सामाजिक >> आराधना आराधनारवीन्द्र थापर
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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
1
गाड़ी आने में दस मिनट की देर रही होगी।
पायलपुर कोई बड़ा स्टेशन नहीं, इसलिए, प्लेटफार्म पर अधिक भीड़ न थी। उषा ने एक बार अपने पति अशोक की ओर देखा। अशोक मुस्करा दिया, जैसे उसकी विचार-धारा को रोक लिया गया हो। उषा ने अपने कोट की जेबों को दोनों हाथों से भर लिया और एक आह लेकर रह गयी।
दोनों उत्सुकता-वश तड़प रहे थे। अपनी पत्नी से अपार धन और रूप की स्वामिनी सखी की प्रशंसा सुनते पाँच साल हो गये थे और आज अशोक उसे देख सकेगा।
उषा उस समय बीते छःसात वर्षों की दुनिया में खो चुकी थी। उन दिनों भी उसे लगा करता था कि आशा मानो एक तरुणा की समूची अभिलाषाओं की प्रतीक है।
कालेज में आशा के टक्कर की रूपवती लड़की दूसरी न थी। जैसे महाकवि कालिदास की कल्पना से रँगे पन्ने से उठकर शकुन्तला इस युग में साकार हो उठी हो।
गोरा-चिट्टा रंग और अमल-धवल सुमन-सा सुकुमार मुखड़ा। जीवन में जितना आह्लाद है, रस है वह आशा की चाँदनी में घुले मुख के पतले होंठों की मुस्कराहट में सिमटा है।
यौवन में जम रहे अपने बदन को रंग-बिरंगी साड़ियों से सँवारना भी उसे आता था। आशा को सुबह एक नीले रंग की कार छोड़ने आती थी और दोपहर को एक भूरे रंग की कार लिवाने आया करती थी।
उसके पिता दिल्ली में मजिस्ट्रेट थे। वैसे उनकी देहात में जमींदारी भी लम्बी-चौड़ी थी। इस पर आशा उनकी एकमात्र सन्तान थी।
सौभाग्य देवी से इतना ही कुछ पा लेने से आशा का काम नहीं चला। छात्र-संघ की वह प्रधान मन्त्री थी और कालेज की पत्रिका ‘रावी’ की वह सम्पादक थी। जब इस पत्रिका में आशा की दो-एक कविताएँ भी छपीं तो लड़कियों ने मुँह चिढ़ा कर कहा था-उसकी नहीं हो सकतीं। किसी से लिखवा ली होंगी। यूनिवर्सिटी की वार्षिक डिबेट में प्रथम रह कर उसने कप जीता तभी सबको उसके विकासयुक्त मस्तिष्क का लोहा मानना पड़ा।
आशा को चित्रकारी से भी लगाव था और समय मिलने पर चित्र बनाया करती थी।
आशा उसकी सहेली है, इस पर स्वयं उषा ही कभी विस्मय कर लिया करती थी। उषा ठहरी मध्यम स्तर के परिवार में पाँच बहिनों की अग्रजा। न बहुत रूप न अधिक गुण। किन्तु दोनों में बहुत पटती थी।
आशा को अधिक बोलते रहने का शौक सदा रहा है। किसी लड़के को लेकर उसके अरोचक साज-सँवार का निर्दयता से बखान करने में उसे सदा मजा आता था। किसी साधारण दीखने वाले प्रोफेसर का नाम लेकर आशा बहुत-कुछ शुभ-अशुभ कह दिया करती थी।
पहले उषा को बुरा लगता, किन्तु बाद में यह सोच कर कि जो स्वयं इतना सुन्दर है वही दूसरों का उपहास कर सकता है, वह चुप हो जाया करती थी। थोड़ा-सा हँस कर कह देती-‘‘देखूँगी समय आने पर कौन-सा कामदेव तुम्हारी नाक के नीचे बैठता है।’’
लड़के कहा करते थे कि यदि लक्ष्मी, सरस्वती और राधा के गुण-गौरव को गुणा करके तीन से भाग करने से जो उत्तर आता है-वह आशा है।
उषा इतना जानती है कि यदि नियति उसे एक ही वर दे तो निर्णय करने में अधिक समय नहीं लगेगा। वह हाथ जोड़कर कह देगी-मुझे आशा बनना है।
प्रायः उषा पूछा करती थी कि उसकी सखी इतना रूप-धन पाकर क्या करेगी। उन दिनों भी आशा का हँसता हुआ चेहरा गम्भीर हो जाया करता था और वह कह देती-‘‘मैं सच कहती हूँ कि मुझे बहुत डर लगता है।’’
