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उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ

न जाने कहाँ कहाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 405
आईएसबीएन :9788126340842

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास

 

3


लाबू को चैन नहीं पड़ रहा है। भीतर-बाहर कर रही थी।

न जाने अरुण कितनी देर में लौटेगा।

हाँ, आज घर लौटने की बात है। पहले दिन दफ़्तर में काम करके मामा के यहाँ जायेगा। देख-सुनकर आयेगा। और कल दफ्तर जाते समय ही सूटकेस वगैरह लकर चला जायेगा। कल से फिर कलकत्तावासी हो जायेगा।

आज वह बैठी हैं लड़के से दो तरह की अनुभव-गाथा सुनने के लिए-दफ़्तर की और मामा के घर की।

हाय-हाय ! आज अगर भाभी जिन्दा होती?

क्या पता कह बैठती- “तू वहाँ अकेली क्यों पड़ी रहेगी? तू भी यहीं चली आ।”

शाम तो कब की बीत गयी-काफ़ी रात हो गयी है।

अब गाँवों का वह पहले जैसा रूप कहाँ रह गया है? फिर भी जहाँ गाँवों पर शाम उतरती है, चाँदनी अपनी रेशमी चादर फैला देती है, कैसी एक सम्मोहनी-सी छा जाती है गाँव पर।

दरवाजे की कुण्डी खटकते ही लाबू दौड़ गयी। सबसे पहला प्रश्न था, “क्यों रे , दफ़्तर कैसा लगा?"

“दफ़्तर का कैसा होना न होना क्या? एक लोअर डिवीजन क्लर्क को जैसा लगना चाहिए वैसा ही।"

लावू बोली, “अच्छा, मुँह-हाथ धोकर चाय पी, नाश्ता कर उसके बाद मामा के यहाँ के किस्से सुनूँगी।"

अरुण हँस पड़ा। बोला, “मामा के यहाँ के किस्से? था तो कुछ पन्द्रह मिनट ! उसमें कितने किस्से होते?"

"अरे ! क्या कह रहा है? कुल पन्द्रह मिनट ही ठहरा तू?" “वाह ! छह चालीस की ट्रेन नहीं पकड़नी थी?"

"हाँ, यह तो मैं भूल ही गयी थी। खैर आ“यहाँ आ जा' उतना ही बता। मामा क्या बोले, ममेरे बड़े भाइयों ने क्या कहा? और भाभी?"आहा आज अगर तेरी मामी जिन्दा होती !.." .

लाबू के हृदय के स्मृति-समुद्र में ऊँची-ऊंची लहरें उठने लगीं। इसी के साथ हृदय रो रहा था कल से अरुण के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ेगा। वही शनिवार शाम को आयेगा और इतवार को पूरा दिन मिल सकेगा। मन-ही-मन लाबू ने सोच लिया है सोमवार को खिला-पिलाकर ही लड़के को सीधे दफ़्तर भेज देगी। वहाँ से

शाम को वह मामा के यहाँ चला जायेगा।

साधारण-सी बुद्धि इसीलिए सीधा-सादा हल।

आज लाबू ने बेटे की पसन्द की कुछ खाने की चीजें बनायी थीं। ज़्यादा कुछ क्या बनाती भण्डार तो रिक्त हुआ जा रहा था।

पोस्ते के पकौड़े खाने का शौक़ीन है लेकिन वह भी अब बजट के बाहर हो गया है। आकाशचम्बी क़ीमत हो गयी है इसी पोस्ते की।

फिर भी आज नाश्ते में चाय के साथ खाने के लिए तिल के लड्डू बनाये थे। उसी के साथ बनाये थे पोस्ते के पकौड़े। रात के लिए रोटी के स्थान पर पराँठे बनाये थे। बनिये की दुकान पर उधार हो गया। अरुण को तनख्वाह मिलेगी तो चुका देगी।

लाबू बेटे के लिए चाय ले आयी।

लाबू का मन बिदाई की बाँसुरी की धुन सुन रहा था। पर अरुण नहीं।

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