उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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लेकिन यही था क्या मिंटू का प्रेम-पत्र?
किंशुक के शब्दों में निराश प्रेमी के हृदय के उद्गार?
इसी के लिए मिंटू का सारा शरीर थरथरा कर काँप उठा था? क्या इसी डर से अधमरी हुई जा रही थी कि पत्र पढ़ने के बाद वह किंशुक के साथ स्वाभाविक ढंग से बातचीत कैसे कर सकेगी?
कुछ मिनट बीत गये। लिफ़ाफ़ा हाथ में लिये बैठी रही। खोल न सकी।
उसके बाद ही लगा किंशुक ने आकर देखा कि अभी भी चिट्ठी खोलकर पड़ी नहीं है, पत्थर-सी बैठी है तो क्या सोचेगा?
किन्तु नहीं। लज्जित होने जैसी कोई बात नहीं लिखी थी अरुण ने।
किंशुक काफ़ी देर बाद वापस लौटा। स्नानगृह से ही पूरे कपड़े पहनकर निकला था।
मिंटू ने हाथ की चिट्ठी उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, “ये लो पढ़ो निराश प्रेमी के हृदयोद्गार।"
किंशुक दो क़दम पीछे हट गया। डरा। कहीं मिंटू ने उसके किये मज़ाक को सच मानकर युद्ध तो नहीं छेड़ दिया? बोला, “सर्वनाश ! मैं क्यों पहूँ?'
“पढ़ो न ! इससे कुछ होगा नहीं।”
"नहीं-नहीं। पागलपन मत करो।"
“पागलपन नहीं। सचमुच तुमसे पढ़ने को कह रही हूँ। क्योंकि इसका उत्तर देने के लिए तुमसे परामर्श करना होगा।"
किंशुक मन ही मन काँप उठा।
हे भगवान् ! क्या उस आदमी ने परेशान होकर मिंटू को डायवोर्स करने की सलाह दी है? इसीलिए किंशुक के केयर में बेझिझक चिट्ठी भेज सका था?
“नहीं। दूसरों की चिट्ठी पढ़नी नहीं चाहिए।"
“पढ़ते तो, कोई हर्ज न होता।” कहकर मिंटू चिट्ठी वहीं छोड़कर उठ गयी। हालाँकि किंशुक ने इस मौके का फ़ायदा नहीं उठाया।
परन्तु अगर पढ़ता तो यही पढ़ता -
"मिंटू,
दुहाई है। अपना हुक्म वापस लौटा लो। बड़ा आदमी माने अमीर बनना मेरे वश का नहीं। तुमने हुक्म दिया था, ईमानदारी से या बेईमानी से, जिस तरह से बनें, मुझे अमीर बनना ही होगा। अपने पड़ोस के ताऊ और ताईजी को उनके घमण्ड का मुँहतोड़ उत्तर देना ही पड़ेगा।'
"लेकिन क्या करूँ बताओ, तुमरा अरुणदा सचमुच ही एक निकम्मा इन्सान है। किसी तरह की क्षमता नहीं है उसमें।
"इससे फ़ायदा ही क्या होगा? अब अगर मैं बड़ा भारी अमीर आदमी बन भी गया तो मेरा फ़ायदा क्या होगा? यही न, कि जिन्हें मैं जीवन भर अपना गुरुजन मानता आया था उनको नीचा दिखा लूँगा? दो बूढ़े-बूढ़ी के किये का फल देने का कोई अर्थ होता है? दुत्।
“सोचो ज़रा, बचपना नहीं तो ये और क्या है?
“मैं लाज-शर्म भुलाकर यथा स्थान लौट आया हूँ। पहले की तरह डेलीपैसेन्जरी कर रहा हूँ क्योंकि माँ की तबियत अब ठीक नहीं रहती है। अकेला छोड़ा नहीं जा सकता है। नाटू की माँ याद है न? वही आकर खाना-बाना बनाकर रख जाती है और जो कुछ बाकी रहता है उसे मैं किसी तरह से कर लेता हूँ।
“अब महसूस कर रहा हूँ कि जो कुछ हुआ है अच्छा ही हुआ है। तुम्हारा भाग्य तुम्हें राजरानी बनाकर ही मानेगा। ज़बरदस्ती इसके विपरीत कुछ करने चलते तो जानती हो क्या होता? काम करते-करते रंग काला पड़ गया होता और देखते ही देखते अरुण नामक निकम्मे अभागे की ज़िन्दगी मिट्टी में मिल गयी होती।
आशा करता हूँ खूब अच्छी तरह से होगे। अच्छी तरह से ही रहना। पति सहित मेरी शुभकामना ग्रहण करना। इति
- अरुणदा"
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