एक दिन दोनों की पढ़ाई समाप्त हो गयी। दोनों ने बी.ए. किया। थोड़ी देर के बाद उषा का विवाह हुआ और वह इस छोटे टाउन में आ बसी। विवाह में आशा नहीं आ सकी थी। वह अपने पिता के साथ यूरोप-यात्रा करने गयी थी। विवाह पर उषा खूब रोयी थी और आशा की आँखों में भी आँसू आ गये थे। वायदा किया कि वे एक दूसरे को पत्र लिखती रहेंगी।
उषा के पति यहाँ पर शुगर-मिल में इंजीनियर हैं। यहाँ का जीवन शांतिमय है। उषा खुश है।
आशा के पत्र आते रहे। सप्ताह में एक। फिर महीने में एक। बाद में छः मास में एक और फिर साल में भी नहीं।
पत्र-व्यवहार छूट गया। उषा ने देखा कि उसकी सखी का उत्साह ठंडा पड़ गया है। उसे निराशा हुई, लेकिन मित्रता का गर्व नहीं टूटा। वह ज्यों का त्यों बना रहा।
कुछ अन्तिम पत्रों से तथा कुछ अखबारों से उसे पता चला कि आशा के पिता अब संसार में नहीं रहे। वह अपनी सारी पूँजी-सम्पत्ति अपनी एकमात्र पुत्री को ही छोड़ गये हैं। पाँच लाख के करीब रही होगी।
आशा को बहुत दुःख हुआ। संसार में वह अकेली रह गयी थी, चाहे प्रचुर साधन से वह वंचित न थी।
आशा ने पत्र-प्रकाशन कम्पनी बनायी। लिमिटेड किया और एक शानदार मासिक पत्रिका निकालनी आरम्भ की। नाम था-‘कल्पना’। पेपर बढि़या था। आर्ट पेपर में चित्र भी रहते थे। ज्यादा सेल न होती होगी, न सही। देश में उसका अच्छा नाम था। सम्पादन आशा के नेतृत्व में होता था। हर वर्ष कहानी-प्रतियोगिता में ‘कल्पना’ तीन हजार के इनाम वितरित किया करती थी।
उषा को यह भी पता लगा कि आशा दो बार और यूरोप घूम आयी है। वह ‘कल्पना’ पढ़ती रहती है। उसके मन का कौतूहल घटा नहीं है।
वह अपने पति से आशा के विषय में बातचीत किया करती है। अशोक को अधिक दिलचस्पी न लेते देख उषा पूछ बैठी-‘‘अच्छा आप ही बताइए। इस आशा ने अभी तक शादी क्यों नहीं की ?’’
इस पर अशोक हँस देते और कहते-‘‘अरे भई मुझसे क्यों पूछती हो ? मैंने तो कभी तुम्हारी सखी को देखा नहीं। तुम उसे पत्र लिख कर यहाँ एक महीने के लिए चले आने का निमन्त्रण क्यों नहीं देतीं ?’’
सुनकर उषा अवाक् रह गयी। मानो अपने से कह रही हो। धीरे से बोली-‘‘वह क्या चली आयेगी ?’’
अशोक कह देते-‘‘तुम लिख कर तो देखो। हो सकता है कि उसे अच्छा लगे।’’
फिर एक दिन उषा ने एक लम्बा पत्र लिख ही दिया।
वह सोचती रही कि उसकी सखी अब तक बहुत बदल गयी होगी।
लेकिन उषा का डर निर्मूल निकला। आशा ने उत्तर में लिखा कि वह भी कहीं एक महीना चेंज के लिए जाने की सोच रही थी। उसे यह विचार बहुत पसंद आया है। वह अवश्य आयेगी।
कालेज के दिनों का वातावरण जैसे फिर से जन्म ले उठा। पाँच-छः वर्ष में बहुत-सी बातें जमा हो गयी होंगी जिन्हें आशा को कहना है और पहले की तरह उषा को सुनना है।
प्लेटफार्म पर शोर-सा होने लगा।
गाड़ी आ रही थी।
दोनों की विचार-श्रृंखला टूट गयी। गाड़ी के प्लेटफार्म पर पहुँचने का भी अजीब आकर्षण है। काले और धुआँदार दैत्य इंजिन को देखकर हम यह भी सोचते हैं कि इस भयंकरता के पीछे और स्नेह से भरी खिड़कियाँ भी होंगी।
दूर से ही आशा ने उषा को पहचान कर हाथ हिलाए मानो पाँच-छः वर्षों में वह कुछ भी भूली नहीं, कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा हो।
उषा और अशोक आगे बढ़े। गाड़ी के रुकते ही आशा नीचे उतरी फिर उसने उषा को जोर से आलिंगन में ले लिया। उषा तो निहाल हो गयी।
अशोक ठगा-सा रह गया। आशा सचमुच इतनी रुपवती होगी, ऐसा उसने विचार नहीं कर रखा था। वह सोच में पड़ गया-जो स्वयं समूचे संसार की सुन्दरता का स्वरूप है, वह किस अभाव को ले कर कला के काल्पनिक लोक में उड़ान लेता होगा ?
गोरे शरीर पर लिपटी नीले रंग की साड़ी में आशा मानो सिने तारिका-सी दीख रही थी। अशोक को एकटक देखता पाकर आशा ने कुछ कहने के निमित्त मुस्कराकर कहा-‘‘जीजा जी, आपसे मिलने की इच्छा बहुत देर से बनी थी।’’
अशोक से कुछ कहते न बना। बात बनाकर बोला-‘‘आप आ गयीं, इसकी मुझे बहुत खुशी है।’’
आशा ने उत्तर दिया-‘‘तो क्या आपको सन्देह था कि मैं न आऊँगी।’’
अशोक इस स्पष्टवादिता की लपेट में आकर कुछ झेंप-सा गया, जैसे सफाई पेश करनी हो। उसने उषा की ओर देखा।
उषा ने जबान दाब कर कहा-‘‘हमें कुछ डर था।’’
अब आशा समझ गयी कि अविश्वास किसका था। तुनककर बोली-‘‘क्यों री इस दुकेलेपन का भाव तुझमें कब से आया है ? क्या समझ रखा था मुझे तुम लोगों ने ?’’
‘तुम लोगों ने’ कहकर आशा को लगा कि उसने अशोक को अनायास ही बीच में लपेट लिया है। वह शर्म से लाल हो गयी।
अशोक ने कुली बुलाकर सामान उठवाया और सब बाहर की ओर चल पड़े। मकान स्टेशन के पास ही था।
घर पहुँचकर अशोक बोला-तुम लोग बैठो, बातें करो। मैं अभी आता हूँ।’’ इतना कहकर उसने बाज़ार से कुछ सामान लेने के लिए बैग उठाया और चल दिया।
सखियाँ बैठ गईं, एक-दूसरे के हाथ पकड़कर। दोनों बहुत देर से मिली थीं, इसलिए वातावरण अभी खुल न पाया था। उषा सोच रही थी कि उसकी सखी कितनी महान् बन बैठी है। आशा को लग रहा था कि लड़की में कुछ नीरसता आ गयी है।
फिर भी बहुत बातें हुईं। आशा ने कालेज के दिनों से लेकर सब कुछ कह दिया।
अकेले पाँच लाख की सम्पत्ति का स्वामी बनना भी एक विचित्र-सा अनुभव है। उस पर भी जब पूर्ण स्वतन्त्रता रही हो। अपने पिता के न रहने पर आशा अकेलेपन से डर भी गयी थी। एक क्षण उसने सोचा कि वह शादी कर ले। इससे जीवन में सुरक्षा और शांति प्राप्त हो जाती है।
वह दो-तीन क्लबों की अच्छी खासी सदस्य भी है। दिल्ली के सम्मानित समाज के बीसियों युवक आशा के प्रति महात्त्वाकांक्षा लिये बैठे हैं। दो-एक कुछ निकट भी सरक आये हैं।
आशा निजी पत्रिका ‘कल्पना’ में व्यस्त रहती है। इससे उसे मानसिक शांति मिलती है। वह नयी किताबों का रिव्यू सदा स्वयं करती है। दफ्तर की बड़ी टेबल पर बैठकर जब वह देश के गणमान्य लेखकों की रचनाओं को स्वीकार करती है तो उसे बहुत आनन्द आता है।
कभी-कभी अपनी लिखी कविताएँ भी आशा छापती रहती है। कुछ ही देर में संग्रह भी प्रकाशित कराने की इच्छा है। इस पर आशा को गर्व है कि ‘कल्पना’ देश में उच्च कोटि की पत्रिका है।
एकाएक आशा ने अनुभव किया कि अभी तक वही बोलती चली आ रही है। कालेज के दिनों की तरह उषा एक शिशु की नाईं चुपचाप सुने जा रही है।
आशा ने पछतावे में आकर उषा के कन्धों को हलके से पीटते हुए कहा-‘‘क्यों री कैसे रहे हमारे जीजा जी। सन्तुष्ट तो दीखती हो।’’
इस बार उषा की चुप्पी का बाँध कुछ टूटा। हँसकर बोली-‘‘दूसरों की खुशी देखकर ही क्या जीओगी ? अपनी कुछ चिन्ता नहीं है, तुम्हें ?’’
आशा ने इस ओर नहीं ध्यान दिया। अपनी यूरोप-यात्रा के बारे में इधर-उधर की बातें करने लगी। वह तीन बार वहाँ हो आयी थी।
उषा थोड़ी देर अनमने भाव से सुनती रही। फिर न जाने कैसा भीगा-सा स्वर कर बोली-‘‘अच्छा यह तो बता आशा कि तूने अभी तक शादी क्यों नहीं की ? यहाँ तुम्हारी पसंद के नीचे कोई न उतरा तो क्या विदेश में भी कोई कामदेव न मिला ?’’
जैसे बाँध-सा जो अभी तक बना रहा था, एकदम ही खुल गया हो। आशा को यह अच्छा लगा। तो भी बनकर बोली-‘‘ऐसा क्यों पूछती हो उषा ?’’
