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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

गाढ़े स्वरों में प्रवासजीवन बोले, “तू और तुझ जैसे लड़के 'अधिकार' पर बहुत विचार-विमर्श किया करते हैं। यहाँ तक कि अफ्रीका में क्या हो रहा है इस पर भी सोचा करते हैं। अच्छा, ज़रा यह तो बता किस अधिकार से वंचित होने पर इन्सान को सबसे अधिक कष्ट होता है?"

सौम्य बोला, “मैं ठीक से समझा नहीं, तुम किस पॉइण्ट पर बात कर रहे हो?"

“समझेगा भी नहीं। मेरे विचार में सबसे अधिक दुःखदायी होता है किसी के प्रति स्नेह प्रकट करने का अधिकार खो देना, न्याय-अन्याय की बात न कह सकने का अधिकार खो देना।"

सौम्य पलँग के कोने पर बैठ गया। पिता के चेहरे की ओर देखते हुए बोला, "इस खोने का कारण है निरर्थक भय।"

प्रवासजीवन की इच्छा हुई, बिस्तर पर रखे सौम्य के हाथ पर पल भर के लिए अपना हाथ रखें। किन्तु अभ्यस्त न होने के कारण ऐसा न कर सके। यह भी हो सकता है केवल अनभ्यस्त ही नहीं भयवश भी ऐसा न कर सके। शायद सौम्य यह सोच बैठे, 'जरा-सा प्रश्रय मिला नहीं कि हाथ ही पकड़ लिया।'

हाथ पर हाथ न रख सके। वही हाथ बिस्तर पर फेरते हुए बोले, “शायद तू ही ठीक कह रहा है। परन्तु भय पर विजय प्राप्त करना चाहूँगा तो पल भर में परिवेश बदल जायेगा। गृहस्थी का रूप ही बदल जायेगा। हो सकता है आग भड़क उठे।"

सौम्य हँसने लगा, “यह एक दूसरी तरह का भय है।"

प्रवासजीवन हताश होकर बोले, “जो जग हँसाई की परवाह नहीं करते हैं, उनके साथ बहुत सँभलकर चलना पड़ता है रे सौम्य?"

"हूँ"। सौम्य उठकर खड़ा हो गया। कमरे में चारों ओर गर्दन घुमाकर देखा। फिर बाहर चला गया।

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