पारिवारिक >> दृश्य से दृश्यान्तर दृश्य से दृश्यान्तरआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा जी के पाठकों के लिए उनका यह एक और अत्यन्त रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ज्ञानपीठ पुरस्कार, कलकत्ता विश्वविद्यालय के ‘भुवन मोहिनी स्मृति पदक’ और ‘रवीन्द्र’ पुरस्कार से सम्मानित आशापूर्णा जी अपने एक सौ सत्तर से भी अधिक अपने औपन्यासिक एवं कथा पराकृतियों द्वारा सर्वभारतीय स्वरूप को निरन्तर परिष्कृत और गौरवान्वित करती हुई आजीवन संलग्न रहीं। प्रस्तुत है आशापूर्णा जी के पाठकों के लिए उनका यह एक और अत्यन्त रोचक उपन्यास ‘दृश्य से दृश्यान्तर’।
आशापूर्णा जी ने अपने उपन्यासों में समय के साथ बदलते हुए मूल्यों के फलस्वरूप समाज और परिवार के, व्यक्ति और व्यक्ति के, पुरुष और नारी के सम्बन्धों का जितना सहज और सूक्ष्म मनोविश्लेषण किया है वह सचमुच ही अद्भुत है। ‘दृश्य से दृश्यान्तर’ भी इसी तरह का एक रोचक उपन्यास है।
आशापूर्णा जी ने अपने उपन्यासों में समय के साथ बदलते हुए मूल्यों के फलस्वरूप समाज और परिवार के, व्यक्ति और व्यक्ति के, पुरुष और नारी के सम्बन्धों का जितना सहज और सूक्ष्म मनोविश्लेषण किया है वह सचमुच ही अद्भुत है। ‘दृश्य से दृश्यान्तर’ भी इसी तरह का एक रोचक उपन्यास है।
प्रस्तुति
(प्रथम संस्करण,
1993 से)
भारतीय वाङ्मय के संवर्धन में भारतीय ज्ञानपीठ के बहुमुखी प्रयास रहे हैं।
एक ओर उसने भारतीय साहित्य की शिखर उपलब्धियों को रेखांकित कर ज्ञानपीठ
पुरस्कार एवं मूर्तिदेवी पुरस्कार के माध्यम से साहित्य को समर्पित कर
अग्रणी भारतीय रचनाकारों को सम्मानित किया है, इस आशा से कि उन्हें
राष्ट्रव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हो और उनकी श्रेष्ठ कृतियाँ अन्य
रचनाकारों के लिए प्रकाशस्तम्भ बनें। दूसरी ओर वह समग्र भारतीय साहित्य
में से कालजयी रचनाओं का चयन कर उन्हें हिन्दी के माध्यम से अनेक
साहित्य-श्रृंखलाओं—‘भारतीय कवि’,
‘भारतीय
उपन्यासकार’, ‘भारतीय कहानीकार’
आदि—के अन्तर्गत
प्रकाशित कर दूसरी भाषा तक पहुँचे और इस प्रकार विभिन्न भाषाओं के
रचनाकारों एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच तादात्म्य और परस्पर वैचारिक
सम्प्रेषण सम्भव हो सके।
पिछले दो वर्षों में ज्ञानपीठ ने ‘भारतीय उपन्यासकार’ श्रृंखला के अन्तर्गत बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, क़ुर्रुतलऐन हैदर, होमेन बरगोहाईं, राजम कृष्णन, श्री.ना. पेंडसे, बलिवाड कान्ताराव, आशुतोष मुखर्जी और प्रतिभा राय जैसे उपान्यासकारों की कृतियों के हिन्दी रूपान्तर पाठकों को समर्पित किये हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित तथा बांग्ला की सर्वाधिक लोकप्रिय लेखिका आशापूर्णादेवी की प्रस्तुत उपन्यास ‘दृश्य से दृश्यान्तर’ इसी श्रृंखला की एक और नयी कड़ी है। यह उपन्यास आशापूर्णा जी के बांग्ला मूल ‘दृश्यो थेके दृश्यान्तरे’ का हिन्दी अनुवाद है। आशापूर्णा जी ने अपने उपन्यासों में समय के साथ बदलते हुए मूल्यों के फलस्वरूप समाज और परिवार के—व्यक्ति और व्यक्ति के, पुरुष और नारी के सम्बन्धों का जितना सहज सूक्ष्म मनोविश्लेषण किया है वह सचमुच ही अद्भुत है। ‘दृश्य से दृश्यान्तर’ ऐसा ही एक रोचक उपन्यास है। इसके कथानक का परिवेश उस काल का है जब बड़े-बड़े नगरों के आसपास के इलाक़ों में भी विद्युत नहीं पहुँची थी। एक नन्हीं-सी बालिका के बचपन का—उसके सगे चचेरे भाई-बहन, पिता, चाचा, दादी-माँ-मौसी, और न जाने कितने-कितने रिश्ते-नातेदार और पड़ोसी—सभी के रहन-सहन, आपसी व्यवहार का चित्रण (अधिकतर बालिका के मुख से ही) किया गया है।
बाल्यावस्था पार कर धीरे-धीरे किशोरावस्था का स्पर्श, माता-पिता का आपसी तनाव, बार-बार किराये से लिये गये घर बदलना, शादी-ब्याह के अवसरों पर उल्लास और उदासी, और इन्हीं सब बातों को लेकर कुछेक मार्मिक घटनाओं का अकस्मात् घटित हो जाना—उसके जीवन को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा करता है जहाँ से उसकी आँख इस छद्मवेशी दुनिया को भलीभाँति देख-परख सकती है।
उपन्यास पढ़ते समय पाठक को लगता है कि जैसे यह उसकी अपनी ही कथा-व्यथा है, इसकी समस्याएँ उसकी अपनी ही समस्याएँ हैं, इसके पात्र उसके अपने ही सगे-सम्बन्धी हैं।
इससे पूर्व ज्ञानपीठ ने आशापूर्णा जी के तीन उपन्यास—‘सुवर्णलता’, ‘बकुलकथा’, और ‘प्रारब्ध’ हिन्दी के अनुवाद के रूप में पाठकों को दिये हैं। इसी क्रम में समर्पित है यह एक और अत्यन्त रोचक कृति—‘दृश्य से दृश्यान्तर’।
आशापूर्णा जी के इस उपन्यास का अनुवाद किया है श्रीमती ममता खरे ने। बांग्ला की अनेकानेक कृतियों का हिन्दी अनुवाद करके वे बांग्ला और हिन्दी के बीच एक कड़ी बन गयी हैं। हम उनके प्रति बहुत आभारी हैं। पाण्डुलिपि संशोधन एवं मुद्रण-प्रकाशन में हमारे सहयोगी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन ने अपने दायित्व का भलीभाँति निर्वाह किया है। उन्हें मेरा साधुवाद। पुस्तक के आवरण शिल्प के लिए श्री सत्यसेवक मुखर्जी को धन्यवाद।
पिछले दो वर्षों में ज्ञानपीठ ने ‘भारतीय उपन्यासकार’ श्रृंखला के अन्तर्गत बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, क़ुर्रुतलऐन हैदर, होमेन बरगोहाईं, राजम कृष्णन, श्री.ना. पेंडसे, बलिवाड कान्ताराव, आशुतोष मुखर्जी और प्रतिभा राय जैसे उपान्यासकारों की कृतियों के हिन्दी रूपान्तर पाठकों को समर्पित किये हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित तथा बांग्ला की सर्वाधिक लोकप्रिय लेखिका आशापूर्णादेवी की प्रस्तुत उपन्यास ‘दृश्य से दृश्यान्तर’ इसी श्रृंखला की एक और नयी कड़ी है। यह उपन्यास आशापूर्णा जी के बांग्ला मूल ‘दृश्यो थेके दृश्यान्तरे’ का हिन्दी अनुवाद है। आशापूर्णा जी ने अपने उपन्यासों में समय के साथ बदलते हुए मूल्यों के फलस्वरूप समाज और परिवार के—व्यक्ति और व्यक्ति के, पुरुष और नारी के सम्बन्धों का जितना सहज सूक्ष्म मनोविश्लेषण किया है वह सचमुच ही अद्भुत है। ‘दृश्य से दृश्यान्तर’ ऐसा ही एक रोचक उपन्यास है। इसके कथानक का परिवेश उस काल का है जब बड़े-बड़े नगरों के आसपास के इलाक़ों में भी विद्युत नहीं पहुँची थी। एक नन्हीं-सी बालिका के बचपन का—उसके सगे चचेरे भाई-बहन, पिता, चाचा, दादी-माँ-मौसी, और न जाने कितने-कितने रिश्ते-नातेदार और पड़ोसी—सभी के रहन-सहन, आपसी व्यवहार का चित्रण (अधिकतर बालिका के मुख से ही) किया गया है।
बाल्यावस्था पार कर धीरे-धीरे किशोरावस्था का स्पर्श, माता-पिता का आपसी तनाव, बार-बार किराये से लिये गये घर बदलना, शादी-ब्याह के अवसरों पर उल्लास और उदासी, और इन्हीं सब बातों को लेकर कुछेक मार्मिक घटनाओं का अकस्मात् घटित हो जाना—उसके जीवन को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा करता है जहाँ से उसकी आँख इस छद्मवेशी दुनिया को भलीभाँति देख-परख सकती है।
उपन्यास पढ़ते समय पाठक को लगता है कि जैसे यह उसकी अपनी ही कथा-व्यथा है, इसकी समस्याएँ उसकी अपनी ही समस्याएँ हैं, इसके पात्र उसके अपने ही सगे-सम्बन्धी हैं।
इससे पूर्व ज्ञानपीठ ने आशापूर्णा जी के तीन उपन्यास—‘सुवर्णलता’, ‘बकुलकथा’, और ‘प्रारब्ध’ हिन्दी के अनुवाद के रूप में पाठकों को दिये हैं। इसी क्रम में समर्पित है यह एक और अत्यन्त रोचक कृति—‘दृश्य से दृश्यान्तर’।
आशापूर्णा जी के इस उपन्यास का अनुवाद किया है श्रीमती ममता खरे ने। बांग्ला की अनेकानेक कृतियों का हिन्दी अनुवाद करके वे बांग्ला और हिन्दी के बीच एक कड़ी बन गयी हैं। हम उनके प्रति बहुत आभारी हैं। पाण्डुलिपि संशोधन एवं मुद्रण-प्रकाशन में हमारे सहयोगी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन ने अपने दायित्व का भलीभाँति निर्वाह किया है। उन्हें मेरा साधुवाद। पुस्तक के आवरण शिल्प के लिए श्री सत्यसेवक मुखर्जी को धन्यवाद।
र.श.केलकर
सचिव
सचिव
दृश्य से दृश्यान्तर
पर्दा उठता है।
छुटपुट अँधेरा है।
भोर हो रही थी—धीरे-धीरे।
चारों ओर फैलता धुँधला प्रकाश।
यही पृष्ठभूमि थी।
मंच-सज्जा थी—
एक साधारण चेहरे-मोहरे वाला दुमंज़िला मकान। उसकी निचली मंज़िल का एक कमरा। पुराने ज़माने की डिज़ाइन थी। इंचीटेप लेकर नपातुला न होने के कारण अच्छा-ख़ासा बड़ा कहा जा सकता था। लगभग पूरा एक कमरा तख्तों पर बिछे बिस्तर से भर गया था। कुछ लोग सो रहे थे।
उन्हीं कुछ लोगों में से सहसा जाग उठा सबसे छोटा प्राणी। इसके अलावा उपाय भी तो नहीं था ! सोते-जागते उस कगार पर फैलता जा रहा था जल्दी जल्दी उच्चारित होता एक शब्द-छन्द। इसके बाद वह सोती रहे, भला ऐसे हो सकता है।
उसके लिए उस शब्द-छन्द का नाम है ‘जय जय गोविन्द’। दादी, ‘जय जय गोविन्द’ कर रही हैं।
अर्थात् दादी अब गंगास्नाना करने के लिए निकल रही हैं।
‘निकलना’ शब्द उसे बेहद रोमांचित करता है। किसी को निकलते देखा कि हृदय खुशी से नाच उठता। मानो कहीं अनन्त रहस्य का भण्डार हो, असीम विस्मय की दुनिया हो। जहाँ खुशियाँ-ही-खुशियाँ, अच्छा लगे ऐसी एक जगह, इस घर का चौखट पार करते ही मिल जाएगी वह निधि।
परन्तु वह नन्हा-सा जीव क्या इस तरह से सोचने की क्षमता रखता है ? सोचने की क्षमता उसमें जन्म ले चुकी है क्या ? तरंगें उठती अनुभव के माध्यम से। वहीं छटपटाहट मचती, जी अकुलाया करता, सारी चंचलता वहीं थी।
अतएव ‘दादी जी’ निकलने वाली हैं’, इस बात की आहट लगने के बाद लेटे रहना असम्भव हो जाता। कौतूहल ही शायद यह अकुलाहट होती थी। चेतना की प्रथम प्रेरणा तो कौतूहल ही है। शिशुगण इस व्याधि के शिकार होते हैं। यद्यपि कौतूहलशून्य शिशुओं का अभाव नहीं है। ऐसे शिशु भी देखने में आते हैं परन्तु इस समय हम जिस छोटे से जीवन को देख रहे हैं वह कौतूहल व्याधि का भयंकर रूप से शिकार है।
दादी का ‘जय जय गोविन्द’ उसकी प्रातःकालीन निद्राभंग करता है, वह भी तो इसी व्याधि के प्रकोप का कारण है। उठकर बैठ गयी। ध्यान से सुनने की कोशिश की। जानती है अभी ‘खट’ से एक आवाज़ होगी। दरवाज़े पर लगा लकड़ी का बाड़ खोला जाएगा। और उसी के साथ पुराना शब्द-छन्द आगे बढ़ेगा—‘नन्द मन्दिर, कृष्ण बढ़े दिन-दिन’। उसके बाद अगला छन्द रास्ते पर भागना शुरू कर देगा--‘‘नन्द नाम रखे नन्द-नन्दन।’
उसी के साथ दौड़ना शुरू कर देगा छोटी-सी उस लड़की का कलेजा भी दादी नामक महिला के गतिछन्द के पीछे-पीछे।–न, अब तो बिस्तर से उतरना ज़रूरी है। आश्चर्य ! दादी का यह गंगा नहाने जाना तो ‘रोज़ की देखी’ बात है। फिर भी पता क्यों नहीं, रोज़ ही देखना चाहिए।
एक इंसान, धुँधलके अँधेरे में, जन-प्राणीहीन रास्ते पर अकेला चल पड़ा, जैसे यह चीज़ अत्यन्त दृष्टव्य हो। यह दृश्य उस लड़की को चुम्बक की तरह खींचता। मानो देखा नहीं तो बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा।
अपनी नींद से बोझिल आँखों को अच्छी तरह से खोलकर देख लेती कि सब सो रहे हैं या नहीं। सौभाग्यवश इस समय सभी सोये रहते। माँ, पिताजी, दीदी और बग़ल वाले कमरे के खुले दरवाज़े के इधर एक तख्त पर दो दादा। उनका बिस्तर दरवाज़े के इतना करीब था कि लग रहा था वे इसी कमरे में सो रहे हैं।
यह देखकर निश्चिन्त हुई लड़की कि सभी सो रहे हैं। धीरे-धीरे वह खाट के एक कोने तक पहुँचती है, फिर पेट के बल औंधी होकर अपने को घसीटते हुए पाँव लटका देती है। काफ़ी परिश्रम करना पड़ता है। जब तक फ़र्श और पाँव के बीच की दूरी नहीं मिटती उसे चादर को मुट्ठी में कसकर पकड़े रहना पड़ता है। फ़र्श पर पाँव छुए नहीं कि बस।
अब उसे कौन पाता है ?
तख्तों के सिरहाने की तरफ़ तीन बड़ी खिड़कियाँ थीं जिनमें लकड़ी और शीशे के पल्ले थे। लकड़ी के पल्ले में कुछ ऐसी खिड़कियाँ लगी थीं जिन्हें इच्छानुसार खोला, बन्द किया जा सकता था। कमरे के फ़र्श से शुरू हुई दरवाज़े की ऊँचाई वाली इन खिड़कियों में लोहे के मोटे-मोटे छड़ लगे थे। ये खिड़कियाँ थोड़ी खुली थीं शायद हवा के आने के लिए। लेकिन चिटकनियाँ और लकड़ी का पटरा कस-कर बन्द था। वह छोटी-सी लड़की की बात तो दूर, उससे डेढ़ साल बड़ी उसकी दीदी तक का हाथ उन चिटकनियों तक नहीं पहुँचता था।
क्या करे बेचारी !
दोनों आँखें खिड़की से टिका कर बाहर देखने का प्रयास।
बाहर—जहाँ से सारे अपने, सारे रहस्य, सारी सुषमा हाथ हिला-हिलाकर बुलाती थीं।
इसीलिए तो रोज़-रोज़ देखने पर भी पुराना नहीं होता था।
परन्तु हर काम बिल्कुल खामोशी से करना है, यही एक रोमांचकारी अनुभूति थी। कोई जाग उठेगा तो डाँट पड़ेगी। छोटे बच्चों को किसी भी निजी मामले में डाँट लगाना ही तो संसार की रीति है।
अँगूठों की मदद से दो खिड़कियों का एक पतला-सा एक पल्ला जी-जान से पकड़े रहकर फासला बढ़ाने का प्रयास करते हुए, देखा गया वह दृश्य।
इन खिड़कियों के सामने कुछ खाली जमीन पड़ी थी जिस पर शाम के वक्त मोहल्ले के कुछ लड़के, दो तरफ़ दो बाँस गाड़कर उसमें एक जाल बाँधकर पता नहीं कौन-सा खेल खेला करते थे। इस खेल को उस लड़की का सबसे बड़ा चचेरा भाई भी खेलता था। (जिसे देखते ही दिल धक्-धक् करने लगता था) उस ख़ाली पड़ी ज़मीन को बच्चे और खिलाड़ी लड़के कहते थे ‘मैदान’।
उसने देखा, दादी तेज़ी से चलकर मिनटों में सड़क पर पहुँच गयीं। दादी के हाथ में खूब चमचमाता पीतल का बड़ा-सा लोटा था जिसके मुँह पर गोल लपेट-कर अँगोछा पोटले की तरह रखा था। दादी ने नामावाली से अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा लपेट रखा था।
दीर्घ तेजस्वी सीधी देह वाली दादी झटपट रास्ते पर पहुँचते ही बायीं तरफ़ बढ़ गयीं। सुनिश्चित है कि बिल्कुल सड़क के किनारे जो काली मन्दिर है उसके बन्द दरवाज़े पर माथा टेककर गंगा की ओर जाने वाला रास्ता पकड़ेंगी। इस कालीबाड़ी का नाम है ‘गुहा’ लोगों की कालीबाड़ी ‘अथव’ ‘होगलकूँड़े की कालीबाड़ी’।
उस समय भले न जानती हो, बाद में उस लड़की को मालूम हुआ था कि उसी कालीबाड़ी के विख्यात पहलवान ‘गोबर गुहा’ के ताऊ अम्बू गुहा ने बनवाया था। मोहल्ले का नाम है ‘होगलकुँड़े’। घर की बहुएँ भले ही खिड़की से नहीं झाँक सकती हैं, घर की मालकिन मज़े से चिड़िया की तरह फुर्र से जब-तब निकल पड़ती हैं। रोज़ गंगास्नान के लिए तो जाती हैं, कालीघाट, शीतलातला, मंगल-चण्डीतला, बाग़बाज़ार का मदनमोहनतला, चित्तेश्वरी काली वग़ैरह-वग़ैरह—कहाँ-कहाँ उनकी पहुँच नहीं है ?
कैसे जातीं ? किस पर ?
और किस पर ? भगवान ने दो पैर नहीं दिये हैं उन्हें ? उन्हीं दोनों पाँवों के भरोसे चार धाम कर चुकी हैं। कर चुकी हैं और भी कितनी तीर्थयात्राएँ।
शरीर और मन की अद्भुत शक्तिमयी वह महिला केवल अड़तीस साल की उम्र में पाँच लड़के और आठ लड़कियाँ, कुल तेरह सन्तान का भार समेत विधवा हुई थी। अन्तिम तो गर्भ में ही था। इससे क्या होता है ? तब से कदम छाँट बाल, सफ़ेद थान, निर्जला एकादशी, एकाहार, नियमित गंगास्नान...और अस्सी साल की उम्र हो रही थी नियमित गंगा-जलपान करते। नल का पानी अपवित्र है, उसमें चमड़ा रहता है न ?
गंगाजल भरने वाला ‘भारी’ बाँस का तराजूनुमा अपने ‘बॉक’ में पीतल के दो घड़ों में पानी भरकर ले आता था—दादी की रसोई के लिए। अँधेरा-भरा एक कमरा जिसे भण्डारघर कह सकते हैं—दादी का खाना वहीं बनता था। ‘भारी’ वही गंगाजल इस भण्डारघर के किस बर्तन में भर देता था। और पीने का पानी ? वह काम अपने हाथों से भरकर लाये उसी पीतल के लोटे के गंगाजल से चल जाता था। रोज ही तो ले आती थीं। पृथ्वी उलट-पुलट जाये लेकिन गंगास्नान का नियम तो उलट नहीं सकता था। ज़ोरों से पानी गिरता हो तब भी उन्हें तड़के सुबह मैदान पार करते हुए देखा जा सकता था। बस फ़र्क़ इतना ही होता है कि लोटे पर रखा अँगोछा सिर पर रख लेतीं।
जिन दिनों पानी के छींटे आने का खतरा रहता, खिड़की में काँच के पट बन्द होते। उसी में से जितनी दूर तक देखा जा सकता था, देखती। अँगोछे को सिर पर रखकर तेज़ी से जाती और मूर्ति ओझल हो जाने पर भी लड़की विह्वल दृष्टि लिये देखती बैठी रहती। क्या है गंगा में, जो इतनी तेज़ बरसात में भीगते हुए जाना ज़रूरी है ? नल में भी तो पानी ही आता है—नहाओ न ! बरसात के पानी में भीगकर नहा लेने पर भी नहाने जाती हैं, क्या फ़ायदा होता है ?
क्या पता कितनी दूर है गंगा का घाट ? यह वृन्दावन बोस लेन सीधी वहीं जाती है या रास्ता और भी घुमावदार है—जिस तरह मोड़ पर मोड़ पार करके आड़े-तिरछे जाना पड़ता है मझली मामी के यहाँ बादुड़बागान ?