उषा को कृत्रिम क्रोध ने काटा। चमककर कहने लगी-‘‘और नहीं तो क्या ? इंटीलेक्चुवल बनी फिरती हो। पत्रिका की मालिक हो। दफ्तर में बैठती हो। इतना ही कुछ क्या काफी है ? रिव्यू लिखकर ही क्या जीवन के संध्या-काल तक पहुँचने का लक्ष्य है, तुम्हारा ? शादी नहीं करनी है ?’’
आशा अवाक् रह गयी। इतने जो शब्द इन दोनों के बीच आ गये उसकी पकड़ में न आये हों ऐसी बात नहीं।
उसका मन उषा के प्रति स्नेह से भीग गया। उसे श्रद्धा से निहारते हुए आशा बोली-‘‘उषा यह तूने कैसे मान लिया कि मेरे जीवन में किसी का स्थायी स्थान अब तक नहीं बना है। वह रिक्त है, यह तूने कैसे जान लिया ?’’
उषा ने उत्तर दिया-‘‘यह तो तुम्हारी आँखों में अभाव के पीलेपन से स्पष्ट है। फिर मैं क्या तुम्हें समझती नहीं ?’’
आशा बहुत खुश हुई, पास आकर बोली-‘‘देखती हूँ, विवाह के बाद तू बहुत सयानी हो गयी है।’’
इस पर दोनों हँस पड़ीं। अशोक भी वापस लौट आये थे।
पायलपुर कोई बड़ा स्टेशन नहीं, इसलिए, प्लेटफार्म पर अधिक भीड़ न थी। उषा ने एक बार अपने पति अशोक की ओर देखा। अशोक मुस्करा दिया, जैसे उसकी विचार-धारा को रोक लिया गया हो। उषा ने अपने कोट की जेबों को दोनों हाथों से भर लिया और एक आह लेकर रह गयी।
दोनों उत्सुकता-वश तड़प रहे थे। अपनी पत्नी से अपार धन और रूप की स्वामिनी सखी की प्रशंसा सुनते पाँच साल हो गये थे और आज अशोक उसे देख सकेगा।
उषा उस समय बीते छःसात वर्षों की दुनिया में खो चुकी थी। उन दिनों भी उसे लगा करता था कि आशा मानो एक तरुणा की समूची अभिलाषाओं की प्रतीक है।
कालेज में आशा के टक्कर की रूपवती लड़की दूसरी न थी। जैसे महाकवि कालिदास की कल्पना से रँगे पन्ने से उठकर शकुन्तला इस युग में साकार हो उठी हो।
गोरा-चिट्टा रंग और अमल-धवल सुमन-सा सुकुमार मुखड़ा। जीवन में जितना आह्लाद है, रस है वह आशा की चाँदनी में घुले मुख के पतले होंठों की मुस्कराहट में सिमटा है।
यौवन में जम रहे अपने बदन को रंग-बिरंगी साड़ियों से सँवारना भी उसे आता था। आशा को सुबह एक नीले रंग की कार छोड़ने आती थी और दोपहर को एक भूरे रंग की कार लिवाने आया करती थी।
उसके पिता दिल्ली में मजिस्ट्रेट थे। वैसे उनकी देहात में जमींदारी भी लम्बी-चौड़ी थी। इस पर आशा उनकी एकमात्र सन्तान थी।
सौभाग्य देवी से इतना ही कुछ पा लेने से आशा का काम नहीं चला। छात्र-संघ की वह प्रधान मन्त्री थी और कालेज की पत्रिका ‘रावी’ की वह सम्पादक थी। जब इस पत्रिका में आशा की दो-एक कविताएँ भी छपीं तो लड़कियों ने मुँह चिढ़ा कर कहा था-उसकी नहीं हो सकतीं। किसी से लिखवा ली होंगी। यूनिवर्सिटी की वार्षिक डिबेट में प्रथम रह कर उसने कप जीता तभी सबको उसके विकासयुक्त मस्तिष्क का लोहा मानना पड़ा।
आशा को चित्रकारी से भी लगाव था और समय मिलने पर चित्र बनाया करती थी।
आशा उसकी सहेली है, इस पर स्वयं उषा ही कभी विस्मय कर लिया करती थी। उषा ठहरी मध्यम स्तर के परिवार में पाँच बहिनों की अग्रजा। न बहुत रूप न अधिक गुण। किन्तु दोनों में बहुत पटती थी।
आशा को अधिक बोलते रहने का शौक सदा रहा है। किसी लड़के को लेकर उसके अरोचक साज-सँवार का निर्दयता से बखान करने में उसे सदा मजा आता था। किसी साधारण दीखने वाले प्रोफेसर का नाम लेकर आशा बहुत-कुछ शुभ-अशुभ कह दिया करती थी।
पहले उषा को बुरा लगता, किन्तु बाद में यह सोच कर कि जो स्वयं इतना सुन्दर है वही दूसरों का उपहास कर सकता है, वह चुप हो जाया करती थी। थोड़ा-सा हँस कर कह देती-‘‘देखूँगी समय आने पर कौन-सा कामदेव तुम्हारी नाक के नीचे बैठता है।’’
लड़के कहा करते थे कि यदि लक्ष्मी, सरस्वती और राधा के गुण-गौरव को गुणा करके तीन से भाग करने से जो उत्तर आता है-वह आशा है।
उषा इतना जानती है कि यदि नियति उसे एक ही वर दे तो निर्णय करने में अधिक समय नहीं लगेगा। वह हाथ जोड़कर कह देगी-मुझे आशा बनना है।
प्रायः उषा पूछा करती थी कि उसकी सखी इतना रूप-धन पाकर क्या करेगी। उन दिनों भी आशा का हँसता हुआ चेहरा गम्भीर हो जाया करता था और वह कह देती-‘‘मैं सच कहती हूँ कि मुझे बहुत डर लगता है।’’
एक दिन दोनों की पढ़ाई समाप्त हो गयी। दोनों ने बी.ए. किया। थोड़ी देर के बाद उषा का विवाह हुआ और वह इस छोटे टाउन में आ बसी। विवाह में आशा नहीं आ सकी थी। वह अपने पिता के साथ यूरोप-यात्रा करने गयी थी। विवाह पर उषा खूब रोयी थी और आशा की आँखों में भी आँसू आ गये थे। वायदा किया कि वे एक दूसरे को पत्र लिखती रहेंगी।
उषा के पति यहाँ पर शुगर-मिल में इंजीनियर हैं। यहाँ का जीवन शांतिमय है। उषा खुश है।
आशा के पत्र आते रहे। सप्ताह में एक। फिर महीने में एक। बाद में छः मास में एक और फिर साल में भी नहीं।
पत्र-व्यवहार छूट गया। उषा ने देखा कि उसकी सखी का उत्साह ठंडा पड़ गया है। उसे निराशा हुई, लेकिन मित्रता का गर्व नहीं टूटा। वह ज्यों का त्यों बना रहा।
कुछ अन्तिम पत्रों से तथा कुछ अखबारों से उसे पता चला कि आशा के पिता अब संसार में नहीं रहे। वह अपनी सारी पूँजी-सम्पत्ति अपनी एकमात्र पुत्री को ही छोड़ गये हैं। पाँच लाख के करीब रही होगी।
आशा को बहुत दुःख हुआ। संसार में वह अकेली रह गयी थी, चाहे प्रचुर साधन से वह वंचित न थी।
आशा ने पत्र-प्रकाशन कम्पनी बनायी। लिमिटेड किया और एक शानदार मासिक पत्रिका निकालनी आरम्भ की। नाम था-‘कल्पना’। पेपर बढि़या था। आर्ट पेपर में चित्र भी रहते थे। ज्यादा सेल न होती होगी, न सही। देश में उसका अच्छा नाम था। सम्पादन आशा के नेतृत्व में होता था। हर वर्ष कहानी-प्रतियोगिता में ‘कल्पना’ तीन हजार के इनाम वितरित किया करती थी।
उषा को यह भी पता लगा कि आशा दो बार और यूरोप घूम आयी है। वह ‘कल्पना’ पढ़ती रहती है। उसके मन का कौतूहल घटा नहीं है।
वह अपने पति से आशा के विषय में बातचीत किया करती है। अशोक को अधिक दिलचस्पी न लेते देख उषा पूछ बैठी-‘‘अच्छा आप ही बताइए। इस आशा ने अभी तक शादी क्यों नहीं की ?’’
इस पर अशोक हँस देते और कहते-‘‘अरे भई मुझसे क्यों पूछती हो ? मैंने तो कभी तुम्हारी सखी को देखा नहीं। तुम उसे पत्र लिख कर यहाँ एक महीने के लिए चले आने का निमन्त्रण क्यों नहीं देतीं ?’’
सुनकर उषा अवाक् रह गयी। मानो अपने से कह रही हो। धीरे से बोली-‘‘वह क्या चली आयेगी ?’’
