कहानी संग्रह >> पाँच लम्बी कहानियाँ पाँच लम्बी कहानियाँबच्चन सिंह
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बच्चन सिंह की समकालीन कहानियों का संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इस संकलन में पाँच लम्बी कहानियाँ हैं। पहली कहानी ‘कलुआ’ बाल श्रमिकों के शोषण पर आधारित है।
कलुआ के गाँव का ही एक व्यक्ति श्रमिकों की सप्लाई का धंधा करता है। इस धंधे की सफलता के लिए वह गाँव घर, जाति-बिरादरी के रिश्तों की धज्जियाँ उड़ाते हुए कलुआ को एक ढाबे में काम दिलाता है और फिर कलुआ वहाँ से कभी मुक्त नहीं हो पाता। दूसरी कहानी ‘रमई राम की दो बेटियाँ’ ग्राम्य और नगर संस्कृतियों में फर्क का चित्रण करती हैं।
तीसरी कहानी ‘मिस चार्ली का ब्यूटी पार्लर’ आधुनिक ब्यूटी पालरों के पीछे का सच उद्घाटित करती है। यह ब्यूटी पार्लर देह व्यापार के अड्डे बन गये हैं। चौथी कहानी ‘गाँव की सड़क’ गाँव के अनपढ़, मालूम और गरीब व्यक्तियों के चालाक तथा दबंग व्यक्तियों द्वारा हो रहे शोषण की सशक्त अभिव्यक्ति है। पांचवीं और अंतिम कहानी ‘राक्षस’ बाजारवाद के कोख से पैदा हो रहे भौतिक सुविधाओं के प्रति तेजी से बढ़ रही ललक को केन्द्र में रखकर लिखी गई है।
ये सभी कहानियाँ मौजूदा समाज के विविध आयामों को परत-दर-परत खोलती जाती हैं और भविष्य की ओर संकेत भी करती हैं।
कलुआ के गाँव का ही एक व्यक्ति श्रमिकों की सप्लाई का धंधा करता है। इस धंधे की सफलता के लिए वह गाँव घर, जाति-बिरादरी के रिश्तों की धज्जियाँ उड़ाते हुए कलुआ को एक ढाबे में काम दिलाता है और फिर कलुआ वहाँ से कभी मुक्त नहीं हो पाता। दूसरी कहानी ‘रमई राम की दो बेटियाँ’ ग्राम्य और नगर संस्कृतियों में फर्क का चित्रण करती हैं।
तीसरी कहानी ‘मिस चार्ली का ब्यूटी पार्लर’ आधुनिक ब्यूटी पालरों के पीछे का सच उद्घाटित करती है। यह ब्यूटी पार्लर देह व्यापार के अड्डे बन गये हैं। चौथी कहानी ‘गाँव की सड़क’ गाँव के अनपढ़, मालूम और गरीब व्यक्तियों के चालाक तथा दबंग व्यक्तियों द्वारा हो रहे शोषण की सशक्त अभिव्यक्ति है। पांचवीं और अंतिम कहानी ‘राक्षस’ बाजारवाद के कोख से पैदा हो रहे भौतिक सुविधाओं के प्रति तेजी से बढ़ रही ललक को केन्द्र में रखकर लिखी गई है।
ये सभी कहानियाँ मौजूदा समाज के विविध आयामों को परत-दर-परत खोलती जाती हैं और भविष्य की ओर संकेत भी करती हैं।
कलुआ
कलुआ जब कभी अकेला होता;
उसका मन गांव-भर में रमने लगता।
आज भी वह पहुंच गया था अपने गांव में।
मालिक पगार भेज ही
रहे होंगे घर। माई ने नई धोती
खरीदी होगी, पुरानी को
कथरी पर चढ़ा दिया होगा। कई
जगह से फट गयी थी वह।
चकतियां-ही-चकतियां थीं उसमें।
माई जबर्दस्ती खींचे जा रही थी।
मैं घर होता तब न देखता कि
माई कैसी लगती है नई धोती पहिन
के। बाबू की पनहीं भी चिथरा हो
गयी थी। एक जगह सिलाई कराते
तो दूसरी जगह मुंह बा देती। बाबू
ने नई पनहीं खरीद ली होगी।
घर होता तो देखता कि
बाबू कैसी पनहीं खरीदे हैं।
उसका मन गांव-भर में रमने लगता।
आज भी वह पहुंच गया था अपने गांव में।
मालिक पगार भेज ही
रहे होंगे घर। माई ने नई धोती
खरीदी होगी, पुरानी को
कथरी पर चढ़ा दिया होगा। कई
जगह से फट गयी थी वह।
चकतियां-ही-चकतियां थीं उसमें।
माई जबर्दस्ती खींचे जा रही थी।
मैं घर होता तब न देखता कि
माई कैसी लगती है नई धोती पहिन
के। बाबू की पनहीं भी चिथरा हो
गयी थी। एक जगह सिलाई कराते
तो दूसरी जगह मुंह बा देती। बाबू
ने नई पनहीं खरीद ली होगी।
घर होता तो देखता कि
बाबू कैसी पनहीं खरीदे हैं।
1
कलुआ की नौकरी लग गयी थी। यह पुण्य काम बिरादरी के नेता के हाथों संपन्न
हुआ था। दुखरन बहुत खुश थे कि हमार कलुआ एही उमिर में कमासुत हो गया। लोग
एम्मे-ओम्मे कय के बिलल्ला होय रहा हैं। हमार कलुआ स्कूल के मुंह देखे
बिना नोकरी पा गया है। बड़ा होए पर रुपया के खरिहान लगा देगा।
लेकिन कलुआ की माई इस नौकरी के सख्त खिलाफ थीं। ‘आग लगाय देव जर जाय अइसी नोकरी। अबहीं बारहो नाहीं पूरा किहेस मोर बेटवा। खेलै-खाए के उमिर है कि खटनी के उमिर है। जब लइकइयैं में रिग्घी टूट जाइ तऽ का बढ़ी मोटाई। नान्ह-नान्ह हाथ-गोड़, पोढ़ाए के पहिलहीं सुखा के लकड़ी होय जाई। ‘हम नाहीं भेजब आपन लइका।’’
‘‘तू नाहकै हठ फाने है खरपतिया। कलुआ कौनो कलकत्ता, बंबई तऽ जाय नहीं रहा है कि हमरे आंखी से अलोपित होय जाएगा। अपनै सहर में न रहेगा, जब मन करेगा, जाके भेंटभांट कर आएंगे। हाल चाल ले आएंगे....।’’
‘हाथ-पैर पोढ़ाए के पहिलहीं...।’
‘काम करत के जौन देह पोढ़ात है ऊ ठोस होत है रे ! बइठे-बइठे पोढ़ाए वाली देह पुलपुली होय जात है। पेट भर खा के खेते में रख आवै के अलावा कौनो काम है ओकरे पल्ले !’’
‘तऽ का करी कलुआ, झूठैं पानी पीटी ? ओकर समौरिया कवन लइका खटत हैं गांव में ! केकर लइका हैं फरसा-कुदाल चलावत ? केकर लइका हैं हांड़-कोन करत ? केकर लइका है पहाड़ खोदत ? बतावा हम्मै ?’
‘देख खरपतिया, दूसरे के सेन्हुर देख के आपन लिलार नाहीं फोरे के। आउर लोग के तो बहरी कमाई आय रही है। दो जून की रोटी जुट रही है। तन पर कपड़ा जुट रहा है। लइके पढ़-लिख रहे हैं। जिसकी समाई है, वही न पढ़ाएगा-लिखाएगा अपने बाल-बच्चन के। कलुआ के पढ़ावे-लिखावे की समाई है हमारे पास ? बड़े भये पर ऊहो तो वही करेगा न जो हम कय रहे हैं; रेकसा खींचेगा, सगड़ी चलाएगा, ईंट-गारा करेगा....यही करेगा न ! हमके देख, खेलत-कूदत जवान भये। रेखौ नाहीं भीन पाई रही कि तू आ गयी। तोहरे आए के तीन साल बाद से रेकसा खींच रहे हैं। कब बुढ़ापा आय गया, पता चला कुछ ?
तोहके घुमाय-फिराय सके कहूं ? एकाध बेर सहर-बनारस ले जाय के गंगा नहवा दिया, सुलेमा देखा दिया, दुर्गा जी के दरसन करा दिया...यही न ! एके घुमाइब-फिराइब कहत हैं ! जब ले कलकत्ता, बंबई न घूम ले मनई, तब ले घूमब-फिरब के मतलब का भया ? तू लवाई-बिनाई, पुरवट-घर्रा, दौनी-मिजनी करत-करत बुढ़ा गयी, हम रेकसा खींचत-खींचत बुढ़ा गए। जिनगी के कौनो सुख देखा ? तू चाहत है कि कलुआ के साथ इहैं होय ? अरे, ऊहां भर पेट खाय के मिलेगा तो जल्दी से फूट जाएगा। पुरहर मरद हो जाएगा। चार पइसा हाथ में रहेगा तो ओकी मउगियो सुख करेगी। गत के धोती-लुग्गा, तेल-साबुन, सेन्हुर-टिकुली जो जुटा पाएगा न ! अब हमरे पल्ले एतना पौरुख नाहीं रह गया है खरपतिया के रातोदिन रेकसा खींची। कलुआ कमाए लागी तो हमहूं गाहे-बगाहे आराम कय सकित हैं। घड़ी-दू-घड़ी तोहरे लग्गे बइठ के दुखा-सुखा बतियाय सकित हैं। थक-थका के आए, दूर कवर खा के पर रहे। बिहान भये फिर वही फिकिर...।’
‘हमरे कलुआ के अबहीं रेखौ नाही भीनी। चउदह-पनरह के रहा होत तबौ गनीमत रही। अबहिएं खटाए से तऽ कौनो ओर के नाहीं रही हमार...।’
खरपतिया का गला रुंध गया। वह आगे नहीं बोल सकी। खूंटे से बंधी बकरी का मेमना चपर-चपर दूध पी रहा था अपनी मां का। जब छिम्मी का दूध खत्म हो जाता तो थन में सिर से खोभता। फिर दूध उतर आता तो फिर वही चपर...चपर...चपर...। खरपतिया को लगा कि वह कलुआ को गोद में लेकर अपना दूध पिला रही है। कलुआ अपने दाएं हाथ से उसके स्तन से खेल रहा है और बायां स्तन मुंह में लिए दूध सुटकता जा रहा है...। खरपतिया की आंखों से आंसू ढरकने लगे। उसने आंचल से आंसू पोंछे। मन कहीं और लगाने का प्रयास करने लगी, ताकि आंखें पानी बरसाना बंद कर दें। लेकिन आंसुओं की वर्षा थमने का नाम नहीं ले रही थी। वह दुखरन के पास से उठी और घर में जाकर खाट पर ओलर गयी।
दुखरन खरपतिया की दशा देखकर चिंतत हो गये थे। उनका पहले वाला निर्णय ऊहापोह में फंस गया था। खरपतिया जो सोच रही है, वह सही है या मैं जो सोच रहा हूं वह। नन्हें-नन्हें और मुलायम हाथ-पांव वाला कलुआ संभाल पाएगा काम का इतना बोझ ? उसे मुंह अंधेरे उठ जाना पड़ेगा और दो-तीन बजे रात तक खटना पड़ेगा। काम उन्नीस, हुआ तो मालिक की पिटाई अलग से। बात-बात पर डांट-फटकार, गाली गलौज...। यह सब कैसे सहेगा नन्हें कलुआ का भोला-भाला मन ! एक खांचा बर्तन मांस सकता है कलुआ ?
‘किस चिंता में पड़े हो दुखरन ?’
‘कौनो चिंता नाहीं है नेता जी, काहे की चिंता करेंगे।’
नेता जी उसी खाट पर बैठ गये, जिस पर दुखरन बैठे थे। फर्क इतना पड़ा कि नेता जी मुड़तारी बैठ गये और दुखरन सरक कर गोड़तारी आ गए।
‘इस साल तो लग रहा है सूखा पड़ जाएगा दुखरन।’
‘हां नेताजी, लच्छन तो कुछ अइसा ही बुझाय रहा है।’
‘आज रेकसा निकाल रहे कि नहीं ?’
‘नाहीं नेता जी, आज तो नाहीं निकास पावा।’
‘क्यों ?’
‘अब रचे-रचे पौरुख थका जाय रहा है। आज असकतिया गए।’
‘इसीलिए तो कह रहा हूं कि कलुआ को काम पर लगा दो। कुछ कमाने लगेगा तो तुम्हें भी राहत मिलेगी। इस बात की चिंता तो नहीं रहेगी कि रेकसा नहीं निकालोगे तो चूल्हा नहीं जलेगा।’
‘हम तो तइयार हैं नेता जी, बाकि कलुआ के माई छान-पगहा तोड़ावत है। ढेर कोरहर बोल दे रहे हैं तो आंस टपकावै लागत है।’
‘कलुआ तुम्हारे पेशाब से नहीं पैदा हुआ है क्या दुखरन ?’
‘ई कइसन बात करत हो नेता जी।’ दुखरन हंसने लगे।
‘और क्या, लग तो यही रहा है कि कलुआ को तुमने नहीं, किसी और ने पैदा किया है। अरे, जब तुम्हारा लड़का है, तुम्हारे पेशाब से पैदा हुआ है तो उसकी माई कौन होती है टांग अंड़ाने वाली। तुमने जो कहा, वह फाइनल। दुखरन, तुम तिरिया-चित्र नहीं जानते हो। औरतें जब अपनी नहीं चला पातीं तो लगती हैं आंसू टपकाने। दो बूंद आंसू चुआ नहीं कि मरद का दिल पसीजा नहीं। इसी को कहते हैं तिरिया-चरित्र। वेद-पुरान तक में बखान है तिरिया-चरित्र का। बुरा मत मानना दुखरन, जब मरद ढलान पर होता है न तो मेहर और हावी हो जाती है। इधर मामला खलास हो जाता है और उधर...।’ कहकर हंसने लगे नेताजी तो दुखरन को भी हंसी आ गयी।
‘अइसी कौनो बात नाहीं है नेता जी, एक-दू-दिन में मान जाएगी खरपतिया। दुखरन ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा, ‘नौ महीना पेट में रक्खे है, एतना दिन पाले-पोसे है तो मोह तो लगबै करेगा न भाई। मतारी के करेजा बहुत नरम होत है।’
‘एक बात कह रहा हूं दुखरन, उसे अपनी जिंदगी का उसूल बना लो। नेक काम में कभी देर नहीं करनी चाहिए। और जब लड़के की नौकरी की बात आए तब तो बिल्कुल ही देर नहीं करनी चाहिए। चट मंगनी पट ब्याह वाला हिसाब रखना चाहिए। भाई, तुम तो देख ही रहे हो कि कितनी बेरोजगारी है अपने देश में। तमाम पढ़े-लिखे लोग टक्कर खा रहे हैं। एक-दो जगह निकल रही हैं तो हजारों लोग आवेदन कर रहे हैं। जो जगह कलुआ के लिए मैंने रोक रखी है, वह भर गयी तो ! अरे कोई मालिक ज्यादा-से-ज्यादा एक-दो दिन मेरी प्रतीक्षा करेगा। कहे सुने से एकाध दिन डेट और सरका देगा, लेकिन महीने पर थोड़े इंतजार करेगा। कोई दूसरे के लिए अपने काम का हरजा क्यों करेगा दुखरन, तुम्हीं सोचो। करेगा हरजा ?
‘नाहीं नेताजी, काहे को हरजा करेगा।’
‘अरे भाई असलियत यह है कि वहां हजारों की लाइन लगी है। बड़े-बड़े मिनिस्टरों के फोन आ रहे हैं—‘भाई मेरा आदमी रख लो...मेरा आदमी रख लो। लेकिन वह आदमी मेरा इतना मुरीद है कि डंके की चोट पर कहता है, ‘‘आदमी रखेंगे तो हरसू का ही रखेंगे। मिनिस्टर-विनिस्टर हमारे ठेंगे पर। हमारे घर रोटी पहुंचाएंगे ? मिनिस्टर होंगे तो अपने घर के। हम नहीं डरते किसी से...।’
‘तब तो बहुत जीवट के मनई है ऊ नेताजी।’
‘हां, भाई, लेकिन उसके जीवन की भी तो सीमा है न। आखिर कब तक दुतकारता रहेगा वह ऐसे धाकड़ लोगों को। चूंकि कलुआ घर का लड़का है इसलिए मैं चाहता हूं, उसी की नौकरी लगे। दुखरन, ऐसे मालिक बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। मान लो कलुआ की नौकरी कहीं और लग गयी लेकिन उसे ऐसा दिलेर मालिक नहीं मिला तो ? तो कलुआ की जिनगी नरक बन जाएगी कि नहीं ? तुम्हीं सोचो। उसके यहां कलुआ तो सुरक्षित रहेगा ही, आप लोग भी सुरक्षित रहेंगे। कोई माई का लाल आप लोगों की ओर आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं करेगा। जो आदमी मिनिस्टर को कुछ नहीं समझ रहा है, वह किसी ऐरा-गैरा को क्या समझेगा ? आंय ? कुछ समझेगा ?’
‘नाहीं नेताजी, ऊ भला का समझेगा।’
‘इसीलिए कह रहे हैं कि भउजी को समझाओ। न मानें तो तुम कलुआ को उनकी चोरी से मेरे यहां पहुंचा दो। जिस हालत में हो, उसी हालत में। कपड़े-लत्ते की फिकिर मत करो। नौकरी पर ही बन जाएगा। जैसे सब नौकरों को लिए बना वैसे ही उसके लिए भी बन जाएगा। छः महीने बाद देखना कि कैसे एक मुट्ठी मांस चढ़ जाता है कलुआ पर ! खाने-पीने की सलकल न बैठने से जरा भी नहीं उसुक रहा है वह। वहां दोनों मीटिंग चाप के खाएगा। सुबह-शाम नाश्ता करेगा। तब न देह धरेगा। भक से फूट के जवान हो जाएगा। भगवान के घर से तो वह दोहरी बदन पाया है, पर गत का रातिम न मिलने से एकततहा लगता है। गलत कह रहे हैं ?’
