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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

"क्या? डर लगता है? अमीर लोग क्या तुम्हें काटने आते हैं?

दिव्य हँसने लगा। बोला, “प्रत्यक्ष न सही, परोक्ष में। मन में मैं महसूस करता हूँ जैसे कोई काट रहा है।"

“जो दूसरों से ईर्ष्या करते हैं उन्हीं का ऐसा स्वभाव होता है। इसे ईर्ष्या की जतन कहते हैं।"

“अब चाहे तुम कुछ कहो। लेकिन मैं ऐसा नहीं सोचता हूँ। मुझे जाने कैसी उलझन-सी हुआ करती है। तुम्हारी तरह सहज ही में मुझसे भिड़ते नहीं बनता है। उनके वहाँ जाकर डॉनलोपिलो के सोफे में जब धंस जाओ तब समझ में नहीं आता है कि अपने हाथ-पाँव का क्या करें। बार-बार यही लगता है सब मुझे ही देख रहे हैं। मुझ पर हँस रहे हैं।”

“इसी का नाम है हीनता का बोध। तुम्हारे हावभाव से लगता है अमीर लोग अजीब चीज़ हैं। और जैसे अमीर बनना एक सामाजिक अपराध है। अमीर बनता है इन्सान अपनी कैपेसिटी से-समझे? जिनमें यह कैपेसिटी नहीं होती है वे ही धनी आदमी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं या फिर डरा करते हैं। एक आदमी ने एक तलाक़शुदा लड़की से शादी की, उसे महारानियों की तरह रखा है, यह बड़प्पन क्या कम प्रशंसनीय है? मन कितना उदार होगा तभी..."

मन ही मन दिव्य ने जो कुछ कहा उसे मन में ही दबाये रखना सुरक्षित समझ बोला, “बहुत ज्यादा प्रेम करने लगे होंगे, और क्या?'

"वह तो है ही। कंकनादी जैसी लड़की एक और दिखा सकते हो?' समानान्तर चल रहा था सोचना और बोलना।

(मैं तो गुण का एक क़तरा नहीं पाता हूँ उनमें। जितना जी चाहा मेकअप कर लिया, जी भर कर नखरा किया। हर वक्त सिगरेट पीते रहना अगर गुण समझती हो तो गुण ही होगा। मैं तो ऐसे गुण से घृणा करता हूँ।)।

“वह तो है ही, तुम्हारे जीजाजी बड़ा धोखा खा गये।"

“जीजाजी का दोबारा नाम मत लेना। एक नीच आदमी।”

(ऐसी बात है? कभी तो यही जीजाजी तम्हारे आदर्श पुरुष थे। शरीफ़ आदमी की पहचान के लिए इन्हीं जीजाजी का उदाहरण देती थीं।)

“हाँ, उन्होंने गलती की थी। आहा ! इसी शहर में तो रहना है। अगर दिखाई पड़ जाये कि कभी जो उनकी पत्नी थी वही बड़ी-सी क़ीमती एक कार पर एक दसरे आदमी के साथ हँसते-खिलखिलाते साँय से सामने से निकल जाए तो बेचारे के दिल पर जाने क्या गुज़रेगी?'

चैताली फिर मुँह बिचकाकर हँसी।

“अगर क्या? ऐसा तो होगा ही। कंकनादी हँस-हँसकर कह रही थी कि वह अभागा जहाँ-जहाँ जाता है, जिन जगहों के चक्कर काटता है, वहीं ज्यादा-ज़्यादा जायेगी। वह देख ले उनकी क़ीमत क्या है।"

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