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आचार्य श्रीराम शर्मा >> देवताओं अवतारों और ऋषियों की उपास्य गायत्री

देवताओं अवतारों और ऋषियों की उपास्य गायत्री

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4106
आईएसबीएन :000

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गायत्री क्यों सभी देवताओं की उपास्य है

Devtaon Avataron Aur Rishiyon Ki Upasya Gayatri

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सर्वफल प्रदा उपास्य सर्वश्रेष्ठ गायत्री

भारतीय धर्म के उपासना विज्ञान में गायत्री को सर्वोपरी माना गया है और सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसके कई कारण हैं, एक तो यह है कि इस महमंत्र के अक्षरों में बीज रूप में मानवीय संस्कृति एवं आदर्श वादिता के सारे सिद्धान्त सन्निहित हैं। इसे विश्व का सबसे छोटा मात्र 24 अक्षरों का वह ग्रंथ कह सकते हैं, जिसमें धर्म और अध्यात्म का समूचा तत्व ज्ञान सार के रूप में समाविष्ट मिल सकता है। इन अक्षरों की व्याख्या करते हुए जो कुछ मानवी प्रगति एवं सुव्यवस्था के लिए आवश्यक है, यही प्रज्ञा का, विवेकशीलता का मंत्र है। कहना न होगा कि मनुष्य जीवन की समस्त समस्याएँ दुर्बुद्धि के कारण उत्पन्न होती हैं। संसार पर आये दिन छाये रहने वाले संकट के बादल अशुभ चिन्तन के खारे समुद्र में ही उठते हैं। विवेक सर्वोपरी है। सद्बुद्धि से बढ़कर इस संसार में और कुछ नहीं है। यह तथ्य प्रज्ञा की देवी गायत्री को सर्वोपरी ठहराने में सन्निहित है।

गायत्री सद्बुद्धि ही है, इस महामंत्र में सद्बुद्धि के लिए  ईश्वर से प्रार्थना की गई। इसके 24 अक्षरों में 24 अमूल्य शिक्षा संदेश भरे हुए हैं, वे सद्बुद्धि के मूर्तिमान प्रतीक हैं, उन शिक्षाओं में वे सभी आधार मौजूद हैं जिन्हें हृदयंगम करने वाले संपूर्ण दृष्टिकोण शुद्ध हो जाता है और भ्रम जन्य अविद्या का नाश हो जाता है, जो आये दिन कोई न कोई कष्ट उत्पन्न करती है। गायत्री महामंत्र की रचना ऐसे वैज्ञानिक आधार पर हुई की उसकी साधना से आपने भीतर छिपे हुए अनेकों गुप्त शक्ति केन्द्र खुल जाते हैं और अन्त:स्थल में सात्विकता की निर्झरिणी बहने लगती है। विश्वव्यापी प्राण को अपनी प्रबल चुम्बक शक्ति से खींचकर अन्त: प्रदेश में जमा कर देने की अद्भुत शक्ति गायत्री में मौजूद है। इन सब कारणों से कुबुद्धि का शमन करने में गायत्री अचूक रामबाण मन्त्र की तरह प्रभावशाली सिद्ध होती है। इस शमन के साथ-साथ अनेकों दु:खों को समाप्त हो जाना भी पूर्णतया निश्चित है। गायत्री देवी प्रकाश की वह अखण्ड ज्योति है जिसके कारण कुबुद्धि का अज्ञानान्धकार दूर होता है और अपनी वही स्वाभाविक स्थिति प्राप्त हो जाती है, जिसको लेकर आत्मा इस पुण्यमयी धरती माता की परम शान्ति दायक गोदी में किलोल करने आया है।

मनुष्य ईश्वर का उत्तराधिकारी एवं राजकुमार है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है। अपने पिता के संपूर्ण गुण एवं वैभव बीज रूप से उसमें मौजूद हैं। जलते हुए अंगार में जो शक्ति है वही छोटी चिनगारी में भी मौजूद है। इतना होते हुए भी हम देखते हैं कि  मनुष्य निम्न कोटि का जीवन बिता रहा है। दिव्य होते हुए भी दैवी सम्पदाओं से वंचित हो रहा है।

