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विजय तुम्हारी है

पवित्र कुमार शर्मा

प्रकाशक : सावित्री प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4014
आईएसबीएन :81-7902-049-5

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मनुष्य के जीवन निर्माण में सहायक आवश्यक तत्त्व...

Vijay tumhari hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इसमें मनुष्य के जीवन को कैसे सर्वागीण किया जाए तथा जीवन को कैसे सरल व सदाचार बनाया जाय इन बातों का इसमें विवेचन किया गया है।

विजय : एक क्रमिक सोपान

संसार का प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि उसे जीवन के हर कार्य में सफलता प्राप्त हो, जीवन की सारी सुख सुविधाएँ उसे मिलें तथा हर कोई उसका कहा माने लेकिन यह सब इतनी जल्दी और अचानक नहीं हो जाया करता है।
विजय एक मंजिल है और उस मंजिल तक पहुँचने के लिए आदमी को कई प्रयास करने पड़ते हैं। प्रयास और कर्तव्य के रास्ते पर चलते हुए काफी धैर्य और संयम की आवश्यकता पड़ती है।

एक पर्वतारोही जो पहाड़ी की चोटी पर चढ़ता है। वह एकदम से तो हिमालय या एवरेस्ट के शिखर पर नहीं पहुँच सकता। उसकी यात्रा 1,2,3,4,4..........इत्यादि कई पड़ावों से होती हुई गुजरती है। आखिरकार वह दिन आता है, जब वह पर्वत के उच्च शिखर पर पहुँच जाता है।

जिन्दगी एक संघर्ष भरी यात्रा है। इस यात्रा में केवल वे ही व्यक्ति पूर्ण सफल हो पाते हैं जो काफी धैर्य तथा संयम रखकर और सहनशीलता बनाकर जिन्दगी का सफर तय करते हैं। जीवन पथ में पर्वत यात्री की तरह ही कई प्रकार की परेशानियाँ तथा मुसीबतें आती हैं लेकिन साहस रखकर आदमी उन विघ्नों पर विजय प्राप्त कर लेता है।
विजय का सबसे बड़ा रूप सफलता है लेकिन सफलता तो मानव के प्रयासों का परिणाम है। असली विजय तो उन्हीं प्रयासों में संकटों से उबरने में है जिन्हें पाकर हम कभी-कभी जिन्दगी में बड़े भारी निराश हो जाते हैं।

विद्वान लोग कहा करते हैं कि यदि आप सफलता के उच्च शिखर पर पहुँचना चाहते हैं तो आपको एक-एक कदम बड़ी समझदारी से और संभल-संभल कर उठाना पड़ेगा। ठीक उसी तरह, जिस तरह एक पर्वतयात्री एक-एक कदम को फूँक-फूँक कर रखता है। जरा सी चूक हो जाने पर वह अपने लक्ष्य से काफी नीचे गिर सकता है और उसका सदा के लिए अन्त हो सकता है।
विजय के प्रयासरत पुरुषार्थियों के संबंध में कहा गया है-

‘‘........विजय, कठिन एक लक्ष्य है
संकट से भरपूर।
चढ़े तो चाखै आनन्द रस
गिरै तो चकनाचूर..........।।’’

विजय की साधना अवश्य है लेकिन असंभव नहीं हैं। आप विजय की ओर क्रम-क्रम प्रयास करते जाइये, फिर एक दिन आयेगा---जब आप अपने लक्ष्य में पूर्ण सफलता पा लेंगे अर्थात् विजय को पा लेंगे।

परिस्थितियों से घबराना कैसा ?


जिन्दगी में मुश्किलें तो आती ही हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसे नाजुक क्षण आते हैं जब परिस्थितियाँ विकराल बनकर उसे डराने की कोशिश करती हैं। जिन्दगी के अभाव उसके धीरज की, विरोधी प्रवृत्ति के लोग उसकी सहनशीलता की, जटिल समस्याएँ उनके विवेक की परीक्षाएँ लेती हैं। इतने पर भी यदि आदमी नहीं घबराता तो बीमारी और मृत्यु की परीक्षाएँ होती हैं।
लेकिन विजय का महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति जीवन की हर समस्या का हँसते-हँसते सामना करता है। प्रतिकूल दशाओं में वह न धीरज खोता है और न ही विवेक।

 मनुष्य को यदि ‘स्वस्थिति’ या ‘आत्मस्थिति’ मजबूत हो तो वह जीवन की हर ‘परिस्थिति’ पर काबू पा सकता है। आत्मविश्वास के धनी व्यक्तियों के लिए भला परिस्थियियाँ क्या हैं ? वे जिन्दगी की हर परिस्थिति को खेल की तरह पार कर लेते हैं।
‘स्वस्थिति’ का मतलब है- ‘आत्मकेन्द्रित होना’।
जब व्यक्ति आत्मकेन्द्रित होता है तो उसके मन की कोई भी शक्ति इधर-उधर बिखरी हुई नहीं होती अर्थात् सारी शक्ति इकट्ठी होती है और इस तरह भरपूर मन से वह जो भी कार्य जीवन में आरम्भ करता है, उसमें उसे सफलता अवश्य मिलकर ही रहती है।

इधर-उधर की फालतू बातों में, औरों के व्यर्थ चिन्तन में, कई तरह के दुर्व्यसन तथा कुसंग में आदमी के मन की बहुत सारी अमूल्य शक्ति इधर-उधर बिखर कर नष्ट हो जाती है। यदि मनुष्य इस तरह अपनी शक्ति को कहीं बिखरने न दे तो सफलता और विजय के क्षेत्र में अनेक चमत्कारी कार्य कर सकता है।
जब आदमी की स्वस्थिति या मन:स्थिति कमजोर होगी तो उसे जरा-सी परिस्थिति काफी बड़ी, भयंकर और विकराल लगेगी। वह जिन्दगी की बिगड़ी हुई दशाएँ देखकर घबराएगा और कभी साहस के साथ उन परिस्थितियों से मुकाबला नहीं कर पाएगा।

