उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
झट लड़का उठ खड़ा हुआ। बोला, “पैसा?”
“अभी देने की ज़रूरत नहीं। बाद में देंगे। तू जाकर कह आ।"
लड़के के जाते ही ब्रतती कमरे में घुसी। अर्थात् चप्पल उतारकर तख्त पर चढ़ी।
सौम्य बोला, “चार बिस्कुट किसलिए? हमें भी खाना पड़ेगा क्या?”
"चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। वह अकेला ही खा जायेगा। बेचारा !"
“उसे पहचानती हो?'
"इस आताबागान बस्ती में कई बार जा चुकी हूँ। इसकी माँ निर्मला को कई बार समझा चुकी है कि लड़के को स्कूल में भर्ती कर दो। इसकी एक दस साल की दीदी है। कहूँगी तो शायद तुम विश्वास नहीं करोगे कि वह तीन घर का बर्तन माँजती है, कपड़े फींचती है। माँ कहती है कि ये काम नहीं करेगी तो पेट में दाना कहाँ से पड़ेगा। बाप हरामी तो जाँगर तक नहीं हिलाता है।"
उदय लौट आया। ब्रतती बोली, “आ, भीतर आ जा।"
"भीतर तो तुम लोगों का तख्त बिछा है। घुसने के लिए है कहीं जगह?'
"तख्त पर ही चढ़ आ।"
"क्यों? यहीं ठीक हूँ।"
“आहा, चाय आने पर पीएगा कि नहीं?"
“यहीं बैठकर पी लूँगा।”
"लेकिन यहाँ आने में हर्ज क्या है?"
"बड़े लोगों के साथ एक तख्त पर बैठूँगा? इत्ता करने की जरूरत नहीं। बोला है, अभी ला रहा है।”
सौम्य ने अंग्रेज़ी में टिप्पणी की, “लड़का अग्निकुण्ड है।”
“वैसा ही तो लग रहा है। माँ भी बहुत कुछ ऐसी ही है।"
चाय आयी। इन लोगों ने दो कुल्हड़ लिये और एक कुल्हड़ लड़के को चारों बिस्कुट के साथ दिया। चाय लानेवाले लड़के ने अवज्ञा-भरी दृष्टि से एक बार उदय को देखा फिर उसके सामने चाय-बिस्कुट रख चला गया।
देने भर की देर थी।
लगा, कौआ झपट्टा मारकर ले गया-पलक झपकते-न-झपकते सब कुछ पेट में समा गया।
ब्रतती बोली, “लगता है तुझे और भी भूख लगी है। यह ले, बाद में लाई-चना खरीदकर खा लेना।"
एक रुपया उसकी तरफ़ बढ़ा दिया।
परन्तु रुपया उसने चील की तरह झपटकर नहीं लिया बल्कि बड़े दार्शनिक भाव से मुस्कराते हुए बोला, “दान भिक्षा देकर क्या तुम मेरी सारी भूख मिटा सकोगी?"
चमत्कृत हुए दो पढ़े-लिखे विद्वान। लड़का बोला, “तुमसे एक बात कहनी है।"
"ओ माँ, यह बात है? लेकिन तूने कैसे जाना कि मैं यहाँ मिलूँगी?”
"जानता था।"
"तू तो आताबागान में रहता है।"
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