उपन्यास >> गणदेवता गणदेवताताराशंकर वन्द्योपाध्याय
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"गणदेवता : भारत की धरती की महक बिखेरता कालजयी गद्य महाकाव्य"
Ganadevta - A Hindi Book by - Tarashankar Vandyopadhyaya गणदेवता - ताराशंकर वन्द्योपाध्याय
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कालजयी बांगला उपन्यासकार ताराशंकर वन्ध्योपाध्याय का उपन्यास ‘गणदेवता’ संसार के महान् उपन्यासों में गणनीय है। इसे भारतीय भाषाओं के लगभग एक सौ प्रतिष्ठित साहित्यकारों के सहयोग से सन् 1925 से 1959 के बीच प्रकाशित समग्र भारतीय साहित्य में ‘सर्वश्रेष्ठ’ के रूप में चुना गया और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
‘गणदेवता’ नये युग के चरण-निच्छेप काल का गद्यात्मक महाकाव्य है। हृदयग्राही कथा का विस्तार, अविस्मरणीय कथा-शैली के माध्यम से, बंगाल के जिस ग्रामीण अन्चल से सम्बद्ध है उनके गन्ध में समूचे भारत की धरती की महक व्याप्त है। उपन्यास का एक-एक पात्र व्यक्तिगत रूप से अपने सहज जीवन की हिलोर पर तरता हुआ उठता है और गिरता है; किन्तु सामूहिक रूप से वे सब एक विशाल सागर के उद्दाम ज्वार की भाँति हैं जो अपने अड़ोलन से समूचे युग को उद्वेलित कर दते हैं। कुण्ठित समाज के नागपाश से मुक्ति पाने के लिए संघर्षरत नर और नारियाँ; नये युग की आकस्मिक चौंध से पदस्खलित, किन्तु महाकाल के नये आवाह्न-गीत की बीन पर मंत्र-मुग्ध; भूख और वासना, विध्वंस और हाहाकार के बीच निर्मल संकल्प के साथ बढ़ते हुए गणदेवता के अडिग चरण, एक अबूझ लक्ष्य की खोज में....
जीवन-शक्ति के अनुसंधान की जीवन्त गाथा - ‘गणदेवता’ का प्रस्तुत है यह नवीन संस्करण बिल्कुल नये रूप में।’
‘गणदेवता’ नये युग के चरण-निच्छेप काल का गद्यात्मक महाकाव्य है। हृदयग्राही कथा का विस्तार, अविस्मरणीय कथा-शैली के माध्यम से, बंगाल के जिस ग्रामीण अन्चल से सम्बद्ध है उनके गन्ध में समूचे भारत की धरती की महक व्याप्त है। उपन्यास का एक-एक पात्र व्यक्तिगत रूप से अपने सहज जीवन की हिलोर पर तरता हुआ उठता है और गिरता है; किन्तु सामूहिक रूप से वे सब एक विशाल सागर के उद्दाम ज्वार की भाँति हैं जो अपने अड़ोलन से समूचे युग को उद्वेलित कर दते हैं। कुण्ठित समाज के नागपाश से मुक्ति पाने के लिए संघर्षरत नर और नारियाँ; नये युग की आकस्मिक चौंध से पदस्खलित, किन्तु महाकाल के नये आवाह्न-गीत की बीन पर मंत्र-मुग्ध; भूख और वासना, विध्वंस और हाहाकार के बीच निर्मल संकल्प के साथ बढ़ते हुए गणदेवता के अडिग चरण, एक अबूझ लक्ष्य की खोज में....
जीवन-शक्ति के अनुसंधान की जीवन्त गाथा - ‘गणदेवता’ का प्रस्तुत है यह नवीन संस्करण बिल्कुल नये रूप में।’
प्रस्तुति
दिल्ली में, 11 मई, 1967 को जब घोषणा हुई कि भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रवर्तित साहित्य-पुरस्कार योजना के अन्तर्गत गठित प्रवर परिषद् ने श्री ताराशंकर बन्द्योपाध्याय की कृति ‘गणदेवता’ को सन् 1925 से 1959 के बीच प्रकाशित समूचे भारतीय साहित्य में सर्वश्रेष्ठ माना है और एक लाख रुपये के पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, तो जहाँ देश के साहित्यकारों को इस बात से प्रसन्नता हुई कि श्री ताराशंकर बन्द्योपाध्याय निःसन्देह पुरस्कार के अधिकारी हैं, वहाँ बांग्ला साहित्य से सामान्य परिचय रखनेवालों को इस बात से कौतूहल हुआ कि तारा बाबू कि जिन कृतियों को बांग्ला साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों के रूप में अन्य माध्यमों द्वारा पुरस्कृत किया जा चुका है उनमें ‘गणदेवता’ का नाम क्यों नहीं ? और, इस सर्वोच्च अखिल भारतीय पुरस्कार के लिए ‘गणदेवता’ श्रेष्ठतम के रूप में कैसे चुना गया ?
श्री ताराशंकर बन्द्योपाध्याय के समूचे कृतित्व का पुनर्मूल्यांकन करने के उपरान्त अब प्रायः सभी सहमत हैं कि ‘गणदेवता’ का चुनाव पुरस्कार की अखिल भारतीय भूमिका के सर्वथा अनुरूप ही हुआ है। इस निर्वाचन का श्रेय मुख्यतः बांग्ला भाषा परामर्श समिति के सदस्यों को है जिन्होंने प्रवर परिषद् के विचारार्थ ‘गणदेवता’ की संस्तुति की। ‘गणदेवता’ का यह हिन्दी संस्करण बांग्ला में प्रकाशित कृति से इस दृष्टि से विशेष है कि बांग्ला में ‘गणदेवता’ के शीर्षक से समूचा उपन्यास एक जिल्द में अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ। बांग्ला में यह कृति दो पुस्तकों के रूप में प्रकाशित है : ‘गणदेवता’ और ‘पंचग्राम’, यद्यपि ‘पंचग्राम’ में ‘गणदेवता’ की कथा अग्रसारित है।
भारतीय साहित्य में श्री ताराशंकर बन्द्योपाध्याय की प्रतिष्ठा का चरम बिन्दु यह है कि वह बंकिमचन्द्र, शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की श्रृंखला में आते हैं। तारा बाबू कि साहित्यिक उपलब्धि अमर है। उनका मार्ग अपना निजी है, साधना अन्तःप्रेरित है, और जीवन-दृष्टि स्वयं-प्राप्त। शरतचन्द्र मध्यवित्त भद्रलोकों की संवेदना के संवाहक थे। उनका उद्देश्य था समाज को वह दृष्टि देना जो पतितों और चरित्रहीनों के उदात्त मानवीय पक्ष को उद्घाटित करे। तारा बाबू ने साहित्य की अछूती और दुर्गम पगडण्डियों पर साहस के साथ पग रखे हैं। उन्होंने जिस शहरी और देहाती मध्यवित्त समाज को चित्रित किया है, वह उनका अपना सहवर्ती समाज है—उनके अपने जमाने की समस्याओं से ग्रस्त, अपने युग से प्रभावित और अपने युग का निर्माण करता हुआ, नयी लीकें डालता हुआ तथा पुरानी लीकों को पालने में टूटता हुआ।
