आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री पंचमुखी और एकमुखी गायत्री पंचमुखी और एकमुखीश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री को पंचमुखी और एकमुखी क्यों कहते है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गायत्री पंचमुखी और एकमुखी
गायत्री के पाँच मुख
गायत्री के पंचमुखी प्रतिमाओं का प्रचलन इसी प्रयोजन के लिए है कि इस
महाकाल की साधना का अवलम्बन करने वालों को यह विदित रहे कि हमें आगे चलकर
क्या करना है ? जप, ध्यान, स्तोत्र-पाठ, पूजन, हवन, यह आरम्भिक
क्रिया-कृत्य हैं। इनसे शरीर की शुद्धि और मन की एकाग्रता का प्रारम्भिक
प्रयोजन पूरा होता है। इससे अगली मंजिलें कड़ी हैं। उनकी पूर्ति के लिए
साधक को जानकारी प्राप्त करनी चाहिए और उस मार्ग पर चलने के लिए आवश्यक
तत्परता, दृढ़ता एवं क्षमता का सम्पादन करना चाहिए। इतना स्मरण, यदि साधक
रख सका, तो समझना चाहिए कि उसने गायत्री पंचमुखी चित्रण का प्रयोजन ठीक
तरह से समझ लिया।
वस्तुतः गायत्री परम ब्रह्म परमात्मा की विश्व-व्यापीता महाशक्ति है। उसका कोई स्वरूप नहीं। ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है गायत्री का देवता सविता है। सविता का अर्थ है सूर्य-प्रकाश पुञ्ज। जब गायत्री महाशक्ति का अवतरण साधक में होता है, तो साधक को ध्यान में प्रकाश बिन्दु एवं वृत्त का आभास मिलता है। उसे अपने हृदय, शिर, नाभि अथवा आँखों में छोटा या बड़ा प्रकाश पिण्ड दिखाई पड़ता है। यह कभी घटता कभी बढ़ता है। इसमें कई तरह की, कई आकृतियाँ भी, कई रंगों की प्रकाश किरणें दृष्टिगोचर होती हैं। यह आरम्भ में हिलती-डुलती रहती हैं, कभी प्रकट कभी लुप्त होती हैं, पर धीरे-धीरे वह स्थित आ जाती है कि विभिन्न आकृतियाँ, हलचलें एवं रंगों का निराकरण हो जाता है और केवल प्रकाश बिन्दु ही शेष रह जाता है प्राथमिक स्थिति में यह प्रकाश छोटे आकार का एवं स्वल्प तेज का होता है, किन्तु जैसे-जैसे आत्मिक प्रगति ऊर्ध्वगामी होती है, वैसे-वैसे प्रकाश वृत्त बड़े आकार का, अधिक उल्लास भरा दिखाई देता है, जैसे प्रातःकाल के उगते हुए सूर्य की गरमी पाकर कमल की कलियाँ खिल पड़ती हैं, वैसे ही अन्तरात्मा इस प्रकाश अनुभूति को देखकर ब्रह्मानन्द का, परमानन्द का, सच्चिदानन्द का अनुभव करता है। जिस प्रकार चकोर रात भर चन्द्रमा को देखता रहता है, वैसी ही साधक की इच्छा होती है कि इस प्रकाश को ही देखकर आनन्द विभोर होता रहे। कई बार ऐसी भावना भी उठती है कि जिस प्रकार दीपक पर पतंगा अपना प्राण होम देता है, अपनी तुच्छ सत्ता को अपने प्रकाश की महत्ता में विलीन होने का उपक्रम करता है, वैसे ही मैं भी अपने अहं को इस प्रकाश रूप ब्रह्म में लीन कर दूँ।
यह निराकार ब्रह्म के ध्यान की थोड़ी झाँकी हुई। अनुभूति की दृष्टि से साधक को ऐसा भान होता है, मानो उसे ब्रह्म-ज्ञान की, तत्वदर्शन की अनुभूति हो रही हो, ज्ञान के सारांश का जो निष्कर्ष है। उत्कृष्ट आदर्शवादी क्रिया-कलाप से जीवन को ओत-प्रोत कर लेना वही आकांक्षा एवं प्रेरणा मेरे भीतर जाग रही है। जाग ही नहीं वरन संकल्प का, निश्चय का, अवस्था का, तथ्य का रूप धारण कर रही है। प्रकाश की अनुभूति का यही चिह्न है। माया-मोह और स्वार्थ–संकीर्णता का अज्ञान तिरोहित होने से मनुष्य विशाल दृष्टिकोण से सोचता है और महान् आत्माओं जैसी साहसपूर्ण गतिविधियाँ अपनाता है। उसे लोभी और स्वार्थी, मोहग्रस्त, मायाबद्ध लोगों की तरह परमार्थ पथ पर साहसपूर्ण कदम बढ़ाते हुए न तो झिझक लगती है और न संकोच होता है। जो उचित है उसे करने के लिए निर्भीकता पूर्वक साहस भरे कदम उठाता हुआ श्रेय पथ पर अग्रसर होने के लिए द्रुतिगति से बढ़ चलता है।
यह तो गायत्री रूपी परमब्रह्म सत्ता के उच्चस्तरीय ज्ञान एवं ध्यान का स्वरूप हुआ। प्रारम्भिक स्थिति में ऐसी उच्चस्तरीय अनुभूतियाँ सम्भव नहीं होती, उस दशा में प्रारम्भिक क्रम ही चलाना पड़ता है। जप, पूजन, ध्यान, स्तवन, हवन जैसे शरीर साध्य क्रिया-कलाप ही प्रयोग में आते हैं। तब चित्त या प्रतिमा का अवलंबन ग्रहण किये बिना काम नहीं चल सकता प्रारम्भिक उपासना, साकार माध्यम से ही सम्भव है। निराकार का स्तर काफी ऊँचे उठ जाने पर आता है। उस स्थिति में भी प्रतिमा का विरोध या परित्याग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती वरन् उसे नित्य कर्म में सम्मिलित रखकर संचित संस्कार को बनाये रहना पड़ता है। इमारत की नींव में कंकड़-पत्थर भरे जाते हैं। नींव जम जाने पर तरह-तरह के डिजायन की इमारतें उस पर खड़ी होती हैं। नींव में पड़े हुए कंकड़-पत्थर दृष्टि से ओझल हो जाते हैं, फिर भी उनका उपहास उड़ाने, परित्याग करने या निकाल फेंकने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन् यह मानना पड़ता है कि उस विशाल एवं बहुमूल्य इमारत का आधार वे नींव में भरे हुए कंकड़-पत्थर ही हैं। साकार उपासना की आध्यात्मिक प्रगति भी नींव भरना कहा जा सकता है। आरम्भिक स्थिति में उसकी अनिवार्य आवश्यकता ही मानी गई है। अस्तु अध्यात्म का आरम्भ चिर अतीत से प्रतिमा पूजन के सहारे हुआ है और क्रमश-आगे बढ़ता चला गया है।
गायत्री महाशक्ति की आकृति का निर्धारण भी इसी संदर्भ में हुआ है। अन्य देव प्रतिमाओं की तरह उसका विग्रह भी आदिकाल से ही ध्यान एवं पूजन में प्रयुक्त होता रहा है।
सामान्यता एक मुख और दो भुजावाली मानव आकृति प्रतिमा ही अधिक उपुक्त है। पूजन और ध्यान उसी का ठीक बनता है। सगी माता मानने के लिए गायत्री को भी वैसे ही हाथ-पैर वाली होना चाहिए जैसा कि साधक होता है। इसलिए ध्यान एवं पूजन में सदा से दो भुजाओं वाली और एक मुख वाली पुस्तक एवं कमण्डल धारण करने वाली हंसवाहिनी गायत्री माता का प्रयोग होता रहा है, किन्तु कतिपय स्थानों में पंचमुखी प्रतिमा एवं चित्र भी देखे जाते हैं। इनका ध्यान-पूजन भले ही उपयुक्त न हो, पर उनमें एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण, संदेश एवं निर्देश अवश्य ही भरा हुआ है। हमें उसी को देखना समझना चाहिए।
गायत्री के पाँच मुख जीव के ऊपर लिपटे हुए पंच कोश –पाँच आवरण हैं और दस भुजाएँ, दस सिद्धियाँ एवं अनुभूतियाँ हैं। पाँच भुजाएँ बायीं और पाँच दाहिनी ओर हैं। उसका संकेत गायत्री महाशक्ति के साथ जुड़ी हुई पाँच भौतिक और पाँच आध्यात्मिक शक्तियों एवं सिद्धियों की ओर है। इस महाशक्ति का अवतरण जहाँ भी होगा, वहाँ वे दस अनुभूतियाँ विशेषताएँ-सम्पदाएँ निश्चित रूप से परिलक्षित होंगी। साधना का अर्थ एक नियत पूजा स्थल पर बैठकर अमुक क्रिया-कलाप पूरा कर लेना मात्र ही नहीं वरन् समस्त जीवन को साधनामय बनाकर अपने गुण, कर्म, स्वभाव को इतने उत्कृष्ट स्तर का बनाना है कि उसमें वे विभूतियाँ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगें, जिनका संकेत पंचमुखी माता की प्रतिमा में दस भुजाएँ दिखा कर किया जाता है। भुजाएँ, शक्तियाँ एवं सामर्थ्य की प्रतीक हैं। साधना का उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना है। दश शक्तियाँ, दस सिद्धियाँ जीवन साधना के द्वारा जब प्राप्त की जाने लगें, तो समझना चाहिए कि कोई गायत्री उपासक उच्चस्तरीय साधना पथ पर सफलता पूर्वक अग्रसर हो रहा है।
गायत्री के पाँच मुख हमें बताते हैं कि जीवन के ऊपर केवल इस हाड़-मांस वाले एक शरीर का ही आवरण नहीं है वरन् ऐसे ही पाँच शरीरों को यह जीव धारण किये हुए है। अंग में एक ही शरीर दीखता है, शेष चार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होते, फिर भी उनकी सामर्थ्य क्रमशः एक से एक की बढ़ी-चढ़ी है। न दीखते हुए भी इतने शक्ति सम्पन्न हैं कि उनकी क्षमताओं को जगाया जा सकना असम्भव हो सके, तो मनुष्य तुच्छ से महान् और आत्मा से परमात्मा बन सकता है।
जीव पर चढ़े हुए पाँच आवरणों, पाँच कोशों के नाम हैं (1) अन्नमय कोश (2) प्राणमय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञानमय कोश (5) आनन्दमय कोश।
जिस प्रकार प्याज की गाँठ में एक के बाद एक पर्त निकलते हैं, जिस प्रकार केले के तने को खोलने पर उसमें एक के भीतर एक कलेवर निकलते हैं, उसी प्रकार जीव के ऊपर भी एक के बाद एक क्रमशः पाँच आवरण लिपटे हुए हैं। जिस प्रकार शरीर के ऊपर बनियान, कमीज, जाकिट, को, कम्बल आदि धारण करते हैं, उसी तरह जीव ने भी पाँच आवरण धारण किया है। इनमें से हर एक की कीमत एक के बाद एक अधिक होती चली गयी है।
इन पाँच कोशों की—गायत्री के पाँच मुखों की संक्षिप्त जानकारी नीचे प्रस्तुत की जा रही है—
वस्तुतः गायत्री परम ब्रह्म परमात्मा की विश्व-व्यापीता महाशक्ति है। उसका कोई स्वरूप नहीं। ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है गायत्री का देवता सविता है। सविता का अर्थ है सूर्य-प्रकाश पुञ्ज। जब गायत्री महाशक्ति का अवतरण साधक में होता है, तो साधक को ध्यान में प्रकाश बिन्दु एवं वृत्त का आभास मिलता है। उसे अपने हृदय, शिर, नाभि अथवा आँखों में छोटा या बड़ा प्रकाश पिण्ड दिखाई पड़ता है। यह कभी घटता कभी बढ़ता है। इसमें कई तरह की, कई आकृतियाँ भी, कई रंगों की प्रकाश किरणें दृष्टिगोचर होती हैं। यह आरम्भ में हिलती-डुलती रहती हैं, कभी प्रकट कभी लुप्त होती हैं, पर धीरे-धीरे वह स्थित आ जाती है कि विभिन्न आकृतियाँ, हलचलें एवं रंगों का निराकरण हो जाता है और केवल प्रकाश बिन्दु ही शेष रह जाता है प्राथमिक स्थिति में यह प्रकाश छोटे आकार का एवं स्वल्प तेज का होता है, किन्तु जैसे-जैसे आत्मिक प्रगति ऊर्ध्वगामी होती है, वैसे-वैसे प्रकाश वृत्त बड़े आकार का, अधिक उल्लास भरा दिखाई देता है, जैसे प्रातःकाल के उगते हुए सूर्य की गरमी पाकर कमल की कलियाँ खिल पड़ती हैं, वैसे ही अन्तरात्मा इस प्रकाश अनुभूति को देखकर ब्रह्मानन्द का, परमानन्द का, सच्चिदानन्द का अनुभव करता है। जिस प्रकार चकोर रात भर चन्द्रमा को देखता रहता है, वैसी ही साधक की इच्छा होती है कि इस प्रकाश को ही देखकर आनन्द विभोर होता रहे। कई बार ऐसी भावना भी उठती है कि जिस प्रकार दीपक पर पतंगा अपना प्राण होम देता है, अपनी तुच्छ सत्ता को अपने प्रकाश की महत्ता में विलीन होने का उपक्रम करता है, वैसे ही मैं भी अपने अहं को इस प्रकाश रूप ब्रह्म में लीन कर दूँ।
यह निराकार ब्रह्म के ध्यान की थोड़ी झाँकी हुई। अनुभूति की दृष्टि से साधक को ऐसा भान होता है, मानो उसे ब्रह्म-ज्ञान की, तत्वदर्शन की अनुभूति हो रही हो, ज्ञान के सारांश का जो निष्कर्ष है। उत्कृष्ट आदर्शवादी क्रिया-कलाप से जीवन को ओत-प्रोत कर लेना वही आकांक्षा एवं प्रेरणा मेरे भीतर जाग रही है। जाग ही नहीं वरन संकल्प का, निश्चय का, अवस्था का, तथ्य का रूप धारण कर रही है। प्रकाश की अनुभूति का यही चिह्न है। माया-मोह और स्वार्थ–संकीर्णता का अज्ञान तिरोहित होने से मनुष्य विशाल दृष्टिकोण से सोचता है और महान् आत्माओं जैसी साहसपूर्ण गतिविधियाँ अपनाता है। उसे लोभी और स्वार्थी, मोहग्रस्त, मायाबद्ध लोगों की तरह परमार्थ पथ पर साहसपूर्ण कदम बढ़ाते हुए न तो झिझक लगती है और न संकोच होता है। जो उचित है उसे करने के लिए निर्भीकता पूर्वक साहस भरे कदम उठाता हुआ श्रेय पथ पर अग्रसर होने के लिए द्रुतिगति से बढ़ चलता है।
यह तो गायत्री रूपी परमब्रह्म सत्ता के उच्चस्तरीय ज्ञान एवं ध्यान का स्वरूप हुआ। प्रारम्भिक स्थिति में ऐसी उच्चस्तरीय अनुभूतियाँ सम्भव नहीं होती, उस दशा में प्रारम्भिक क्रम ही चलाना पड़ता है। जप, पूजन, ध्यान, स्तवन, हवन जैसे शरीर साध्य क्रिया-कलाप ही प्रयोग में आते हैं। तब चित्त या प्रतिमा का अवलंबन ग्रहण किये बिना काम नहीं चल सकता प्रारम्भिक उपासना, साकार माध्यम से ही सम्भव है। निराकार का स्तर काफी ऊँचे उठ जाने पर आता है। उस स्थिति में भी प्रतिमा का विरोध या परित्याग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती वरन् उसे नित्य कर्म में सम्मिलित रखकर संचित संस्कार को बनाये रहना पड़ता है। इमारत की नींव में कंकड़-पत्थर भरे जाते हैं। नींव जम जाने पर तरह-तरह के डिजायन की इमारतें उस पर खड़ी होती हैं। नींव में पड़े हुए कंकड़-पत्थर दृष्टि से ओझल हो जाते हैं, फिर भी उनका उपहास उड़ाने, परित्याग करने या निकाल फेंकने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन् यह मानना पड़ता है कि उस विशाल एवं बहुमूल्य इमारत का आधार वे नींव में भरे हुए कंकड़-पत्थर ही हैं। साकार उपासना की आध्यात्मिक प्रगति भी नींव भरना कहा जा सकता है। आरम्भिक स्थिति में उसकी अनिवार्य आवश्यकता ही मानी गई है। अस्तु अध्यात्म का आरम्भ चिर अतीत से प्रतिमा पूजन के सहारे हुआ है और क्रमश-आगे बढ़ता चला गया है।
गायत्री महाशक्ति की आकृति का निर्धारण भी इसी संदर्भ में हुआ है। अन्य देव प्रतिमाओं की तरह उसका विग्रह भी आदिकाल से ही ध्यान एवं पूजन में प्रयुक्त होता रहा है।
सामान्यता एक मुख और दो भुजावाली मानव आकृति प्रतिमा ही अधिक उपुक्त है। पूजन और ध्यान उसी का ठीक बनता है। सगी माता मानने के लिए गायत्री को भी वैसे ही हाथ-पैर वाली होना चाहिए जैसा कि साधक होता है। इसलिए ध्यान एवं पूजन में सदा से दो भुजाओं वाली और एक मुख वाली पुस्तक एवं कमण्डल धारण करने वाली हंसवाहिनी गायत्री माता का प्रयोग होता रहा है, किन्तु कतिपय स्थानों में पंचमुखी प्रतिमा एवं चित्र भी देखे जाते हैं। इनका ध्यान-पूजन भले ही उपयुक्त न हो, पर उनमें एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण, संदेश एवं निर्देश अवश्य ही भरा हुआ है। हमें उसी को देखना समझना चाहिए।
गायत्री के पाँच मुख जीव के ऊपर लिपटे हुए पंच कोश –पाँच आवरण हैं और दस भुजाएँ, दस सिद्धियाँ एवं अनुभूतियाँ हैं। पाँच भुजाएँ बायीं और पाँच दाहिनी ओर हैं। उसका संकेत गायत्री महाशक्ति के साथ जुड़ी हुई पाँच भौतिक और पाँच आध्यात्मिक शक्तियों एवं सिद्धियों की ओर है। इस महाशक्ति का अवतरण जहाँ भी होगा, वहाँ वे दस अनुभूतियाँ विशेषताएँ-सम्पदाएँ निश्चित रूप से परिलक्षित होंगी। साधना का अर्थ एक नियत पूजा स्थल पर बैठकर अमुक क्रिया-कलाप पूरा कर लेना मात्र ही नहीं वरन् समस्त जीवन को साधनामय बनाकर अपने गुण, कर्म, स्वभाव को इतने उत्कृष्ट स्तर का बनाना है कि उसमें वे विभूतियाँ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगें, जिनका संकेत पंचमुखी माता की प्रतिमा में दस भुजाएँ दिखा कर किया जाता है। भुजाएँ, शक्तियाँ एवं सामर्थ्य की प्रतीक हैं। साधना का उद्देश्य शक्ति प्राप्त करना है। दश शक्तियाँ, दस सिद्धियाँ जीवन साधना के द्वारा जब प्राप्त की जाने लगें, तो समझना चाहिए कि कोई गायत्री उपासक उच्चस्तरीय साधना पथ पर सफलता पूर्वक अग्रसर हो रहा है।
गायत्री के पाँच मुख हमें बताते हैं कि जीवन के ऊपर केवल इस हाड़-मांस वाले एक शरीर का ही आवरण नहीं है वरन् ऐसे ही पाँच शरीरों को यह जीव धारण किये हुए है। अंग में एक ही शरीर दीखता है, शेष चार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होते, फिर भी उनकी सामर्थ्य क्रमशः एक से एक की बढ़ी-चढ़ी है। न दीखते हुए भी इतने शक्ति सम्पन्न हैं कि उनकी क्षमताओं को जगाया जा सकना असम्भव हो सके, तो मनुष्य तुच्छ से महान् और आत्मा से परमात्मा बन सकता है।
जीव पर चढ़े हुए पाँच आवरणों, पाँच कोशों के नाम हैं (1) अन्नमय कोश (2) प्राणमय कोश (3) मनोमय कोश (4) विज्ञानमय कोश (5) आनन्दमय कोश।
