आचार्य श्रीराम शर्मा >> बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं, गुण दें बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं, गुण देंशैलबाला पण्डया
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बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं, गुण दें
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बच्चों को उत्तराधिकार में धन नहीं, गुण दें
लोग कारोबार करते, परिश्रम-पुरुषार्थ करते और जरुरत से कहीं ज्यादा
धन-दौलत जमीन-जायदाद इक्ट्ठी कर लेते हैं। किसलिए ? इसलिए कि वे सब अपने
बच्चों को उत्तराधिकार में दे सकें। बच्चे उनके अपने रूप होते हैं। सभी
चाहते हैं कि उनके बच्चे सुखी और समुन्नत रहें, इसी उद्देश्य से वे कुछ न
कुछ सम्पत्ति उनको उत्तराधिकार में दे जाने का प्रयत्न किया करते हैं।
किसी हद तक ठीक भी है। जिनको कुछ सम्पत्ति उत्तराधिकार में मिल जाती है उनको कुछ न कुछ सुविधा हो ही जाती है। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि जिनको धन-दौलत, जमीन-जायदाद उत्तराधिकार में मिल जाए उनका जीवन सुखी ही रहे। यदि जीवन का वास्तविक सुख धन-दौलत पर ही निर्भर होता है तो आज के सभी धनवानो को हर प्रकार से सुखी होना चाहिए था। बहुत से लोग आए दिन धन-दौलत कमाते और उत्तराधिकार में पाते रहते हैं। किन्तु फिर भी रोते-तड़पते और दु:खी होते देखे जाते हैं। जीवन में सुख-शान्ति के दर्शन नहीं होते।
सुख का निवास सद्गुणों में है, धन-दौलत में नहीं। जो धनी हैं और साथ में दुर्गुणी भी, उसका जीवन दु:खों का आगार बन जाता है। दुर्गुण एक तो यों ही दु:ख के स्रोत्र होते हैं फिर उनको धन-दौलत का सहारा मिल जाए तब तो वह आग जैसी तेजी से भड़क उठते हैं जैसे हवा का सहारा पाकर दावानल। मानवीय व्यक्तित्व का पूरा विकास सद्गुणों से ही होता है। निम्नकोटि के व्यक्तित्व वाला मनुष्य उत्तराधिकार में पाई हुई सम्पत्ति को शीघ्र ही नष्ट कर डालता है और उसके परिणाम में न जाने कितना दु:ख, दर्द, पीड़ा, वेदना, ग्लानि, पश्चाताप और रोग पाल लेता है।
जो अभिभावक अपने बच्चों में गुणों का विकास करने की ओर से उदासीन रहकर उन्हें केवल, उत्तराधिकार में धनदौलत दे जाने के प्रयत्न तथा चिन्ता में लगे रहते हैं वे भूल करते हैं। उन्हें बच्चों का सच्चा हितैषी भी कहा जा सकना कठिन है। गुणहीन बच्चों को उत्तराधिकार में धन-दौलत दे जाना पागल को तलवार दे जाने के समान है। इससे वह न केवल अपना ही अहित करेगा बल्कि समाज को भी कष्ट पहुँचाएगा। यदि बच्चों में सद्गुणों का समुचित विकास न करके धन-दौलत का अधिकार बना दिया गया और यह आशा की गई कि वे इसके सहारे जीवन में सुखी रहेंगे तो किसी प्रकार उचित न होगा। ऐसी प्रतिकूल स्थिति में वह सम्पत्ति सुख देना तो दूर उल्टे दुर्गुणों तथा दु:खों को ही बढ़ा देगी।
यही कारण तो है कि गरीबों के बच्चे अमीरों की अपेक्षा कम बिगड़े हुए दीखते हैं। गरीब आदमियों को तो रोज कुँआ खोदना और रोज पानी पीना होता है। शराबखोरी, व्यभिचारी अथवा अन्य खुराफातों के लिए उनके पास न तो समय होता है और न फालतू पैसा। निदान वे संसार के बहुत से दोषों से आप ही बच जाते हैं। इसके विपरीत अमीरों के बच्चों के पास काम तो कम और फालतू पैसा न समय ज्यादा होता है जिससे वे जल्दी ही गलत रास्तों पर चलते हैं। इसलिए आवश्यक है कि अपने बच्चों का जीवन सफल तथा सुखी बनाने के इच्छुक अभिभावक उनको उत्तराधिकार में धन-दौलत देने की अपेक्षा सद्गुणी बनाने की अधिक चिन्ता करें। यदि बच्चे सद्गुणी हों तो उत्तराधिकारों में न भी कुछ दिया जाए तब भी वे अपने बल पर सारी सुख-सुविधाएँ इकट्ठी कर लेंगे। गुणी व्यक्ति को धन-सम्पत्ति के लिए किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रहती।
जो अभिभावक अपने बच्चों को लाड़-प्यार तो करते हैं उन्हें पढ़ाते-लिखाते और कार-रोजगार से भी लगाते और प्रयत्नपूर्वक उत्तराधिकार में कुछ दे भी जाते हैं किन्तु उनके व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए गुणों का अभिवर्धन उनमें नहीं करते वे मानो अपना सच्चा कर्त्तव्य पूरा नहीं करते। उनका वास्तविक कर्त्तव्य यह है कि वे सन्तान को सभ्य सुशील और सद्गुणी बना कर जावें। उन्हें सात्त्विक स्वभाव, सद्बावनाओं तथा सत्प्रवृत्तियों की वह सम्पत्ति देकर जाएँ जो उनके इसी जीवन में ही नहीं जन्म-जन्मान्तर तक काम आए। सन्तान को धनवान, बलवान अथवा विद्यावान तो बना दिया गया किन्तु उनमें मानवीय व्यक्तित्व का विकास करने की ओर से उदासीनता बर्ती गई तो निश्चय ही वे अपने जीवन में सुखी नहीं रह सकते। केवल भौतिक साधन जुटा देने से बच्चे सुखी नहीं बन सकते। साधनों से कुछ सुविधा तो बड़ सकती है किन्तु शान्ति एवं सन्तोष का आधार तो सद्गुण तथा सद्प्रवृत्तियाँ ही हैं। कुसंस्कारी व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकते, जीवन में उन्हें वास्तविक शान्ति मिल सकना कठिन है। वैभव के कारण वे दूर से दूसरों को सुखी दिखाई दे सकते हैं किन्तु वास्तविकता की दृष्टि से वे बड़े ही अशान्त तथा दु:खी होते हैं। जो उच्च मन:स्थिति वास्तविक शान्ति के लिए अपेक्षित होती है, वह दुर्गुणी व्यक्ति में नहीं होती। इसलिए बच्चों के सच्चे हितैषी अभिभावकों का पहला कर्त्तव्य है कि वे उत्तराधिकार में उनके लिए धन-वैभव का भण्डार भले ही न छोड़ें किन्तु उन्हें सद्गुणी अवश्य बना जाएँ। जो अभिभावक ऐसा करने की बुद्धिमानी करते हैं, उनकी सन्तान निर्धनता की स्थिति में भी पूर्ण सुखी तथा सन्तुष्ट रहती है।
सन्तान को उत्तराधिकार में यदि कुछ सम्पत्ति देनी ही है तो उन्हें गुणों की सम्पत्ति अवश्य दीजिए। किन्तु यह सम्पत्ति आप से तभी पाएगें जब वह आपके पास स्वयं होगी। जो चीज स्वयं आपके पास न होगी वह आप बच्चों को दे भी कहाँ से सकते हैं। इसलिए बच्चों को उत्तराधिकार में देने के लिए प्रयत्नपूर्वक गुणों का स्वयं उपार्जन करिए।
बच्चों को देने योग्य गुण-समपत्ति का पहला रत्न है-श्रमशीलता। जो अभिभावक अपने बच्चों में श्रमशीलता का सद्गुण विकसित कर देते हैं, मानों उन्हें परोक्ष रूप से संसार की सारी सम्पदाओं का अधिकारी बना देते हैं। ऐसी कौन सी सम्पत्ति इस संसार में है जो श्रम में विश्वास रखनेवाले पुरषार्थी के लिए दुर्लभ हो सकती है। पुरुषार्थी अपने बाहुबल से मरुस्थल में पानी और धरती से धन प्राप्त कर सकता है। परिश्रमी व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थिति में भी उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। सारे सुख और सारी सम्पत्तियों का मूल परिश्रम को ही कहा गया है। उद्योगी पुरुष-सिंह को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसलिए बच्चों के लिए सम्पत्ति छोड़ने की उतनी चिंता न करिए जितना कि उन्हें श्रमशील तथा उपयोगी बनाने की।
बच्चों को परिश्रमशील बनाने के प्रयत्न के साथ स्वयं भी परिश्रमशील बनिए। अपना सारा काम अपने हाथ से करिये। उन्हें कभी भी आलस्य में पड़े-पड़े आराम मत करने दाजिए। यदि आप ऐसा करेंगे तो अपने प्रयत्न में सफल हो सकेंगे। बच्चों को परिश्रमपरक कार्यक्रम दीजिए। नियमित समय पर उन्हें अपने पाठों तथा पुस्तकों पर परिश्रम करते रहने की प्रेरणा तो देते ही रहिए साथ ही उन्हें शरीर की सफाई, कपड़ों तथा घर की सफाई में भी लगाइये। यथासम्भव पानी भरने और बाजार से खुद सामान लेकर आने का अभ्यास डालिए। कहीं यदि पास-पड़ोस में कोई कार्य हो तो उन्हें स्वयं सेवक बनाकर काम करने के लिए भेजिए। उन्हें शिक्षा दीजिए कि हाट-बाट में यदि कोई ऐसा अशक्त अथवा वृद्ध व्यक्ति मिल जाए जो अपना बोझ लेकर न चल पाता हो तो थोड़ी दूर तक उसका हाथ बटाएँ। सार्वजनिक स्थानों में जहाँ वे खेलने अथवा उठने-बैठने जाते हैं यदि कूड़ा-करकट ईंट-पत्थर पड़े दिखाई दें तो उन्हें साफ कर डालने में आलस्य न करें। साथ ही उन्हें कताई-बुनाई अथवा सिलाई आदि का कुछ ऐसा काम सिखलाएँ जो वे अपने खाली समय में कर सकें। बागवानी तथा रसोई वाटिका का काम तो उनके लिए बहुत ही रुचिकर तथा स्वास्थ्यदायक होगा। इसके अतिरिक्त जिस समय उनके खेलने का समय हो उस समय उन्हें घर पर कभी मत बैठा रहने दीजिए। उन्हें खेलने के लिए प्रेरित करिए और ऐसे खेल खेलने को दीजिए जिससे स्वास्थ्य, मनोरंजन तथा बुद्धि-विकास तीनों का उद्देश्य सम्पादित होता हो। कहने का तात्पर्य यह है कि बच्चे को रात में आराम के समय को छोड़कर, किसी समय भी भी बैठे अथवा पड़े रहने का अभ्यास मत पड़ने दाजिए। यदि आपके घर में कोई कार-रोजगार, दूकानदारी आदि का काम हो तो उन्हें कुछ देर उसमें लगाने के लिए मत भूलिए। इससे उनमें न केवल परिश्रमशीलता ही बढ़ेगी बल्कि वे कार-रोजगार में भी दक्ष होते चलेंगे।
परिश्रमशीलता के साथ बच्चों को उदारता का गुण भी देते जाइए। जो परिश्रमशील है, वह सुखी और सम्पन्न बनेगा ही। यदि उसमें उदारता का गुण नहीं होगा तो वह स्वार्थी हो जाएगा। सोचेगा कि मैं जो कुछ परिश्रम पूर्वक कमाता हूँ उसे दूसरों को क्यों दूँ। साथ ही उसमें हर चीज पर अपना अधिकार समझने का दोष आ जाएगा। उदार बनाने के लिए उन्हें अपने छोटे भाई-बहनों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करने की प्रेरणा दीजिए। बहुधा बच्चे खिलौने तथा अन्य खाने पीने के चीजों पर आपस में लड़ने और छीना-झपटी करने लगते हैं। उन्हें ऐसा न करने की प्रेरणा दीजिए। और बड़े बच्चे को अपने हाथ से छोटे भाई-बहनों को चीज बाँट कर पीछे खुद लेने को कहिए। ऐसे करने से वह चीज के विभाग करने में उत्तरदायी होने के कारण न्यायशील बनना और उनको अधिक भाग देने की उदारता बरतेगा जिससे उसे बड़प्पन का गौरव मिला है वह कलंकित न हो जाए।