तारा बाबू की कृतियों में जीवन के अनेक आयाम अदले-बदले हैं। वह पहुँचे हैं समाज के अछूते अंचलों में, निम्नवर्गों में, सुख-दुःख के ठोस संघर्ष में, दानवी-मानवी और दैवी प्रकृति के आदिम लोक में। जो उन्होंने देखा, वाष्पाकुल नेत्रों से नहीं, कल्पना-भावनाओं के उद्दाम वेगों से बहते हुए नहीं, प्रकृतिस्थ होकर, यथार्थ को स्वीकृति देकर, परम्परा के श्रेय को मान देकर, नये के प्रेम को अपनत्व देकर।
‘गणदेवता’ भारतीय नवजागरण काल का महाकाव्य है। इसमें जीवन के सांस्कृतिक पक्ष की परम्परा और नये प्रभावों का केन्द्र है ‘चण्डीमण्डप’—माँ काली की पूजास्थली। और, जीवन के राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तन, विघटन, पुनर्गठन की कथा का आधार है ‘पंचग्राम’—मनु की व्यवस्था के अनुसार पाँच ग्रामों की इकाई, जो सामाजिक जीवन के सभी पक्षों और सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन उपलब्ध करती है। महाकाव्य की-सी भूमिका के अनुरूप ही ‘गणदेवता’ की कथा का उदय और विस्तार हुआ है, जिसमें पुरानी सामाजिक अर्थव्यवस्था का विघटन, नयी उद्योग-व्यवस्था की स्थापना और इस उलटफेर में जीवन-मूल्यों की नयी तुला पर असाधारण व्यक्तियों का साधारणीकरण, जो फिर भी अपने चरित्र की महत्ता में असाधारण रहते हैं। इसी पृष्ठभूमि में देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष और बलिदान की कथा, अत्याचारों और अत्याचारियों से टक्कर लेने का दुर्दम साहस—बड़े विलक्षण और मार्मिक चरित्र अवतरित हैं सब।
साधारण और असाधारण की क्रिया-प्रतिक्रिया, एक ही मानव के उदात्त और अनुदात्त पक्षों का यथार्थ चित्रण—और सर्वोपरि, जीवन सत्य के अनुसन्धान का प्रमाणीकृत प्रतिफल इस सबके परिप्रेक्ष्य में ‘गणदेवता’ असन्दिग्ध रूप से उच्चकोटि के सर्जनात्मक कृतित्व से अलंकृत है।
मूल बांग्ला में ‘गणदेवता’ सर्वप्रथम 1942 में प्रकाशित हुआ था। तब से कई संस्करण इसके हो चुके हैं। उपन्यास का कथानक, इसके चरित्र, उनकी समस्या-भावनाएँ, और उनके आवेग-संवेग नितान्त स्वाभाविकता के साथ इस मूलभूत वास्तविकता को रेखांकित करते हैं कि सर्जनात्मक साहित्यक रचना, यों देश के किसी भाग से सम्बद्ध हो, वह समूचे देश को प्रतिबिम्बित करती है। देश की अन्तरात्मा यथार्थः अविभाज्य है, भले ही वह अभिव्यक्ति देश की अनेक भाषाओं में से किसी एक में ग्रहण करे। और यही तो भारतीय ज्ञानपीठ की मूल दृष्टि है और उसके द्वारा प्रवर्तित इस पुरस्कार की प्रेरणा-भावना।
‘गणदेवता’ के इस हिन्दी रूपान्तर का प्रकाशन-उद्घाटन प्रथम बार 15 दिसम्बर 1967 को पुरस्कार समर्पण-समारोह के अवसर पर हुआ था। उसके एक वर्ष पहले जब महाकवि जी.शंकर कुरूप को पुरस्कार समर्पित किया गया था उस अवसर पर भारतीय ज्ञानपीठ ने पुरस्कृत कृति ‘ओटक्कुष़ल’ का हिन्दी अनुवाद ‘बाँसुरी’ शीर्षक से प्रस्तुत किया था। इन प्रकाशनों ने भारतीय ज्ञानपीठ की ‘राष्ट्रभारती ग्रन्थमाला’ को एक नया गौरव दिया है।
यह अनुवाद श्री हंसकुमार तिवारी ने प्रस्तुत किया है। बांग्ला के देहाती मुहावरे को यथार्थ हिन्दी पर्याय देने में वह विशेष रूप से कुशल हैं, क्योंकि देहाती जीवन से वह सम्पृक्त रहे हैं। अनुवाद में हिन्दी के बँधे-बँधाये गठन से हटकर यदि कुछ विचित्र-सा लगे तो उसे अनुवादक द्वारा मूल की भंगिमा को व्यक्त करने का प्रयोग माना जाए।
श्री ताराशंकर बन्द्योपाध्याय के समूचे कृतित्व का पुनर्मूल्यांकन करने के उपरान्त अब प्रायः सभी सहमत हैं कि ‘गणदेवता’ का चुनाव पुरस्कार की अखिल भारतीय भूमिका के सर्वथा अनुरूप ही हुआ है। इस निर्वाचन का श्रेय मुख्यतः बांग्ला भाषा परामर्श समिति के सदस्यों को है जिन्होंने प्रवर परिषद् के विचारार्थ ‘गणदेवता’ की संस्तुति की। ‘गणदेवता’ का यह हिन्दी संस्करण बांग्ला में प्रकाशित कृति से इस दृष्टि से विशेष है कि बांग्ला में ‘गणदेवता’ के शीर्षक से समूचा उपन्यास एक जिल्द में अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ। बांग्ला में यह कृति दो पुस्तकों के रूप में प्रकाशित है : ‘गणदेवता’ और ‘पंचग्राम’, यद्यपि ‘पंचग्राम’ में ‘गणदेवता’ की कथा अग्रसारित है।
भारतीय साहित्य में श्री ताराशंकर बन्द्योपाध्याय की प्रतिष्ठा का चरम बिन्दु यह है कि वह बंकिमचन्द्र, शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की श्रृंखला में आते हैं। तारा बाबू कि साहित्यिक उपलब्धि अमर है। उनका मार्ग अपना निजी है, साधना अन्तःप्रेरित है, और जीवन-दृष्टि स्वयं-प्राप्त। शरतचन्द्र मध्यवित्त भद्रलोकों की संवेदना के संवाहक थे। उनका उद्देश्य था समाज को वह दृष्टि देना जो पतितों और चरित्रहीनों के उदात्त मानवीय पक्ष को उद्घाटित करे। तारा बाबू ने साहित्य की अछूती और दुर्गम पगडण्डियों पर साहस के साथ पग रखे हैं। उन्होंने जिस शहरी और देहाती मध्यवित्त समाज को चित्रित किया है, वह उनका अपना सहवर्ती समाज है—उनके अपने जमाने की समस्याओं से ग्रस्त, अपने युग से प्रभावित और अपने युग का निर्माण करता हुआ, नयी लीकें डालता हुआ तथा पुरानी लीकों को पालने में टूटता हुआ।
तारा बाबू की कृतियों में जीवन के अनेक आयाम अदले-बदले हैं। वह पहुँचे हैं समाज के अछूते अंचलों में, निम्नवर्गों में, सुख-दुःख के ठोस संघर्ष में, दानवी-मानवी और दैवी प्रकृति के आदिम लोक में। जो उन्होंने देखा, वाष्पाकुल नेत्रों से नहीं, कल्पना-भावनाओं के उद्दाम वेगों से बहते हुए नहीं, प्रकृतिस्थ होकर, यथार्थ को स्वीकृति देकर, परम्परा के श्रेय को मान देकर, नये के प्रेम को अपनत्व देकर।