अशोक कह देते-‘‘तुम लिख कर तो देखो। हो सकता है कि उसे अच्छा लगे।’’
फिर एक दिन उषा ने एक लम्बा पत्र लिख ही दिया।
वह सोचती रही कि उसकी सखी अब तक बहुत बदल गयी होगी।
लेकिन उषा का डर निर्मूल निकला। आशा ने उत्तर में लिखा कि वह भी कहीं एक महीना चेंज के लिए जाने की सोच रही थी। उसे यह विचार बहुत पसंद आया है। वह अवश्य आयेगी।
कालेज के दिनों का वातावरण जैसे फिर से जन्म ले उठा। पाँच-छः वर्ष में बहुत-सी बातें जमा हो गयी होंगी जिन्हें आशा को कहना है और पहले की तरह उषा को सुनना है।
प्लेटफार्म पर शोर-सा होने लगा।
गाड़ी आ रही थी।
दोनों की विचार-श्रृंखला टूट गयी। गाड़ी के प्लेटफार्म पर पहुँचने का भी अजीब आकर्षण है। काले और धुआँदार दैत्य इंजिन को देखकर हम यह भी सोचते हैं कि इस भयंकरता के पीछे और स्नेह से भरी खिड़कियाँ भी होंगी।
दूर से ही आशा ने उषा को पहचान कर हाथ हिलाए मानो पाँच-छः वर्षों में वह कुछ भी भूली नहीं, कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा हो।
उषा और अशोक आगे बढ़े। गाड़ी के रुकते ही आशा नीचे उतरी फिर उसने उषा को जोर से आलिंगन में ले लिया। उषा तो निहाल हो गयी।
अशोक ठगा-सा रह गया। आशा सचमुच इतनी रुपवती होगी, ऐसा उसने विचार नहीं कर रखा था। वह सोच में पड़ गया-जो स्वयं समूचे संसार की सुन्दरता का स्वरूप है, वह किस अभाव को ले कर कला के काल्पनिक लोक में उड़ान लेता होगा ?
गोरे शरीर पर लिपटी नीले रंग की साड़ी में आशा मानो सिने तारिका-सी दीख रही थी। अशोक को एकटक देखता पाकर आशा ने कुछ कहने के निमित्त मुस्कराकर कहा-‘‘जीजा जी, आपसे मिलने की इच्छा बहुत देर से बनी थी।’’
अशोक से कुछ कहते न बना। बात बनाकर बोला-‘‘आप आ गयीं, इसकी मुझे बहुत खुशी है।’’
आशा ने उत्तर दिया-‘‘तो क्या आपको सन्देह था कि मैं न आऊँगी।’’
अशोक इस स्पष्टवादिता की लपेट में आकर कुछ झेंप-सा गया, जैसे सफाई पेश करनी हो। उसने उषा की ओर देखा।
उषा ने जबान दाब कर कहा-‘‘हमें कुछ डर था।’’
अब आशा समझ गयी कि अविश्वास किसका था। तुनककर बोली-‘‘क्यों री इस दुकेलेपन का भाव तुझमें कब से आया है ? क्या समझ रखा था मुझे तुम लोगों ने ?’’
‘तुम लोगों ने’ कहकर आशा को लगा कि उसने अशोक को अनायास ही बीच में लपेट लिया है। वह शर्म से लाल हो गयी।
अशोक ने कुली बुलाकर सामान उठवाया और सब बाहर की ओर चल पड़े। मकान स्टेशन के पास ही था।
घर पहुँचकर अशोक बोला-तुम लोग बैठो, बातें करो। मैं अभी आता हूँ।’’ इतना कहकर उसने बाज़ार से कुछ सामान लेने के लिए बैग उठाया और चल दिया।
सखियाँ बैठ गईं, एक-दूसरे के हाथ पकड़कर। दोनों बहुत देर से मिली थीं, इसलिए वातावरण अभी खुल न पाया था। उषा सोच रही थी कि उसकी सखी कितनी महान् बन बैठी है। आशा को लग रहा था कि लड़की में कुछ नीरसता आ गयी है।
फिर भी बहुत बातें हुईं। आशा ने कालेज के दिनों से लेकर सब कुछ कह दिया।
अकेले पाँच लाख की सम्पत्ति का स्वामी बनना भी एक विचित्र-सा अनुभव है। उस पर भी जब पूर्ण स्वतन्त्रता रही हो। अपने पिता के न रहने पर आशा अकेलेपन से डर भी गयी थी। एक क्षण उसने सोचा कि वह शादी कर ले। इससे जीवन में सुरक्षा और शांति प्राप्त हो जाती है।
वह दो-तीन क्लबों की अच्छी खासी सदस्य भी है। दिल्ली के सम्मानित समाज के बीसियों युवक आशा के प्रति महात्त्वाकांक्षा लिये बैठे हैं। दो-एक कुछ निकट भी सरक आये हैं।
आशा निजी पत्रिका ‘कल्पना’ में व्यस्त रहती है। इससे उसे मानसिक शांति मिलती है। वह नयी किताबों का रिव्यू सदा स्वयं करती है। दफ्तर की बड़ी टेबल पर बैठकर जब वह देश के गणमान्य लेखकों की रचनाओं को स्वीकार करती है तो उसे बहुत आनन्द आता है।
कभी-कभी अपनी लिखी कविताएँ भी आशा छापती रहती है। कुछ ही देर में संग्रह भी प्रकाशित कराने की इच्छा है। इस पर आशा को गर्व है कि ‘कल्पना’ देश में उच्च कोटि की पत्रिका है।
एकाएक आशा ने अनुभव किया कि अभी तक वही बोलती चली आ रही है। कालेज के दिनों की तरह उषा एक शिशु की नाईं चुपचाप सुने जा रही है।
आशा ने पछतावे में आकर उषा के कन्धों को हलके से पीटते हुए कहा-‘‘क्यों री कैसे रहे हमारे जीजा जी। सन्तुष्ट तो दीखती हो।’’
इस बार उषा की चुप्पी का बाँध कुछ टूटा। हँसकर बोली-‘‘दूसरों की खुशी देखकर ही क्या जीओगी ? अपनी कुछ चिन्ता नहीं है, तुम्हें ?’’
