उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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कितने दिनों बाद एक स्टेशनरी की दुकान में भेंट हो गयी।
सौम्य ने इशारा किया, “चली मत जाना। कुछ बातें हैं।"
दोनों रास्ते पर आ गये तो बोला, “तुम कहाँ गायब हो गयी हो? भेंट ही नहीं हो रही है। मामला क्या है?'
“मामला कितना कुछ हो सकता है ! सुनो, तुम मुझे कलकत्ते के बाहर टीचरी दिला सकते हो?”
सौम्य ने एक बार उसकी तरफ़ देखा फिर धीरे से कहा, "इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए समय चाहिए। चलो, कहीं चलकर बैठा जाये।”
ब्रतती बोली, “ 'कहीं' माने तो किसी रेस्तराँ में? दो कप चाय और दो डबल अण्डे का ऑमलेट।”
हताश स्वरों में सौम्य बोला, “तो इसके अलावा उपाय ही क्या है? इतनी बड़ी दुनिया में दो आदमियों के बैठने की जगह है कहीं? फिर भी तो ये लोग हृदयद्वार खुला रखते हैं, इसीलिए..."
"सिर्फ दो कप चाय लेकर कब तक बैठे रह सकोगे? फिर एकान्त ही क्यों मिलेगा?'
अतएव कुछ खाने की चीजें मँगायी गयीं। थोड़े एकान्त की प्रार्थना की गयी। चाय का कप हाथ में उठाकर लेकिन मुँह तक न ले जाकर सौम्य ने पूछा, “क्या बात है? अचानक कलकत्ते के बाहर काम की ज़रूरत क्यों आ पड़ी?"
“कलकत्ते में रहने पर घर में रहना पड़ेगा। अब तो बरदाश्त नहीं हो रहा है।"
ब्रतती की मानसिक परेशानी के बारे में अनभिज्ञ नहीं था सौम्य। छोटी-छोटी बातों, छोटी-छोटी टिप्पणियों से बहुत कुछ पता चल जाता था। सौम्य जानता है कि ब्रतती खुद ही एक समस्या है। वह अपनी माँ की मानसिकता के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रही है।
सौम्य ने गम्भीर होकर कहा, “कलकत्ता छोड़ने का डिसीज़न इतनी आसानी से ले लिया जा सका?"
ब्रतती ने चश्मा उतारा फिर पहना। उसके बाद धीरे से बोली, “तुम्हें क्या लगता है, खूब आसानी से हो सका है?"
सौम्य ज़रा चौंका।
ठीक यही बात, इसी तरह, किसी ने सौम्य से कही थी न !
ओ हाँ, याद आ गया।
पिताजी ने।
उसी दिन प्रवासजीवन ने कहा था, "तुम्हें क्या लग रहा है, खूब आसानी से?"
उसके बाद ही हालाँकि प्रवासजीवन अपने निःसंगतापूर्ण दुःख पर ही ज्यादा बोलते रहे थे। शायद अपने पहले प्रश्न को थोड़ा नरम करने के लिए ही।
यही काम इस वक्त ब्रतती ने किया।
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