परमात्मा सत् है, परन्तु उसके पुत्र हम असत् में निमग्न हो रहे हैं। परमात्मा चित् है, हम अन्धकार में डूबे हुए हैं। परमात्मा आनन्द स्वरूप है, हम दु:खों से संत्रस्त हो रहे हैं। ऐसी उल्टी परिस्थिति उत्पन्न हो जाने का कारण क्या है ? यह विचारणीय प्रश्न है।
जबकि ईश्वर का अविनाशी राजकुमार अपने पिता के इस सुरम्य उपवन संसार में विनोद क्रीड़ा के लिए आया हुआ है तो उसकी जीवन यात्रा आनन्दमयी न रहकर दु:ख-दारिद्र से भरी हुई क्यों बन गई है ? यह एक विचारणीय पहेली है।

अग्नि स्वभावत: उष्ण और प्रकाशवान होती है, परन्तु जब जलता हुआ अंगार बुझने लगता है, तो उसका ऊपरी भाग राख में ढक जाता है। तब उस राख से ढके हुए अंगार में वे दोनों ही गुण दृष्टिगोचर नहीं होते जो अग्नि में स्वभावत: होते हैं। बुझा हुआ, राख से ढका हुआ अंगार न तो गर्म होता है और न प्रकाशवान, वह काली-कलूटी कुरूप भस्म का ढेर मात्र बना हुआ पड़ा रहता है। जलते हुए अंगार को इस दुर्दशा में पहुँचाने का कारण वह भस्म है जिसने उसे चारों ओर से घेर लिया है। यदि यह राख की परत ऊपर से हटा दी जाय तो भीतरी भाग में फिर वैसी ही अग्नि मिल सकती है, जो उष्णता और प्रकाश के गुण से सुसम्पन्न हो।

परमात्मा सच्चिदानन्द है। वह आनन्द से ओत-प्रोत है। उसका पुत्र आत्मा भी आनन्दमय ही होना चाहिए। जीवन की विनोद क्रीडा करते हुए इन नन्दनवन में उसे आनन्द ही आनन्द अनुभव होना चाहिए। इस वास्तविकता को छुपाकर जो उसके बिल्कुल उल्टी दु:ख-दारिद्र और क्लेश-कलह की स्थिति उत्पन्न कर देती है, वह कुबुद्धि का रूप राख है। जैसे अंगार को राख ढककर उसको अपनी स्वाभाविक स्थिति से वंचित कर देती है, वैसे ही आत्मा की परम सात्विक, परम आनन्दमयी स्थिति को यह कुबुद्धि ढक लेती है और मनुष्य निकृष्ट कोटि का दीन-हीन जीवन व्यतीत करने लगता है।

‘कुबुद्धि’ को ही माया, असुरता, अन्धतमिस्र, अविद्या आदि नामों से पुकारते हैं। यह आवरण मनुष्य की मनोभूमि पर जितना मोटा चढ़ा होता है वह उतना ही दु:खी पाया जाता है। शरीर पर मैल की जितनी तह जम रही होगी उतनी ही खुजली मचेगी और दुर्गन्ध उमड़ेगी। यह तह जितनी ही कम होगी उतनी ही खुजली और दुर्गन्ध कम होगी। शरीर में दूषित विजातीय विष एकत्रित न हो किसी प्रकार का कोई रोग न होगा। पर यह विकृतियाँ जितनी अधिक जमा होती जायेंगी शरीर उतना ही रोगग्रस्त होता जायेगा। कुबुद्धि एक प्रकार से शरीर पर जमी हुई मैल की तह या रक्त से भरी हुई विषैली विकृति है; जिसके कारण खुजली, दुर्गन्ध, बीमारी तथा अनेक प्रकार की अन्य असुविधाओं के समान जीवन में नाना प्रकार की पीड़ा, चिन्ता, बेचैनी और परेशानी उत्पन्न होती रहती है।

लोग नाना प्रकार के दु:खों से दु:खी हैं। कोई बीमारी से कराह रहा है कोई गरीबी से दु:खी है, किसी का दाम्पत्य जीवन कष्टमय है, किसी को सन्तान की चिन्ता है। व्यापार में घाटा, उन्नति में अड़चन, असफलता की आशंका, मुकद्दमा, शत्रु के आक्रमण का भय, अन्याय का उत्पीड़न, मित्रों का विश्वासघात, दहेज की चिन्ता, प्रियजनों का विछोह आदि दु:ख आये दिनों दु:खी बनाये रहते हैं। व्यक्तिगत जीवन की भाँति धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में अशान्ति कम नहीं है। यदि कोई व्यक्ति अपने आपको सम्भाल कर रखे, तो भी व्यापक बुराइयों एवं कुव्यवस्थाओं के कारण उसकी शान्ति नष्ट हो जाती है और जीवन का आनन्दमय उद्देश्य प्राप्त करने में बाधा पड़ती है।

दु:ख चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक उनका कारण एक ही है और वह है कुबुद्धि। संसार में इतने प्रचुर परिणाम में सुख साधन भरे पड़े हैं कि इन खिलौनों से खेलते-खेलते सारा जीवन हँसी-खुशी से बीत सकता है। मनुष्य को ऐसा अमूल्य शरीर, मस्तिष्क एवं इन्द्रिय समूह मिला हुआ है कि इसके द्वारा साधारण वस्तुओं एवं परिस्थितियों में भी इतना आनन्द लिया जा सकता है कि स्वर्ग भी उसकी तुलना में तुच्छ सिद्ध हो। इतना सब होते हुए भी लोग बेतरह दु:खी हैं, जिन्दगी में कोई रस नहीं, मौत के दिन पूरे करने के लिए समय को एक बोझ की तरह काटा जा रहा है। मन में चिन्ता, बेबसी, भय, दीनता और बेचैनी की अग्नि दिनभर जलती रहती है, जिसके कारण पुराणों में वर्णित नारकीय यातनाओं जैसी व्यथायें सहनी पड़ती हैं।

यह संसार चित्र सा सुन्दर है, इसमें कुरूपता का एक कण भी नहीं। यह विश्व विनोदमयी क्रीड़ा का प्रांगण है इसमें चिन्ता और भय के लिए कोई स्थान नहीं। यह जीवन आनन्द का निर्बाध निर्झर है, इसमें दु:खी रहने का कोई कारण नहीं। स्वर्गदपि गरीयसी-इस जननी भूमि में वे सभी तत्व मौजूद हैं जो मानस की कली को खिलाते हैं। इस सुर दुर्लभ नर तन की रचना ऐसे सुन्दर ढंग से हुई है कि साधारण वस्तुओं को वह अपने स्पर्श मात्र से ही सरस बना लेता है। परमात्मा का राजकुमार आत्मा इस संसार में क्रीडा कलोल करने आता है। उसे शरीर रूपी रथ, इन्द्रियों रूपी सेवक, मस्तिष्क रूपी मंत्र देकर परमात्मा ने यहाँ इसलिए भेजा है कि इस नंदन वन जैसे संसार की शोभा को देखे, उसमें सर्वत्र बिखरी हुई सफलता का स्पर्श और आस्वादन करे। प्रभु के इस महान उद्देश्य में बाधा उपस्थित करने वाली, स्वर्ग को नरक बना देने वाली कोई वस्तु है तो वह केवल कुबुद्धि ही है।

स्वस्थता हमारी स्वाभाविक स्थिति है बीमारी अस्वाभाविक एवं अपनी भूल से पैदा हुई है। पशु-पक्षी जो प्रकृति का स्वाभाविक अनुकरण करते हैं, बीमार नहीं पड़ते, वे सदा स्वास्थ्य का सुख भोगते हैं पर मनुष्य नाना प्रकार के मिथ्या आहार-विहार द्वारा बीमारी को न्योंत बुलाता है। यदि वह भी अपनी आहार-विहार प्रकृति के अनुकूल रखे तो कभी बीमार न पड़े। इसी प्रकार सद्बुद्धि स्वाभाविक है। यह ईश्वर प्रदत्त है, दैवी है, जन्म जात है, जीवन संगिनी है। संसार में भेजते समय प्रभु हमें सद्बुद्धि रूपी कामधेनु भी देते हैं ताकि वह हमारे सम्पूर्ण सुख-साधन जुटाती रहे, परन्तु हम भूलवश, भ्रमवश, अज्ञानवश, मायाग्रस्त होकर सद्बुद्धि को त्यागकर कुबुद्धि को अपना लेते हैं और उसे मिथ्याचरण में बीमारी न्योत बुलाई जाती है वैसे ही मानसिक अव्यवस्था के कारण कुबुद्धि को आमंत्रित किया जाता है। यह पिशाचिनी जहाँ आई नहीं कि जीवन का सारा क्रम उल्टा नहीं। दोनों एक साथ नहीं रह सकतीं। जहाँ कुबुद्धि होगी, वहाँ अशान्ति, चिन्ता, तृष्णा, नीचता, कायरता आदि की कष्ट कारक स्थितियों का ही निवास होगा।

रंगीन काँच का चश्मा पहन लेने पर आँखों से भी वस्तुएं रंगीन दिखाई देती हैं। यद्यपि उन वस्तुओं का वैसा रंग नहीं होता फिर भी चश्मे के काँच का रंग जैसा होता है, वैसा ही आस पास का जगत दिखाई देने लगता है। कुबुद्धि का चश्मा लगाने से, बुद्धि-भ्रम हो जाने से सीधी साधारण सी परिस्थितियाँ और घटनायें भी दु:खदाई दिखाई देने लगती हैं। गायत्री महामंत्र का प्रधान कार्य कुबुद्धि का निवारण और ऋतम्भरा प्रज्ञा का जागरण है।
इसके अतिरिक्त गायत्री मंत्र में एक और विशेषता यह है कि उसमें शब्द विज्ञान-स्वर शास्त्र का जैसा संगम हुआ है, वैसा अन्य किसी मंत्र में नहीं हुआ है। साधनारत योगियों और तपस्वियों ने अपने प्रयोग, परीक्षणों और अनुभवों के आधार पर जो तुलनात्मक उत्कृष्टता देखी है, उसी से प्रभावित होकर उन्होंने गायत्री महाशक्ति को सर्वोपरी स्थान दिया। इस संदर्भ में मिलनेवाले शास्त्र वचनों में से कुछ इस प्रकार हैं :-

गायत्र्या न परं मन्त्रं न बीजं प्रणवाधिकम्।
गायत्र्या न परं जप्यं गायत्र्या न परं तप:।
गायत्र्या न परं ध्यानं गायत्र्या न परं हुतम्।
हविष्यं घृतसंयुक्तं गायत्री पूर्वकम्।


विश्वामित्र कल्प


अर्थात्- गायत्री से बढ़कर अन्य कोई मन्त्र, जप, ध्यान, तप कहीं नहीं हैं। गायत्री यज्ञ से बढ़कर और कोई यज्ञ नहीं है।

गायत्री परदेवतेति गहिता ब्रह्मैव चिद्रूपिणी।।


देव्युपनिषद्


अर्थात्- गायत्री परादेवता कही गई है और वह चित्तस्वरूपा गायत्री साक्षात् ब्रह्म ही है।
‘महाभारत’ में भीष्म पितामाह का वचन है कि-
जो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ गायत्री का जप करता है वह परम सिद्धि को पाता है।



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