उपन्यास >> न जाने कहाँ कहाँ न जाने कहाँ कहाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी जी का एक और उपन्यास
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दिव्य बोला, “ऐ सौम्य, ज़रा ‘ज्योति टेलरिंग' में जाकर अपने कुर्ते का नाप तो दे आ। जो कुछ कहना है वह मैंने कह रखा है।"
"कुर्ता? कुर्ता माने?”
“वाह भई ! तू कुर्ता क्या चीज़ है नहीं जानता है?"
“आहा, होगा क्या उसका, यही पूछ रहा हूँ।"
“पहना जायेगा।"
दिव्य बड़प्पन जताते हुए बोला, “तू क्या अपनी यह शर्ट-पैण्ट पहनकर शादी करने जायेगा।"
"दादा।..."
“क्या? क्या हुआ?
“तुम लोग बहुत फ़िजूल के काम कर रहे हो। इतना सब करने के कोई मायने नहीं होते हैं।"
“दादा के किसी बात के तो मायने तेरी समझ में आते नहीं हैं। जा, मैंने जैसा कहा वैसा ही कर।"
सौम्य अवाक् हुआ।
घर की आबोहवा ऐसी हल्की कैसे हो गयी? दादा बात करते समय भाभी के मुँह की तरफ़ बार-बार नहीं देख रहा है, फिर भाभी की अनुपस्थिति ही में डिसीज़न ले रहा है। मन ही मन बोला, 'ब्रतती, मैं अपनी माँ दादी की भाषा में कह रहा हूँ तुम्हारे क़दम हमारे घर के लिए बड़े शुभ हैं।'
“अरे, अभी माने, तुम्हारे समय के अनुसार। लेकिन भूलना नहीं 'ज्योति' के सुरेशबाबू बहुत देर लगाते हैं..."
"इसके मतलब हुए अभी जाऊँ।"
सौम्य मुस्कराया।
बोला, “थोड़ी देर में निकलूँगा तो होता जाऊँगा। फिर भी तुम लोग पागलों जैसा व्यवहार कर रहे हो।”
निकलते समय देखा लेटरबाक्स में एक लिफाफा पड़ा है। छोटी-सी शीशे की खिड़की से मानो ताक रहा हो। चिरपरिचित प्रिय अक्षर।
सौम्य मन ही मन हँसा।
उस दिन ब्रतती ने अपने आप ही कहा था, 'देखो, आज से एक हफ्ते तक हम एक दूसरे से मिलेंगे नहीं।'
'अपराध?
'अपराध नहीं। संयम शिक्षा। इसके अलावा..'
ज़रा हँसकर चुप हो गयी।
सौम्य ने पूछा, 'इसके अलावा क्या?
'इसके अलावा? इसके अलावा ज़रा नयापन।'
और इन्हीं सात दिनों के बीच पत्र डाल बैठी?
फिर हँसा मन ही मन सौम्य।
इस समय निकल कैसे सकता था?
चिट्ठी निकालकर नीचे के कमरे में लकड़ी के तख्त पर बैठा। चिट्ठी खोली।
उसके बाद बैठा ही रह गया।
पाँच मिनट, दस मिनट? या एक घण्टा? या कि एक युग?
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