सामाजिक >> शुभ प्रभात शुभ प्रभातराजेन्द्र मोहन भटनागर
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प्रस्तुत है श्रेष्ठतम उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मन की बात
मैंने एक सपना देखा था।
मैंने क्या मेरे जैसे अनेक लोगों ने देखा था।
तब देश स्वतंत्र नहीं था। हम गरीब थे और
अन्याय अत्याचार सह रहे थे। सोच रहे
कि देश स्वतंत्र होगा तो अन्याय,
अत्याचार, शोषण, गरीबी, आदि से
छुटकारा मिलेगा और हम इन्सानों की तरह
जी सकेंगे।
मेरा सपना सच हुआ।
देश स्वतंन्त्र हुआ। देश ने तरक्की भी की।
परन्तु मैं और मेरे जैसे अनेकानेक
लोग अन्याय, अत्याचार, शोषण, गरीबी
आदि से छुटकारा नहीं पा सके। पर क्यों ?
मैं फिर सपना देखने लगा।
दुगनी ताकत और जोश से पुनः काम
में जुट गया। अथक काम किया। परन्तु
मेरा सपना सच नहीं हो सका।
पर क्यों ?
मैं अभी थका नहीं हूं।
मैंने सपना देखना भी नहीं छोड़ा है।
मैं निरन्तर उस तिलिस्म की तलाश
में हूं, जिससे मैं अपने सपने की
सच होता अनुभव कर सकूं।
मैं कतई निराश नहीं हूं। न आपको
निराश होने की सलाह दूंगा। मुझे
स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि जल्दी ही
घटाटोप अंधेरे को चीरता हुआ
शुभ प्रभात कुमकुम मुस्कराहट बिखेरता
उदित होगा।
मुझे आशा है कि तुम भी मेरे साथ
चलोगे, थकोगे-रुकोगे नहीं और न
निराशा की बात करोगे। सिर्फ चलते
चलोगे स्वप्न पाथेय लिए, निरन्तर-अरुके
अरोके। तब तक चलते रहोगे जब तक
मेरा-तुम्हारा सपना स्वर्णिम रश्मियों
से मुखर न हो उठे।
इसी स्वप्न शुभ प्रभात की राह में
मेरे, तुम्हारे और उनके लिए.....।
अस्तु,
मैंने क्या मेरे जैसे अनेक लोगों ने देखा था।
तब देश स्वतंत्र नहीं था। हम गरीब थे और
अन्याय अत्याचार सह रहे थे। सोच रहे
कि देश स्वतंत्र होगा तो अन्याय,
अत्याचार, शोषण, गरीबी, आदि से
छुटकारा मिलेगा और हम इन्सानों की तरह
जी सकेंगे।
मेरा सपना सच हुआ।
देश स्वतंन्त्र हुआ। देश ने तरक्की भी की।
परन्तु मैं और मेरे जैसे अनेकानेक
लोग अन्याय, अत्याचार, शोषण, गरीबी
आदि से छुटकारा नहीं पा सके। पर क्यों ?
मैं फिर सपना देखने लगा।
दुगनी ताकत और जोश से पुनः काम
में जुट गया। अथक काम किया। परन्तु
मेरा सपना सच नहीं हो सका।
पर क्यों ?
मैं अभी थका नहीं हूं।
मैंने सपना देखना भी नहीं छोड़ा है।
मैं निरन्तर उस तिलिस्म की तलाश
में हूं, जिससे मैं अपने सपने की
सच होता अनुभव कर सकूं।
मैं कतई निराश नहीं हूं। न आपको
निराश होने की सलाह दूंगा। मुझे
स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि जल्दी ही
घटाटोप अंधेरे को चीरता हुआ
शुभ प्रभात कुमकुम मुस्कराहट बिखेरता
उदित होगा।
मुझे आशा है कि तुम भी मेरे साथ
चलोगे, थकोगे-रुकोगे नहीं और न
निराशा की बात करोगे। सिर्फ चलते
चलोगे स्वप्न पाथेय लिए, निरन्तर-अरुके
अरोके। तब तक चलते रहोगे जब तक
मेरा-तुम्हारा सपना स्वर्णिम रश्मियों
से मुखर न हो उठे।
इसी स्वप्न शुभ प्रभात की राह में
मेरे, तुम्हारे और उनके लिए.....।
अस्तु,
राजेन्द्रमोहन भटनागर
1
‘‘कल्लूऽऽ...’’, लाला रघुवरदयाल
चीखा, ‘‘जरा तेजी से हाथ चला।’’
कल्ली चौंक पड़ा। उसके हाथ से कांच का गिलास छूटते-छूटते बाल-बाल बचा। उसके मोटे और बाहर को निकले बदसूरत होंठों पर कंपकंपी दौड़ गई। उसके कानों में जलते तवे पर पड़ी अनेक बूंदें अचानक एक साथ चीख पड़ीं। उसकी कोलतार-सी दुबली-पतली देह कच्छप-सी सिमटकर रह गई। पता नहीं लाला को यह क्या होता है कि वह असमय और अकारण दहाड़ने लगते हैं। वह अपना काम दत्तचित्त होकर कर रहा था और सपाटे से हाथ चला रहा था। फिर लाला क्यों चीखा ?