परन्तु मन:स्थिति के सँभलते ही, आत्मविश्वास के कारण स्वस्थिति के मजबूत होते ही परिस्थितियों को समझने की कोशिश करेगा। समस्याओं से घबराने के बजाय उनका हल निकालने की कोशिश करेगा।
यदि आदमी पशु-पक्षी और कीड़े -कोड़ों जैसा कोई बुद्धिहीन जीव होता तो शायद उसके जीवन में इतनी समस्याएँ पैदा न होतीं।
वास्तव में समस्याओं को ‘समस्या’ समझने से ही समस्या पैदा होती है। परिस्थिति को ‘परिस्थिति’ समझने से ही घबराहट होती है।

छोटे-छोटे बच्चे जिन्दगी की कई समस्याओं से अनभिज्ञ होते हैं अत: उनकी बुद्धि के कोश में कई समस्याओं के नाम नहीं हैं।
आदमी यदि समस्याओं को ‘समस्या’ न समझ एक खेल समझे या उसे जीवन की परीक्षा समझ उसे युक्ति से हल करने का प्रयास करे तो वह खुशी-खुशी और बड़ी आसानी से समस्याओं से पार पा सकता है।
कोई भी विपत्ति आ पड़ने पर आदमी या तो घबराहट में अपने हौसले खो बैठता है या इतना चिन्तिन हो जाता है कि उसकी चिन्तन शक्ति भी जवाब दे जाती है। अर्थात् चिन्ता में वह इतनी बुरी तरह गहराई से घुस जाता है कि उसे जीवन का कोई हल ही दिखाई नहीं देता।

यदि हम परिस्थिति से घबराएँगे तो उनका हल भला कैसे निकाल पाएँगे ?
घबराहट में आदमी का दिमाग जड़ हो जाता है। उस समय वह तत्काल कोई भी निर्णय नहीं ले पाता।
पुराणों में राजा हरिश्चन्द्र की कहानी हम सबने पढ़ी है। वे कितने सत्यवादी और मर्यादित पुरुष थे। कैसी-कैसी विपत्तियाँ पड़ीं उन पर—राजपाट छोड़कर कंगाल हुए, पुत्र एवं पत्नी को बेचा, फिर खुद बिके। पुत्र के मरण का वियोग सहा लेकिन इतना सब सहकर भी कभी असत्य का सहारा न लिया।
इसी तरह रघुकुल में राजा दशरथ हुए, जो अपने वचन के पक्के थे, पत्नी कैकयी को दिये अपने दोनों वचन निभाकर, पुत्र वियोग में तड़पते-तड़पते प्राण त्याग दिये। ऐसे महावीर रघुवंशियों के संबंध में कहा गया:-

‘‘रघुकुल रीति सदा चलि आई।
प्राण जाये पर वचन न जाई।।’’

जो परिस्थितियों के आगे कभी हार नहीं मानते और प्राण देकर भी अपना वचन निभाते हैं-ऐसे सच्चे वीर और अथक साहसी व्यक्ति ही एक दिन ‘विजय’ को पाते हैं।

विधिपूर्वक अभ्यास

भारत की थल सेना आज भी विश्व की सर्वश्रेष्ठ थल सेनाओं में से एक है। हिन्दुस्तान के जांबाज सिपाहियों का मुकाबला करने में अच्छे-अच्छे विदेशी सैनिक थर्राते हैं। काफी वर्ष पहले, जब सलिकन्दर विश्व विजय का सपना लेकर भारत में आया तो यहाँ के सिपाहियों की युद्ध वीरता देखकर दंग रह गया। सबसे पहले (भारत में घुसते ही) उसका युद्ध पंजाब सीमा प्रान्त के राजा पोरस (पुरु या पर्वतेश्वर) से हुआ।
जयशंकर प्रसादजी ने अपने ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक में पुरु या पर्वतेश्वर राजा की वीरता का वर्णन निम्न शब्दों में किया है:-
‘‘....(एक ओर सिकन्दर का सेनापति सेल्यूकस, दूसरी ओर पर्वतेश्वर का ससैन्य प्रवेश युद्ध,)
सिल्यूकस: पर्वतेश्वर ! अस्त्र रख दो।
पर्वतेश्वर: यवन ! सावधान ! बचाओ अपने को !

(तुमुल युद्ध, घायल होकर सिल्यूकस का हटना)
पर्वतेश्वर : सेनापति ! देखो, उन कायरों को रोको। उनसे कह दो कि आज रणभूमि में पर्वतेश्वर पर्वत के समान अचल है। जय-पराजय की चिन्ता नहीं। इन्हें बतला देना होगा कि भारतीय लड़ना जानते हैं। बादलों से पानी बरसने की जगह वज्र बरसे, सारी गज-सेना छिन्न-भिन्न हो जाय, रथी विरथ हो, रक्त के नाले धमनियों से बहें, परन्तु एक पग भी पीछे हटना पर्वतेश्वर के लिए असंभव है। धर्मयुद्ध में प्राणभिक्षा माँगने वाले भिखारी हम नहीं। जाओ, उन भगोड़ों से एक बार जननी के स्तन्य की लज्जा के नाम पर रुकने के लिए कहो ! कहो कि मरने का क्षण एक ही है जाओ.....’’1
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1.चन्द्रगुप्त (नाटक)/जयशंकर प्रसाद / द्वितीय अंक, तृतीय अंक, तृतीय दृश्य/ पृष्ठ-77/ हरीश प्रकाशन मन्दिर आगरा।

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