‘नाहीं नेता जी, गलत का है।’
‘चपक के भोजन मिला होता तो एक मुट्ठा और ऊपर गया होता न कलुआ।’
‘काहे न गया होता, ढेर हो गया होता।’
‘अरे फेंकन के रामबिरछा को काहे न देखते हो, कलुआ का ही समौरिया है न। कैसी पेटी फेंक दिया है। कलुआ से सवाया तो होगा ही। खाए-पीए का बढ़िया जुगाड़ है तभी न। आंय ?’
‘हां, आउर का ! खाए-पीए की जुगाड़ है तबै न...!’
‘अब सौ का सीधा यह बताओ दुखरन कि हमारी बात तुम्हारे जेहन में घुसी कि नहीं घुसी।’
‘खूब घुसी, मजे में घुसी। भला ई कइसे होय सकत है कि नाहीं घुसी होय !’
‘घुसी है तो कल बिहने उसे लेके आ जाओ मेरे यहां।’ कहते हुए नेता जी उठे, ‘तो पक्का रहा न !’
‘हां नेताजी, पक्का रहा। आज रात भरे में ई मरलहा निपटाय दे रहे हैं।’
नेताजी के जाते ही खरपतिया घर में से निकली और दुखरन के खाट के पास बोरा बिछा कर बैठ गय़ी। दुखरन की हिम्मत नहीं पड़ रही थी खरपतिया की ओर देखने की। सिर झुकाए बैठे रहे। वे अपराधबोध से ग्रस्त थे क्योंकि कलुआ को काम पर भेजने का वचन नेताजी को दुबारा दे चुके थे। दुखरन को आभास हो गया था कि नेताजी और उनके बीच हुई बातचीत खरपतिया के कानों तक पहुंच चुकी है। उनके भीतर यह भय भी फन उठाए था कि किसी भी समय बिफर सकती है खरपतिया। और अंततः इस भय ने उन्हें डंस ही लिया जब गुस्से से भरी खरपिताय बिफर पड़ी—
‘ई नेतवा अलानाहकै काहे को हमारे दरगहें पड़ा है ? दू रोटी चैन से खाए में भी खलल डाले है सरबउला। एके बाई चढ़ै। ओकरे आंखीं में काहे खटकत है हमार कलुआ ? तू काहे को डरत हौ ओसे ? काहे नाहीं साफ-साफ बता देत हौ कि हमार कलुआ नाहीं जाई नोकरी पर...।
‘अब बस भी करबी !’ दुखरन झुंझलाए।
‘चुप काहे रहीं ! काहे चुप रहीं हो ! हमरे लइका के अल्हरै जिनगी लेवइयां हौ तू औ हम चुप रहीं ?’
‘तू घरे में ओलरी रही तो काहे को आ गयी हमार कपार खाए बदे !’
‘तोके झंउसै बदे आई हैं औ काहे बदे’, खरपतिया ने दांत पीसते हुए कहा, ‘नेतवा के हरक दा कि अब हमरे दुआरे न आवै।’
‘नेताजी का कहल अबहीं तोहरे भेजे में नाहीं घुसत है न, जौन दिन हम खाट पकड़िहैं तौन दिन तोहरे समझ में आई। बंक में दू-चार लाख जमा है न, ऊहै निकास-विकास खइहो सभें।’
‘हमार जांगर कउने दिन बदे है, हम आपन बाल-बच्चा नाहीं पोस सकत हैं ?’
‘जौन जंगरैतिन है तू, हम जानत नाहीं है का ! तोहरे नीयर मेहरारू सहर में ईंट-गारा कय के सत्तर रुपया रोज कमात हैं। साल में दू बेर लवाई किए से काम चलेगा ?’
‘ए उमिर में हरे में नधाईं का ?’
‘एही बदे हम कहत हैं कि कलुआ का काम पर जाए दे। कुछ कमाए लगेगा तो हम बुढ़वा-बुढ़िया के जिनगी आसान हो जाएगी।’
‘अकेल लइका है मोर। तीन गो तऽ भगवान उठाई लिहेन। अब सोहू के आंख के आड़ करै बदे कइसे करेजे पर पत्थर रख लें कलुआ बाबू, कइसे...।’ खरपतिया का गला रुंध गया।
नेतवा सच कहत रहा कि तिरिया-चरित्तर के आगे मरद परबस होय जात हैं। जब कलुआ के बात छेड़त हैं तो ई मेहरारू बुलुक-बुलुक रोए लागत है। आपन तो आपन, हमरो जान सकेते में डाल देत है। का कहें, का सुनें। जौन कहे के सोचे रहत हैं तौन कुल बिसर जात है। एकर आंस देख के मन थोर होय जात है। मन के पंछी फुर्र होय के कहूं दुबक जात है। दुखरन ने सोचा।
‘आजू भर के पिसान है कि लियावै के पड़ेगा।’ दुखरन ने बात बदल देना ही उचित समझा।
‘काम चलै भर के है।’ खरपतिया ने आंचल के कोर से आंखें साफ कीं।
‘एकर मतलब ई कि कल रेकसा निकासब जरूरी है।’
‘न मन करै तऽ रहै दीहा, कल के काम तऽ मांग-जांच के चली जाई।’
‘आज जरहस बुझात है।’
‘दस रुपया रखे हैं, जाके चमरहां से दवाई ले ला।’
‘ई देखो, एक जने हिलई में छपकोरिया खेल के आवत हैं।’ कलुआ को देखकर कहा दुखरन ने, ‘कहां लोटे है रे तैं हिलई में ?’
‘पंच पेड़वा के पोखरी में मछरी मरत रही बाबू, हमहूं कूद गए।’
‘कै मछरी मारे है ?’
