लोगों की राय

कहानी संग्रह >> मनुष्य है महानतम

मनुष्य है महानतम

अनिल चन्द्रा

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :116
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4064
आईएसबीएन :81-7043-422-x

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

436 पाठक हैं

कहानियों और लेखों का संग्रह....

Manushya hai mahantam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मनुष्य है महानतम’ अनिल चन्द्रा की अँग्रेजी पुस्तक ‘मैन एट इज बेस्ट’ का हिन्दी अनुवाद है। यह उनकी ऐसी कहानियों और लेखों का संग्रह है जिनमें मनुष्य की गरिमा और महानता के विभिन्न रूपों को उद्घाटित किया गया है। हमारे जीवन में जो अद्भुत घटनाएँ नित्यप्रति घटती रहती हैं और मनुष्य के जीवट और अदम्य इच्छाशक्ति का परिचय देती हैं, इस पुस्तक में उन्हीं में से कुछ को चुनकर बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इन कहानियों और लेखों में अनेक ऐसे हैं जो पाठक के मन पर एक अमिट छाप छोड़ जाते हैं। निस्सन्देह पुस्तक मनोरंजक होने के साथ-साथ प्रेरणादायक और ज्ञानवर्धक भी है और हमें बाध्य करती हैं कि हम उसे पढ़ें।

आमुख


रचनात्मकता जीवन का उच्चतम रूप है

ज्याँ पॉल सार्त्र

एक बार मैंने एक लड़के की कहानी पढ़ी जिसे साइकिल का बड़ा शौक था। उसने तीस रुपये जमा कर लिए थे और वह अपने शहर के पुलिस थाने पर गया जहाँ ज़ब्तशुदा लावारिश चीज़ों की नीलामी हो रही थी। उसे आशा थी कि अन्य चीज़ों  के अलावा वहाँ साइकिलें भी होंगी।
और बेशक वहाँ कुछ साइकिलें भी थीं।

जब पहली साइकिल बिकने के लिए लाई गई और नीलामकर्ता ने पूछा कि पहली बोली कौन देगा तो ठीक सामने बैठा वह छोटा सा लड़का कह उठा, ‘‘तीस रपये !’’
‘छोटे लड़के, तुम चालीस या पचास की बोली क्यों नहीं लगाते ?’’ नीलामकर्ता ने पूछा।
‘मेरे पास कुल तीस रुपए हैं, चालीस क्या आप देंगे ? चालीस-पचास की बोली कौन लगाएगा ?’’
बोली जारी रही और नीलामकर्ता ने सामने के छोटे लड़के की ओर फिर एक बार देखा। लड़के ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई।

इसके बाद और साइकिल आई और लड़के ने फिर तीस रुपये की बोली दी, मगर उससे ऊपर बिल्कुल नहीं गया। साइकिलें पचास या सत्तर रुपये में बिक रही थीं, और कुछ तो सौ से भी ज़्यादा में।
थोड़े समय के अन्तराल के दौरान नीलाकर्ता ने लड़के से पूछा कि उसने क्यों अनेक अच्छी साइकिलों को बोली दिए बिना ही बिक जाने दिया। लड़के ने कहा कि उसके पास सिर्फ तीस रुपये हैं, उससे ज़्यादा नहीं।
नीलामी फिर शुरू हुई : ट्रांजिस्टर, घड़ियाँ और अन्य कई तरह की चीजें अभी और बेची जाने वाली थीं, और कुछ साइकिलें भी थीं। हर साइकिल के लिए लड़के ने वही तीस रुपये की बोली दी और हरेक के लिए दूसरे व्यक्ति ने उससे ज़्यादा की।

लेकिन अब वहाँ इकट्ठी भीड़ का ध्यान उस लड़के की ओर जाने लगा था जो हमेशा बोली देना शुरू करता। भीड़ समझने लगी थी कि क्या यह हो रहा था।
थका देने वाले डेढ़ घण्टे के बाद नीलामी समाप्त होने आई। लेकिन अब भी एक साइकिल बची थी, और वह बहुत ही सुन्दर थी।
नीलामकर्ता ने पूछा, ‘‘क्या इसके लिए कोई बोली दे रहा है ?’’
और उस सामने के छोटे लड़के—जिसने अब लगभग हार मान ली थी—ने धीरे-से दोहराया, ‘‘तीस रुपए !’’
नीलामकर्ता ने आवाज देना बन्द किया। एकदम बन्द।
लोग चुप बैठे रहे। एक भी हाथ ऊपर नहीं उठा। एक भी आवाज ने बोली नहीं दी।
तब नीलामकर्ता ने कहा, ‘‘बिक गई ! यह साइकिल तीस रुपये में निकर वाले लड़के को बिक गई।’’
लोगों ने हर्ष ध्वनि की।

और उस लकड़े के चेहरे पर चमक आ गई जब उसने अपने पसीने भरी मुट्ठी में रखे तीस रुपये दुनिया की उस सबसे सुन्दर साइकिल के बदले में दिए।
यह कहानी मेरे मन में एक सुन्दर अनुभूति छोड़ गई। सोचा, क्यों न मैं अपनी लिखी ऐसी ही कहानियों और लेखों को एक पुस्तक का रूप देकर लोगों में वैसी ही अनुभूति जगाऊँ ? ‘मनुष्य है महानतम’ शीर्षक की कहानियों और लेखों का यह संग्रह इसी का परिणाम है।
लेकिन ‘क्या आप जानते थे ?’, ‘आइंस्टीन के कुछ पत्र’, ‘‘जीवन भर का प्रेम’, ‘कभी सोचा है क्यों ?’ और ‘जिनके गीत किसी ने नहीं गाए’ जैसे अर्थपूर्ण और प्रेरणादायक लेख सम्मिलित करके मैंने इस पुस्तक के विषय-क्षेत्र का विस्तार किया है।

अन्य लेखकों की ही तरह मेरी यात्राओं और मेरे अध्ययन का मुझ पर भी काफी प्रभाव पड़ा है। कुछ कहानियाँ, जैसे ‘अपंग जो चैंपियन बना’, ‘मैं अवश्य आऊँगा’ और ‘हर कोई पा सकता है सफलता’ उन बातों पर लिखी गई हैं जो मुझे विदेशों में सीखने को मिलीं।
इस संग्रह का उद्देश्य मनुष्य की अच्छाई, उसके अदम्य उत्साह और उन अनेक अद्भुत बातों के बारे में पाठक को सजग करना है जो हमारी रोज की ज़िन्दगी में होती रहती हैं। यदि यह सब उसकी समझ में आएगा तो ‘मनुष्य है महानतम’ लिखने का मेरा उद्देश्य पूरा हो जाएगा।

-अनिल चन्द्रा

मनुष्य है महानतम


मुझे जल्दी रुलाई आ जाती है। एक बार जब किरोव की नृत्य-नाटिका ‘स्वान लेक’ में परदा गिरता है तो मेरे आँसू फूट पड़े। अब भी कभी अगर मैं ‘शहीद’ में दिलीप कुमार की मृत्यु जैसी देशभक्ति और बलिदान की कोई फिल्म देखता हूँ तो मेरा गला रुंध जाता है। मेरा विचार है कि स्त्री-पुरुष जब भी मुझे अपने सबसे अच्छे रूप में दिखाई देते हैं तो मेरा मन द्रवित हो जाता है। यह जरूरी नहीं कि ये स्त्री-पुरुष कोई महान कार्य ही कर रहे हों।

अभी कुछ साल पहले की बात ही। एक रात मैं और मेरी पत्नी बम्बई में धोबी तालाब में एक मित्र के घर पर खाने को जा रहे थे। हम उसके मकान की ओर जल्दी-जल्दी जा रहे थे और पटरी से एक कार बाहर आती दिखाई दी। कुछ ही दूरी पर एक दूसरी कार बैक करके पार्किंग स्थल की ओर जाने के इन्तजार में थी। वह ऐसा करती इससे पहले ही एक कार पीछे से आकर चुपके से वहाँ आ गई। ‘बड़ी बेहूदा शरारत है,’ मैंने सोचा।
पत्नी ने खैर थोड़ा आगे चलकर मित्र के घर में प्रवेश किया। पर मैंने गली में जा कर उस दोषी कारचालक को खरी-खरी सुनाने की ठानी। देखा, एक आदमी कार का शीशा नीचे उतार रहा था।
‘‘ऐ भाई’’, मैंने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘यह उस आदमी की कार ठहरने की जगह है।’’ वह पलटकर मुझे गुस्से से घूरने लगा। मैंने सोचा मैं किसी विपत्ति में पड़े व्यक्ति की मदद करना चाह रहा हूँ और मुझे याद है कि मेरे हौसले उस वक्त बहुत बुलंद थे।

‘‘अपने काम से काम रखो’’, उस कार वाले ने कहा।
‘‘आप समझे नहीं,’’ मैंने कहा, ‘‘वह आदमी वहाँ कार पार्क करने के लिए इन्तजार कर रहा था।’’
शीघ्र ही वहाँ गरमागरमी हो गई। वह अपनी कार से कूद कर बाहर आ गया। बाप रे ! वह तो पूरा पहाड़ जैसा था। उसने आकर मुझे दबोच लिया और पीछे की ओर झुका कर अपनी कार के हुड पर ऐसे गिराया जैसे मैं कोई कपड़े की गुड़िया था। बरिश का पानी मेरे मुँह पर जैसे डंक मार रहा था। मैंने मदद के लिए दूसरे कार चालक की ओर देखा, पर वह वहाँ से रफूचक्कर हो गया।

उस लंबे-तड़ंगे आदमी ने मेरी ओर अपना चट्टान जैसा मुक्का ताना और कहा कि करो क्या करना है। लगभग दहशत में आकर मैं रेंगता हुआ अपने मित्र के अगले दरवाजे़ की ओर गया। एक खिलाड़ी रह चुके और एक पुरुष होने के नाते मैंने बहुत अपमानित महसूस किया। मुझे घबराया हुआ देखकर मेरी पत्नी ने पूछा कि बात क्या है। मैं बस इतना ही कह पाया कि कार पार्क करने की जगह को लेकर किसी आदमी से कहा-सुनी हो गई। वे समझ गए और आगे कुछ नहीं पूछा।
मैं भौचक्का-सा बैठा रहा। कोई आधा घण्टा हुआ होगा  कि दरवाजे की घण्टी बनी। मेरा ख़ून जम गया। पता नहीं क्यों मुझे लगा कि मेरी पिटाई करने वाला आदमी लौट आया है। मेरे मित्र की पत्नी दरवाजा खोलने के लिए उठी, लेकिन मैंने उसे रोका। मुझे लगा कि दरवाज़ा खोलना मेरा ही नैतिक कर्म है।
डरते-डरते मैंने गलियारा पार किया, मगर मुझे मालूम था कि मुझे अपने डर का सामना करना होगा। मैंने दरवाज़ा खोला—वही लम्बा-तड़ंगा आदमी खड़ा था।

‘‘मैं आपसे माफी माँगने के लिए वापस आया हूँ’’, उसने धीमे स्वर में कहा, ‘‘घर पहुँचते ही मैंने मन में सोचा कि मुझे ऐसा करने का क्या अधिकार था ? मुझे अपने ऊपर शर्म आई। आपसे बस इतना कहना चाहता हूँ कि आज का दिन मेरे लिए बहुत बुरा रहा। कोई काम ठीक से नहीं हुआ। मैं अपने बस में नहीं रह सका। आशा है आप मुझे क्षमा कर देंगे।’’
मुझे वह भीमकाय आदमी अक्सर याद आता है। सोचता हूँ-वापस आकर मुझसे माफी माँगने में उसे कितने प्रयत्न की, कितने साहस की ज़रूरत पड़ी होगी। उसने मुझे अपना सर्वोत्तम रूप दिखाया, मनुष्य का सर्वोत्तम रूप।
मुझे यह भी याद है कि दरवाज़ा बन्द करने के बाद जब मैं गलियारे में कुछ क्षण अकेला खड़ा था तो मेरी आंखें धुँधला गई थीं।  

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai