उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
दिव्य की समझ में नहीं आया क्या जवाब दे। उसकी आँखों के सामने अब एक दूसरी तस्वीर उभर आयी। मौसेरी साली कंकना का अत्यन्त सुरुचिपूर्ण, सुन्दर ढंग से सुसज्जित फ़्लैट और उसमें विचरण कर रही, सर्वदा अपने को विकसित करने की कला में निपुण एक गृहिणी और उनके अनुगत पतिदेव। कहते हैं यह आदमी अपने दफ़्तर का सर्वेसर्वा है किन्तु घर में? अगर कंकना का कृतदास कहो तो अन्याय नहीं होगा। फिर भी कंकना ने ऐसा घर त्याग दिया। जाकर अपनी सहेली के साथ रह रही है।
मन-ही-मन दिव्य अपने को सचमुच ही गँवार समझने लगा। उसे बहुत दिनों बाद सहसा अपनी माँ की याद आयी। अच्छा, माँ हर समय इतनी प्रसन्न कैसे रहती थी? जब वह छोटा था तब किराये के मकान में रहता था। मकान बनाने के लिए बहुत सँभालकर खर्च किया जाता था। साधारण कपड़ों में ही दोनों भाई पढ़ने जाते थे। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते भी थे।
माँ खाना बनाती थी, घर के सारे काम भी वही करती थी। फिर भी हर समय प्रसन्न रहती थीं। जैसे ही वे दोनों स्कूल से लौटते माँ का चेहरा मानो खिल उठता। उसका प्रभाव उन पर भी पड़ता था। घर में घुसते ही पराँठे की सुगन्ध नाक में घुसती थी।
बेचारे काम काटाम ने वह पराँठे न चखे न उनकी सुगन्ध पायी। यद्यपि वे अपने इस नुकसान से अवगत भी नहीं हैं, शायद सुनेंगे तो कहेंगे, ऐ माँ। बाबाई, तुम कितने लालची थे? पराँठा भी क्या कोई अच्छी चीज़ है? कहकर हँसने लग पड़ते।
इससे पहले क्या कभी दिव्य ने बच्चों के नुकसान की बात सोची थी? कभी नहीं आज उसे लग रहा है बच्चों ने अपनी ज़िन्दगी में एक बहुत क़ीमती चीज़ का कभी स्वाद नहीं चखा।
परन्तु माँ क्या सुखी थी? इसीलिए इतनी खुश रहती थी? माँ क्या बुद्धू थी? अक्सर वह चैताली को कहते सुनता है जो बुद्धिमान होते हैं वे कभी 'आनन्द सागर' में गोते नहीं लगाया करते हैं ऐसा तो सिर्फ़ बुद्ध लोग ही करते हैं।
तब तो यह मान लेना होगा कि इस ज़माने में हर कोई बुद्धिमान हो गया है। क्योंकि अब किसी को 'आनन्द सागर' में गोते लगाते हुए कहाँ देख रहा है?
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