उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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काम करने का उत्साह नहीं रहा।
धीरे-धीरे सभी अपने-अपने जीवन के दायित्व के बोझ तले दवते चले जा रहे थे।
शायद भवेश भौमिक नामक वह व्यक्ति जीवित रहता तो ऐसा न होता।
एक 'आदर्श' तब तक सब में प्रेरणा जगाता रह सकता है जब तक उस 'आदर्श' का जनक सामने उपस्थित रहता है। वही उज्ज्वल परिस्थिति खुद-ब-खुद प्रेरणा देती रहती है।
अब भवेश भवन का एक मात्र हाजिरी भरनेवाला प्राणी है सुकुमार। वह आता है। अगरबत्ती जलाता है। भवेशदा को सम्बोधित कर कुछ बातें करता है। फिर उनके तख्त पर औंधे लेटकर लिखना शुरू कर देता है।
क्या लिखता है?
वह बात सुकुमार ही जानता है।
उदय के पास अगर समय रहता है तो कभी-कभी आकर दरवाजे के पास बैठता पूछता है,
“भइयाजी, तुम इतना सब क्या लिखते रहते हो?”
“वह तेरी समझ में नहीं आयेगा।"
“समझा दोगे तो समझ जाऊँगा।"
"दुनिया में क्या कभी ऐसे आदमी का आविर्भाव होगा जो.."
“क्या 'भाव' होगा?"
“ओफ्फो ! 'भाव' नहीं आविर्भाव। माने क्या ऐसा कोई जन्म लेगा जिसकी बुद्धि के बल पर दुनिया में दुःख-कष्ट नहीं रहेगा। हर आदमी सुखी रहेगा?"
उदय ने पूछा, “तुम 'अवतार' की बात कर रहे हो?'
"अवतार? तू जानता है अवतार किसे कहते हैं?"
“यही सुना ही है। रामचन्द्र जी अवतार थे। दस बार दस अवतार लेकर पैदा हुए थे।”
"चल ठीक है। मान ले उसी तरह का कोई जन्म लेता है."
“जन्म लेगा तो क्या हुआ?”
“क्या हुआ, क्या पूछता है रे ! वे आकर लोगों को समझाएँगे कि दिन-रात इतनी मार-काट, ईर्ष्या-द्वेष, लडाई-झगडे जो होते हैं वह अब नहीं होंगे। हर इन्सान समान है। किसी को खाने को न मिले और कोई रुपयों की गद्दी पर बैठ रहे, यह सब बिल्कुल ठीक नहीं। पृथ्वी पर हर आदमी को मिल-जुलकर प्रेम-मोहब्बत से रहना होगा। देखना इससे हर तरफ़ शान्ति ही शान्ति छा जायेगी।"
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