‘ई देखो बाबू।’ कहते हुए कलुआ ने अपनी भगई का फेंटा खोल दिया तो दस-बारह सिधरियां जमीन पर गिर पड़ीं।
‘इहै दस-बारह सिधरी पाए है।’ दुखरन को हँसी आ गयी, ‘अच्छा जाव, पंडित के मशीन चल रही है, खूब मल-मल के नहाय आव। सरसो के झोल लगा दिहिन जाई तो एतनी टेम के बोरन के काम तऽ चलिए जाई।’
कलुआ लंगड़गुदिया खेलते हुए पंडित के पंपसेट की तरफ चला गया। खरपतिया ने सिधरी बटोकर अल्यूमीनियम की एक पुरानीखोरी में रख दी। खोरी कई जगह से पिचक कर अपना मूल आकार खो चुकी थी।
‘आलू-पियाज के झोल से आज जान बचाय दिहेस कलुआ।’ दुखरन ने मुस्कराते हुए कहा।
‘हां, जीव उबियाय गया रहा आलू-पियाज के झोल खात-खात।’
‘देख खरपतिया, बात-बात में तोर रोअब-धोअब नीक नाहीं लागत। तैं रोअत है तऽ हमार करेजा चिथरा होय जात है।’
‘मतारी से ओकर बेटवा छिनाई तऽ रोअबै करी।’
‘सेमरी के एक्कै लइका है न। अहमदाबाद के मिल में खटत है। साल-दू साल पर घरे आवत है। सेमरियो तऽ केहू के मतारियै है न। कमाई बदे करेजे पर पत्थर रखे रहत है। कमाई आय रही है तब्बै न कट रहा है ओके बुढ़ापा।’
‘पट्ठा हो के गया अहमदाबाद कि लइकाइए में चला गया, जइसे कि हमरे कलुआ के भेजत हौ।’
‘ओके अहमदाबाद जाए के रहा तो पट्ठा हो के गया, कलुआ के बनारसै न रहे के है। एक तरह से समझो तो आंख के सामने ही रहेगा।’
‘ढाबे में खटा के लइकन के लीद बहरिया देत हैं। जूठ-कांठ खिया के राखत हैं। दिन-रात जूठ बरतन धोआवत हैं। लतियावत हैं उप्पर से। अइसे कमाई से का फायदा जौने से मोर लड़का न गत कऽ खाय सकै, न पहिर सकै। कहीं कुछ होय-हवाय गयल तऽ बुढ़ौती खराब होय जाई हम लोगन के।’
‘नेताजी कहत हैं कि ढाबा वाला ओनकर रिस्तेदार है। घर के लइका नीयर रक्खेगा। नेताजी ऊहां आवत-जात हैं। कलुआ ओनके निगाह के सामने रहेगा। हाल-चाल लेते रहेंगे। कलुआ के मन नाहीं बइठी तऽ दूसरे जगह लगाय दीहें। नोकरी के कउनो कमी नाहीं है।’
लेकिन कलुआ की माई इस नौकरी के सख्त खिलाफ थीं। ‘आग लगाय देव जर जाय अइसी नोकरी। अबहीं बारहो नाहीं पूरा किहेस मोर बेटवा। खेलै-खाए के उमिर है कि खटनी के उमिर है। जब लइकइयैं में रिग्घी टूट जाइ तऽ का बढ़ी मोटाई। नान्ह-नान्ह हाथ-गोड़, पोढ़ाए के पहिलहीं सुखा के लकड़ी होय जाई। ‘हम नाहीं भेजब आपन लइका।’’
‘‘तू नाहकै हठ फाने है खरपतिया। कलुआ कौनो कलकत्ता, बंबई तऽ जाय नहीं रहा है कि हमरे आंखी से अलोपित होय जाएगा। अपनै सहर में न रहेगा, जब मन करेगा, जाके भेंटभांट कर आएंगे। हाल चाल ले आएंगे....।’’
‘हाथ-पैर पोढ़ाए के पहिलहीं...।’
‘काम करत के जौन देह पोढ़ात है ऊ ठोस होत है रे ! बइठे-बइठे पोढ़ाए वाली देह पुलपुली होय जात है। पेट भर खा के खेते में रख आवै के अलावा कौनो काम है ओकरे पल्ले !’’
‘तऽ का करी कलुआ, झूठैं पानी पीटी ? ओकर समौरिया कवन लइका खटत हैं गांव में ! केकर लइका हैं फरसा-कुदाल चलावत ? केकर लइका हैं हांड़-कोन करत ? केकर लइका है पहाड़ खोदत ? बतावा हम्मै ?’
‘देख खरपतिया, दूसरे के सेन्हुर देख के आपन लिलार नाहीं फोरे के। आउर लोग के तो बहरी कमाई आय रही है। दो जून की रोटी जुट रही है। तन पर कपड़ा जुट रहा है। लइके पढ़-लिख रहे हैं। जिसकी समाई है, वही न पढ़ाएगा-लिखाएगा अपने बाल-बच्चन के। कलुआ के पढ़ावे-लिखावे की समाई है हमारे पास ? बड़े भये पर ऊहो तो वही करेगा न जो हम कय रहे हैं; रेकसा खींचेगा, सगड़ी चलाएगा, ईंट-गारा करेगा....यही करेगा न ! हमके देख, खेलत-कूदत जवान भये। रेखौ नाहीं भीन पाई रही कि तू आ गयी। तोहरे आए के तीन साल बाद से रेकसा खींच रहे हैं। कब बुढ़ापा आय गया, पता चला कुछ ?
तोहके घुमाय-फिराय सके कहूं ? एकाध बेर सहर-बनारस ले जाय के गंगा नहवा दिया, सुलेमा देखा दिया, दुर्गा जी के दरसन करा दिया...यही न ! एके घुमाइब-फिराइब कहत हैं ! जब ले कलकत्ता, बंबई न घूम ले मनई, तब ले घूमब-फिरब के मतलब का भया ? तू लवाई-बिनाई, पुरवट-घर्रा, दौनी-मिजनी करत-करत बुढ़ा गयी, हम रेकसा खींचत-खींचत बुढ़ा गए। जिनगी के कौनो सुख देखा ? तू चाहत है कि कलुआ के साथ इहैं होय ? अरे, ऊहां भर पेट खाय के मिलेगा तो जल्दी से फूट जाएगा। पुरहर मरद हो जाएगा। चार पइसा हाथ में रहेगा तो ओकी मउगियो सुख करेगी। गत के धोती-लुग्गा, तेल-साबुन, सेन्हुर-टिकुली जो जुटा पाएगा न ! अब हमरे पल्ले एतना पौरुख नाहीं रह गया है खरपतिया के रातोदिन रेकसा खींची। कलुआ कमाए लागी तो हमहूं गाहे-बगाहे आराम कय सकित हैं। घड़ी-दू-घड़ी तोहरे लग्गे बइठ के दुखा-सुखा बतियाय सकित हैं। थक-थका के आए, दूर कवर खा के पर रहे। बिहान भये फिर वही फिकिर...।’
‘हमरे कलुआ के अबहीं रेखौ नाही भीनी। चउदह-पनरह के रहा होत तबौ गनीमत रही। अबहिएं खटाए से तऽ कौनो ओर के नाहीं रही हमार...।’
खरपतिया का गला रुंध गया। वह आगे नहीं बोल सकी। खूंटे से बंधी बकरी का मेमना चपर-चपर दूध पी रहा था अपनी मां का। जब छिम्मी का दूध खत्म हो जाता तो थन में सिर से खोभता। फिर दूध उतर आता तो फिर वही चपर...चपर...चपर...। खरपतिया को लगा कि वह कलुआ को गोद में लेकर अपना दूध पिला रही है। कलुआ अपने दाएं हाथ से उसके स्तन से खेल रहा है और बायां स्तन मुंह में लिए दूध सुटकता जा रहा है...। खरपतिया की आंखों से आंसू ढरकने लगे। उसने आंचल से आंसू पोंछे। मन कहीं और लगाने का प्रयास करने लगी, ताकि आंखें पानी बरसाना बंद कर दें। लेकिन आंसुओं की वर्षा थमने का नाम नहीं ले रही थी। वह दुखरन के पास से उठी और घर में जाकर खाट पर ओलर गयी।
दुखरन खरपतिया की दशा देखकर चिंतत हो गये थे। उनका पहले वाला निर्णय ऊहापोह में फंस गया था। खरपतिया जो सोच रही है, वह सही है या मैं जो सोच रहा हूं वह। नन्हें-नन्हें और मुलायम हाथ-पांव वाला कलुआ संभाल पाएगा काम का इतना बोझ ? उसे मुंह अंधेरे उठ जाना पड़ेगा और दो-तीन बजे रात तक खटना पड़ेगा। काम उन्नीस, हुआ तो मालिक की पिटाई अलग से। बात-बात पर डांट-फटकार, गाली गलौज...। यह सब कैसे सहेगा नन्हें कलुआ का भोला-भाला मन ! एक खांचा बर्तन मांस सकता है कलुआ ?
‘किस चिंता में पड़े हो दुखरन ?’
‘कौनो चिंता नाहीं है नेता जी, काहे की चिंता करेंगे।’
नेता जी उसी खाट पर बैठ गये, जिस पर दुखरन बैठे थे। फर्क इतना पड़ा कि नेता जी मुड़तारी बैठ गये और दुखरन सरक कर गोड़तारी आ गए।
‘इस साल तो लग रहा है सूखा पड़ जाएगा दुखरन।’
‘हां नेताजी, लच्छन तो कुछ अइसा ही बुझाय रहा है।’
‘आज रेकसा निकाल रहे कि नहीं ?’
‘नाहीं नेता जी, आज तो नाहीं निकास पावा।’
‘क्यों ?’
‘अब रचे-रचे पौरुख थका जाय रहा है। आज असकतिया गए।’
‘इसीलिए तो कह रहा हूं कि कलुआ को काम पर लगा दो। कुछ कमाने लगेगा तो तुम्हें भी राहत मिलेगी। इस बात की चिंता तो नहीं रहेगी कि रेकसा नहीं निकालोगे तो चूल्हा नहीं जलेगा।’
‘हम तो तइयार हैं नेता जी, बाकि कलुआ के माई छान-पगहा तोड़ावत है। ढेर कोरहर बोल दे रहे हैं तो आंस टपकावै लागत है।’
‘कलुआ तुम्हारे पेशाब से नहीं पैदा हुआ है क्या दुखरन ?’
‘ई कइसन बात करत हो नेता जी।’ दुखरन हंसने लगे।
‘और क्या, लग तो यही रहा है कि कलुआ को तुमने नहीं, किसी और ने पैदा किया है। अरे, जब तुम्हारा लड़का है, तुम्हारे पेशाब से पैदा हुआ है तो उसकी माई कौन होती है टांग अंड़ाने वाली। तुमने जो कहा, वह फाइनल। दुखरन, तुम तिरिया-चित्र नहीं जानते हो। औरतें जब अपनी नहीं चला पातीं तो लगती हैं आंसू टपकाने। दो बूंद आंसू चुआ नहीं कि मरद का दिल पसीजा नहीं। इसी को कहते हैं तिरिया-चरित्र। वेद-पुरान तक में बखान है तिरिया-चरित्र का। बुरा मत मानना दुखरन, जब मरद ढलान पर होता है न तो मेहर और हावी हो जाती है। इधर मामला खलास हो जाता है और उधर...।’ कहकर हंसने लगे नेताजी तो दुखरन को भी हंसी आ गयी।
‘अइसी कौनो बात नाहीं है नेता जी, एक-दू-दिन में मान जाएगी खरपतिया। दुखरन ने अपनी हंसी रोकते हुए कहा, ‘नौ महीना पेट में रक्खे है, एतना दिन पाले-पोसे है तो मोह तो लगबै करेगा न भाई। मतारी के करेजा बहुत नरम होत है।’
‘एक बात कह रहा हूं दुखरन, उसे अपनी जिंदगी का उसूल बना लो। नेक काम में कभी देर नहीं करनी चाहिए। और जब लड़के की नौकरी की बात आए तब तो बिल्कुल ही देर नहीं करनी चाहिए। चट मंगनी पट ब्याह वाला हिसाब रखना चाहिए। भाई, तुम तो देख ही रहे हो कि कितनी बेरोजगारी है अपने देश में। तमाम पढ़े-लिखे लोग टक्कर खा रहे हैं। एक-दो जगह निकल रही हैं तो हजारों लोग आवेदन कर रहे हैं। जो जगह कलुआ के लिए मैंने रोक रखी है, वह भर गयी तो ! अरे कोई मालिक ज्यादा-से-ज्यादा एक-दो दिन मेरी प्रतीक्षा करेगा। कहे सुने से एकाध दिन डेट और सरका देगा, लेकिन महीने पर थोड़े इंतजार करेगा। कोई दूसरे के लिए अपने काम का हरजा क्यों करेगा दुखरन, तुम्हीं सोचो। करेगा हरजा ?
