उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
|
2 पाठकों को प्रिय 349 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
चश्मा फिर पहन लिया। पढ़ा....
सौम्य !
सोचकर देखा शादी जैसी विलासिता हमारे जैसे गरीब घर की लड़की को शोभा नहीं देती है। इसीलिए क्षमा चाहती हूँ। मुझे माँ के साथ ही रहना होगा। यही मेरी भाग्यलिपि है। लेकिन हाँ भवेशभवन के ट्रस्टीगण अगर मुझे भी उदय की तरह ज़रा सा आश्रय प्रदान करें तो परिस्थिति सहनीय हो सकती है। तुम क्या ज़रा-सी कोशिश कर दोगे?
प्रवासजीवन ने चिट्ठी तह की, लिफ़ाफ़े में रखी। चश्मा उतारकर हाथ में लिया। कुछ बोले नहीं।
सौम्य ने अस्थिरतापूर्वक कमरे में कई चक्कर लगाने के बाद कहा, "मैं शायद कुछ दिनों के लिए बाहर कहीं चला जाऊँ। उससे पहले ही मैं तुम्हारा इन्तज़ाम ककर सकूँगा।''
प्रवासजीवन ने हाथ हिलाकर धीरे से कहा, “ज़रूरत नहीं है।"
“ज़रूरत नहीं है?"
"नहीं।” प्रवासजीवन बोले, “मैं अब देख रहा हूँ मैंने यह एक निरर्थक ज़िद की थी। दरअसल हमारी दृष्टि हर समय स्वच्छ नहीं रहती है। अपने चारों ओर एक घेरा बनाकर हम अपने को उसी में कैद कर लेते हैं ; और फिर अपना ही दुःख, अपनी वेदना, अपनी समस्या, अपनी असुविधा, इन्हें बहुत भारी, बहुत बड़ा समझने लग जाते हैं और सोचते हैं कि हमसे ज़्यादा बुरा हाल और किसी का नहीं होगा। हमसे बड़ा दुःखी इन्सान दुनियाँ में है ही नहीं। जब नज़र साफ़ कर आँखें उठाकर देखता हूँ तो पाता हूँ दुनियाँ में कितनी तरह की समस्याएँ हैं। शायद हर आदमी दुःखी है। अपने को महान् समझकर दूसरे को दुःखी करते हैं हम। अपने को असहाय जताकर दूसरे को मिटा डालते हैं हम। तुझे मेरी चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। मैं अच्छी तरह से हूँ।"
"हमेशा 'अच्छी तरह' से रह सकोगे?'
प्रवासजीवन बोले, “अगर निराशा के हाथों आत्मसमर्पण न करके विश्वास करना शुरू करूँ तो ज़रूर अच्छी तरह हूँ और रहूँगा भी।"
पल भर के लिए रुके प्रवासजीवन।।
चुपचाप बैठे बेटे की ओर देखकर बोले, “दोनों आँखें अगर खुली रखकर चारों ओर देखा जाये तो अपने दुःख, अपने स्वार्थ को बड़ा बनाकर सोचने के लिए शर्म-सी आती है।"
इस समय सौम्य अत्यन्त विचलित हो रहा था। वह केवल अपनी बात ही नहीं सोच रहा था। सोच रहा था परिवार के हर किसी के आशा भंग होने की बात को। शर्म से वह खुद गड़ा जा रहा था।
इतना विचलित था तभी सौम्य कह बैठा, “तुम सोच सकते हो पिताजी, एक लड़की का जीवन नष्ट हो गया- उसकी माँ के स्वार्थीपन और निष्ठुरता के कारण।"
प्रवासजीवन बोले, “सोचकर कष्ट होता है। और यह भी जानता हूँ सबसे बड़ा धक्का इन्सान खाता है बिल्कुल निकट के, अपने आदमी से। दूसरों की निष्ठुरता, स्वार्थबुद्धि गुस्सा दिलाती है, आक्रोश भर देती है मन में। लेकिन अपने ही क्षति पहुँचाते हैं, घाव को गहरा करते हैं।"
फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, “पहले मैं इतना नहीं सोचता था। अब लगातार अपने अन्दर झाँककर देखा करता हूँ तो पाता हूँ कि ढेर सारे सवालों के जवाब अपने आप मिलते जा रहे हैं।"
|