कल्लू ने अपने चारों ओर देखा, सब ठीक था। दूकान में कोई नहीं था उसके और लाला के अतिरिक्त। उसने इधर-उधर देखा, कोई ग्राहक उधर आते दृष्टिगत नहीं हुआ। चारों ओर सन्नाटा पसरा पड़ा था किसी जंगली अजगर-सा।
तापमान शून्य के आस-पास चक्कर काट रहा था। बरछे-से तीखी और तेज हवा तन-मन को काट रही थी। कल्लू इस सबसे बेखबर होकर अपना तन-मन कांच के गिलास साफ करने में लगाये हुए था। उसके सिर पर ढेर सारा काम पड़ा था। सोने से पहले उसे वह सारा काम अकेले ही निपटाना था। वह गहरी सांस लेकर मन-ही-मन बुदबुदाया, ‘‘मालूखां अभी तक नहीं लौटा।...पता नहीं कि वह आज लौटेगा भी या नहीं !’’ कल्लू ने स्वयं उत्तर दे डाला, ‘‘ऐसी ठण्ड में वह शायद ही लौटे।’’
रात सियाह काली थी—एकदम नागिन-सी फुत्कारती हुई। कल्लू बल्ब के पीले प्रकाश में बैठा हुआ तेजी से हाथ चला रहा था। कांच का गिलास लाला रघुवर दयाल दहाड़ा। एकबारगी उसकी थुलथुल देह चट्टान-सी हिल गई।
सन्नाटा बल खाकर अवसन्न रह गया। इस बार कल्लू नहीं चौंका और न उसके मोटे और बाहर को निकले बदसूरत होंठ कांपे। वह यन्त्रवत अपने काम में लगा रहा था।
लाला रघुवरदाल को यह खामोशी रास नहीं आयी। वह उद्विग्न हो उठा और पुनः चीखा, ‘‘क्या वह तुमसे कुछ कहकर गया था !’’
‘‘नहीं।’’ कल्लू ने दृढ़ता से कहा।
‘‘तो फिर वह मोटिया कहां मर गया !’’ लाला रघुवरदयाल ने प्रश्न आकाश में उछाल दिया, पहेली के समान।
कल्लू जानता था कि लाला ने यह प्रश्न उससे ही किया है लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से। वह उत्तर नहीं देगा तो लाला और उद्विग्न होगा। वह और क्रोधित होगा। होता है तो हो, वह उत्तर नहीं देगा। यथार्थतः उसके पास लाला के इस प्रश्न का कोई उत्तर भी नहीं—सम्भावित उत्तर भी तो नहीं है।
लाला अपनी प्रकृति के अनुसार बराबर बड़बड़ाता रहा था, ‘‘हरामखोर यहीं आकर मरते हैं....सौ बार नाक रगड़ते हैं....गिड़गिड़ाते हैं। कब का गया हुआ है, नमकहराम। रास्ते में गप हांकने बैठ गया होगा। आज आने दो कामचोर को....फिर देखना, वह रहेगा या मैं’’ लाला ने अपना निर्णय सुना दिया था।
कल्लू जानता था कि मालूखां लाला को झूठ-मूठ की कोई कथा-कहानी सुना देगा और लाला को सारा क्रोध छू मन्तर हो जाएगा। मालूखां कथा-कहानी गढ़ने में दक्ष है। लाला यह जानते हुए भी कि उसकी कहानी के चक्रव्यूह में फंसेगा और वास्तविकता ज्ञात होने पर अपनी मूर्खता पर मलाल करके रह जायेगा।
‘नहीं, आज उसे आने दो। उसकी कोई कहानी नहीं चलेगी। हरामखोर को निकाल बाहर करूंगा ! ....तब उसे नानी-दादी याद आ जाएगी।’’ लाला पुनः बड़बड़ाया। वह ऐसा कहकर कल्लू को डराये रखना चाहता था।
कल्लू चुपचाप अपने काम में लगा रह। उसने लाला की ओर मुड़कर भी नहीं देखा। लाला की बैठी हुई नाक और गुब्बारे से गाल अंधेरे में भी बिल्ली की आंख की तरह उसके मस्तिष्क में चमकते रहे।
लाला ने खीझ से भरकर बोला, ‘‘कल्लू पता है, मोटिया कब से गायब है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्या कहा,—नहीं ऽ...। तुझे पता नहीं...तू क्या दिन में सोता रहता है ?—लो बोलो कर लो बात,....जनाब को कुछ पता ही नहीं। मैं मर भी जाऊंगा, तो भी तुझे पता नहीं चलेगा।....ओ शैतान की औलाद,—सच-सच बता दे !’’ लाला हांफ–सा गया था। उसका भावशून्य चेहरा विरूप हो उठा था।