बरसात के दिनों में उसका मन उदास हो जाता। ग़नीमत है कि बरसात रोज़ नहीं होती है।
दादी के निकल जाते ही घर में मानो ‘आवाज़’ की दुकान खुल जाती। ज़बरदस्त माँ के पाँच-पाँच ज़बरदस्त क़िस्म के बड़े लड़कों के कण्ठ से निकलती गर्जना (यूँ ही है उनकी स्वाभाविक बोली, आवाज़ ही ऐसी है), चिल्लाकर रो सकने की क्षमतायुक्त बाल-बच्चों की गला-फाड़कर रोने की आवाज़ महिलाओं का न समझ में आने वाला कोलाहल, आँगन में रखे पहाड़ जैसे ऊँचे, फैले छिटके बर्तनों के उद्धार होने की खनखन-झनझन, उसी के साथ बर्तन माँजने वाली की खनकती तीख़ी चीख़ती आवाज़ अक्सर ‘देर से आयी’ महाराजिन के धिक्कार-भरे स्वर। धड़-धड़ाकर जल रही दो-दो अँगीठियों को देखकर वह गरजकर रोज़ ही प्रायः जवाब-तलब करती, ‘‘क्यों बहूरानी, तुम लोगों से इतना भी नहीं हुआ कि दाल-भात की हाँडी ही चढ़ा दो ? ऐसा कौन-सा राजकाज रहता है ?’’
हाँ, यही सब कहती थीं वह प्रतिदिन ‘देर से आने के बाद’, बाहर के नल में हाथ-पाँव धोते-धोते। उस पर आश्चर्य की बात यह थी कि बहूरानियों के मुँह से ‘टूँ’ शब्द तक नहीं निकलता।
इतना साहस हो कैसे ? महाराजिन दादी नाराज़ होकर चली गयी तो त्रिलोक अन्धकारमय नहीं हो जाएगा। अतएव महाराजिन दादी के आक्रमण की अगली शिकार होती बर्तन माँजने वाली—‘‘उसने आते ही सुबह-सुबह चूल्हा क्यों सुलगा दिया ? क्यों ? ज़रा ठहरकर नहीं जला सकती थी ? आते ही चूल्हा जला बैठी ? कण्डे, कोयला मुफ्त में आते हैं क्या ?’’
‘‘ठीक है, कल से न जलाऊँगी, देखूँ बाबूजी लोगों को टेम से कैसे खाना देती हो !’’
कहने के साथ ही बर्तन पटकती है ज़ोर से।
शब्द ही शब्द
आवाज़ ही आवाज़।
शब्द ब्रह्म !
और इन्हीं सारी आवाज़ों को ढाँपकर एक और गुरु-गम्भीर ध्वनि गूँज उठती—
कालीबाड़ी के घण्टे-घड़ियाल का नाद। भारी, गहरा, गम्भीर ! सुनकर दिल काँप उठता। डर-सा लगने लगता।
और थोड़ा दिन चढ़ते ही वह छोटी लड़की, अपने हमउम्र दो चचेरे भाई-बहन के साथ फट से बाहर निकल जाती। चली जाती ‘पहाड़ पर’ चढ़कर फूल बटोरने।
इसके लिए दिन चढ़ना ज़रूरी थी। जब तक बड़े लोग इधर-उधर नहीं होंगे तब तक तो घर से निकला भी नहीं जा सकता था। होता भी यही था। चाय पीने के बाद वे लोग इधर-उधर हो जाते। कोई नहाने चला जाता, कोई दाढ़ी बनाने। कोई कुछ और करने और कोई कुछ और। दफ्तर नहीं जाना है क्या ? जल्दी नहीं है ?
सभी दफ्तर जाते थे, ऐसा नहीं था। चाचाओं में से कोई डॉक्टर, कोई मास्टर, कोई वकील। लेकिन उससे क्या फ़र्क़ पड़ता था ? कपड़े पहनकर, जूते पहनकर घर से निकलने का मतलब था दफ्तर जाना।
उन्नीस सौ ग्यारह-बारह में ‘चाय’ आज के युग की तरह समाज के हर स्तर के लोगों की शिराओं-उपशिराओं में प्रवाहित होती थी—ऐसी बात नहीं थी।
बहुतों के यहाँ तो तब इसका प्रवेश ही नहीं हुआ था। परन्तु इस घर में, दादी के पंचपुत्र की गृहस्थी में, खूब प्रचलन था। सुबह हुई नहीं कि ‘चाय’ ‘चाय’ की टेर सुनाई पड़ती। सोकर उठे नहीं कि गला सूखने लगा। !
तो क्या महिलाएँ भी ? ऐसी बात नहीं है—सिर्फ़ मर्द लोग ही। उनके दोस्त आते थे तब बनती थी चाय। वे जब ताश खेलने बैठते थे तब कई राउण्ड चाय पी जाती थी। उस लड़की के मामा लोग हँसी उड़ाते—‘‘कौआ ‘काँ-काँ’ बोलता है और तेरा बाप ‘चाय-चाय’। है न रे ?’’
मामा लोग सब अच्छी-अच्छी नौकरियाँ करते थे फिर भी सुबह के नाश्ते के साथ चाय वर्जित थी। चाय को प्रवेशाधिकार ही नहीं मिला था उस समय तक।
पिताजी, ताऊजी, चाचा वगैरह चाय पीकर इधर-उधर हुए नहीं कि पहाड़ का आकर्षण खींचने लगता।
लेकिन यह ‘पहाड़’ था कहाँ ?
आज उधर देखने पर कितनी हास्यकर बात लगती है। जबकि उस समय कितना उत्साह था, रोमांच था ! शायद डाँट पड़ने का डर था इसीलिए रोमांच-कारी ज़्यादा था।
बात यह थी—खिड़की के सामने वाली ख़ाली ज़मीन जिसे लड़के ‘मैदान’ कहते थे, उसी से सटकर खड़ा था काली मन्दिर। काफ़ी सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद कालीबाड़ी का दरवाज़ा मिलता। इसीलिए देवी के पीछे मैदान की ओर खुलनेवाली खिड़की भी काफ़ी ऊँचाई पर थी। उसी खिड़की के नीचे, पता नहीं किस काम के लिए, गिट्टी, पत्थर, ईंटें, अद्धे रखे थे। वही सब पहाड़ जैसा ऊँचा हो रहा था। उस पर काई भी लग गयी थी। जगह-जगह से पीपल, बरगद, नीम के पौधे सिर उठा रहे थे। यही था उसका पहाड़। उस पहाड़ पर चढ़ने पर डाँट खाना तो निश्चित था। साँप-बिच्छू का डर नहीं था ? दरारों के बीच ज़हरीले कीड़े-मकोड़े तो हो ही सकते थे !
किन्तु ललक भी तो अदम्य थी।
किसी तरह का डर उन्हें रोक नहीं सकता था। फूल बटोरकर लाना नहीं था क्या ?
मन्दिर की उस ऊँची खिड़की से ही तो पहले दिन के चढ़ाये सारे फूल, बेल की पत्तियाँ फेंकी जाती थीं।
फूल या फूलों का सम्भार ?
फालतू बेलपत्रों को हटा-हटाकर उन फूलों का उद्धार करना पड़ता था।
कितने तरह के फूल !
गुड़हल। गुड़हल ही ज़्यादा होते थे।
सुर्ख लाल-लाल, बड़े-बड़े गुड़हल। बड़ी-बड़ी गुड़हल की मालाएँ ! इसके अलावा इतने बड़े-बड़े सुन्दर गेंदे के फूल और, और भी न जाने कैसे-कैसे सुन्दर-सुन्दर फूल—जिनके नाम ही नहीं जानती थी वह। देखने से कोई भी बासी नहीं लगते या फिर अबोध शिशु की सरल दृष्टि उसके बासीपन को समझ न पाती।
जैसे-तैसे घुटनों के बल, उस पहाड़ पर चढ़ते ही किसी तरह के फूल-संग्रह कर डालना ही एक आवश्यक काम होता।
ओह ! क्या मामूली-सी ऊँचाई थी ? लेकिन उनके लिए तो पहाड़ की चढ़ाई ही थी।
फूल ले आने के बाद हम लोग करते क्या थे ?
आ हा, करेंगे क्या ? किसने कितने फूल संग्रह किये हैं; इसी बात का पता करते ही बहादुरी समाप्त। हालाँकि देवी को चढ़ाये हुए फूल थे—पैर लगने पर पाप लगने का डर था। दीवार से सटा-सटाकर सजाकर रखा जाता उन्हें।
हर रोज यही एक व्यर्थ का खेल।
इसके बाद ही दादी लौटतीं। इस समय उनके हाथ का चमचमाता लोटा गंगाजल से भरा होता और दूसरे हाथ में रहती भीगे अँगोछे की बड़ी-सी एक पोटली। फिर भी वही तेज़ी, सतर्क द्रुत पदचालन। गंगा किनारे लगे हाट से हर रोज़ सौदा-सुल्फ लेकर आती हैं।
हिसाब लगाया जाय तो उस समय उनकी उम्र बासठ-तिरसठ की रही होगी। जीवन भर के कठोर कठिन संग्राम का चिह्न मात्र नहीं था। कौन कह सकता था कि जीवनव्यापी एकाहार करती रहीं, दसियों तरह के व्रत-उपवास करती रहीं। साल में चौबीस-पच्चीस तो निर्जला व्रत करती ही थीं, पत्रा देखकर क्या कम उपवास करती थीं ? सनातनधर्मी ससुराल था तो क्या हुआ, वैष्णवों के नियम-पालन करने में हर्ज़ क्या है ?
फिर ‘वार’—सोमवार शिवजी का वार था तो मंगल था मंगलचण्डी का वार। शनिवार तो था ही शनिदेवता का दिन। इसके अलावा क्या-क्या व्रत और नहीं थे ? प्रायः गंगा-किनारे ही एक हरे नारियल का जल पीकर आ जाती थीं फिर जल स्पर्श तक नहीं करती थीं। उनकी तो सीधी-सादी व्यवस्था थी। जब सभी कुछ अपनी ही मुट्ठी में था तब असुविधा कैसी ?
खैर उनके चेहरे या हाव भाव से कोई कह नहीं सकता था कि वह थकी हैं। गंगा नहाकर लौटते ही हाथ की चीजें उतारने से पहले, पाँच बहुओं में से कोई एक (शायद जो सामने पड़ जाती) बहू एक बड़े लोटे में पानी भर कर लाती और जल्दी से दादी के पाँव धो देती। और भण्डारगृह की खिड़की पर लटका दादी का एक दूसरा अँगोछा लाकर उनके पाँव पोंछ देती। गंगा नहाने वाला अँगोछा नया लाल सुर्ख था परन्तु था यह बदरंग, फटा, फँसा-फँसा सा। इसे ‘पाँव पोंछ’ कहना ही ठीक था।
पाँव धोने-पोंछने के बाद दादी अपने लाये फल उतारकर एक-आध उसमें से उठा लेतीं और अँधेरे से भण्डारगृह के दरवाज़े के पास हटाकर रखतीं। अब बैठकर बाक़ी लाये फलों को ठीक से छीलकर, काटकर अथवा तोड़कर, छिलका निकाल कर उन्हें बालवाहिनी के सदस्यों में बाँट देती। हिस्सा ‘बराबर-बराबर’ होता था, ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं था क्योंकि ‘लड़का’ और ‘लड़की’ तो बराबर नहीं।
इस काम की निवृत्ति होते-न-होते जयराम बाज़ार से लौटता। बड़े से टोकरे में से पहले ही वह भण्डारगृह के दरवाज़े के सामने कुछ आलू, परवल, बैंगन, डण्ठा वगैरह निकाल कर तब टोकरा दूसरी तरफ़ ले जाता। दादी उस उतारी सब्जी पर गंगाजल छिड़कर उन्हें भण्डार में उठा ले जातीं।
फलों की तो उन्हें ज़रूरत होती ही थी। रात को वही तो खाती थीं। रात को तो वह औरों की तरह भात-दाल-तरकारी-मांस-मछली नहीं खाएँगी। रसोई करती ही नहीं थीं।
फिर इन्हीं फलों से ब्रेकफास्ट भी करती थीं। लेकिन काटने-कूटने के झमेले में पड़ती नहीं थीं। कटे फल उन्हें बहुत ही बुरे लगते थे। अगर कोई बहू अत्यन्त शुद्धाचार से संगमरमर की रिकाबी में फल-वल काटकर देती तो मुँह बिचका कर कहतीं, ‘‘मुझे इसकी जरूरत नहीं है। जिसके दाँत नहीं हैं उसी को दो।’’
दाँत के गर्व से गर्वित दादी, अस्सी साल की उम्र तक गन्ना दाँतों से छीलकर खाती रहीं। खाती थीं कच्चे-कच्चे अमरूद, समूचे छिलके सहित खीरे, बड़ी-बड़ी नासपाती। सब दाँत से काट-काटकर खाती थीं। उन दिनों सेब का उतना प्रचार नहीं हुआ था लेकिन हाँ, लोग नासपाती खाते थे। यह फल दादी का प्रिय फल था।
छुटपुट अँधेरा है।
भोर हो रही थी—धीरे-धीरे।
चारों ओर फैलता धुँधला प्रकाश।
यही पृष्ठभूमि थी।
मंच-सज्जा थी—
एक साधारण चेहरे-मोहरे वाला दुमंज़िला मकान। उसकी निचली मंज़िल का एक कमरा। पुराने ज़माने की डिज़ाइन थी। इंचीटेप लेकर नपातुला न होने के कारण अच्छा-ख़ासा बड़ा कहा जा सकता था। लगभग पूरा एक कमरा तख्तों पर बिछे बिस्तर से भर गया था। कुछ लोग सो रहे थे।
उन्हीं कुछ लोगों में से सहसा जाग उठा सबसे छोटा प्राणी। इसके अलावा उपाय भी तो नहीं था ! सोते-जागते उस कगार पर फैलता जा रहा था जल्दी जल्दी उच्चारित होता एक शब्द-छन्द। इसके बाद वह सोती रहे, भला ऐसे हो सकता है।
उसके लिए उस शब्द-छन्द का नाम है ‘जय जय गोविन्द’। दादी, ‘जय जय गोविन्द’ कर रही हैं।
अर्थात् दादी अब गंगास्नाना करने के लिए निकल रही हैं।
‘निकलना’ शब्द उसे बेहद रोमांचित करता है। किसी को निकलते देखा कि हृदय खुशी से नाच उठता। मानो कहीं अनन्त रहस्य का भण्डार हो, असीम विस्मय की दुनिया हो। जहाँ खुशियाँ-ही-खुशियाँ, अच्छा लगे ऐसी एक जगह, इस घर का चौखट पार करते ही मिल जाएगी वह निधि।
परन्तु वह नन्हा-सा जीव क्या इस तरह से सोचने की क्षमता रखता है ? सोचने की क्षमता उसमें जन्म ले चुकी है क्या ? तरंगें उठती अनुभव के माध्यम से। वहीं छटपटाहट मचती, जी अकुलाया करता, सारी चंचलता वहीं थी।
अतएव ‘दादी जी’ निकलने वाली हैं’, इस बात की आहट लगने के बाद लेटे रहना असम्भव हो जाता। कौतूहल ही शायद यह अकुलाहट होती थी। चेतना की प्रथम प्रेरणा तो कौतूहल ही है। शिशुगण इस व्याधि के शिकार होते हैं। यद्यपि कौतूहलशून्य शिशुओं का अभाव नहीं है। ऐसे शिशु भी देखने में आते हैं परन्तु इस समय हम जिस छोटे से जीवन को देख रहे हैं वह कौतूहल व्याधि का भयंकर रूप से शिकार है।