‘नाहीं नेताजी, काहे को हरजा करेगा।’
‘अरे भाई असलियत यह है कि वहां हजारों की लाइन लगी है। बड़े-बड़े मिनिस्टरों के फोन आ रहे हैं—‘भाई मेरा आदमी रख लो...मेरा आदमी रख लो। लेकिन वह आदमी मेरा इतना मुरीद है कि डंके की चोट पर कहता है, ‘‘आदमी रखेंगे तो हरसू का ही रखेंगे। मिनिस्टर-विनिस्टर हमारे ठेंगे पर। हमारे घर रोटी पहुंचाएंगे ? मिनिस्टर होंगे तो अपने घर के। हम नहीं डरते किसी से...।’
‘तब तो बहुत जीवट के मनई है ऊ नेताजी।’
‘हां, भाई, लेकिन उसके जीवन की भी तो सीमा है न। आखिर कब तक दुतकारता रहेगा वह ऐसे धाकड़ लोगों को। चूंकि कलुआ घर का लड़का है इसलिए मैं चाहता हूं, उसी की नौकरी लगे। दुखरन, ऐसे मालिक बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। मान लो कलुआ की नौकरी कहीं और लग गयी लेकिन उसे ऐसा दिलेर मालिक नहीं मिला तो ? तो कलुआ की जिनगी नरक बन जाएगी कि नहीं ? तुम्हीं सोचो। उसके यहां कलुआ तो सुरक्षित रहेगा ही, आप लोग भी सुरक्षित रहेंगे। कोई माई का लाल आप लोगों की ओर आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं करेगा। जो आदमी मिनिस्टर को कुछ नहीं समझ रहा है, वह किसी ऐरा-गैरा को क्या समझेगा ? आंय ? कुछ समझेगा ?’
‘नाहीं नेताजी, ऊ भला का समझेगा।’
‘इसीलिए कह रहे हैं कि भउजी को समझाओ। न मानें तो तुम कलुआ को उनकी चोरी से मेरे यहां पहुंचा दो। जिस हालत में हो, उसी हालत में। कपड़े-लत्ते की फिकिर मत करो। नौकरी पर ही बन जाएगा। जैसे सब नौकरों को लिए बना वैसे ही उसके लिए भी बन जाएगा। छः महीने बाद देखना कि कैसे एक मुट्ठी मांस चढ़ जाता है कलुआ पर ! खाने-पीने की सलकल न बैठने से जरा भी नहीं उसुक रहा है वह। वहां दोनों मीटिंग चाप के खाएगा। सुबह-शाम नाश्ता करेगा। तब न देह धरेगा। भक से फूट के जवान हो जाएगा। भगवान के घर से तो वह दोहरी बदन पाया है, पर गत का रातिम न मिलने से एकततहा लगता है। गलत कह रहे हैं ?’
‘नाहीं नेता जी, गलत का है।’
‘चपक के भोजन मिला होता तो एक मुट्ठा और ऊपर गया होता न कलुआ।’
‘काहे न गया होता, ढेर हो गया होता।’
‘अरे फेंकन के रामबिरछा को काहे न देखते हो, कलुआ का ही समौरिया है न। कैसी पेटी फेंक दिया है। कलुआ से सवाया तो होगा ही। खाए-पीए का बढ़िया जुगाड़ है तभी न। आंय ?’
‘हां, आउर का ! खाए-पीए की जुगाड़ है तबै न...!’
‘अब सौ का सीधा यह बताओ दुखरन कि हमारी बात तुम्हारे जेहन में घुसी कि नहीं घुसी।’
‘खूब घुसी, मजे में घुसी। भला ई कइसे होय सकत है कि नाहीं घुसी होय !’
‘घुसी है तो कल बिहने उसे लेके आ जाओ मेरे यहां।’ कहते हुए नेता जी उठे, ‘तो पक्का रहा न !’
‘हां नेताजी, पक्का रहा। आज रात भरे में ई मरलहा निपटाय दे रहे हैं।’
नेताजी के जाते ही खरपतिया घर में से निकली और दुखरन के खाट के पास बोरा बिछा कर बैठ गय़ी। दुखरन की हिम्मत नहीं पड़ रही थी खरपतिया की ओर देखने की। सिर झुकाए बैठे रहे। वे अपराधबोध से ग्रस्त थे क्योंकि कलुआ को काम पर भेजने का वचन नेताजी को दुबारा दे चुके थे। दुखरन को आभास हो गया था कि नेताजी और उनके बीच हुई बातचीत खरपतिया के कानों तक पहुंच चुकी है। उनके भीतर यह भय भी फन उठाए था कि किसी भी समय बिफर सकती है खरपतिया। और अंततः इस भय ने उन्हें डंस ही लिया जब गुस्से से भरी खरपिताय बिफर पड़ी—
‘ई नेतवा अलानाहकै काहे को हमारे दरगहें पड़ा है ? दू रोटी चैन से खाए में भी खलल डाले है सरबउला। एके बाई चढ़ै। ओकरे आंखीं में काहे खटकत है हमार कलुआ ? तू काहे को डरत हौ ओसे ? काहे नाहीं साफ-साफ बता देत हौ कि हमार कलुआ नाहीं जाई नोकरी पर...।
‘अब बस भी करबी !’ दुखरन झुंझलाए।
‘चुप काहे रहीं ! काहे चुप रहीं हो ! हमरे लइका के अल्हरै जिनगी लेवइयां हौ तू औ हम चुप रहीं ?’