‘गणदेवता’ भारतीय नवजागरण काल का महाकाव्य है। इसमें जीवन के सांस्कृतिक पक्ष की परम्परा और नये प्रभावों का केन्द्र है ‘चण्डीमण्डप’—माँ काली की पूजास्थली। और, जीवन के राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तन, विघटन, पुनर्गठन की कथा का आधार है ‘पंचग्राम’—मनु की व्यवस्था के अनुसार पाँच ग्रामों की इकाई, जो सामाजिक जीवन के सभी पक्षों और सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन उपलब्ध करती है। महाकाव्य की-सी भूमिका के अनुरूप ही ‘गणदेवता’ की कथा का उदय और विस्तार हुआ है, जिसमें पुरानी सामाजिक अर्थव्यवस्था का विघटन, नयी उद्योग-व्यवस्था की स्थापना और इस उलटफेर में जीवन-मूल्यों की नयी तुला पर असाधारण व्यक्तियों का साधारणीकरण, जो फिर भी अपने चरित्र की महत्ता में असाधारण रहते हैं। इसी पृष्ठभूमि में देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष और बलिदान की कथा, अत्याचारों और अत्याचारियों से टक्कर लेने का दुर्दम साहस—बड़े विलक्षण और मार्मिक चरित्र अवतरित हैं सब।
साधारण और असाधारण की क्रिया-प्रतिक्रिया, एक ही मानव के उदात्त और अनुदात्त पक्षों का यथार्थ चित्रण—और सर्वोपरि, जीवन सत्य के अनुसन्धान का प्रमाणीकृत प्रतिफल इस सबके परिप्रेक्ष्य में ‘गणदेवता’ असन्दिग्ध रूप से उच्चकोटि के सर्जनात्मक कृतित्व से अलंकृत है।
मूल बांग्ला में ‘गणदेवता’ सर्वप्रथम 1942 में प्रकाशित हुआ था। तब से कई संस्करण इसके हो चुके हैं। उपन्यास का कथानक, इसके चरित्र, उनकी समस्या-भावनाएँ, और उनके आवेग-संवेग नितान्त स्वाभाविकता के साथ इस मूलभूत वास्तविकता को रेखांकित करते हैं कि सर्जनात्मक साहित्यक रचना, यों देश के किसी भाग से सम्बद्ध हो, वह समूचे देश को प्रतिबिम्बित करती है। देश की अन्तरात्मा यथार्थः अविभाज्य है, भले ही वह अभिव्यक्ति देश की अनेक भाषाओं में से किसी एक में ग्रहण करे। और यही तो भारतीय ज्ञानपीठ की मूल दृष्टि है और उसके द्वारा प्रवर्तित इस पुरस्कार की प्रेरणा-भावना।
‘गणदेवता’ के इस हिन्दी रूपान्तर का प्रकाशन-उद्घाटन प्रथम बार 15 दिसम्बर 1967 को पुरस्कार समर्पण-समारोह के अवसर पर हुआ था। उसके एक वर्ष पहले जब महाकवि जी.शंकर कुरूप को पुरस्कार समर्पित किया गया था उस अवसर पर भारतीय ज्ञानपीठ ने पुरस्कृत कृति ‘ओटक्कुष़ल’ का हिन्दी अनुवाद ‘बाँसुरी’ शीर्षक से प्रस्तुत किया था। इन प्रकाशनों ने भारतीय ज्ञानपीठ की ‘राष्ट्रभारती ग्रन्थमाला’ को एक नया गौरव दिया है।
यह अनुवाद श्री हंसकुमार तिवारी ने प्रस्तुत किया है। बांग्ला के देहाती मुहावरे को यथार्थ हिन्दी पर्याय देने में वह विशेष रूप से कुशल हैं, क्योंकि देहाती जीवन से वह सम्पृक्त रहे हैं। अनुवाद में हिन्दी के बँधे-बँधाये गठन से हटकर यदि कुछ विचित्र-सा लगे तो उसे अनुवादक द्वारा मूल की भंगिमा को व्यक्त करने का प्रयोग माना जाए।
दो शब्द
‘गणदेवता’ उपन्यास वर्ष 1966 के भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुआ है। भारतीय ज्ञानपीठ के प्रयत्न से ही इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो रहा है ।
‘गणदेवता’ का प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1942 में हुआ था जिसके प्रथम खण्ड का नाम है ‘गणदेवता’ (चण्डीमण्डप)। इसका दूसरा खण्ड है ‘पंचग्राम’ सन् 1944 में प्रकाशित हु्आ । वास्तव में इन दोनों खण्डों को मिलाकर ही एक सम्पूर्ण रचना बनती है। इस प्रकार ‘चण्डीमण्डप’ और ‘पंचग्राम’, इन दो खण्डों का संयुक्त नाम ‘गणदेवता’ है। बांग्ला में दोनों खण्ड दो पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हैं। भारतीय ज्ञानपीठ ने इन दोनों को एकत्र कर ‘गणदेवता’ नाम से हिन्दी में प्रकाशित किया है।
‘गणदेवता’ का रचना-काल 1941-42 है। इस समय भारतवर्ष परोक्ष रूप में युद्धक्रान्त था और प्रत्यक्ष में विदेशी शासन की श्रृंखलाओं से मुक्ति के लिए संघर्षरत। यही वेदना उनके अन्तःकरण को क्षत-विक्षत किये थी। उसी उत्ताप और ज्वाला के कुछ चिह्न इस उपन्यास में भी आ गये हैं, ऐसा मैं सोचता हूँ।
‘गणदेवता’ बंगाल के ग्राम्यजीवन पर आधारित एक ग्रामभित्तिक उपन्यास है। कृषि पर निर्भरशील ग्राम्यजीवन की शताब्दियों की सामाजिक परम्परा किस प्रकार पाश्चात्य औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप यन्त्र-सभ्यता के संघात से धीरे-धीरे अस्त-व्यस्त होने लगी थी, यही इस उपन्यास में दिखाया गया है। कृषि-निर्भर ग्राम्यजीवन जिन सामाजिक परम्पराओं पर टिका हुआ था उनका रूप सम्भवतया संसार के कृषि-निर्भर, यन्त्र-सभ्यता के अछूते ग्राम्यजीवन में सर्वत्र एक ही है। किन्तु पंजाब-सिन्ध-गुजरात-मराठा-द्राविड़-उत्कल-बंग’ को अपने में समेटे इस विशाल देश भारत की सामाजिक परम्परा के साथ एक और तत्त्व भी गुम्फित था जिसे अनुशासन कहा जा सकता है। यह अनुशासन नीति का अनुसरण करता है, और न्याय और अन्यय के बोध को लेकर सदा स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से जीवन में सब कहीं, सब क्षेत्रों में, किसी-न-किसी प्रकार अपने को प्रयुक्त करना चाहता है। सम्पूर्ण सामाजिक परम्परा की आधार-भूमि यह बोध ही था। इस बोध के परिणामस्वरूप प्राकृतिक भिन्नता के रहते भी आभ्यन्तरिक तथा बाह्य जीवन में सारे भारत के ग्राम्यजीवन को एक आश्चर्यमयी एकता की वाणी प्राप्त होती है।
इसीलिए बंगाल के ग्राम्यजीवन का जो चित्र इस उपन्यास का आधार है वह केवल बंगाल का होने पर भी उसमें सम्पूर्ण भारत के ग्राम्यजीवन का न्यूनाधिक प्रतिबिम्ब मिलेगा। बंगाल के गाँव का खेतिहर-महाजन श्रीहरि घोष, संघर्षरत आदर्शवादी युवक देबू घोष, अथवा जीविकाहीन-भूमिहीन अनिरुद्ध लुहार केवल बंगाल के ही निवासी नहीं हैं; इनमें भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम—सब दिशाओं के भिन्न-भिन्न राज्यों के ग्रामीण मनुष्यों का चेहरा खोजने पर प्रतिबिम्बित मिल जाएगा। बंगाल के श्रीहरि, देबू या अनिरुद्ध ने दूसरे प्रान्तों में जाकर सिर्फ़ नाम ही बदला है, पेशे और चरित्र में वे लोग भिन्न नहीं हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ, उसकी अध्यक्षा माननीया श्रीमती रमा जैन, तथा मन्त्री श्रीयुत् लक्ष्मीचन्द्र जैन को मैं इस पुस्तक का आग्रह और यत्न से प्रकाशन करने के लिए धन्यवाद अर्पित करता हूँ तथा प्रतिष्ठित अनुवादक श्री हंसकुमार तिवारी को भी अनुवाद-कार्य के लिए धन्यवाद देता हूँ।
‘गणदेवता’ का प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1942 में हुआ था जिसके प्रथम खण्ड का नाम है ‘गणदेवता’ (चण्डीमण्डप)। इसका दूसरा खण्ड है ‘पंचग्राम’ सन् 1944 में प्रकाशित हु्आ । वास्तव में इन दोनों खण्डों को मिलाकर ही एक सम्पूर्ण रचना बनती है। इस प्रकार ‘चण्डीमण्डप’ और ‘पंचग्राम’, इन दो खण्डों का संयुक्त नाम ‘गणदेवता’ है। बांग्ला में दोनों खण्ड दो पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हैं। भारतीय ज्ञानपीठ ने इन दोनों को एकत्र कर ‘गणदेवता’ नाम से हिन्दी में प्रकाशित किया है।
‘गणदेवता’ का रचना-काल 1941-42 है। इस समय भारतवर्ष परोक्ष रूप में युद्धक्रान्त था और प्रत्यक्ष में विदेशी शासन की श्रृंखलाओं से मुक्ति के लिए संघर्षरत। यही वेदना उनके अन्तःकरण को क्षत-विक्षत किये थी। उसी उत्ताप और ज्वाला के कुछ चिह्न इस उपन्यास में भी आ गये हैं, ऐसा मैं सोचता हूँ।
‘गणदेवता’ बंगाल के ग्राम्यजीवन पर आधारित एक ग्रामभित्तिक उपन्यास है। कृषि पर निर्भरशील ग्राम्यजीवन की शताब्दियों की सामाजिक परम्परा किस प्रकार पाश्चात्य औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप यन्त्र-सभ्यता के संघात से धीरे-धीरे अस्त-व्यस्त होने लगी थी, यही इस उपन्यास में दिखाया गया है। कृषि-निर्भर ग्राम्यजीवन जिन सामाजिक परम्पराओं पर टिका हुआ था उनका रूप सम्भवतया संसार के कृषि-निर्भर, यन्त्र-सभ्यता के अछूते ग्राम्यजीवन में सर्वत्र एक ही है। किन्तु पंजाब-सिन्ध-गुजरात-मराठा-द्राविड़-उत्कल-बंग’ को अपने में समेटे इस विशाल देश भारत की सामाजिक परम्परा के साथ एक और तत्त्व भी गुम्फित था जिसे अनुशासन कहा जा सकता है। यह अनुशासन नीति का अनुसरण करता है, और न्याय और अन्यय के बोध को लेकर सदा स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से जीवन में सब कहीं, सब क्षेत्रों में, किसी-न-किसी प्रकार अपने को प्रयुक्त करना चाहता है। सम्पूर्ण सामाजिक परम्परा की आधार-भूमि यह बोध ही था। इस बोध के परिणामस्वरूप प्राकृतिक भिन्नता के रहते भी आभ्यन्तरिक तथा बाह्य जीवन में सारे भारत के ग्राम्यजीवन को एक आश्चर्यमयी एकता की वाणी प्राप्त होती है।
इसीलिए बंगाल के ग्राम्यजीवन का जो चित्र इस उपन्यास का आधार है वह केवल बंगाल का होने पर भी उसमें सम्पूर्ण भारत के ग्राम्यजीवन का न्यूनाधिक प्रतिबिम्ब मिलेगा। बंगाल के गाँव का खेतिहर-महाजन श्रीहरि घोष, संघर्षरत आदर्शवादी युवक देबू घोष, अथवा जीविकाहीन-भूमिहीन अनिरुद्ध लुहार केवल बंगाल के ही निवासी नहीं हैं; इनमें भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम—सब दिशाओं के भिन्न-भिन्न राज्यों के ग्रामीण मनुष्यों का चेहरा खोजने पर प्रतिबिम्बित मिल जाएगा। बंगाल के श्रीहरि, देबू या अनिरुद्ध ने दूसरे प्रान्तों में जाकर सिर्फ़ नाम ही बदला है, पेशे और चरित्र में वे लोग भिन्न नहीं हैं।
भारतीय ज्ञानपीठ, उसकी अध्यक्षा माननीया श्रीमती रमा जैन, तथा मन्त्री श्रीयुत् लक्ष्मीचन्द्र जैन को मैं इस पुस्तक का आग्रह और यत्न से प्रकाशन करने के लिए धन्यवाद अर्पित करता हूँ तथा प्रतिष्ठित अनुवादक श्री हंसकुमार तिवारी को भी अनुवाद-कार्य के लिए धन्यवाद देता हूँ।
-ताराशंकर बन्द्योपाध्याय
25 जुलाई, 1967
टाला पार्क, कलकत्ता-2
25 जुलाई, 1967
टाला पार्क, कलकत्ता-2
एक
कारण मामूली-सा था। मामूली-से ही कारण से एक विपर्यय हो गया। बस्ती के लुहार अनिरुद्ध कर्मकार और बढ़ई गिरीश सूत्रधर ने नदी के उस पार बाजार में अपनी-अपनी दूकान कर ली थी। तड़के ही उठकर चल दिया करते और लौटते रात के दस बजे। लिहाजा गाँववालों की असुविधाओं का अन्त नहीं था। इस बार खेती के समय उन्हें क्या-क्या मुसीबतें उठानी पड़ीं, यह वही जानते हैं। हल का फाल पजाने और पहियों में हाल बँधवाने के लिए खेतिहरों की कठिनाई की पूछिए मत। गिरीश बढ़ई के यहाँ पिछले फागुन-चैत से ही गाँववालों के बबूल के कुन्दों का ढेर लगा पड़ा था; लेकिन आज तक उन्हें नये हल नहीं मिले।
इसी बात को लेकर अनिरुद्ध और गिरीश के खिलाफ लोगों के असन्तोष की सीमा नहीं थी। लेकिन खेती के समय इसके लिए पर-पंचायत करने की फुरसत किसी को नहीं मिली। जरूरत का तकाजा था, लिहाजा मीठी बातों से ही उनसे काम निकाला गया; रात रहते ही अनिरुद्ध के दरवाजे पर जा बैठे और उसे रोक-टोककर लोगों ने अपना काम करा लिया; ज्यादा जरूरी हुआ तो फाल लिये, हाल और गाड़ी का पहिया लुढ़काते हुए लोग उसके पास बाजार तक भी दौड़े। चार मील का फासला—मगर अकेले मयूराक्षी नदी ही बीस कोस के बराबर थी। बरसात में नाव से पार करने में पूरा डेढ़ घण्टा लग जाता है। सूखे समय में गाड़ी के पहिये को बालू पर इतनी दूर तक ठेलते हुए ले जाना आसान काम न था। थोड़ा घूमकर जाने से नदी पर रेल का पुल है, मगर लाइन के पासवाला रास्ता इतना ऊँचा ओर सँकरा है कि पहिये को लुढ़काकर ले जाना मुश्किल है।
खेती का समय निकल गया। फसल पक गयी। अब हँसिया चाहिए। लोहा-इस्पात लेकर लुहार ही सदा हँसिया बना दिया करता; बढ़ई लगा दिया करता था मूठ। मगर लुहार-बढ़ई दोनों की एक ही रफ्तार थी। जो किसी तरह अनिरुद्ध के यहाँ से पार हो गया, वह गिरीश के यहाँ झूलता रहा। सो हार-पार कर गाँववालों ने पंचायत बुलायी। एक नहीं आस-पास के दो गाँवों के लोग जुटे और एक खास दिन अनिरुद्ध तथा गिरीश को हाजिर होने की खबर भिजवायी। पंचायत गाँव के शिव-थान के सार्वजनिक चण्डीमण्डप में बैठी। चण्डीमण्डप में मयूरेश्वर शिव हैं; पास ही है ग्रामदेवी माता भग्नकाली की वेदी। काली-मन्दिर जितनी भी बार बना, टूट-टूट गया। इसीलिए काली का नाम पड़ा भग्नकाली। चण्डीमण्डप भी बहुत पुराना है। उसके छ्प्पर की ठाठ को मानो अजर-अमर करने के लिए हाथी-सूँड़, बड़दल, तीरसंगा-सब प्रकार की लकड़ियों से बनवाया गया था। नीचे की जमीन भी सनातन नियम से माटी की थी। इसी चण्डीमण्डप में दरी-चटाई बिछाकर पंचायत बैठी।
गिरीश और अनिरुद्ध भी आये आखिर। दोनों समय पर पहुँचे। बैठक में दो गाँवों के जाने-माने लोग जमा हुए थे। हरीश मण्डल, भवेश पाल, मुकुन्द घोष, कीर्तिवास मण्डल, नटवर पाल—ये सबके सब वजनी लोग थे, गाँव से सातबार सद्गोप। पड़ोस की बस्ती के द्वारका चौधरी भी आये थे। ये एक विशिष्ठ और प्रवीण व्यक्ति थे, इलाके में इनका अच्छा मान था। आचार-व्यवहार और सूझ-बूझ के लिए सबकी श्रद्धा के पात्र थे। आज भी लोग कहा करते—आखिर हें कैसे खानदान के, यह भी तो देखना है ! चौधरी के पुरखे कभी इन दोनों गाँवों के जमींदार थे : आज अवश्य ये एक सम्पन्न किसान गिने जाते हैं। दूकानदार वृन्दावन पाल—वह भी सम्पन्न आदमी। मध्यवित्त अवस्था का कम उम्र का खेतिहर गोपेन पाल, राखाल मण्डल, रामनारायण घोष—ये सब भी हाजिर हुए थे। इस बस्ती का एक मात्र ब्राह्मण बाशिन्दा हरेन्द्र घोषाल, उस बस्ती का निशि मुखर्जी, पियारी बनर्जी—ये सब भी एक ओर बैठे थे।
मजलिस के लगभग बीच में जमकर बैठा था छिरू पाल—यह जगह उसने खुद ली थी आकर। छिरू यानी श्रीहरि पाल ही इस बस्ती का नया धनी था। इस हलके में जो गिने-चुने धनी हैं, दौलत में छिरू उनमें से किसी से भी कम नहीं—ऐसा ही अनुमान था लोगों का। बड़ा-सा चेहरा, स्वभाव से बड़ा ही खूँखार आदमी। दौलत के लिए जो सम्मान समाज किसी को देता है, वह सम्मान ठीक उसी कारण से छिरू का नहीं था। अभद्र, क्रोधी, गँवार, दुश्चरित्र, धनी छिरू पाल को लोग मन-ही-मन घृणा करते; बाहर से डरते हुए भी धन के अनुरूप सम्मान उसका कोई नहीं करता। छिरू को इस बात का क्षोभ था कि लोग उसका सम्मान नहीं करते, इसलिए वह सब पर खीझा रहता। वह जबरन यह सम्मान पाने के लिए कमर कसे तैयार रहता। इसलिए जब भी ऐसी कोई सामाजिक बैठक होती, वह बैठक के ठीक बीच में जमकर बैठ जाता।
एक और मजबूत लम्बा-तगड़ा साँवला-सा युवक निरा निस्पृह-सा एक ओर खम्भे से लगकर खड़ा था। यह था देवनाथ घोष—इसी बस्ती के सद्गोप खेतिहर का बेटा। अवश्य देवनाथ खुद खेती नहीं करता, वह स्थानीय यूनियन बोर्ड के फ्री प्राइमरी स्कूल का अध्यापक था। आने की वैसी इच्छा न रहते हुए भी वह आया था, उसे पता था कि अनिरुद्ध का यह जो अन्याय है, उस अन्याय की जड़ कहाँ है। उसकी यह निःस्पृहता इसीलिए थी कि जिस बैठक में छिरू पाल-जैसा आदमी माला के मनका-जैसा प्रधान बन बैठा हो, उस बैठक पर उसे आस्था नहीं। इसीलिए वह मौन उपेक्षा से एक ओर खम्भे से सटकर खड़ा था। बैठक में आये नहीं थे तो केवल दो जने : उस गाँव के कृपण महाजन स्वर्गीय राखोहरी चक्रवर्ती का दत्तक पुत्र हेलाराम चटर्जी और गाँव का डॉक्टर जगन्नाथ घोष। गाँव का चौकीदार भूपाल लुहार भी मौजूद था । आस-पास गाँव के बच्चे शोर-गुल कर रहे थे; एकबारगी एक किनारे गाँव के हरिजन किसान भी खड़े थे। गाँव के मजदूर खेतिहर दरअसल यही लोग हैं, असुविधाओं का प्रायः बारह आना तो इन्हीं को भोगना पड़ता।
अनिरुद्ध और गिरीश आकर मजलिस में बैठे। साफ-सुथरे, फिट-फाट। शहरी फैशन की स्पष्ट छाप। दोनों सिगरेट पीते आ रहे थे। सभा से कुछ दूर उधर ही सिगरेट फेंक दोनों आकर बैठ गये।
बात की शुरुआत अनिरुद्ध ने की। बैठते ही एक बार चेहरे को अच्छी तरह से हाथ से पोंछ लिया और कहा, ‘‘जी हाँ। तो क्या कहना है, कहिए। हम लोग मेहनत-मशक्कत करके रोजी चलाते हैं। आज की यह वेला हमारी नाहक मारी गयी।’’
उसके कहने के ढंग और सुर से सब लोग जरा चकित हो उठे। प्रवीणों ने खँखारकर अपना-अपना गला साफ कर लिया। कम उम्रवालों में एक आग-सी उठी। छिरू उर्फ श्रीहरि बोल उठा, ‘‘मारी गयी समझते हो तो आने की ही क्या जरूरत थी ?’’
बोलने के लिए हरेन्द्र घोषाल अकबक कर रहा था; उसने कहा, ‘‘तो बिगड़ा क्या है, चाहो तो जा सकते हो तुम लोग। कोई पकड़कर तो लाया नहीं, बाँधकर भी नहीं रखा है।’’
अब हरीश मण्डल ने कहा, ‘‘तुम लोग चुप रहो। सुनो, जब बुलाहट हुई तो आना तो पड़ेगा ही। तुम लोग आये हो, अच्छी बात है, बहुत अच्छा किया है। अब दोनों तरफ से बात होगी। हमें जो कहना है हम कहेंगे—जवाब जो देना हो तुम लोग दोगे। फिर विचार होगा। ऐसी जल्दी करने से कैसे चलेगा ?’’
