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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

ट्रेन आयी। चली गयी।

भीड़ के कारण अरुण फिर दिखाई नहीं पड़ा। मिंटू को अरुण ने भी नहीं देखा।

थोड़ी देर बाद रिक्शा में चढ़कर मिंटू के माँ-बाप आ गये। माँ बोली, “तू फट से कब निकलकर चली आयी?'

मिंटू बोली, “वाह ! तुम्हीं ने तो कहा, तेरे पिताजी तो अभी तक बाज़ार से वापस नहीं आये हैं मिंटू, न हो तू ही टिकट की लाइन में लग जा।"

“कहा था क्या?" रिक्शा से उतरकर हाँफते हुए माँ बोली, “तो निकलते वक़्त बताकर नहीं आना चाहिए था क्या? मैं सब समझा देती।"

"समझाने की क्या बात थी?”

“वाह, हम लोग चले आये। तू अकेले-अकेले खायेगी। सुन, मछली-भात सब चौके के ऊपरवाले ताखे पर रख आयी हूँ।"

“अच्छा बाबा अच्छा, मैं सब देख-सुनकर ले लूँगी।"

"देख न, अपनी बड़ी मौसी को तो तू जानती ही है। खुद जाकर नहीं कहूँगी तो उनकी मानहानि होगी। फिर गहना-वहना भी तो तेरी बड़ी मौसी का सुनार ही..."

“जानती हूँ, जानती हूँ। और तो कुछ नहीं कहना है न? लो, ये टिकट पकड़ो।"

पर्स खोलकर दो उत्तर-पाड़ा जाने के लिए टिकट निकालकर दिये मिंटू ने।

“शाम होते-होते वापस आ जायेंगे। वनमाली की माँ से कह आयी हूँ, चली न जाये, जब तक हम लोग आ नहीं जाते हैं."

मिंटू बाप के कान में न पड़े ऐसी आवाज़ में बोली, “पहरेदार बैठाकर जा रही हो? कहीं मैं भाग न जाऊँ, क्यों?"।

“ओ माँ, बात करने का ढंग देखो। अच्छा, रसोई की तरफ़ तुझे कुछ करने की. जरूरत नहीं है। मछली-तरकारी मैं सब बनाकर रखे जा रही हूँ, लौटकर चावल बना लूँगी।"

"माँ ! तुम्हें और भी कुछ कहना है? "और क्या कहना होगा?"

“तब मैं घर जा रही हूँ। एक ट्रेन अभी छूटी है। अगली आने में थोड़ी देर है।

जल्दी से वह घर जाने के लिए चल पड़ी।

परन्तु मिंटू ने क्या अरुण से सारी बातें बना-बनाकर ही कही थीं? मिंटू के मन में क्या असम्भव-सी एक आशा सिर उठाने के लिए जोर नहीं मार रही थी?

मिंटू के पिता रिक्शावाले को किराया चुकाकर आ गये। बोले, “माँ-बेटी में इतनी क्या बातें हो रही थीं?'

“क्या बातें होंगी? यही कि कहाँ क्या रख आयी हूँ। रात को खाना न बनाये।" फिर एकाएक बोल उठीं- “सुनते हो जी, अरुण अब यहाँ नहीं रहेगा। कलकत्ते में मेस में रहेगा।"

“रहे तो ही मंगल है।

"तुमको किसने बताया?

"वनमाली की माँ ने। वह लाबू के यहाँ गाय की देखभाल करती है न .. लड़की तो तभी से हर समय ढाल-तलवार लिये फिर रही है।"

"सब ठीक हो जायेगा। मैंने भी ऐसा घर जुटाया है।"  

"उस दिन अरुण को तुम्हारा इस तरह से अपमानित करना ठीक नहीं हुआ था।"

"इसमें बेठीक की क्या बात थी? ठीक ही तो कहा था। हमेशा से घर का लड़का समझता आया। भाई-बहन की तरह मिलते-बोलते थे। एकाएक माँ को कहने के लिए भेज दिया कि मिंटू के साथ शादी करेंगे। सुनकर सिर पर खून नहीं सवार हो जायेगा?

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