‘तू घरे में ओलरी रही तो काहे को आ गयी हमार कपार खाए बदे !’
‘तोके झंउसै बदे आई हैं औ काहे बदे’, खरपतिया ने दांत पीसते हुए कहा, ‘नेतवा के हरक दा कि अब हमरे दुआरे न आवै।’
‘नेताजी का कहल अबहीं तोहरे भेजे में नाहीं घुसत है न, जौन दिन हम खाट पकड़िहैं तौन दिन तोहरे समझ में आई। बंक में दू-चार लाख जमा है न, ऊहै निकास-विकास खइहो सभें।’
‘हमार जांगर कउने दिन बदे है, हम आपन बाल-बच्चा नाहीं पोस सकत हैं ?’
‘जौन जंगरैतिन है तू, हम जानत नाहीं है का ! तोहरे नीयर मेहरारू सहर में ईंट-गारा कय के सत्तर रुपया रोज कमात हैं। साल में दू बेर लवाई किए से काम चलेगा ?’
‘ए उमिर में हरे में नधाईं का ?’
‘एही बदे हम कहत हैं कि कलुआ का काम पर जाए दे। कुछ कमाए लगेगा तो हम बुढ़वा-बुढ़िया के जिनगी आसान हो जाएगी।’
‘अकेल लइका है मोर। तीन गो तऽ भगवान उठाई लिहेन। अब सोहू के आंख के आड़ करै बदे कइसे करेजे पर पत्थर रख लें कलुआ बाबू, कइसे...।’ खरपतिया का गला रुंध गया।
नेतवा सच कहत रहा कि तिरिया-चरित्तर के आगे मरद परबस होय जात हैं। जब कलुआ के बात छेड़त हैं तो ई मेहरारू बुलुक-बुलुक रोए लागत है। आपन तो आपन, हमरो जान सकेते में डाल देत है। का कहें, का सुनें। जौन कहे के सोचे रहत हैं तौन कुल बिसर जात है। एकर आंस देख के मन थोर होय जात है। मन के पंछी फुर्र होय के कहूं दुबक जात है। दुखरन ने सोचा।
‘आजू भर के पिसान है कि लियावै के पड़ेगा।’ दुखरन ने बात बदल देना ही उचित समझा।
‘काम चलै भर के है।’ खरपतिया ने आंचल के कोर से आंखें साफ कीं।
‘एकर मतलब ई कि कल रेकसा निकासब जरूरी है।’
‘न मन करै तऽ रहै दीहा, कल के काम तऽ मांग-जांच के चली जाई।’
‘आज जरहस बुझात है।’
‘दस रुपया रखे हैं, जाके चमरहां से दवाई ले ला।’
‘ई देखो, एक जने हिलई में छपकोरिया खेल के आवत हैं।’ कलुआ को देखकर कहा दुखरन ने, ‘कहां लोटे है रे तैं हिलई में ?’
‘पंच पेड़वा के पोखरी में मछरी मरत रही बाबू, हमहूं कूद गए।’
‘कै मछरी मारे है ?’
‘ई देखो बाबू।’ कहते हुए कलुआ ने अपनी भगई का फेंटा खोल दिया तो दस-बारह सिधरियां जमीन पर गिर पड़ीं।
‘इहै दस-बारह सिधरी पाए है।’ दुखरन को हँसी आ गयी, ‘अच्छा जाव, पंडित के मशीन चल रही है, खूब मल-मल के नहाय आव। सरसो के झोल लगा दिहिन जाई तो एतनी टेम के बोरन के काम तऽ चलिए जाई।’
कलुआ लंगड़गुदिया खेलते हुए पंडित के पंपसेट की तरफ चला गया। खरपतिया ने सिधरी बटोकर अल्यूमीनियम की एक पुरानीखोरी में रख दी। खोरी कई जगह से पिचक कर अपना मूल आकार खो चुकी थी।
‘आलू-पियाज के झोल से आज जान बचाय दिहेस कलुआ।’ दुखरन ने मुस्कराते हुए कहा।
‘हां, जीव उबियाय गया रहा आलू-पियाज के झोल खात-खात।’
‘देख खरपतिया, बात-बात में तोर रोअब-धोअब नीक नाहीं लागत। तैं रोअत है तऽ हमार करेजा चिथरा होय जात है।’
‘मतारी से ओकर बेटवा छिनाई तऽ रोअबै करी।’
‘सेमरी के एक्कै लइका है न। अहमदाबाद के मिल में खटत है। साल-दू साल पर घरे आवत है। सेमरियो तऽ केहू के मतारियै है न। कमाई बदे करेजे पर पत्थर रखे रहत है। कमाई आय रही है तब्बै न कट रहा है ओके बुढ़ापा।’
‘पट्ठा हो के गया अहमदाबाद कि लइकाइए में चला गया, जइसे कि हमरे कलुआ के भेजत हौ।’
‘ओके अहमदाबाद जाए के रहा तो पट्ठा हो के गया, कलुआ के बनारसै न रहे के है। एक तरह से समझो तो आंख के सामने ही रहेगा।’
‘ढाबे में खटा के लइकन के लीद बहरिया देत हैं। जूठ-कांठ खिया के राखत हैं। दिन-रात जूठ बरतन धोआवत हैं। लतियावत हैं उप्पर से। अइसे कमाई से का फायदा जौने से मोर लड़का न गत कऽ खाय सकै, न पहिर सकै। कहीं कुछ होय-हवाय गयल तऽ बुढ़ौती खराब होय जाई हम लोगन के।’
‘नेताजी कहत हैं कि ढाबा वाला ओनकर रिस्तेदार है। घर के लइका नीयर रक्खेगा। नेताजी ऊहां आवत-जात हैं। कलुआ ओनके निगाह के सामने रहेगा। हाल-चाल लेते रहेंगे। कलुआ के मन नाहीं बइठी तऽ दूसरे जगह लगाय दीहें। नोकरी के कउनो कमी नाहीं है।’
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