गिरीश बोला, ‘‘मतलब, कि बात हम लोगों के ही बारे में है,’’ अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘हम लोगों ने अन्दाज लगाया था। खैर, क्या कहना है आप लोगों को, कहिए। हम अपना जवाब देंगे। लेकिन एक बात है, आप सब लोग जब एक हो गये हैं तो इसका विचार कौन करेगा ? नालिश जब आपको करनी है, तब आप कैसे विचार करेंगे, हम यह नहीं समझ पा रहे हैं।’’
द्वारका चौधरी एकाएक गला साफ करने के लिए जोर से खाँस उठा-यह उसके बोलने का पूर्वाभास था। उस आवाज से सब चौधरी की तरफ देखने लगे। चौधरी के चेहरे और भंगिमा में खासियत थी। गोरा रंग, धपधप सफेद मूँछ—बैठक में यह विशिष्ट-सा होकर बैठा था। अब उसने जबान खोली, ‘‘सुनो अनिरुद्ध, कुछ खयाल मत करना भैया, मैं एक बात कहूँ। शुरू से ही तुम लोगों की बातचीत के ढंग से लगता है कि तुम लोग विवाद करने के लिए तैयार होकर आये हो। मगर यह तो अच्छी बात नहीं भैया। बैठो, स्थिर होकर बैठो।’’
अनिरुद्ध ने गरदन झुकाकर विनय के साथ कहा, ‘‘ठीक है, कहिए।’’
हरीश मण्डल ने ही शुरू किया। कहा, ‘‘सुनो भैया, खोलकर सब कहूँ तो पूरा महाभारत सुनना होगा। संक्षेप में ही कहूँ, तुम दोनों ने शहर में अपना कारोबार शुरू किया है। ठीक ही किया है। जहाँ दो पैसे मिलेंगे, आदमी वहीं जाएगा। सो जाओ लेकिन यहाँ एकबारगी सब समेट लो और हम कन्धे पर सामान उठाये नदी पार करके यह दो कोस रास्ता दौड़ा करें, यह तो नहीं होने का भैया। इस बार तुम दोनों ने क्या गत बनायी है हमारी, खुद ही सोच देखो जरा।’’
अनिरुद्ध बोला, ‘‘जी हाँ असुविधा तो जरूर हुई है आप लोगों को।’’
छिरू यानी श्रीहरि पाल गरज उठा—‘‘कुछ ? कुछ क्या कहते हो ? पता है, खेत में पानी रहते हुए भी चूँकि फाल नहीं पजाया जा सका इसलिए खेती बन्द करनी पड़ी है ! आखिर जमीन तो तुम्हारी भी है, एक बार खेत का चक्कर काटकर देख तो आओ जरा कि किस तरह पटपटी घास उग आयी है ! अच्छे फाल की कमी से जोतते वक्त एक भी जड़ नहीं उखड़ी घास की। वक्त पर बोरा लिये धान के लिए हाजिर हो जाओगे और जरूरत के समय शहर में जाकर बैठ रहोगे—ऐसा करने से कैसे चलेगा ?’’
हरेन्द्र ने तुरत हामी भरी—‘‘बिलकुल वाजिब है।’’
सारी मजलिस लगभग एक स्वर में बोल उठी—‘‘बिलकुल।’’
अनिरुद्ध अब जरा सप्रतिभ हो सम्भलकर बैठा और बोला, ‘‘यही शिकायत है न आप लोगों को ? अब हमारी सुनिए। मैं आप सबका फाल पजा देता हूँ, पहियों में हाल चढ़ाता हूँ, हँसिया में धार कर देता हूँ, बदले में आप हल पीछे मुझे कच्ची पाँच सोली1 धान देते हैं। गिरीश सूत्रधर...’’
छिरू पाल ने टोका, ‘‘गिरीश से तुम्हें क्या मतलब ?’’
लेकिन छिरू अपनी बात पूरी न कर सका। द्वारका चौधरी ने कहा, ‘‘श्रीहरि अनिरुद्ध ने कुछ बेजा नहीं कहा। बात उन दोनों की एक ही है। कोई एक ही कहे तो कोई हर्ज नहीं।’’
छिरू चुप हो गया। अनिरुद्ध ने थोड़ा भरोसा पाकर कहा, ‘‘चौधरीजी के रहे बिना क्या मजलिस की शोभा होती है ! वाजिब बात कहे कौन ?’’
‘‘तुम जो कह रहे थे, कहो अनिरुद्ध !’’
‘‘जी ! मुझे यानी लुहार को हल पीछे पाँच सोली, और बढ़ई को हल पीछे चार सोली धान मिलता है। हम इसी पर आज तक काम भी करते आये हैं। लेकिन आपसे बता दूँ, अपना पावना हम प्रायः पाते नहीं हैं।’’
‘‘नहीं पाते हो ?’’
‘‘जी नहीं।’’
गिरीश ने भी कहा, ‘‘जी नहीं। प्रायः सभी लोग कुछ-न-कुछ बाकी रख लेते हैं। कहते हैं, बाद में ले जाना, या कि अगले साल ले लेना। और वह बाकी हमें फिर कभी नहीं मिलता।’’
छिरू साँप-जैसा फुफकार उठा—‘‘नहीं मिलता ? किसने नहीं दिया है, सुनूँ जरा ? केवल कह देने से नहीं होगा। नाम बताना पड़ेगा। कहो किसके यहाँ बाकी है ?
मारे गुस्से के बिजली की तेजी से गरदन घुमाकर श्रीहरि की ओर ताककर अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘किसके यहाँ ? नाम बताना पड़ेगा। ठीक है, तुम्हारे यहाँ बाकी है।’’
‘‘मेरे यहाँ ?’’
‘‘जी हाँ, तुम्हारे यहाँ। दो साल से दिया है धान तुमने ?’’
‘‘और मैंने जो तुम्हें हैण्डनोट पर रुपया दिया है। उसमें कै रुपया चुकाया है तुमने, कहो तो ? मैंने नहीं दिया है—भरी सभा में इतनी बड़ी बात कह दी !’’