दादी का ‘जय जय गोविन्द’ उसकी प्रातःकालीन निद्राभंग करता है, वह भी तो इसी व्याधि के प्रकोप का कारण है। उठकर बैठ गयी। ध्यान से सुनने की कोशिश की। जानती है अभी ‘खट’ से एक आवाज़ होगी। दरवाज़े पर लगा लकड़ी का बाड़ खोला जाएगा। और उसी के साथ पुराना शब्द-छन्द आगे बढ़ेगा—‘नन्द मन्दिर, कृष्ण बढ़े दिन-दिन’। उसके बाद अगला छन्द रास्ते पर भागना शुरू कर देगा--‘‘नन्द नाम रखे नन्द-नन्दन।’
उसी के साथ दौड़ना शुरू कर देगा छोटी-सी उस लड़की का कलेजा भी दादी नामक महिला के गतिछन्द के पीछे-पीछे।–न, अब तो बिस्तर से उतरना ज़रूरी है। आश्चर्य ! दादी का यह गंगा नहाने जाना तो ‘रोज़ की देखी’ बात है। फिर भी पता क्यों नहीं, रोज़ ही देखना चाहिए।
एक इंसान, धुँधलके अँधेरे में, जन-प्राणीहीन रास्ते पर अकेला चल पड़ा, जैसे यह चीज़ अत्यन्त दृष्टव्य हो। यह दृश्य उस लड़की को चुम्बक की तरह खींचता। मानो देखा नहीं तो बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा।
अपनी नींद से बोझिल आँखों को अच्छी तरह से खोलकर देख लेती कि सब सो रहे हैं या नहीं। सौभाग्यवश इस समय सभी सोये रहते। माँ, पिताजी, दीदी और बग़ल वाले कमरे के खुले दरवाज़े के इधर एक तख्त पर दो दादा। उनका बिस्तर दरवाज़े के इतना करीब था कि लग रहा था वे इसी कमरे में सो रहे हैं।
यह देखकर निश्चिन्त हुई लड़की कि सभी सो रहे हैं। धीरे-धीरे वह खाट के एक कोने तक पहुँचती है, फिर पेट के बल औंधी होकर अपने को घसीटते हुए पाँव लटका देती है। काफ़ी परिश्रम करना पड़ता है। जब तक फ़र्श और पाँव के बीच की दूरी नहीं मिटती उसे चादर को मुट्ठी में कसकर पकड़े रहना पड़ता है। फ़र्श पर पाँव छुए नहीं कि बस।
अब उसे कौन पाता है ?
तख्तों के सिरहाने की तरफ़ तीन बड़ी खिड़कियाँ थीं जिनमें लकड़ी और शीशे के पल्ले थे। लकड़ी के पल्ले में कुछ ऐसी खिड़कियाँ लगी थीं जिन्हें इच्छानुसार खोला, बन्द किया जा सकता था। कमरे के फ़र्श से शुरू हुई दरवाज़े की ऊँचाई वाली इन खिड़कियों में लोहे के मोटे-मोटे छड़ लगे थे। ये खिड़कियाँ थोड़ी खुली थीं शायद हवा के आने के लिए। लेकिन चिटकनियाँ और लकड़ी का पटरा कस-कर बन्द था। वह छोटी-सी लड़की की बात तो दूर, उससे डेढ़ साल बड़ी उसकी दीदी तक का हाथ उन चिटकनियों तक नहीं पहुँचता था।
क्या करे बेचारी !
दोनों आँखें खिड़की से टिका कर बाहर देखने का प्रयास।
बाहर—जहाँ से सारे अपने, सारे रहस्य, सारी सुषमा हाथ हिला-हिलाकर बुलाती थीं।
इसीलिए तो रोज़-रोज़ देखने पर भी पुराना नहीं होता था।
परन्तु हर काम बिल्कुल खामोशी से करना है, यही एक रोमांचकारी अनुभूति थी। कोई जाग उठेगा तो डाँट पड़ेगी। छोटे बच्चों को किसी भी निजी मामले में डाँट लगाना ही तो संसार की रीति है।
अँगूठों की मदद से दो खिड़कियों का एक पतला-सा एक पल्ला जी-जान से पकड़े रहकर फासला बढ़ाने का प्रयास करते हुए, देखा गया वह दृश्य।
इन खिड़कियों के सामने कुछ खाली जमीन पड़ी थी जिस पर शाम के वक्त मोहल्ले के कुछ लड़के, दो तरफ़ दो बाँस गाड़कर उसमें एक जाल बाँधकर पता नहीं कौन-सा खेल खेला करते थे। इस खेल को उस लड़की का सबसे बड़ा चचेरा भाई भी खेलता था। (जिसे देखते ही दिल धक्-धक् करने लगता था) उस ख़ाली पड़ी ज़मीन को बच्चे और खिलाड़ी लड़के कहते थे ‘मैदान’।
उसने देखा, दादी तेज़ी से चलकर मिनटों में सड़क पर पहुँच गयीं। दादी के हाथ में खूब चमचमाता पीतल का बड़ा-सा लोटा था जिसके मुँह पर गोल लपेट-कर अँगोछा पोटले की तरह रखा था। दादी ने नामावाली से अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा लपेट रखा था।
दीर्घ तेजस्वी सीधी देह वाली दादी झटपट रास्ते पर पहुँचते ही बायीं तरफ़ बढ़ गयीं। सुनिश्चित है कि बिल्कुल सड़क के किनारे जो काली मन्दिर है उसके बन्द दरवाज़े पर माथा टेककर गंगा की ओर जाने वाला रास्ता पकड़ेंगी। इस कालीबाड़ी का नाम है ‘गुहा’ लोगों की कालीबाड़ी ‘अथव’ ‘होगलकूँड़े की कालीबाड़ी’।
उस समय भले न जानती हो, बाद में उस लड़की को मालूम हुआ था कि उसी कालीबाड़ी के विख्यात पहलवान ‘गोबर गुहा’ के ताऊ अम्बू गुहा ने बनवाया था। मोहल्ले का नाम है ‘होगलकुँड़े’। घर की बहुएँ भले ही खिड़की से नहीं झाँक सकती हैं, घर की मालकिन मज़े से चिड़िया की तरह फुर्र से जब-तब निकल पड़ती हैं। रोज़ गंगास्नान के लिए तो जाती हैं, कालीघाट, शीतलातला, मंगल-चण्डीतला, बाग़बाज़ार का मदनमोहनतला, चित्तेश्वरी काली वग़ैरह-वग़ैरह—कहाँ-कहाँ उनकी पहुँच नहीं है ?
कैसे जातीं ? किस पर ?
और किस पर ? भगवान ने दो पैर नहीं दिये हैं उन्हें ? उन्हीं दोनों पाँवों के भरोसे चार धाम कर चुकी हैं। कर चुकी हैं और भी कितनी तीर्थयात्राएँ।
शरीर और मन की अद्भुत शक्तिमयी वह महिला केवल अड़तीस साल की उम्र में पाँच लड़के और आठ लड़कियाँ, कुल तेरह सन्तान का भार समेत विधवा हुई थी। अन्तिम तो गर्भ में ही था। इससे क्या होता है ? तब से कदम छाँट बाल, सफ़ेद थान, निर्जला एकादशी, एकाहार, नियमित गंगास्नान...और अस्सी साल की उम्र हो रही थी नियमित गंगा-जलपान करते। नल का पानी अपवित्र है, उसमें चमड़ा रहता है न ?