‘‘मैं सच कहता हूं लाला।’’
‘‘तुझे मोटिए के बारे में कुछ नहीं मालूम ? क्या यह तू कहता है !’’ लाला ने अपनी लाल-लाल आंखें पूरा जोर लगाकर उसके मासूम चेहरे पर चिपकाने का प्रयास किया।
कल्लू सहम गया। उसके होंठों पर जड़ता छा गई। यथार्थतः वह नहीं जानता था कि मालूखां कब कहां से गया था ! लाला के सौ काम होते हैं। दिन में वह उसे कई जगह भेजता है। तब क्या उसे पता होता है ! कई बार तो लाला उसके कान में फूंक मारता है, और वह मुस्कुराकर सरपट दौड़ पड़ता है। देर से लौटता है।...इतनी देर से कि वह सो जाता है ?’’
‘‘क्यों रे, तू उससे डरता है ?’’
कल्लू सिर हिलाकर कहता है, ‘‘नहीं।’’
‘तो फिर बता दे, मेरे बाप, कि वह कहां गया है ?’’
‘‘सच में मुझे कुछ पता नहीं।’’ कल्लू गिड़गिड़ाने लगता। उसका खरगोश सा मन घबरा जाता।
‘‘मोटिया कहां गया है ?’’ लाला ने उसके अधूरे वाक्य को पूरा करते हुए अपना निचला होंठ काट लिया। लाला के कान हिलकर रह गए।
मालूखां मोटिया नहीं था। वह तो सींक-सलाई-सा पूरा मर्द था। उसके घनी मूछें थीं—बेतरतीब जंगली घास सी। उसका कद नाटा था। परन्तु उसके होंठ पतले थे और उसकी आंखें बड़ी व चमकदार थीं। वह गाता अच्छा था। सदा चिथड़ों से लिपटा रहकर भी वह खुश रहता था। कभी चिंता को वह अपने पास नहीं आने देता था। आकाश में उड़ते पक्षी के समान वह निर्द्वन्द्व और मस्त रहता था। न कभी उसे कोई शिकायत थी और न अपेक्षा। चाहे लाला उसे कितना भी दुत्कारता-फटकारता रहे परन्तु वह उसे कभी जवाब नहीं देता था—सिर्फ मुस्कुराकर रह जाता था। जैसे कुछ हुआ ही न हो कल्लू तब उस पर आंख गड़ा देता था और फिर पकड़ने का प्रयत्न करता था—वहां से पकड़ने का प्रयास करता था, जहां वह ऐसे अवसरों पर अपने को छिपाकर, कांटा, चुभने पर, सुमन-सा खिलकर अपने काम में लगा रहता था।
मालूखां का दिमाग और हाथ-पांव सपाट चलते थे। मानो उसके एक दिमाग और दो हाथ-पाँव न होकर अनेक हों। वह कैसे एक साथ कितने गिलास या कप प्लेट ग्राहकों के सामने रखता और कैसे वह उनको एक साथ समेट लेता उसका यह जादू देखते ही बनता था ! सारे दिन, सुबह से देर रात तक वह बिना किसा तनाव व थकान के दोहराता रहता था—दो चालू चाय, एक स्पेशल चार रस, दो मठरी....तीन चाय पांच में—एक फीकी, तीन कड़क। उसके कंधे पर सदा एक कपड़ा रहता था, जिसे वह चाबुक की तरह मेज पर चलाता रहता था।
मालूखां ग्रहकों का बहुत ध्यान रखता था। उसे उनकी पसंद-नापसंद की पहचान हो चली थी। वह ग्राहक के हाव-भाव को अच्छी तरह समझने लगा था।
कल्ली चौंक पड़ा। उसके हाथ से कांच का गिलास छूटते-छूटते बाल-बाल बचा। उसके मोटे और बाहर को निकले बदसूरत होंठों पर कंपकंपी दौड़ गई। उसके कानों में जलते तवे पर पड़ी अनेक बूंदें अचानक एक साथ चीख पड़ीं। उसकी कोलतार-सी दुबली-पतली देह कच्छप-सी सिमटकर रह गई। पता नहीं लाला को यह क्या होता है कि वह असमय और अकारण दहाड़ने लगते हैं। वह अपना काम दत्तचित्त होकर कर रहा था और सपाटे से हाथ चला रहा था। फिर लाला क्यों चीखा ?
कल्लू ने अपने चारों ओर देखा, सब ठीक था। दूकान में कोई नहीं था उसके और लाला के अतिरिक्त। उसने इधर-उधर देखा, कोई ग्राहक उधर आते दृष्टिगत नहीं हुआ। चारों ओर सन्नाटा पसरा पड़ा था किसी जंगली अजगर-सा।
तापमान शून्य के आस-पास चक्कर काट रहा था। बरछे-से तीखी और तेज हवा तन-मन को काट रही थी। कल्लू इस सबसे बेखबर होकर अपना तन-मन कांच के गिलास साफ करने में लगाये हुए था। उसके सिर पर ढेर सारा काम पड़ा था। सोने से पहले उसे वह सारा काम अकेले ही निपटाना था। वह गहरी सांस लेकर मन-ही-मन बुदबुदाया, ‘‘मालूखां अभी तक नहीं लौटा।...पता नहीं कि वह आज लौटेगा भी या नहीं !’’ कल्लू ने स्वयं उत्तर दे डाला, ‘‘ऐसी ठण्ड में वह शायद ही लौटे।’’
रात सियाह काली थी—एकदम नागिन-सी फुत्कारती हुई। कल्लू बल्ब के पीले प्रकाश में बैठा हुआ तेजी से हाथ चला रहा था। कांच का गिलास लाला रघुवर दयाल दहाड़ा। एकबारगी उसकी थुलथुल देह चट्टान-सी हिल गई।
सन्नाटा बल खाकर अवसन्न रह गया। इस बार कल्लू नहीं चौंका और न उसके मोटे और बाहर को निकले बदसूरत होंठ कांपे। वह यन्त्रवत अपने काम में लगा रहा था।
लाला रघुवरदाल को यह खामोशी रास नहीं आयी। वह उद्विग्न हो उठा और पुनः चीखा, ‘‘क्या वह तुमसे कुछ कहकर गया था !’’
‘‘नहीं।’’ कल्लू ने दृढ़ता से कहा।
‘‘तो फिर वह मोटिया कहां मर गया !’’ लाला रघुवरदयाल ने प्रश्न आकाश में उछाल दिया, पहेली के समान।
कल्लू जानता था कि लाला ने यह प्रश्न उससे ही किया है लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से। वह उत्तर नहीं देगा तो लाला और उद्विग्न होगा। वह और क्रोधित होगा। होता है तो हो, वह उत्तर नहीं देगा। यथार्थतः उसके पास लाला के इस प्रश्न का कोई उत्तर भी नहीं—सम्भावित उत्तर भी तो नहीं है।
लाला अपनी प्रकृति के अनुसार बराबर बड़बड़ाता रहा था, ‘‘हरामखोर यहीं आकर मरते हैं....सौ बार नाक रगड़ते हैं....गिड़गिड़ाते हैं। कब का गया हुआ है, नमकहराम। रास्ते में गप हांकने बैठ गया होगा। आज आने दो कामचोर को....फिर देखना, वह रहेगा या मैं’’ लाला ने अपना निर्णय सुना दिया था।
कल्लू जानता था कि मालूखां लाला को झूठ-मूठ की कोई कथा-कहानी सुना देगा और लाला को सारा क्रोध छू मन्तर हो जाएगा। मालूखां कथा-कहानी गढ़ने में दक्ष है। लाला यह जानते हुए भी कि उसकी कहानी के चक्रव्यूह में फंसेगा और वास्तविकता ज्ञात होने पर अपनी मूर्खता पर मलाल करके रह जायेगा।
‘नहीं, आज उसे आने दो। उसकी कोई कहानी नहीं चलेगी। हरामखोर को निकाल बाहर करूंगा ! ....तब उसे नानी-दादी याद आ जाएगी।’’ लाला पुनः बड़बड़ाया। वह ऐसा कहकर कल्लू को डराये रखना चाहता था।
कल्लू चुपचाप अपने काम में लगा रह। उसने लाला की ओर मुड़कर भी नहीं देखा। लाला की बैठी हुई नाक और गुब्बारे से गाल अंधेरे में भी बिल्ली की आंख की तरह उसके मस्तिष्क में चमकते रहे।
लाला ने खीझ से भरकर बोला, ‘‘कल्लू पता है, मोटिया कब से गायब है ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्या कहा,—नहीं ऽ...। तुझे पता नहीं...तू क्या दिन में सोता रहता है ?—लो बोलो कर लो बात,....जनाब को कुछ पता ही नहीं। मैं मर भी जाऊंगा, तो भी तुझे पता नहीं चलेगा।....ओ शैतान की औलाद,—सच-सच बता दे !’’ लाला हांफ–सा गया था। उसका भावशून्य चेहरा विरूप हो उठा था।
‘‘मैं सच कहता हूं लाला।’’
‘‘तुझे मोटिए के बारे में कुछ नहीं मालूम ? क्या यह तू कहता है !’’ लाला ने अपनी लाल-लाल आंखें पूरा जोर लगाकर उसके मासूम चेहरे पर चिपकाने का प्रयास किया।
कल्लू सहम गया। उसके होंठों पर जड़ता छा गई। यथार्थतः वह नहीं जानता था कि मालूखां कब कहां से गया था ! लाला के सौ काम होते हैं। दिन में वह उसे कई जगह भेजता है। तब क्या उसे पता होता है ! कई बार तो लाला उसके कान में फूंक मारता है, और वह मुस्कुराकर सरपट दौड़ पड़ता है। देर से लौटता है।...इतनी देर से कि वह सो जाता है ?’’
‘‘क्यों रे, तू उससे डरता है ?’’
कल्लू सिर हिलाकर कहता है, ‘‘नहीं।’’
‘तो फिर बता दे, मेरे बाप, कि वह कहां गया है ?’’
‘‘सच में मुझे कुछ पता नहीं।’’ कल्लू गिड़गिड़ाने लगता। उसका खरगोश सा मन घबरा जाता।
‘‘मोटिया कहां गया है ?’’ लाला ने उसके अधूरे वाक्य को पूरा करते हुए अपना निचला होंठ काट लिया। लाला के कान हिलकर रह गए।
मालूखां मोटिया नहीं था। वह तो सींक-सलाई-सा पूरा मर्द था। उसके घनी मूछें थीं—बेतरतीब जंगली घास सी। उसका कद नाटा था। परन्तु उसके होंठ पतले थे और उसकी आंखें बड़ी व चमकदार थीं। वह गाता अच्छा था। सदा चिथड़ों से लिपटा रहकर भी वह खुश रहता था। कभी चिंता को वह अपने पास नहीं आने देता था। आकाश में उड़ते पक्षी के समान वह निर्द्वन्द्व और मस्त रहता था। न कभी उसे कोई शिकायत थी और न अपेक्षा। चाहे लाला उसे कितना भी दुत्कारता-फटकारता रहे परन्तु वह उसे कभी जवाब नहीं देता था—सिर्फ मुस्कुराकर रह जाता था। जैसे कुछ हुआ ही न हो कल्लू तब उस पर आंख गड़ा देता था और फिर पकड़ने का प्रयत्न करता था—वहां से पकड़ने का प्रयास करता था, जहां वह ऐसे अवसरों पर अपने को छिपाकर, कांटा, चुभने पर, सुमन-सा खिलकर अपने काम में लगा रहता था।
मालूखां का दिमाग और हाथ-पांव सपाट चलते थे। मानो उसके एक दिमाग और दो हाथ-पाँव न होकर अनेक हों। वह कैसे एक साथ कितने गिलास या कप प्लेट ग्राहकों के सामने रखता और कैसे वह उनको एक साथ समेट लेता उसका यह जादू देखते ही बनता था ! सारे दिन, सुबह से देर रात तक वह बिना किसा तनाव व थकान के दोहराता रहता था—दो चालू चाय, एक स्पेशल चार रस, दो मठरी....तीन चाय पांच में—एक फीकी, तीन कड़क। उसके कंधे पर सदा एक कपड़ा रहता था, जिसे वह चाबुक की तरह मेज पर चलाता रहता था।
मालूखां ग्रहकों का बहुत ध्यान रखता था। उसे उनकी पसंद-नापसंद की पहचान हो चली थी। वह ग्राहक के हाव-भाव को अच्छी तरह समझने लगा था।
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