लोगों की राय

उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

349 पाठक हैं

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

और जो लोग अभिभावक बनकर बच्चों पर रोब जमाते हैं? वास्तव में वे ही होते हैं इस पापचक्र के दलाल। वे लोग इन असहाय, अनाथ लड़के-लड़कियों को खाना, कपड़ा और पैसे देने का वायदा करके इनसे मेहनत-मजदूरी करवा लेते हैं और उनकी मुट्ठी से पैसे छीन लेते हैं। दो-चार पैसे आगे फेंककर भगा देते हैं।

लेकिन ये बच्चे कर भी क्या सकते हैं? जायें भी तो कहाँ जायें? भवेश इन्हीं के उद्धार का रास्ता ढूँढ़ने की योजना बना रहा है।

अर्थात् हाथ से हाथी धकेलने की चेष्टा कर रहा है। फिर भी इसी तरह एक न एक दिन काम होता है।

यह भी सम्भव है कि इस युग में न हो"कई युग लग जायें।

जिनके माँ-बाप हैं क्या ऐसे बाल श्रमिक नहीं हैं? हज़ारों की तादाद में हैं। उन्हें माँ-बाप ही काम में लगा देते हैं। पाँच साल के हुए नहीं कि वे अपने पेट भरने की कोशिश में जोत दिये जाते हैं। कुछ नहीं तो, छोटी-सी लड़की माँ के साथ घर-घर जाती है बर्तन मँजवाने माँ के काम में हाथ बँटाने से माँ दो घर का और काम पकड़ लेती है।

वे ही दिखाई पड़ते हैं हरिनघाटा दूध के बूथ पर। पाँच या चार ही साल का बच्चा एक हाथ में फटे हाफ पैंट का सामने का हिस्सा मुट्ठी से दबाये, दूसरे हाथ में लोहे के फ्रेम में कुछ दूध की बोतलें लिये लगभग ज़मीन से घसीटते हुए घर घर पहुंचा रहा है। हर बोतल के लिए कमीशन मिलता है। ये ही लड़के बड़े होते ही दो साल बाद चाय की दुकानों या छोटे-मोटे होटलों, मिठाई की दुकानों पर दिखाई पड़ेंगे।

ऐसे बच्चों के माँ-बाप में चेतना जगानी है।

दो तख्त एक साथ जोड़कर एक बड़ा-सा बैठने का प्रबन्ध किया गया है। दरवाजे के पास पहुँचते ही तख्त पर चढ़ जाना पड़ता है। पीछे की खिड़की खोलनी बन्द करनी हो तो भी तख्त पर ही चढ़ना पड़ता है। यद्यपि पहले कमरे की फ़र्श पर चटाई बिछाकर बैठने की व्यवस्था थी लेकिन न जाने कहाँ से चींटियों ने आना शुरू कर दिया। कभी तिलचिट्टे भी चढ़ने लगे शरीर पर।

तख्त पर कछ बिछा नहीं था। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। जो किसी तरह का ‘अच्छा काम' करते हैं वे इतने आरामप्रिय नहीं होते हैं। खासतौर से भवेश के सामने तो ऐसा सोच तक नहीं सकते हैं।

सौम्य के साथ ब्रतती भी थी। भवेश बोले, “मैं जानता हूँ। दूर को पास लाने का हुनर होना चाहिए सब में।"

ब्रतती बोल उठी, “हर जगह एक ही ढंग है, भवेशदा। बाप अगर हो भी तो वह न होने के बराबर है। या तो रोज़गार करने से नाराज़ बीवी की कमाई से खाता है बैठा बैठा, नहीं तो जो कमाता है उसे शराब में उड़ा देता है। फिर घर लौट कर बीवी-बच्चों की पिटाई करता है।"

कुछ क्षण रुककर वह फिर बोली, “नयी बात तो है नहीं, भवेशदा। युगों से दुनिया भर के दरिद्रों का यही इतिहास है। बेचारी औरतें जी-तोड़ मेहनत करती हैं, साथ ही बच्चे ज़रा बड़े हुए नहीं कि उन्हें काम में जोत देती हैं।”

वह ज़रा हँसी।

बोली, “षष्ठी माता की कृपा भी तो इन्हीं लोगों पर ज्यादा है। सुखी परिवार के गठन की शिक्षा देने जाइए वे आस-पास नहीं फटकेंगी।"

सौम्य बोल उठा, “रेल लाइन के किनारे उस बस्ती की महिला माने एक औरत ने क्या कहा था याद है ब्रतती?'

"क्या कहा था बता न भवेशदा को।"

"क्या बताऊँ? हँसी ही आती है।"

सिर हिलाकर ब्रतती बोली, उस औरत ने कहा, “आप लोगों के पास तो दीदी कितनी ताक़त है-धन, जन और मनोबल है। हमारी ताक़त, हमारा भरोसा, सब हैं ये बच्चे। वे ही हमारे जन-बल हैं।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai