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मचान पर उनंचास दिन

श्रीनिधि सिद्धान्तालंकार

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4090
आईएसबीएन :81-7043-646-x

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बीहड़-वन-प्रदेशों के लोमहर्षक अनुभव रोमांचक शिकार-साहित्य पर आधारित पुस्तक...

Machan Par Unchas Din

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

शिकार-साहित्य के सुप्रसिद्ध लेखक श्रीनिधि सिद्धान्तालंकार की जंगली पशुओं के जीवन और वातावरण के अध्ययन में बाल्यकाल से ही रुचि रही थी। सम्भवतः इसी कारण शिकारी जीवन के उनके संस्करण न केवल सामान्य से अधिक रोचक बन पड़े हैं, वरन् शिकार-साहित्य में अपने ढंग के निराले और अनूठे भी।
प्रस्तुत पुस्तक में बीहड़ वन-प्रदेश के लोमहर्षक अनुभव रोमांचक शिकार-साहित्य में बेजोड़ हैं। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि पाठक इसे आरम्भ करने के बाद साँस रोककर अंत तक पढ़ता ही चला जाता है।

निर्झर

(गद्य-गीत)

1

 

हमारे शिविर से-
कोस-भर दूर,
सप्तरुद्र की घाटी में,
है एक—
शैलसुता-स्तन-प्रस्रवित-दुग्ध-सा,
मुग्ध सा, शिशु निर्झर;
बताया था पता जिसका—
एक वनेचर कन्या ने।
थे तब हेमन्त के दिन;
फैला था वन-वन में—
पौष का आतंक।
ऐसे में एक दिन
ऊषा के प्रभात में ही—
छोड़ साथियों को मचान पर निद्रामग्न
निकल पड़ा मैं अकेला ही
उस निर्झर की खोज में।

न थी, प्रकृत-पथ की पहचान मुझे,
तो भी, उस सम्मुखवर्ती पर्वत पर-
दीख रहे थे जो सूने मृग-पथ,
चल पड़ा उन पर ही मैं
—अनुमान से ही—
अपने लक्ष्य की ओर।

खड़े थे,
ध्यान मग्न-जटाधर-तापसों से—
गगनचुम्बी पर्वत चारों ओर,
जिनके शून्य ग्वहरों में—
अब तक भी सो रहा था—
निशीथ का अन्धकार।
शिलाओं की ओट से
अब तक भी झाँक रही थीं—
भूखी भय-छायाएँ;
ऊँघ रही थीं अब तक भी
योग निद्र-मग्न-योगिनी सी-
घाटियाँ, निस्पन्द ! नीरव।
तो तभी,
आ लगती थी कभी-कभी कानों में
कहीं दूर से आती—
किसी अपरिचित प्राणी की कुहू-ध्वनि,
जिससे हो जाती थी
घाटी की निस्तब्धता और अधिक गंभीर।

या कभी-कभी,
जब मेरी ही ठोकर से
लुढ़क उठता था पत्थर कोई
नीचे की तमसावृत-अधित्यका की ओर
-खड़ खड़ करता
तब ऐसा लगता
जैसे, निद्राभंग से क्षुभित हुई—
स्वयं निस्तब्धता ही मानो,
कर रही हो मृदु-भर्तस्ना मेरी
-रह रह कर,
‘ऊँह ! ये क्या, ये क्या’ कहती।

और, उधर पास ही, खड़े हैं
कहीं-कहीं ठिठुरते से—बांसों के कुंज,
तम-कम्बल ओढ़े,
जिनके पत्रों से टपकते हुए ओसबिन्दु
गिर नीचे के शुष्क पत्रों पर सशब्द,
कर रहे हैं पैदा-हृदय में-
किसी के पद-शब्दों का भय।

या,
सुन पड़ जाती थी कभी-कभी,
किसी व्याघ्र भीत-काकड़ की पुकार,
जिससे गूँज उठती
समूची घाटी एक साथ;
बढ़ जाती हृदय की धड़कन,
हो उठता मैं सतर्क
किसी आगन्तुक भय की प्रतीक्षा में।


2


इसी तरह बीत गया
कितना ही मार्ग।
होने लगी पूर्व दिशा में
-सती नारी की मधु-मुस्कान सी-
नव उषा स्फुटित;
सुन पड़ने लगे
दिक्-प्रहरियों के तूर्य संदेश;
उठ गई निशा-जवनिका।

तब,
उस नव प्रभात की नव-बेला में
देखे मैंने कुछ ऐसे विमल-दृश्य,
जो थे, इतने उन्मादक
इतने आकर्षक,
कि, कतिपय क्षणों के लिए
ही उनमें आत्मविस्मृत,
कब जा पहुँचा मैं किस रहस्य-लोक में
पता ही न रहा मुझको।

देखा,
खड़े हैं सामने ही
-माघ-स्नायी-भक्तो से-
तुषार सिक्त, शत-शत वक पुष्प,
नीरव,
उठाये क्षुद्र-करों में
-लघु काय-अर्घ्यपात्र-
जल पूर्ण,
बाल सूर्योदय की प्रतीक्षा में।

कैसा, स्वर्गीय दृश्य
ओ, रहस्यमय पथिको,
सच कहना, कौन हो तुम
इन श्वेत वकपुष्पों के रूप में ?
किस लोक के वासी ?
हो यक्ष, गन्धर्व
या किन्नर कोई ?
जो जाते हुए द्यु-पथ से किसी दिव्य तीर्थ को
उतर गए हो-कुछ क्षणों के लिए-इस निर्जन घाटी में
प्रभात-वन्दना के निमित्त।

या सम्भव है,
तुम हो कोई, यक्षेश्वर के शापभ्रष्ट किंकर,
जो धर वकपुष्पों का रूप
कर रहे हो इस निर्जन घाटी में
-उस मेघदूत के यक्ष की तरह-
अपनी शाप-अवधि का यापन ?
या, यह भी तो सम्भव है, तुम रहे हो कोई
ब्रह्मलोक के श्वेतांबर उपदेशक,
जो आये हो, इस प्रतिहिंसक जग को-
अहिंसा-सन्देश सुनाने।


3

 


लो, उग आया दिन,
मिट गया वकपुष्पों का रहस्य।
चढ़ आया पर्वत शिखर पर-
बाल सूर्य का सप्त रश्मि रथ।

शुभ्र दुकूल ओढ़—
हँस उठीं दिशाएँ;
गा उठे खग,
सुन पड़ने लगे
द्रुम-द्रुम में-
सुप्तोत्थित कराइयों के सम्मिलित रव।



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