आशा ने इस ओर नहीं ध्यान दिया। अपनी यूरोप-यात्रा के बारे में इधर-उधर की बातें करने लगी। वह तीन बार वहाँ हो आयी थी।
उषा थोड़ी देर अनमने भाव से सुनती रही। फिर न जाने कैसा भीगा-सा स्वर कर बोली-‘‘अच्छा यह तो बता आशा कि तूने अभी तक शादी क्यों नहीं की ? यहाँ तुम्हारी पसंद के नीचे कोई न उतरा तो क्या विदेश में भी कोई कामदेव न मिला ?’’
जैसे बाँध-सा जो अभी तक बना रहा था, एकदम ही खुल गया हो। आशा को यह अच्छा लगा। तो भी बनकर बोली-‘‘ऐसा क्यों पूछती हो उषा ?’’
उषा को कृत्रिम क्रोध ने काटा। चमककर कहने लगी-‘‘और नहीं तो क्या ? इंटीलेक्चुवल बनी फिरती हो। पत्रिका की मालिक हो। दफ्तर में बैठती हो। इतना ही कुछ क्या काफी है ? रिव्यू लिखकर ही क्या जीवन के संध्या-काल तक पहुँचने का लक्ष्य है, तुम्हारा ? शादी नहीं करनी है ?’’
आशा अवाक् रह गयी। इतने जो शब्द इन दोनों के बीच आ गये उसकी पकड़ में न आये हों ऐसी बात नहीं।
उसका मन उषा के प्रति स्नेह से भीग गया। उसे श्रद्धा से निहारते हुए आशा बोली-‘‘उषा यह तूने कैसे मान लिया कि मेरे जीवन में किसी का स्थायी स्थान अब तक नहीं बना है। वह रिक्त है, यह तूने कैसे जान लिया ?’’
उषा ने उत्तर दिया-‘‘यह तो तुम्हारी आँखों में अभाव के पीलेपन से स्पष्ट है। फिर मैं क्या तुम्हें समझती नहीं ?’’
आशा बहुत खुश हुई, पास आकर बोली-‘‘देखती हूँ, विवाह के बाद तू बहुत सयानी हो गयी है।’’
इस पर दोनों हँस पड़ीं। अशोक भी वापस लौट आये थे।
2
शाम को जब अशोक मिल से लौटे तो उषा ने पति से
कहा-‘‘आप चटपट मुँह-हाथ धोकर कुछ खा-पी लें। फिर हम
दोनों जरा
घूमने चलेंगे। आशा तो दो ही दिन में यहाँ बोर हो गयी
है।’’
अशोक बोला-‘‘नहीं, भई, आज तुम दोनों जने ही हो आओ।
मैं मज़दूर
आदमी हूँ। दिन भर का थका क्या आराम नहीं करूँगा ? आशा जी से मैं विशेषकर
प्रार्थी हूँ।’’
उषा ने आग्रह न किया। थोड़ी देर में दोनों घूमने निकल पड़ीं। आशा ने देखा
कि यह जगह इतनी बुरी नहीं है। एक पक्की सड़क चली जा रही है और खेत-खलिहान
भरे पड़े हैं। कहीं-कहीं इक्के-दुक्के मकान भी खड़े हैं। सड़क के किनारे।
आशा पहले देहात में बहुत कम गयी थी। पिता के न रहने के बाद उसने जमींदारी
बेच दी थी। भावुक होकर बोली-‘‘गाँव में कितनी हरियाली
है।
मेरे जी में आता है कि इन हवा में झुक रहे खेत के बड़े पौंधों की ओर देखकर
एक अच्छी कैनवस भर दूँ। काश मैं पेंट करने का सामान साथ ले आयी
होती।’’
उषा ने कहा-‘‘सब कुछ तुम्हें ही करना है। मैंने तो
पढ़ा-सुना
था कि कलाकार दुनिया के बाहर के होते हैं। उन्हें वेशभूषा का ध्यान नहीं
रहता। लेकिन तू जो कवि बनी है, पेन्टर है, देखती हूँ कालेज के दिनों का
तेरा बन-ठन कर रहने का शौक बढ़ा ही है, घटा नहीं।’’
‘‘कला के इसी दुर्गम रूप से मुझे चिढ़ है उषा ! कला
तो मन का
अभिजात औचित्य है। वह तन के ब्राह्य विश्लेषण का अभिभावक
नहीं।’’ आशा कहती गयी। उषा यह सब समझ नहीं पा रही थी।
आशा जान
गयी। फिर भी तनिक आवेश से बोली-‘‘तुम क्या देखना
चाहती हो कि
मैं किसी धर्मभीरु साध्वी की तरह बालों को खुला रखकर मटमैली साड़ी के साथ
चप्पल पहनकर घूमा करूँ ? इससे क्या मेरी कला में अलौकिकता उपज आयेगी
?’’