जिस प्रकार प्याज की गाँठ में एक के बाद एक पर्त निकलते हैं, जिस प्रकार केले के तने को खोलने पर उसमें एक के भीतर एक कलेवर निकलते हैं, उसी प्रकार जीव के ऊपर भी एक के बाद एक क्रमशः पाँच आवरण लिपटे हुए हैं। जिस प्रकार शरीर के ऊपर बनियान, कमीज, जाकिट, को, कम्बल आदि धारण करते हैं, उसी तरह जीव ने भी पाँच आवरण धारण किया है। इनमें से हर एक की कीमत एक के बाद एक अधिक होती चली गयी है।
इन पाँच कोशों की—गायत्री के पाँच मुखों की संक्षिप्त जानकारी नीचे प्रस्तुत की जा रही है—
(1)
अन्नमय कोश
गायत्री के पाँछ मुखों में आत्मा के पाँच कोशों में प्रथम का
नाम
अन्नमय कोश है। अन्न का तात्त्विक अर्थ है—पृथ्वी का रस। पृथ्वी
से
जल, अनाज, फल, तरकारी, घास आदि पैदा होती है। उन्हीं से दूध, घी, मांस आदि
भी बनते हैं। यह सब अन्न कहे जाते हैं। इन्हीं के द्वारा रज-वीर्य बनते
हैं और इन्हीं से दस शरीर का निर्माण होता है। अन्न द्वारा ही देह बढ़ती
और पुष्ट होती है तथा अन्न रूपी पृथ्वी में ही भस्म होकर सड़-गल कर मिल
जाती है। अन्न से उत्पन्न होने वाला और उसी में मिल जाने वाला यह देह इसी
प्रधानता के कारण ‘अन्नमय कोश’ कहा जाता है।
यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि हाड़-मांस का जो पुतला दिखाई देता है, वह अन्नमय कोश की आधीनता में है, पर उसे ही अन्नमय कोश न समझ लेना चाहिए। मृत्यु हो जाने पर देह तो नष्ट हो जाती है पर अन्नमय कोश नष्ट नहीं होता वह जीव के साथ रहता है। बिना शरीर के भी जीव भूत योनि में या स्वर्ग-नरक में उन भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, चोट, दर्द आदि को सहता है जो स्थूल शरीर से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार उसे उन इन्द्रिय भोगों की चाह रहती है जो शरीर द्वारा ही भोगे जाने सम्भव हैं। भूतों की इच्छाएँ वैसी ही आहार-विहार की रहती है जैसी कि शरीरधारी मनुष्यों की होती हैं। इससे प्रकट है कि अन्नमय प्रकट है कि अन्नमय कोश शरीर संचालक, कारण, उत्पादक, उपभोक्ता, आदि तो है, पर उससे पृथक् भी। इसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है।
यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि हाड़-मांस का जो पुतला दिखाई देता है, वह अन्नमय कोश की आधीनता में है, पर उसे ही अन्नमय कोश न समझ लेना चाहिए। मृत्यु हो जाने पर देह तो नष्ट हो जाती है पर अन्नमय कोश नष्ट नहीं होता वह जीव के साथ रहता है। बिना शरीर के भी जीव भूत योनि में या स्वर्ग-नरक में उन भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, चोट, दर्द आदि को सहता है जो स्थूल शरीर से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार उसे उन इन्द्रिय भोगों की चाह रहती है जो शरीर द्वारा ही भोगे जाने सम्भव हैं। भूतों की इच्छाएँ वैसी ही आहार-विहार की रहती है जैसी कि शरीरधारी मनुष्यों की होती हैं। इससे प्रकट है कि अन्नमय प्रकट है कि अन्नमय कोश शरीर संचालक, कारण, उत्पादक, उपभोक्ता, आदि तो है, पर उससे पृथक् भी। इसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है।
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