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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

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लेकिन उदय नामक लड़का क्या 'अच्छा घर', 'अच्छा खाना-पहनना' और 'घर के लडके की तरह' रहने का आश्वासन पाकर 'डैम ग्लैड' हो गया?

वह अनायास ही रूखे बालों के बोझ से भारी सिर को ज़ोर से हिलाकर बोल उठा. "न ! नहीं-नहीं। उदय नौकरगिरी के चक्कर में नहीं पड़ने वाला है। वह स्वाधीन ज़िन्दगी जीना चाहता है।"

ये उदय जैसे कोई दूसरा हो। गौतम बोला, “ओह ! स्वाधीन जीवन ! इधर तो चायवाले की ख़िदमत में जुटा हुआ है।"

उदय ने अवहेलना दर्शाते हुए कहा, “वह तो अपनी मर्जी से करता हूँ। बिना खटे पेट नहीं भरनेवाला। मैं काम कर देता हूँ, बदले में वह भात-दाल की थाली बढ़ा देता है। बस।”

गौतम के मन में आया इस ढीठ लड़के के गाल पर कसकर एक थप्पड़ जड़ दे। लेकिन गरज उसकी थी। बड़ी मुश्किल से मन में आयी बात पर अकुश लगाया।

बोला, “तो यहाँ भी तो यही करना है। मैं यह तो नहीं कह रहा हूँ तुझे बैठाकर खिलाऊँगा। मेरा थोड़ा-बहुत काम कर दिया करना और क्या?"

“नहीं। घरेलू नौकर माने ख़रीदा गुलाम। यहाँ मैं मज़े में हूँ। मुझे लेकर खींचा तानी मत करो। थोड़ा बड़ा होते ही मैं रिक्शेवाला बन जाऊँगा।"

“ओ ! क्या उच्चाकांक्षा है?"

अत्री अपना गुस्सा न रोक सकी क्योंकि यह तो जैसे सामने से परोसी थाली छिन गयी। उसे पक्का भरोसा था कि यह लड़का उसकी गृहस्थी की नाव का खेवनहार होगा। ऐसा होशियार चौकस लड़का कहीं आसानी से मिलता है? हाय अन्त में वही 'नाबालिग लड़की नौकरानी'। उसे घर में अकेली छोड़ जाओ तो कौन उसे सँभालेगा? कौन उसके गुणग्राहियों से उसे बचायेगा? लौंडा इतना ढीठ है?

अत्री क्रोध और क्षोभ से जर-जर होकर बोल उठी, “अगर हम चाहें तो तुझे इस घर से निकाल बाहर कर सकते हैं, जानता है?"

“जानूँगा क्यों नहीं? किराया तो देता नहीं हूँ जो मेरा जोर बनेगा।” "तब क्या करेगा? कहाँ रहेगा?"

सौम्य, ब्रतती तथा और दूसरे लोग गौतम और अत्री की इस छिछोरपन और नीचता से क्षुब्ध हुए।

सौम्य तो बोल भी उठा “अरे अत्री, यह सब क्या है? लेकिन तब तक अत्री के प्रश्न का उत्तर आ चुका था।

“कहाँ क्या रहूँगा? कह तो चुका हूँ कि किसी ने फुटपाथ तो नहीं छीन लिया है। कहो तो आज ही चला जाऊँ?'

सौम्य ने कहा, “ए, पागलपन मत कर ! इतनी अक्ल रखता है और ज़रा-सा मज़ाक नहीं समझता है? जा, भीतर जा।"

एकाएक सौम्य को लगा इन्सान स्वार्थवश कितना नीचे गिर सकता है।

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