।

पारवती निश्छला थी। मन्दिर में रखी राधिका रानी की मूर्ति-सी पवित्र एक दिन किसी ने उसे छेड़ दिया था। वह कृष्ण मन्दिर में बिलख पड़ी थी। वह बिलख-बिलख कर सिसकियों की आँधी में कह रही थी—‘प्रभु, यह तन का गोरापन ले लो। मेरी सुन्दरता नोच डालो। मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ...मुझे असुन्दर बना दो।’’

मैं आवाक् था। वह वेदनायुक्त थी। सहसा उसका मुखमण्डल पुनः तोजोमय स्मित रेखाओं से भर उठा। वह तन्मय होकर गा उठी
-

चलाँ वाही देस, चलाँ वाही देस।
कहो तो कुसुमल साड़ी रँगावाँ
कहो तो भगवा भेस।
कहो तो मोतियन माँग भरावाँ,
कहो छटकावाँ केस
चलाँ वाही देस, चला वाही देस...


वह अभी भी रो रही थी। वह अभी-अभी गा उठी थी। शायद मीरा भी कृष्ण के विरह में ऐसी ही विक्षिप्त रही होगी। मीरा का जीवन मेरे सामने वात्याचक्र-सा घूमने लगता है। मुझे लगता, मीरा का महनीय अस्तित्व था। अपने अस्तित्व के लिए उसने जीतोड़ संघर्ष किया था। पारवती भी वही कर रही है। मीरा को जीने के लिए मैं पारवती को तन्मयता का अवलम्ब लिया। मुझे लगा, देवोत्सव तो कृष्णोत्सव के सामने व्यर्थ है, थोथा है, मन संसार और आत्मा का द्वार—स्वात्मा का साक्षात्कार है। यही कृष्णानुभूति है। यही आत्म-समर्पण है। यही तन्मयता है।

मीरा स्वयं में राधा-कृष्ण बन नाच उठी थी। उसमें गोपी-गोपिकाओं का संसार जी उठा था। उसके कृष्ण ही उसका संसार थे, उसका सर्वस्व थे और प्राण थे। मीरा में कृष्ण के अलावा और कुछ नहीं था।

मुझे कभी लगा, जैसे पारवती मुझसे कह रही हो—‘अमृत बाँटने में पुण्य है बाबू ! मैंने गाया, तुम लोग लिखो। वही प्रसाद, जो पारवती से मैंने पाया, आपको समर्पित कर रहा हूँ। मीरा का कोई सानी नहीं है। प्रेम काव्य की इस सुदीर्घ परम्परा में, चाहे यूनान की सर्वश्रेष्ठ कवियत्री सैफो का स्मरण करें अथवा किसी और का, लेकिन मीरा अपने आप में अकेली है। अकेली

 थी, अकेली रहेगी। उसका उद्दिष्ट कविता नहीं था, अनन्य समर्पण था। समर्पण के बाद उसके पास कुछ भी नहीं रहा था। वह कृष्णमयी हो गई थी। इस समर्पण में न विचार है, न कोई तर्क, न कोई भाव ! यह समर्पण एकदम अनाविल और निःशेष है। इसके बाद शेष कुछ रहता ही नहीं है।

मैंने मीरा के अन्तर्मन और उसकी आत्मा में झाँकने का प्रयास किया है कभी-कभी ऐसा हुआ कि मैं एक स्थान पर आकर रुक गया। मुझे आगे लिखने का कोई मार्ग ही दृष्टिगत नहीं हुआ, मैं तब उनकी रचनाओं को उठाता और उनमें से कुछ हाथ लग जाने की चेष्टा करता। परन्तु कुछ हाथ आता नहीं। हार कर मैं थक जाता। कभी नींल गगन पर आँखें टेक देता और कभी आँखें बन्द करके अपने ही भीतर टटोलने का यत्न करता। प्रायः ऐसे क्षणों में मुझे स्वप्नों से सहायता मिली।

 मैं स्वयं में मीरा, कृष्ण, राधा, गोपिकाएँ, वृन्दावन आदि देखता। ऐसी दिव्यात्माओं को सशरीर पाकर मैं गद्गदानुभूति से भर जाता और फिर मेरी कलम कलकल निनाद करने वाली पयस्विनी-सी बहने लगती। मेरा अन्तः बहिरः सब धन्य हो उठता।
मेरे लिए सत्य का विशेष महत्त्व था। मैं पूजा करता तो मेरे सामने मीरा आ खड़ी होती और वह गा उठतीं कि मेरो तो गिरधर गोपाल...मैं अपनी प्रार्थना भूल जाता और मीरा की वाणी को सुनता रहता। एक बार अर्धरात्रि बाद के स्वप्न में मुझे मीरा राधा के वेश में दृष्टिगोचर हुई और उनके साथ कृष्ण भी थे। कदाचित तब रास की तैयारी का वातावरण बना

 हुआ था। पूनम की रात थी और कदम्ब के वृक्ष थे। गोपियाँ श्रृंगार किए आती जा रही थीं। इन प्रसंगों ने मुझे मीरा पर लिखने में अत्यधिक मदद की। वास्तव में, मैं तो मीरा का मुनीम मात्र हूँ। जो कुछ लिखा है, वह उनके लिखाए से सम्भव हुआ है। मुझे इसके लेखन का अनन्त सुख मिला है। इसके साथ मेरी जिन्दगी के बहुत ही आनन्ददायक क्षण व्यतीत हुआ हैं।

 आज भी उनकी याद मुझे गद्गदा देती है। मेरी भी रुढ़की से द्वारिका की यात्रा का श्रेय इस कृति को जाता है।
मीरा जहाँ-जहाँ गईं, वे स्थान मेरे लिए तीर्थ बन गए और मैंने उन स्थानों की एक बार नहीं अनेक बार यात्राएँ कीं। वहाँ की भूमि का चप्पा-चप्पा घूमा। वहां के निवासियों से मिला।

वहाँ उपलब्ध बहियों को देखा। मीरा के बारे में जानकारी प्राप्त की। अनेक जगह मीरा के बारे में गहरी खामोशी मिली। गुजरात में चोरवाड़, सोमनाथ, कठियावाड़ और द्वारिका में भी मीरा के बारे में कोई विशेष बात सामने नहीं आई।

द्वारिका में मैंने द्वारिकाधीश के दोनों मन्दिरों के दर्शन किए। वहाँ मीरा की अनुभूति मुझे मिलीं। एक रात मैं मन्दिर में रह गया। वह पूनम की रात थी। समुद्र बेहद मचल रहा था। उसकी तरंगें ज्वार-भाटे का निमन्त्रण दे रही थीं। फिर भी, मुझे अद्भुत सन्नाटा घेरा हुआ था। मैं चकित था और एक बार यह सोच कर डर गया था कि मीरा ने आत्महत्या तो नहीं की थी। मीरा आत्महत्या क्यों करतीं ? पर मैं ऐसा सोच जरूर गया।

 आत्महत्या की सम्भावना की जा सकती थी। आखिर मीरा ने जिस समाज में जिया था, वह समाज नारी स्वतन्त्रता के प्रति, और विशेष रूप से राजघराने की विधवा युवती के प्रति कतई अनुकूल नहीं था। मीरा का वृन्दावन छोड़कर द्वारिका आना अकारण नहीं था। मीरा एकदम अकेली पड़ गई थी। कौन था उसका ?

 वह किस-किस से लड़ती ? उसे लड़ना आता नहीं था। वह तो प्रभु चरणों में अपने आपको समर्पित करके निश्चिंत गो गई थी। उसके प्रभु जैसे रखेंगे, वह रहेगी। फिर भी, व्यक्ति के संघर्ष झेलने की एक सीमा है। मैं मीरा के लिए आत्महत्या तक पहुँचने के लिए तत्कालीन समाज जिम्मदेर होता है। यद्यपि मैंने मीरा को समुद्र में स्थित द्वारिकाधीश के मन्दिर में प्रविष्

ठ हो जाने दिया तथापि उसके बाद क्या हुआ, वह अनुमान, अनुभव, कल्पना के लिए छोड़ दिया। इसके अतिरिक्त मेरे सामने कोई उपाय नहीं था और किसी निर्णय लेने की स्थिति में स्वयं को नहीं पाता था। फिर, मेरे लिए मेरे पाठक भी तो कृतिकार हैं, उन्हें भला मैं सृजन के सुख से कैसे वंचित रह जाने देता। समर्पण का अपना सुख है, अपना आनन्द है। पारवती इसका सबसे बड़ा साक्ष्य है।

2/3 मुक्ताप्रसाद नगर, बीकानेर

-राजेन्द्र मोहन भटनागर

एक


संध्या ढलने की तैयारी कर चुकी थी। शुबह से शाम तक क्या कुछ नहीं किया। जाते-जाते वह मर्त्यलोक को अपने सतरंगी आकर्षण में बाँध लेना चाहती है। उसकी आँखों में उन्माद है और उसके अंग-प्रत्यंग में बिजली।

आसमान में चटकीला फाग मचा हुआ था। सब ओर चटकदार रंग बिखरे हुए थे।

फुनगियों पर से आँचल समेटती सन्ध्या को पता नहीं क्या हुआ था कि मुट्ठी-भर नानाविध रंग फैला उठी। साथ में उसकी चटुल नवाय सखियाँ भी सम्मिलित हो गईं। फिर क्या था कि देखते-ही-देखते अम्बर अरुण, नीले, पीले, हरे गुलाबी आदि अनेक रंगों से भर उठा। उन रंगों ने सारी धरती व सारा आकाश रंगोन्माद कर डाला। जिधर देखो, उधर रंग !

एकबारगी पक्षियों ने डैने समेटकर आँखें फाड़े अपने आपको निहारा और फिर अपने चारों ओर देखा। सर्वत्र रंग-ही-रंग था—नानाविध गुलाल ही गुलाल था। मृगशावक चौकड़ी भरना भूल गए थे। खरगोश स्मित भर स्तब्ध थे। मयूर वृक्ष डाल पर बैठे-बैठे साश्चर्य परस्पर अवलोक कर रहे थे। सब सोच रहे थे कि क्या हो गया आज मौसम को।

किस रंगरेज ने धरती का तन-मन रंग डाला था। इतना अबीर, इतना गुलाल, कौन था जो कुमाच से कुमकुम भर बिखेर रहा था ! किस क्रसित नव मल्लिका से सौरभ सजा थाल छूट गया ! किधर से सौशीलव का दल अचानक आ निकला ! किस द्वादशांग ध्रूम का यह कमाल है कि उसके पिस्तई; पल्लवी, चंपई, पीताभ, पुष्प-रेणु प्रभृति रंगों को गगनांचल भर

 डाला ! कहीं यह पुष्यार्क की सिद्धि का प्रभाव तो नहीं है ! किस भगली का यह काम है ! किस बिसाती ने लगाई है यह दुकान ! किस दृप्त की दढ़ताई ने यह ठिठोली की है ! कौन है जिसने दुग्धाब्धि को रंग डाला है ! किसी को पता नहीं ! सब आश्चर्य !
विस्मित बनी मीरा अपने में विस्मृत थी। कैसा काठिन्य था ! जो चाहकर भी टूटता नहीं था।

वह दुस्तेज था प्रत्युत दुष्प्रेक्ष्य नहीं ।
यह सब प्रतिहारिक का क्रीड़ा–कौतुक है।
वह इतनी प्राज्ञा और वाग्मिती कहाँ हैं ?

यौतुक में वह अपने साथ क्या-क्या न लाई थी ! पर बहुत कुछ ऐसा था जिसे योगांजन लगाये बिना नहीं देखा जा सकता था।
वह लघ्वी है—द्रुम चढ़ी लता-सी तन्वी।
क्या वह लक्षिता है ?
उन्होंने कितने विनयावनत होकर गुनगुनाया था भ्रमर-स्वर में कि वह उस आम्र मञ्जरी सौरभानुभूति से गद्गद होकर विधुप्रिया-सी विधूनित हो उठी थी। उसे लगा कि उसमें कोटिशः निर्झर एक साथ पिक स्वर में गा उठे हों। वह साक्षाद्दृष्ट से अधिक महत्त्वमय था। कैसी साकूत स्मित थी उसमें अन्तरात्मा ह्लदित हो उठी थी !

अभ्र उन्मादी हो उठा था।
प्रभंजन मलजयी बन बह रही थी धीरे-धीरे !
अद्भुत था वह यौवनोद्दाम। अद्भुत थी वह रंगशाला। अद्भुत था वह रंगावतारक। प्रिथिमी का रन्ध्र-रन्ध्र ताटंक की नाईं थिरक उठा था। कैसा अद्भुत तादर्त्य था ! कैसा था कमनीय मतवाला वह दृश्यबन्ध !

 मन कैसा पगला है ! कैसा मनचला है। मनाने से और बिखरता है। उसने अपने दोनों पागपल्लवों को परस्पर मिलाया और फिर मुक्त कर दिया। कुछ देर अपलक दृष्टि से अपने मुक्त करों को अवलोकती रही।

उसने अधः स्वास्तिक की ओर देखा। फिर बचपन में उभरे हुए नीलाम्बरी प्रभाव को अपने में अनुभूत किया। उसमें नानाविध रंग का चटुल चपला से कौंध उठे। क्या जीवन का यही सत्य है ? क्या यतार्थतः यही जीवन है ? क्या यही उसकी सार्थकता है ?

यह सत्य नहीं है तो फिर इस जीवन का सत्य क्या है, यथार्थता क्या है, सार्थकता क्या है और क्या है इस जीवन का मर्म !
उसी सन्ध्या की तो बात है। वह अम्बर में मजे फाग में लवलीन थी, एक-दम अद्वैत बनी। उसे किसी की सुध नहीं थी। कोई उसके पास नहीं था। जटिल खामोशी पिघल रही थी धीरे-धीरे अन्दर ही अन्दर। चेतना उद्बुद्ध थी। अद्भुत अचरज भर उठा था उसमें। जीवन कितना मृदु मधुर है चन्द्र-मन्द्र स्मित-सुमन सा और कितना मकरंदी है—पावन, निश्छल और निर्झरी है !

उसके मन मन्दिर में साधु की स्वर लहरियाँ चपला-सी कौंधने लगीं। वह पगी अवस्था का था। घनी जटाएँ सिर पर धारण किए था। कद ठिगना था। चेहरा एकदम अरुण था। आँखें बड़ी-बड़ी और भावपूर्ण थीं। वह आत्मविस्मृत हुआ मंद-मंद गा रहा था—मानों अपने से बात कर रहा हो, क्योंकि गाते-गाते बीच-बीच में रुक जाया करता था और कुछ रुककर फिर गा उठता था-


बालम गाओं हमारे गेह रे
तुम बिन दुखिया देह रे
सब कोई कहै तुम्हारी नारी माकों लागत लाज रे
दिल से नहीं दिल लगाया तब लग कैसा सनेह रे
अन्न न आवै नींद न आवै गह बन धरे न धीर रे
कामिन को बालम प्यारा ज्यों प्यासो को नीर रे
है कोई ऐसा परउपकारी पिव सौं कहे सुनाय रे
अब तो बेहाल भयो है बिन देखे जिव जाय रे


उनमें कैसी अभिरति और कैसी उत्सर्गोन्मुखी चेतना है ! मीरा को अनुभव हुआ कि वह स्फूर्त हो उठी है और उसमें उज्जीवन मुस्कुरा उठा है सद्य प्रफुल्ल शतदल-सा।

मीरा का ध्यान फागोन्माद अम्र से हट उस साधु पर केन्द्रित हो गया था। वह भावों का कोकनद-सा प्रतीत हो रहा था। मीरा साश्चर्य सोच रही थी कि उस साधु के मानस-पटल पर महकते-चटकते पर्यावरण का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। निसर्ग फाग रचाये हैं परन्तु उस गान्धर्वि में अद्भुत ताटस्थ्य था। उसके गीत में सम्मोहन था। जिसने मीरा को पकड़ लिया था। उससे नहीं रहा गया। वह उस साधु को बुलाना चाहती थी। उससे पूछना चाहती थी कि समग्र जागतिक प्रभावों से

 सम्पृक्त अपने में कैसे जी रहा है ! उसने अपने चारों ओर दृष्टिपात किया। कहीं कोई दृग्गोचर नहीं हुआ। तभी अकस्मात उसकी दृष्टि अनुबाई पर पड़ गई। अनुबाई के विवाह को हुए दूसरा माह था। वह जब-तब उनके यहाँ आया-जाया करती थी। प्रायः साथ में उसकी माँ भी होती थी। मीरा उसी से घण्टों बातचीत करती रहती थी। कदाचित वह उसी को ढूढ़ने उधर आई है। इससे पूर्व की वह लौट ले मीरा ने उसे पुकार लिया और उसके पास आने पर उसने उसे अपनी सविस्तार मंतव्य समझा दिया और जिज्ञासु बनी उसको निहारती रही। अब वह मनस्वी गांधर्वि एक अन्य भजन उठा बैठा था-


घूँघट के पट खोल रे ताको पीव मिलेंगे
घट-घट में वह सांई रमता कटुक बचन मत बोल रे
धन जोबन को गरब न कीजै झूँठा पचरंग चोल रे
सुन्न महल में दियरा बारि लै आसन से मत डोल रे
जागु जुगुल सो रंग महल में पिय पायो अनमोल रे
कहै कबीर आनन्द भयो है, बाजत अनहद ढोल रे


अनुबाई उसे अपने साथ ले आई।
उस गांधर्वि के हाथ में इकतारा था। उसका चित्त शान्त था।
मीरा ने उसका अभिवादन किया। आशीर्वाद पाया।
—बाबा आप इतना अच्छा गाते हैं...इतना इच्छा कि पिक सुन ले तो वह भी लजा जाए।—मीरा ने अपने छलक आए हृदय को उल्था कर दिया।

उसने प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा। वह इकतारा छोड़ता रहा आत्मलीन हुए।
—बाबा, आपके स्वर में अतीव मधुरिमा है—घना मिठास है।—मीरा ने गद्गद् होकर कहा।
इस बार उसने इकतारा छेड़ना बन्द कर दिया और कुछ सोचता हुआ-सा कहने लगा—कबिरा कबिरा था। पता नाहिं केतिक अमर हो गए और केतुक हो जय्याँ। वह तो आतम गियानी हुतो। जगत रचैय्या को खूब अच्छी तरह सूँ जानत हुतो। म्हारो जामे का है ? हम तो वाही के बनाये भजन कूँ गावैं हैं। जामें कैसों अचरज-अचम्भो।

—कौन था यह कबिरा ?-मीरा ने साश्चर्य प्रश्न किया।
—अम्ही का कबिरा जान कर करि हौं। वाको जानने के लिए तो बहोऽत लम्बी उमर पड़ी है। तिहारी बतियन सू लागत है कि तिहारी उमर चौदह-पन्द्रह परस से ज्यादा नाहिं है। उस गांधर्वि ने सहज भाव से उत्तर दिया।
—जा में का बड़ी बात कह डाली ? यह तो जो देखेगा, वही सहज में बतला देगा, बाबा !—मीरा ने अपने निश्छल हृदय का परिचय दिया।

—लेकिन बिटिया, हम तो जन्म से सूरदास हैं।—उसने अपनी विवशता व्यक्त की।
—तो क्या हुआ। नाम से क्या अन्तर पड़ता है—सूरदास हो मुरलीदास।
—मीरा ने ओढ़नी सँभालते हुए तपाक से कहा।

—तू सूरदास को नाहिं जानत। पर जा में तिहरा कुछ दोस नाहिं...सब करम का फेर है। म्हारो धरम-करम कूँ इन म्लेच्छन ने नास कर दियो। जैपुर नरेश नूँ अपनी बहन कूँ म्लेच्छन के बादशाह को विवाह दी—अकबर कूँ—फिर परजा तो वैसा ही आचरण करि हौं, जैसा राजा। सूर कूँ ध्यान को करि हैं...कोई नाहिं...कोई नाहिं..—उस गांधर्वि का कण्ठ भर आया था। उसकी आँखें छलछला आईं और उसका हृदय आर्द हो उठा।

—आप ही बता दें कि सूरदास कौन था ? इसमें नाराज़ होने की क्या बात है ! पूर्ण ज्ञानी तो कोई बिरला ही होता है।—मीरा ने ईष्द रूक्षता दरसाते हुए कहा।

इस पर वह साधु मुस्काराया। इकतारा को तनिक छेड़ा। फिर वह बोला—तू बुरा मान गई, बिटिया। सूरदास अंधो भगत था। किसन-गोपाल कूँ भगत। वा पर बल्लऊ अचारच की किरपा थी। वाके पुत्र विट्ठल अचारच हुतो। वाने सूर को अष्टछाप भजनियों का मुखिया बना दियो। सूर अपनी लगन, अपनी भगती और जिज्ञासा के कारण परसिद्ध हो गयो। वाने हजारनु पद गाए। वो जन्म सूँ अंधो हुतो। वाही के कारण अंधों को अंधा न कहकर वाहे सूरदास कहा जाता है। वाही के कारण हमहूँ सूरदास भए...भए न—बाबा ने सहज व्याख्या कर डाली। उसे लगा कि उसका हृदय गा रहा था।

—तो क्या आपको दीखता नहीं है, बाबा ?—मीरा ने द्रवीभूत होकर सहज प्रश्न किया।
—अँधरो कूँ का दीखे है, बिटिया...सबरी दुनिया सुन्न। जाके आँख नाहिं वाको बनवारी है। बनवारी...—दीर्घोच्छ्वास लेते हुए उसने आर्द्र वाणी से कहा। फिर वह तनिक गुमसुम-सा हो गया। वह किसी सोच में डूब गया अस्त होते सूर्य-सा !
—फिर उसने कैसे पद बनाये होंगे ? कैसे वर्णन किया होगा ?—मीरा में जिज्ञासा अंकुर फूटे।
वह कुछ देर सोचता रहा। उसकी बात माननीय थी। वह खखार कर बोला—उसके मन की आँखें हुतीं।

—मन की आँखें ?—साश्चर्य मीरा ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें फैला कर कहा।
—हाँ, मन की आँखें। बिना मन की अँखियन खुल किसन गोपाल नहीं सूज सकत है। मन की अँखियन का ही वो सब चमत्कार है...