गंगाजल भरने वाला ‘भारी’ बाँस का तराजूनुमा अपने ‘बॉक’ में पीतल के दो घड़ों में पानी भरकर ले आता था—दादी की रसोई के लिए। अँधेरा-भरा एक कमरा जिसे भण्डारघर कह सकते हैं—दादी का खाना वहीं बनता था। ‘भारी’ वही गंगाजल इस भण्डारघर के किस बर्तन में भर देता था। और पीने का पानी ? वह काम अपने हाथों से भरकर लाये उसी पीतल के लोटे के गंगाजल से चल जाता था। रोज ही तो ले आती थीं। पृथ्वी उलट-पुलट जाये लेकिन गंगास्नान का नियम तो उलट नहीं सकता था। ज़ोरों से पानी गिरता हो तब भी उन्हें तड़के सुबह मैदान पार करते हुए देखा जा सकता था। बस फ़र्क़ इतना ही होता है कि लोटे पर रखा अँगोछा सिर पर रख लेतीं।
जिन दिनों पानी के छींटे आने का खतरा रहता, खिड़की में काँच के पट बन्द होते। उसी में से जितनी दूर तक देखा जा सकता था, देखती। अँगोछे को सिर पर रखकर तेज़ी से जाती और मूर्ति ओझल हो जाने पर भी लड़की विह्वल दृष्टि लिये देखती बैठी रहती। क्या है गंगा में, जो इतनी तेज़ बरसात में भीगते हुए जाना ज़रूरी है ? नल में भी तो पानी ही आता है—नहाओ न ! बरसात के पानी में भीगकर नहा लेने पर भी नहाने जाती हैं, क्या फ़ायदा होता है ?
क्या पता कितनी दूर है गंगा का घाट ? यह वृन्दावन बोस लेन सीधी वहीं जाती है या रास्ता और भी घुमावदार है—जिस तरह मोड़ पर मोड़ पार करके आड़े-तिरछे जाना पड़ता है मझली मामी के यहाँ बादुड़बागान ?
बरसात के दिनों में उसका मन उदास हो जाता। ग़नीमत है कि बरसात रोज़ नहीं होती है।
दादी के निकल जाते ही घर में मानो ‘आवाज़’ की दुकान खुल जाती। ज़बरदस्त माँ के पाँच-पाँच ज़बरदस्त क़िस्म के बड़े लड़कों के कण्ठ से निकलती गर्जना (यूँ ही है उनकी स्वाभाविक बोली, आवाज़ ही ऐसी है), चिल्लाकर रो सकने की क्षमतायुक्त बाल-बच्चों की गला-फाड़कर रोने की आवाज़ महिलाओं का न समझ में आने वाला कोलाहल, आँगन में रखे पहाड़ जैसे ऊँचे, फैले छिटके बर्तनों के उद्धार होने की खनखन-झनझन, उसी के साथ बर्तन माँजने वाली की खनकती तीख़ी चीख़ती आवाज़ अक्सर ‘देर से आयी’ महाराजिन के धिक्कार-भरे स्वर। धड़-धड़ाकर जल रही दो-दो अँगीठियों को देखकर वह गरजकर रोज़ ही प्रायः जवाब-तलब करती, ‘‘क्यों बहूरानी, तुम लोगों से इतना भी नहीं हुआ कि दाल-भात की हाँडी ही चढ़ा दो ? ऐसा कौन-सा राजकाज रहता है ?’’
हाँ, यही सब कहती थीं वह प्रतिदिन ‘देर से आने के बाद’, बाहर के नल में हाथ-पाँव धोते-धोते। उस पर आश्चर्य की बात यह थी कि बहूरानियों के मुँह से ‘टूँ’ शब्द तक नहीं निकलता।
इतना साहस हो कैसे ? महाराजिन दादी नाराज़ होकर चली गयी तो त्रिलोक अन्धकारमय नहीं हो जाएगा। अतएव महाराजिन दादी के आक्रमण की अगली शिकार होती बर्तन माँजने वाली—‘‘उसने आते ही सुबह-सुबह चूल्हा क्यों सुलगा दिया ? क्यों ? ज़रा ठहरकर नहीं जला सकती थी ? आते ही चूल्हा जला बैठी ? कण्डे, कोयला मुफ्त में आते हैं क्या ?’’
‘‘ठीक है, कल से न जलाऊँगी, देखूँ बाबूजी लोगों को टेम से कैसे खाना देती हो !’’
कहने के साथ ही बर्तन पटकती है ज़ोर से।
शब्द ही शब्द
आवाज़ ही आवाज़।
शब्द ब्रह्म !
और इन्हीं सारी आवाज़ों को ढाँपकर एक और गुरु-गम्भीर ध्वनि गूँज उठती—
कालीबाड़ी के घण्टे-घड़ियाल का नाद। भारी, गहरा, गम्भीर ! सुनकर दिल काँप उठता। डर-सा लगने लगता।
और थोड़ा दिन चढ़ते ही वह छोटी लड़की, अपने हमउम्र दो चचेरे भाई-बहन के साथ फट से बाहर निकल जाती। चली जाती ‘पहाड़ पर’ चढ़कर फूल बटोरने।
इसके लिए दिन चढ़ना ज़रूरी थी। जब तक बड़े लोग इधर-उधर नहीं होंगे तब तक तो घर से निकला भी नहीं जा सकता था। होता भी यही था। चाय पीने के बाद वे लोग इधर-उधर हो जाते। कोई नहाने चला जाता, कोई दाढ़ी बनाने। कोई कुछ और करने और कोई कुछ और। दफ्तर नहीं जाना है क्या ? जल्दी नहीं है ?
सभी दफ्तर जाते थे, ऐसा नहीं था। चाचाओं में से कोई डॉक्टर, कोई मास्टर, कोई वकील। लेकिन उससे क्या फ़र्क़ पड़ता था ? कपड़े पहनकर, जूते पहनकर घर से निकलने का मतलब था दफ्तर जाना।
उन्नीस सौ ग्यारह-बारह में ‘चाय’ आज के युग की तरह समाज के हर स्तर के लोगों की शिराओं-उपशिराओं में प्रवाहित होती थी—ऐसी बात नहीं थी।
बहुतों के यहाँ तो तब इसका प्रवेश ही नहीं हुआ था। परन्तु इस घर में, दादी के पंचपुत्र की गृहस्थी में, खूब प्रचलन था। सुबह हुई नहीं कि ‘चाय’ ‘चाय’ की टेर सुनाई पड़ती। सोकर उठे नहीं कि गला सूखने लगा। !
तो क्या महिलाएँ भी ? ऐसी बात नहीं है—सिर्फ़ मर्द लोग ही। उनके दोस्त आते थे तब बनती थी चाय। वे जब ताश खेलने बैठते थे तब कई राउण्ड चाय पी जाती थी। उस लड़की के मामा लोग हँसी उड़ाते—‘‘कौआ ‘काँ-काँ’ बोलता है और तेरा बाप ‘चाय-चाय’। है न रे ?’’
मामा लोग सब अच्छी-अच्छी नौकरियाँ करते थे फिर भी सुबह के नाश्ते के साथ चाय वर्जित थी। चाय को प्रवेशाधिकार ही नहीं मिला था उस समय तक।
पिताजी, ताऊजी, चाचा वगैरह चाय पीकर इधर-उधर हुए नहीं कि पहाड़ का आकर्षण खींचने लगता।
लेकिन यह ‘पहाड़’ था कहाँ ?