‘‘लेकिन उसका कुछ हिसाब-किताब तो होगा आखिर। धान की कीमत की उस पर वसूली तो लिखनी होगी कि नहीं ? आप ही कहें चौधरीजी, मण्डलजी वगैरह भी तो हैं, कहें।’’
चौधरी ने कहा, ‘‘सुनो चुप रहो जरा। भैया श्रीहरि, हैण्डनोट की पीठ पर वसूली लिख देना ! और सुनो अनिरुद्ध, किन-किन के पास तुम लोगों का बाकी है, उसकी एक फिहरिस्त बनाकर हरीश मण्डलजी को दे दो। बैठक में इसके लिए शोर करना ठीक नहीं। वही लोग तुम्हारा बकाया वसूल करा देंगे। और सुनो, गाँव में भी काम-काज का कुछ सिलसिला रखो। जैसे काम-काज किया करते थे, किया करो।’’
बैठक के सभी लोगों ने इस बात पर हामी भरी। लेकिन अनिरुद्ध और गिरीश चुप रहे। हाव-भाव से भी हाँ-ना का कोई लक्षण प्रकट नहीं किया।
अब देवनाथ ने जबान खोली। बूढ़े चौधरी का यह फैसला उसे अच्छा लगा। उसे अनिरुद्ध और गिरीश के बकाये की बात मालूम थी, इसलिए पहले उसे लगा कि पंचायत उन पर जुल्म कर रही है।
इसी बात को लेकर अनिरुद्ध और गिरीश के खिलाफ लोगों के असन्तोष की सीमा नहीं थी। लेकिन खेती के समय इसके लिए पर-पंचायत करने की फुरसत किसी को नहीं मिली। जरूरत का तकाजा था, लिहाजा मीठी बातों से ही उनसे काम निकाला गया; रात रहते ही अनिरुद्ध के दरवाजे पर जा बैठे और उसे रोक-टोककर लोगों ने अपना काम करा लिया; ज्यादा जरूरी हुआ तो फाल लिये, हाल और गाड़ी का पहिया लुढ़काते हुए लोग उसके पास बाजार तक भी दौड़े। चार मील का फासला—मगर अकेले मयूराक्षी नदी ही बीस कोस के बराबर थी। बरसात में नाव से पार करने में पूरा डेढ़ घण्टा लग जाता है। सूखे समय में गाड़ी के पहिये को बालू पर इतनी दूर तक ठेलते हुए ले जाना आसान काम न था। थोड़ा घूमकर जाने से नदी पर रेल का पुल है, मगर लाइन के पासवाला रास्ता इतना ऊँचा ओर सँकरा है कि पहिये को लुढ़काकर ले जाना मुश्किल है।
खेती का समय निकल गया। फसल पक गयी। अब हँसिया चाहिए। लोहा-इस्पात लेकर लुहार ही सदा हँसिया बना दिया करता; बढ़ई लगा दिया करता था मूठ। मगर लुहार-बढ़ई दोनों की एक ही रफ्तार थी। जो किसी तरह अनिरुद्ध के यहाँ से पार हो गया, वह गिरीश के यहाँ झूलता रहा। सो हार-पार कर गाँववालों ने पंचायत बुलायी। एक नहीं आस-पास के दो गाँवों के लोग जुटे और एक खास दिन अनिरुद्ध तथा गिरीश को हाजिर होने की खबर भिजवायी। पंचायत गाँव के शिव-थान के सार्वजनिक चण्डीमण्डप में बैठी। चण्डीमण्डप में मयूरेश्वर शिव हैं; पास ही है ग्रामदेवी माता भग्नकाली की वेदी। काली-मन्दिर जितनी भी बार बना, टूट-टूट गया। इसीलिए काली का नाम पड़ा भग्नकाली। चण्डीमण्डप भी बहुत पुराना है। उसके छ्प्पर की ठाठ को मानो अजर-अमर करने के लिए हाथी-सूँड़, बड़दल, तीरसंगा-सब प्रकार की लकड़ियों से बनवाया गया था। नीचे की जमीन भी सनातन नियम से माटी की थी। इसी चण्डीमण्डप में दरी-चटाई बिछाकर पंचायत बैठी।
गिरीश और अनिरुद्ध भी आये आखिर। दोनों समय पर पहुँचे। बैठक में दो गाँवों के जाने-माने लोग जमा हुए थे। हरीश मण्डल, भवेश पाल, मुकुन्द घोष, कीर्तिवास मण्डल, नटवर पाल—ये सबके सब वजनी लोग थे, गाँव से सातबार सद्गोप। पड़ोस की बस्ती के द्वारका चौधरी भी आये थे। ये एक विशिष्ठ और प्रवीण व्यक्ति थे, इलाके में इनका अच्छा मान था। आचार-व्यवहार और सूझ-बूझ के लिए सबकी श्रद्धा के पात्र थे। आज भी लोग कहा करते—आखिर हें कैसे खानदान के, यह भी तो देखना है ! चौधरी के पुरखे कभी इन दोनों गाँवों के जमींदार थे : आज अवश्य ये एक सम्पन्न किसान गिने जाते हैं। दूकानदार वृन्दावन पाल—वह भी सम्पन्न आदमी। मध्यवित्त अवस्था का कम उम्र का खेतिहर गोपेन पाल, राखाल मण्डल, रामनारायण घोष—ये सब भी हाजिर हुए थे। इस बस्ती का एक मात्र ब्राह्मण बाशिन्दा हरेन्द्र घोषाल, उस बस्ती का निशि मुखर्जी, पियारी बनर्जी—ये सब भी एक ओर बैठे थे।
मजलिस के लगभग बीच में जमकर बैठा था छिरू पाल—यह जगह उसने खुद ली थी आकर। छिरू यानी श्रीहरि पाल ही इस बस्ती का नया धनी था। इस हलके में जो गिने-चुने धनी हैं, दौलत में छिरू उनमें से किसी से भी कम नहीं—ऐसा ही अनुमान था लोगों का। बड़ा-सा चेहरा, स्वभाव से बड़ा ही खूँखार आदमी। दौलत के लिए जो सम्मान समाज किसी को देता है, वह सम्मान ठीक उसी कारण से छिरू का नहीं था। अभद्र, क्रोधी, गँवार, दुश्चरित्र, धनी छिरू पाल को लोग मन-ही-मन घृणा करते; बाहर से डरते हुए भी धन के अनुरूप सम्मान उसका कोई नहीं करता। छिरू को इस बात का क्षोभ था कि लोग उसका सम्मान नहीं करते, इसलिए वह सब पर खीझा रहता। वह जबरन यह सम्मान पाने के लिए कमर कसे तैयार रहता। इसलिए जब भी ऐसी कोई सामाजिक बैठक होती, वह बैठक के ठीक बीच में जमकर बैठ जाता।
एक और मजबूत लम्बा-तगड़ा साँवला-सा युवक निरा निस्पृह-सा एक ओर खम्भे से लगकर खड़ा था। यह था देवनाथ घोष—इसी बस्ती के सद्गोप खेतिहर का बेटा। अवश्य देवनाथ खुद खेती नहीं करता, वह स्थानीय यूनियन बोर्ड के फ्री प्राइमरी स्कूल का अध्यापक था। आने की वैसी इच्छा न रहते हुए भी वह आया था, उसे पता था कि अनिरुद्ध का यह जो अन्याय है, उस अन्याय की जड़ कहाँ है। उसकी यह निःस्पृहता इसीलिए थी कि जिस बैठक में छिरू पाल-जैसा आदमी माला के मनका-जैसा प्रधान बन बैठा हो, उस बैठक पर उसे आस्था नहीं। इसीलिए वह मौन उपेक्षा से एक ओर खम्भे से सटकर खड़ा था। बैठक में आये नहीं थे तो केवल दो जने : उस गाँव के कृपण महाजन स्वर्गीय राखोहरी चक्रवर्ती का दत्तक पुत्र हेलाराम चटर्जी और गाँव का डॉक्टर जगन्नाथ घोष। गाँव का चौकीदार भूपाल लुहार भी मौजूद था । आस-पास गाँव के बच्चे शोर-गुल कर रहे थे; एकबारगी एक किनारे गाँव के हरिजन किसान भी खड़े थे। गाँव के मजदूर खेतिहर दरअसल यही लोग हैं, असुविधाओं का प्रायः बारह आना तो इन्हीं को भोगना पड़ता।
अनिरुद्ध और गिरीश आकर मजलिस में बैठे। साफ-सुथरे, फिट-फाट। शहरी फैशन की स्पष्ट छाप। दोनों सिगरेट पीते आ रहे थे। सभा से कुछ दूर उधर ही सिगरेट फेंक दोनों आकर बैठ गये।
बात की शुरुआत अनिरुद्ध ने की। बैठते ही एक बार चेहरे को अच्छी तरह से हाथ से पोंछ लिया और कहा, ‘‘जी हाँ। तो क्या कहना है, कहिए। हम लोग मेहनत-मशक्कत करके रोजी चलाते हैं। आज की यह वेला हमारी नाहक मारी गयी।’’
उसके कहने के ढंग और सुर से सब लोग जरा चकित हो उठे। प्रवीणों ने खँखारकर अपना-अपना गला साफ कर लिया। कम उम्रवालों में एक आग-सी उठी। छिरू उर्फ श्रीहरि बोल उठा, ‘‘मारी गयी समझते हो तो आने की ही क्या जरूरत थी ?’’
बोलने के लिए हरेन्द्र घोषाल अकबक कर रहा था; उसने कहा, ‘‘तो बिगड़ा क्या है, चाहो तो जा सकते हो तुम लोग। कोई पकड़कर तो लाया नहीं, बाँधकर भी नहीं रखा है।’’
अब हरीश मण्डल ने कहा, ‘‘तुम लोग चुप रहो। सुनो, जब बुलाहट हुई तो आना तो पड़ेगा ही। तुम लोग आये हो, अच्छी बात है, बहुत अच्छा किया है। अब दोनों तरफ से बात होगी। हमें जो कहना है हम कहेंगे—जवाब जो देना हो तुम लोग दोगे। फिर विचार होगा। ऐसी जल्दी करने से कैसे चलेगा ?’’