—यह कैसे खुलती हैं बाबा ? मीरा ने सोचते हुए पूछा।
—आतम गियान सूँ।—बाबा ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
—आत्मज्ञान क्या होता है ? कैसे होता है ?—मीरा ने सहज होकर पूछा।
—आत्म गियान—यानी अपने को जानना।
—अपने को जानना। वह कैसे ?

—वह कैसे ?—वह भी सकपकाया। ऐसा प्रश्न उससे किसी ने नहीं पूछा था। उसने भी किसी से नहीं पूछा था। अपने गुरु से भी नहीं। गुरु ने कुछेक भजन दे दिए थे। कुछेक भक्त-महात्माओं की जानकारी करा दी थी। देशाटन का महत्त्व समझाते हुए गुरु-मंत्र दे दिया था महाप्रभून को यही हुक्म हुतो कि अपने कूँ जानना जगत भ्रमण सूँ होवे हैं, सो बराबर घूमते रहो। रुकवे को काम नाहिं है। साधु-भगत नद्-नारे बहते अच्छे।—उसने भी खूब भ्रमण किया। सारे तीर्थ किये। परन्तु क्या वह अपने को जान सका ? क्या इस जीवन में जान सकेगा ? वह ठीक से कुछ नहीं जानता। उत्तर तो देना था। वह कहने लगा—आतम गियान भ्रमण से होता है।

—घूमने से !—साश्चर्य मीरा ने तनिक संशय से पूछा।
—ईश्वर का भजन करवूँ से।

—ईश्वर का भजन ! ईश्वर क्या है ?—मीरा ने जिज्ञासा प्रकट की।
—ईश्वर क्या है ?—उसने मन-ही-मन दोहराया। उसे नहीं मालूम। क्या कहे ? वह कहने लगा—किसन कन्हैया ईश्वर है !
—कहाँ रहता है ?—मीरा ने पुनः पूछा।
—वृन्दावन में।
—उसके माता-पिता कौन हैं ?
—यशोदा-नंद।
—उसकी पहचान क्या है ?

—उसके सिर पर मोर का मुकुठ सोभायमान है। उसके कान में कुण्डल हैं। उसके बड़े-बड़े नैन हैं। वह पीताम्बर पहनता है। मेघ-सी उसकी देह है। वह मुरली बजाता, गैयन चराता, रास रचाता और माखन चुराता घूमता रहता है।
—उसने एक साँस में कह डाला। इसके साथ ही उसने इकतारा के तार छेड़ दिए।
—उसके लिए वृन्दावन जाना होगा।

—वह घट-घट बासी है । वाहे जो पुकारत है—साँचे मन से, वो वाही के पास दौड़ता हुआ चला आत है।—उसने गद्गद् कण्ठ से कहा।
—तो वह बड़ा नेक है।—बहुत सुंदर है। मलूक है। सज्जन है।—मीरा ने भाव विह्वल होकर कहा और उस साधु की ओर अनसोचे निहारा। साधु आश्चर्य से मीरा  की ओर अवलोक रहा था और सोच रहा था कि इस बालिका में ऐसी उत्कंठाएं कैसे ! वह कोई साधारण बालिका नहीं है !
—एकदम सूधो। सच्चो। दीनन कूँ रखवाला।

—मैं बुलाऊँगी वह आ जाएगा ?
—जरूर आ जाएगा।
—आपने उसे देखा है न ?—मीरा पूछ ही रही थी।
—वह फिर सोच में पड़ गया। क्या कहे, क्या नहीं। अभी तक उसने उसे देखा नहीं था। पर यहाँ तो बात अड़ गई थी, सो असत्य ही बोलना पड़ा—देखो है। वो बड़ा बाँको है।—उस साधु ने धीमे स्वर में कहा।
—मैं भी उसे देखूँगी।
—अवस्य देखना।

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