किसी हद तक ठीक भी है। जिनको कुछ सम्पत्ति उत्तराधिकार में मिल जाती है उनको कुछ न कुछ सुविधा हो ही जाती है। किन्तु यह आवश्यक नहीं कि जिनको धन-दौलत, जमीन-जायदाद उत्तराधिकार में मिल जाए उनका जीवन सुखी ही रहे। यदि जीवन का वास्तविक सुख धन-दौलत पर ही निर्भर होता है तो आज के सभी धनवानो को हर प्रकार से सुखी होना चाहिए था। बहुत से लोग आए दिन धन-दौलत कमाते और उत्तराधिकार में पाते रहते हैं। किन्तु फिर भी रोते-तड़पते और दु:खी होते देखे जाते हैं। जीवन में सुख-शान्ति के दर्शन नहीं होते।
सुख का निवास सद्गुणों में है, धन-दौलत में नहीं। जो धनी हैं और साथ में दुर्गुणी भी, उसका जीवन दु:खों का आगार बन जाता है। दुर्गुण एक तो यों ही दु:ख के स्रोत्र होते हैं फिर उनको धन-दौलत का सहारा मिल जाए तब तो वह आग जैसी तेजी से भड़क उठते हैं जैसे हवा का सहारा पाकर दावानल। मानवीय व्यक्तित्व का पूरा विकास सद्गुणों से ही होता है। निम्नकोटि के व्यक्तित्व वाला मनुष्य उत्तराधिकार में पाई हुई सम्पत्ति को शीघ्र ही नष्ट कर डालता है और उसके परिणाम में न जाने कितना दु:ख, दर्द, पीड़ा, वेदना, ग्लानि, पश्चाताप और रोग पाल लेता है।
जो अभिभावक अपने बच्चों में गुणों का विकास करने की ओर से उदासीन रहकर उन्हें केवल, उत्तराधिकार में धनदौलत दे जाने के प्रयत्न तथा चिन्ता में लगे रहते हैं वे भूल करते हैं। उन्हें बच्चों का सच्चा हितैषी भी कहा जा सकना कठिन है। गुणहीन बच्चों को उत्तराधिकार में धन-दौलत दे जाना पागल को तलवार दे जाने के समान है। इससे वह न केवल अपना ही अहित करेगा बल्कि समाज को भी कष्ट पहुँचाएगा। यदि बच्चों में सद्गुणों का समुचित विकास न करके धन-दौलत का अधिकार बना दिया गया और यह आशा की गई कि वे इसके सहारे जीवन में सुखी रहेंगे तो किसी प्रकार उचित न होगा। ऐसी प्रतिकूल स्थिति में वह सम्पत्ति सुख देना तो दूर उल्टे दुर्गुणों तथा दु:खों को ही बढ़ा देगी।
यही कारण तो है कि गरीबों के बच्चे अमीरों की अपेक्षा कम बिगड़े हुए दीखते हैं। गरीब आदमियों को तो रोज कुँआ खोदना और रोज पानी पीना होता है। शराबखोरी, व्यभिचारी अथवा अन्य खुराफातों के लिए उनके पास न तो समय होता है और न फालतू पैसा। निदान वे संसार के बहुत से दोषों से आप ही बच जाते हैं। इसके विपरीत अमीरों के बच्चों के पास काम तो कम और फालतू पैसा न समय ज्यादा होता है जिससे वे जल्दी ही गलत रास्तों पर चलते हैं। इसलिए आवश्यक है कि अपने बच्चों का जीवन सफल तथा सुखी बनाने के इच्छुक अभिभावक उनको उत्तराधिकार में धन-दौलत देने की अपेक्षा सद्गुणी बनाने की अधिक चिन्ता करें। यदि बच्चे सद्गुणी हों तो उत्तराधिकारों में न भी कुछ दिया जाए तब भी वे अपने बल पर सारी सुख-सुविधाएँ इकट्ठी कर लेंगे। गुणी व्यक्ति को धन-सम्पत्ति के लिए किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रहती।
जो अभिभावक अपने बच्चों को लाड़-प्यार तो करते हैं उन्हें पढ़ाते-लिखाते और कार-रोजगार से भी लगाते और प्रयत्नपूर्वक उत्तराधिकार में कुछ दे भी जाते हैं किन्तु उनके व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए गुणों का अभिवर्धन उनमें नहीं करते वे मानो अपना सच्चा कर्त्तव्य पूरा नहीं करते। उनका वास्तविक कर्त्तव्य यह है कि वे सन्तान को सभ्य सुशील और सद्गुणी बना कर जावें। उन्हें सात्त्विक स्वभाव, सद्बावनाओं तथा सत्प्रवृत्तियों की वह सम्पत्ति देकर जाएँ जो उनके इसी जीवन में ही नहीं जन्म-जन्मान्तर तक काम आए। सन्तान को धनवान, बलवान अथवा विद्यावान तो बना दिया गया किन्तु उनमें मानवीय व्यक्तित्व का विकास करने की ओर से उदासीनता बर्ती गई तो निश्चय ही वे अपने जीवन में सुखी नहीं रह सकते। केवल भौतिक साधन जुटा देने से बच्चे सुखी नहीं बन सकते। साधनों से कुछ सुविधा तो बड़ सकती है किन्तु शान्ति एवं सन्तोष का आधार तो सद्गुण तथा सद्प्रवृत्तियाँ ही हैं। कुसंस्कारी व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकते, जीवन में उन्हें वास्तविक शान्ति मिल सकना कठिन है। वैभव के कारण वे दूर से दूसरों को सुखी दिखाई दे सकते हैं किन्तु वास्तविकता की दृष्टि से वे बड़े ही अशान्त तथा दु:खी होते हैं। जो उच्च मन:स्थिति वास्तविक शान्ति के लिए अपेक्षित होती है, वह दुर्गुणी व्यक्ति में नहीं होती। इसलिए बच्चों के सच्चे हितैषी अभिभावकों का पहला कर्त्तव्य है कि वे उत्तराधिकार में उनके लिए धन-वैभव का भण्डार भले ही न छोड़ें किन्तु उन्हें सद्गुणी अवश्य बना जाएँ। जो अभिभावक ऐसा करने की बुद्धिमानी करते हैं, उनकी सन्तान निर्धनता की स्थिति में भी पूर्ण सुखी तथा सन्तुष्ट रहती है।
सन्तान को उत्तराधिकार में यदि कुछ सम्पत्ति देनी ही है तो उन्हें गुणों की सम्पत्ति अवश्य दीजिए। किन्तु यह सम्पत्ति आप से तभी पाएगें जब वह आपके पास स्वयं होगी। जो चीज स्वयं आपके पास न होगी वह आप बच्चों को दे भी कहाँ से सकते हैं। इसलिए बच्चों को उत्तराधिकार में देने के लिए प्रयत्नपूर्वक गुणों का स्वयं उपार्जन करिए।
बच्चों को देने योग्य गुण-समपत्ति का पहला रत्न है-श्रमशीलता। जो अभिभावक अपने बच्चों में श्रमशीलता का सद्गुण विकसित कर देते हैं, मानों उन्हें परोक्ष रूप से संसार की सारी सम्पदाओं का अधिकारी बना देते हैं। ऐसी कौन सी सम्पत्ति इस संसार में है जो श्रम में विश्वास रखनेवाले पुरषार्थी के लिए दुर्लभ हो सकती है। पुरुषार्थी अपने बाहुबल से मरुस्थल में पानी और धरती से धन प्राप्त कर सकता है। परिश्रमी व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थिति में भी उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर लेता है। सारे सुख और सारी सम्पत्तियों का मूल परिश्रम को ही कहा गया है। उद्योगी पुरुष-सिंह को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसलिए बच्चों के लिए सम्पत्ति छोड़ने की उतनी चिंता न करिए जितना कि उन्हें श्रमशील तथा उपयोगी बनाने की।
बच्चों को परिश्रमशील बनाने के प्रयत्न के साथ स्वयं भी परिश्रमशील बनिए। अपना सारा काम अपने हाथ से करिये। उन्हें कभी भी आलस्य में पड़े-पड़े आराम मत करने दाजिए। यदि आप ऐसा करेंगे तो अपने प्रयत्न में सफल हो सकेंगे। बच्चों को परिश्रमपरक कार्यक्रम दीजिए। नियमित समय पर उन्हें अपने पाठों तथा पुस्तकों पर परिश्रम करते रहने की प्रेरणा तो देते ही रहिए साथ ही उन्हें शरीर की सफाई, कपड़ों तथा घर की सफाई में भी लगाइये। यथासम्भव पानी भरने और बाजार से खुद सामान लेकर आने का अभ्यास डालिए। कहीं यदि पास-पड़ोस में कोई कार्य हो तो उन्हें स्वयं सेवक बनाकर काम करने के लिए भेजिए। उन्हें शिक्षा दीजिए कि हाट-बाट में यदि कोई ऐसा अशक्त अथवा वृद्ध व्यक्ति मिल जाए जो अपना बोझ लेकर न चल पाता हो तो थोड़ी दूर तक उसका हाथ बटाएँ। सार्वजनिक स्थानों में जहाँ वे खेलने अथवा उठने-बैठने जाते हैं यदि कूड़ा-करकट ईंट-पत्थर पड़े दिखाई दें तो उन्हें साफ कर डालने में आलस्य न करें। साथ ही उन्हें कताई-बुनाई अथवा सिलाई आदि का कुछ ऐसा काम सिखलाएँ जो वे अपने खाली समय में कर सकें। बागवानी तथा रसोई वाटिका का काम तो उनके लिए बहुत ही रुचिकर तथा स्वास्थ्यदायक होगा। इसके अतिरिक्त जिस समय उनके खेलने का समय हो उस समय उन्हें घर पर कभी मत बैठा रहने दीजिए। उन्हें खेलने के लिए प्रेरित करिए और ऐसे खेल खेलने को दीजिए जिससे स्वास्थ्य, मनोरंजन तथा बुद्धि-विकास तीनों का उद्देश्य सम्पादित होता हो। कहने का तात्पर्य यह है कि बच्चे को रात में आराम के समय को छोड़कर, किसी समय भी भी बैठे अथवा पड़े रहने का अभ्यास मत पड़ने दाजिए। यदि आपके घर में कोई कार-रोजगार, दूकानदारी आदि का काम हो तो उन्हें कुछ देर उसमें लगाने के लिए मत भूलिए। इससे उनमें न केवल परिश्रमशीलता ही बढ़ेगी बल्कि वे कार-रोजगार में भी दक्ष होते चलेंगे।
परिश्रमशीलता के साथ बच्चों को उदारता का गुण भी देते जाइए। जो परिश्रमशील है, वह सुखी और सम्पन्न बनेगा ही। यदि उसमें उदारता का गुण नहीं होगा तो वह स्वार्थी हो जाएगा। सोचेगा कि मैं जो कुछ परिश्रम पूर्वक कमाता हूँ उसे दूसरों को क्यों दूँ। साथ ही उसमें हर चीज पर अपना अधिकार समझने का दोष आ जाएगा। उदार बनाने के लिए उन्हें अपने छोटे भाई-बहनों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करने की प्रेरणा दीजिए। बहुधा बच्चे खिलौने तथा अन्य खाने पीने के चीजों पर आपस में लड़ने और छीना-झपटी करने लगते हैं। उन्हें ऐसा न करने की प्रेरणा दीजिए। और बड़े बच्चे को अपने हाथ से छोटे भाई-बहनों को चीज बाँट कर पीछे खुद लेने को कहिए। ऐसे करने से वह चीज के विभाग करने में उत्तरदायी होने के कारण न्यायशील बनना और उनको अधिक भाग देने की उदारता बरतेगा जिससे उसे बड़प्पन का गौरव मिला है वह कलंकित न हो जाए।
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