गिरीश बोला, ‘‘मतलब, कि बात हम लोगों के ही बारे में है,’’ अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘हम लोगों ने अन्दाज लगाया था। खैर, क्या कहना है आप लोगों को, कहिए। हम अपना जवाब देंगे। लेकिन एक बात है, आप सब लोग जब एक हो गये हैं तो इसका विचार कौन करेगा ? नालिश जब आपको करनी है, तब आप कैसे विचार करेंगे, हम यह नहीं समझ पा रहे हैं।’’
द्वारका चौधरी एकाएक गला साफ करने के लिए जोर से खाँस उठा-यह उसके बोलने का पूर्वाभास था। उस आवाज से सब चौधरी की तरफ देखने लगे। चौधरी के चेहरे और भंगिमा में खासियत थी। गोरा रंग, धपधप सफेद मूँछ—बैठक में यह विशिष्ट-सा होकर बैठा था। अब उसने जबान खोली, ‘‘सुनो अनिरुद्ध, कुछ खयाल मत करना भैया, मैं एक बात कहूँ। शुरू से ही तुम लोगों की बातचीत के ढंग से लगता है कि तुम लोग विवाद करने के लिए तैयार होकर आये हो। मगर यह तो अच्छी बात नहीं भैया। बैठो, स्थिर होकर बैठो।’’
अनिरुद्ध ने गरदन झुकाकर विनय के साथ कहा, ‘‘ठीक है, कहिए।’’
हरीश मण्डल ने ही शुरू किया। कहा, ‘‘सुनो भैया, खोलकर सब कहूँ तो पूरा महाभारत सुनना होगा। संक्षेप में ही कहूँ, तुम दोनों ने शहर में अपना कारोबार शुरू किया है। ठीक ही किया है। जहाँ दो पैसे मिलेंगे, आदमी वहीं जाएगा। सो जाओ लेकिन यहाँ एकबारगी सब समेट लो और हम कन्धे पर सामान उठाये नदी पार करके यह दो कोस रास्ता दौड़ा करें, यह तो नहीं होने का भैया। इस बार तुम दोनों ने क्या गत बनायी है हमारी, खुद ही सोच देखो जरा।’’
अनिरुद्ध बोला, ‘‘जी हाँ असुविधा तो जरूर हुई है आप लोगों को।’’
छिरू यानी श्रीहरि पाल गरज उठा—‘‘कुछ ? कुछ क्या कहते हो ? पता है, खेत में पानी रहते हुए भी चूँकि फाल नहीं पजाया जा सका इसलिए खेती बन्द करनी पड़ी है ! आखिर जमीन तो तुम्हारी भी है, एक बार खेत का चक्कर काटकर देख तो आओ जरा कि किस तरह पटपटी घास उग आयी है ! अच्छे फाल की कमी से जोतते वक्त एक भी जड़ नहीं उखड़ी घास की। वक्त पर बोरा लिये धान के लिए हाजिर हो जाओगे और जरूरत के समय शहर में जाकर बैठ रहोगे—ऐसा करने से कैसे चलेगा ?’’
हरेन्द्र ने तुरत हामी भरी—‘‘बिलकुल वाजिब है।’’
सारी मजलिस लगभग एक स्वर में बोल उठी—‘‘बिलकुल।’’
अनिरुद्ध अब जरा सप्रतिभ हो सम्भलकर बैठा और बोला, ‘‘यही शिकायत है न आप लोगों को ? अब हमारी सुनिए। मैं आप सबका फाल पजा देता हूँ, पहियों में हाल चढ़ाता हूँ, हँसिया में धार कर देता हूँ, बदले में आप हल पीछे मुझे कच्ची पाँच सोली1 धान देते हैं। गिरीश सूत्रधर...’’
छिरू पाल ने टोका, ‘‘गिरीश से तुम्हें क्या मतलब ?’’
लेकिन छिरू अपनी बात पूरी न कर सका। द्वारका चौधरी ने कहा, ‘‘श्रीहरि अनिरुद्ध ने कुछ बेजा नहीं कहा। बात उन दोनों की एक ही है। कोई एक ही कहे तो कोई हर्ज नहीं।’’
छिरू चुप हो गया। अनिरुद्ध ने थोड़ा भरोसा पाकर कहा, ‘‘चौधरीजी के रहे बिना क्या मजलिस की शोभा होती है ! वाजिब बात कहे कौन ?’’
‘‘तुम जो कह रहे थे, कहो अनिरुद्ध !’’
‘‘जी ! मुझे यानी लुहार को हल पीछे पाँच सोली, और बढ़ई को हल पीछे चार सोली धान मिलता है। हम इसी पर आज तक काम भी करते आये हैं। लेकिन आपसे बता दूँ, अपना पावना हम प्रायः पाते नहीं हैं।’’
‘‘नहीं पाते हो ?’’
‘‘जी नहीं।’’
गिरीश ने भी कहा, ‘‘जी नहीं। प्रायः सभी लोग कुछ-न-कुछ बाकी रख लेते हैं। कहते हैं, बाद में ले जाना, या कि अगले साल ले लेना। और वह बाकी हमें फिर कभी नहीं मिलता।’’
छिरू साँप-जैसा फुफकार उठा—‘‘नहीं मिलता ? किसने नहीं दिया है, सुनूँ जरा ? केवल कह देने से नहीं होगा। नाम बताना पड़ेगा। कहो किसके यहाँ बाकी है ?
मारे गुस्से के बिजली की तेजी से गरदन घुमाकर श्रीहरि की ओर ताककर अनिरुद्ध ने कहा, ‘‘किसके यहाँ ? नाम बताना पड़ेगा। ठीक है, तुम्हारे यहाँ बाकी है।’’
‘‘मेरे यहाँ ?’’
‘‘जी हाँ, तुम्हारे यहाँ। दो साल से दिया है धान तुमने ?’’
‘‘और मैंने जो तुम्हें हैण्डनोट पर रुपया दिया है। उसमें कै रुपया चुकाया है तुमने, कहो तो ? मैंने नहीं दिया है—भरी सभा में इतनी बड़ी बात कह दी !’’
‘‘लेकिन उसका कुछ हिसाब-किताब तो होगा आखिर। धान की कीमत की उस पर वसूली तो लिखनी होगी कि नहीं ? आप ही कहें चौधरीजी, मण्डलजी वगैरह भी तो हैं, कहें।’’
चौधरी ने कहा, ‘‘सुनो चुप रहो जरा। भैया श्रीहरि, हैण्डनोट की पीठ पर वसूली लिख देना ! और सुनो अनिरुद्ध, किन-किन के पास तुम लोगों का बाकी है, उसकी एक फिहरिस्त बनाकर हरीश मण्डलजी को दे दो। बैठक में इसके लिए शोर करना ठीक नहीं। वही लोग तुम्हारा बकाया वसूल करा देंगे। और सुनो, गाँव में भी काम-काज का कुछ सिलसिला रखो। जैसे काम-काज किया करते थे, किया करो।’’
बैठक के सभी लोगों ने इस बात पर हामी भरी। लेकिन अनिरुद्ध और गिरीश चुप रहे। हाव-भाव से भी हाँ-ना का कोई लक्षण प्रकट नहीं किया।
अब देवनाथ ने जबान खोली। बूढ़े चौधरी का यह फैसला उसे अच्छा लगा। उसे अनिरुद्ध और गिरीश के बकाये की बात मालूम थी, इसलिए पहले उसे लगा कि पंचायत उन पर जुल्म कर रही है।
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