आज उधर देखने पर कितनी हास्यकर बात लगती है। जबकि उस समय कितना उत्साह था, रोमांच था ! शायद डाँट पड़ने का डर था इसीलिए रोमांच-कारी ज़्यादा था।
बात यह थी—खिड़की के सामने वाली ख़ाली ज़मीन जिसे लड़के ‘मैदान’ कहते थे, उसी से सटकर खड़ा था काली मन्दिर। काफ़ी सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद कालीबाड़ी का दरवाज़ा मिलता। इसीलिए देवी के पीछे मैदान की ओर खुलनेवाली खिड़की भी काफ़ी ऊँचाई पर थी। उसी खिड़की के नीचे, पता नहीं किस काम के लिए, गिट्टी, पत्थर, ईंटें, अद्धे रखे थे। वही सब पहाड़ जैसा ऊँचा हो रहा था। उस पर काई भी लग गयी थी। जगह-जगह से पीपल, बरगद, नीम के पौधे सिर उठा रहे थे। यही था उसका पहाड़। उस पहाड़ पर चढ़ने पर डाँट खाना तो निश्चित था। साँप-बिच्छू का डर नहीं था ? दरारों के बीच ज़हरीले कीड़े-मकोड़े तो हो ही सकते थे !
किन्तु ललक भी तो अदम्य थी।
किसी तरह का डर उन्हें रोक नहीं सकता था। फूल बटोरकर लाना नहीं था क्या ?
मन्दिर की उस ऊँची खिड़की से ही तो पहले दिन के चढ़ाये सारे फूल, बेल की पत्तियाँ फेंकी जाती थीं।
फूल या फूलों का सम्भार ?
फालतू बेलपत्रों को हटा-हटाकर उन फूलों का उद्धार करना पड़ता था।
कितने तरह के फूल !
गुड़हल। गुड़हल ही ज़्यादा होते थे।
सुर्ख लाल-लाल, बड़े-बड़े गुड़हल। बड़ी-बड़ी गुड़हल की मालाएँ ! इसके अलावा इतने बड़े-बड़े सुन्दर गेंदे के फूल और, और भी न जाने कैसे-कैसे सुन्दर-सुन्दर फूल—जिनके नाम ही नहीं जानती थी वह। देखने से कोई भी बासी नहीं लगते या फिर अबोध शिशु की सरल दृष्टि उसके बासीपन को समझ न पाती।
जैसे-तैसे घुटनों के बल, उस पहाड़ पर चढ़ते ही किसी तरह के फूल-संग्रह कर डालना ही एक आवश्यक काम होता।
ओह ! क्या मामूली-सी ऊँचाई थी ? लेकिन उनके लिए तो पहाड़ की चढ़ाई ही थी।
फूल ले आने के बाद हम लोग करते क्या थे ?
आ हा, करेंगे क्या ? किसने कितने फूल संग्रह किये हैं; इसी बात का पता करते ही बहादुरी समाप्त। हालाँकि देवी को चढ़ाये हुए फूल थे—पैर लगने पर पाप लगने का डर था। दीवार से सटा-सटाकर सजाकर रखा जाता उन्हें।
हर रोज यही एक व्यर्थ का खेल।
इसके बाद ही दादी लौटतीं। इस समय उनके हाथ का चमचमाता लोटा गंगाजल से भरा होता और दूसरे हाथ में रहती भीगे अँगोछे की बड़ी-सी एक पोटली। फिर भी वही तेज़ी, सतर्क द्रुत पदचालन। गंगा किनारे लगे हाट से हर रोज़ सौदा-सुल्फ लेकर आती हैं।
हिसाब लगाया जाय तो उस समय उनकी उम्र बासठ-तिरसठ की रही होगी। जीवन भर के कठोर कठिन संग्राम का चिह्न मात्र नहीं था। कौन कह सकता था कि जीवनव्यापी एकाहार करती रहीं, दसियों तरह के व्रत-उपवास करती रहीं। साल में चौबीस-पच्चीस तो निर्जला व्रत करती ही थीं, पत्रा देखकर क्या कम उपवास करती थीं ? सनातनधर्मी ससुराल था तो क्या हुआ, वैष्णवों के नियम-पालन करने में हर्ज़ क्या है ?
फिर ‘वार’—सोमवार शिवजी का वार था तो मंगल था मंगलचण्डी का वार। शनिवार तो था ही शनिदेवता का दिन। इसके अलावा क्या-क्या व्रत और नहीं थे ? प्रायः गंगा-किनारे ही एक हरे नारियल का जल पीकर आ जाती थीं फिर जल स्पर्श तक नहीं करती थीं। उनकी तो सीधी-सादी व्यवस्था थी। जब सभी कुछ अपनी ही मुट्ठी में था तब असुविधा कैसी ?
खैर उनके चेहरे या हाव भाव से कोई कह नहीं सकता था कि वह थकी हैं। गंगा नहाकर लौटते ही हाथ की चीजें उतारने से पहले, पाँच बहुओं में से कोई एक (शायद जो सामने पड़ जाती) बहू एक बड़े लोटे में पानी भर कर लाती और जल्दी से दादी के पाँव धो देती। और भण्डारगृह की खिड़की पर लटका दादी का एक दूसरा अँगोछा लाकर उनके पाँव पोंछ देती। गंगा नहाने वाला अँगोछा नया लाल सुर्ख था परन्तु था यह बदरंग, फटा, फँसा-फँसा सा। इसे ‘पाँव पोंछ’ कहना ही ठीक था।
पाँव धोने-पोंछने के बाद दादी अपने लाये फल उतारकर एक-आध उसमें से उठा लेतीं और अँधेरे से भण्डारगृह के दरवाज़े के पास हटाकर रखतीं। अब बैठकर बाक़ी लाये फलों को ठीक से छीलकर, काटकर अथवा तोड़कर, छिलका निकाल कर उन्हें बालवाहिनी के सदस्यों में बाँट देती। हिस्सा ‘बराबर-बराबर’ होता था, ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं था क्योंकि ‘लड़का’ और ‘लड़की’ तो बराबर नहीं।
इस काम की निवृत्ति होते-न-होते जयराम बाज़ार से लौटता। बड़े से टोकरे में से पहले ही वह भण्डारगृह के दरवाज़े के सामने कुछ आलू, परवल, बैंगन, डण्ठा वगैरह निकाल कर तब टोकरा दूसरी तरफ़ ले जाता। दादी उस उतारी सब्जी पर गंगाजल छिड़कर उन्हें भण्डार में उठा ले जातीं।
फलों की तो उन्हें ज़रूरत होती ही थी। रात को वही तो खाती थीं। रात को तो वह औरों की तरह भात-दाल-तरकारी-मांस-मछली नहीं खाएँगी। रसोई करती ही नहीं थीं।
फिर इन्हीं फलों से ब्रेकफास्ट भी करती थीं। लेकिन काटने-कूटने के झमेले में पड़ती नहीं थीं। कटे फल उन्हें बहुत ही बुरे लगते थे। अगर कोई बहू अत्यन्त शुद्धाचार से संगमरमर की रिकाबी में फल-वल काटकर देती तो मुँह बिचका कर कहतीं, ‘‘मुझे इसकी जरूरत नहीं है। जिसके दाँत नहीं हैं उसी को दो।’’
दाँत के गर्व से गर्वित दादी, अस्सी साल की उम्र तक गन्ना दाँतों से छीलकर खाती रहीं। खाती थीं कच्चे-कच्चे अमरूद, समूचे छिलके सहित खीरे, बड़ी-बड़ी नासपाती। सब दाँत से काट-काटकर खाती थीं। उन दिनों सेब का उतना प्रचार नहीं हुआ था लेकिन हाँ, लोग नासपाती खाते थे। यह फल दादी का प्रिय फल था।
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