उषा भी कह उठी-‘‘वह जो कवि लोग बहरूपिया-सा बन कर
चलते हैं,
गर्दन तक झूलते हुए बाल, बढ़े हुए नाखून और ढीला-सा कुर्ता। इससे उन्हें
क्या मिल जाता है, री ? कुछ तो होगा।’’
‘‘कुछ भी नहीं। मुझे तो ऐसे कलाकारों से घृणा है।
हमारे देश
में कल्पना के पुजारियों को निरे अभाव में जो घुटना पड़ता है। तंग आकर मन
को सान्त्वना देने के लिए सनकी हो जाते हैं। मैंने यूरोप में भी लेखक और
पेंटर देखे हैं। उन्हें धन तो खूब मिलता ही है। वह रहते भी राजसी ठाठ से
हैं।’’ आशा बोले गयी।
थोड़ा-सा मुस्कराकर उषा ने कहा-‘‘देखती हूँ, स्तर
तुम्हारा भी
यूरोप से कम का नहीं।’’
आशा बोली-‘‘अरे नहीं, हँसी की बात रहने दो। देखो तुम,
मेरे
पास जो इतना पैसा है, उसका सदुपयोग क्यों न करूँ ? फिर सब ओर ध्यान देने
से क्या मेरी कला का बहुमुखी विकास न होगा ?’’
उषा जानती है कि जो उस की सखी कह रही है, उसमें सत्यता की छाप तो गहरी
होगी ही। फिर भी सब कुछ इसके भीतर सहज में उतर आया हो, यह बात
नहीं। उसने
कहा, ‘‘कला की देवी ! यह तो बता कि तेरा देवता कैसा
होगा ? इस
बारे में क्या तुमने कुछ नहीं सोचा ?’’
आशा थोड़ी देर चुप रही। एक-एक करके कितने ही युवकों में स्वतंत्र आकृतियाँ
उसके मन में उतरीं। वह अपार सुन्दरी है, विचारों में स्वतंत्र और धन की
उसे कमी नहीं। कितने ही युवकों और अधेड़ उम्र के पुरुषों ने उससे प्रेम
जताया था और अब भी उससे प्यार करने वाले बहुत हैं।
वह इस विषय में सर्वदा भयभीत रही है। उसे सदा डर रहा है कि क्लबों में
परिचय पाकर प्रशंसा करने वाले उसके धन पर स्वामित्व का स्वप्न देख रहे
हैं, या उसके रूप से मोहित होकर लगाव दर्शा रहे हैं।
उसका धनी होना ही प्रायः मन में सन्देह का कारण है। आशा की इच्छा यही रही
है कि उसका पति हद से ज्यादा भावुक हो। कोई कवि हो या पेंटर। वह केवल आशा
से ही प्यार करे। उसकी दौलत या सुन्दरता से नहीं।
आशा कह उठी-‘‘सच उषा, मैं इस विषय में सदा असफल रही
हूँ।
तुम्हें विश्वास न होगा, किन्तु यह सच है कि मैंने अभी तक किसी से प्रेम
नहीं किया।’’
उषा इन शब्दों को सुनकर देर तक सिमटती रही। वह कुछ कहने लगी थी परंतु आशा
का ध्यान एकाएक दूसरी ओर खिंचा देखकर चुप रह गयी।
वे लोग काफी दूर निकल आये थे। कच्चे रास्ते के एक ओर इशारा कर आशा बोली।
‘‘चलो, देखें तो वहाँ क्या है।’’
एक घिसे हुए स्टैण्ड पर बोर्ड-सा लगा था। पास ही एक स्टूल था। लगता था कि
कोई चित्रकार पेंटिंग करता हुआ किसी काम से कुछ देर के लिए वहाँ से हट गया
था।
आशा ने पास आकर देखा और देखती गयी। बड़े ही प्यारे रंगों को लेकर एक चित्र
लगभग पूरा-सा बनकर रह गया था।
नीले-सफेद से बादलों के पर्दों को तनिक हटाकर एक इहलोक की अप्सरा भूतल पर
उतर रही थी। उस अप्सरा का रूप एकदम तीव्र और निराला था, मानो किसी भावुक
युवक की गगनस्पर्शी कल्पनाओं को रंगों में चित्रित कर दिया गया हो। उसके
हाथों में गुलाब के फूलों की पंखुड़ियाँ थीं, जिन्हें धीरे-धीरे गिरते हुए
कंचन बदन की कामिनी नीचे आ रही थी।
आशा के मुख पर ऐहिक आभा नाचने लगी। उसकी आँखों ने सुन्दरता की पुनीत
प्रतिच्छाया देखी थी। उसे यह अधूरा चित्र बहुत असाधारण लग रहा था।
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