आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री साधना से कुण्डलिनी जागरण गायत्री साधना से कुण्डलिनी जागरणश्रीराम शर्मा आचार्य
|
9 पाठकों को प्रिय 237 पाठक हैं |
गायत्री साधना से कुण्डलिनी जागरण कैसे हों
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गायत्री उपासना से कुण्डलिनी जागरण
पुराणों में ब्रह्मा जी के दो पत्नी होने का उल्लेख है। (1) गायत्री (2)
सावित्री। वस्तुतः इस अलंकारिक चित्रण के पीछे परमात्मा की दो प्रमुख
शक्तियों के होने का भाव दर्शाया गया है, पहली भाव चेतना या परा प्रकृती
दूसरी पदार्थ चेतना या अपरा प्रकृति। सृष्टि में मन, बुद्धि, चित्त,
अहंकार आदि की जो भी क्रियाशीलता दिखाई देती है, वह सब परा प्रकृति अथवा
गायत्री विद्या के अन्तर्गत आती है। गायत्री उपासना से भावनाओं का विकास
इस सीमा तक होता है, जिससे मनुष्य ब्रह्माण्डीय चेतना-परमात्मा से सम्बन्ध
जोड़ कर समाधि, स्वर्ग, मुक्ति का आनन्द लाभ प्राप्त करता है।
जगत की दूसरी सत्ता जड़ प्रकृति है। परमाणुओं का अपनी धुरी पर परिभ्रमण और विभिन्न संयोगों के द्वारा अनेक पदार्थो तथा जड़ जगत की रचना इसी के अन्तर्गत आती है। बाह्य जीवन प्रकृति परमाणुओं से अत्यधिक प्रभावित प्रतीत होने के कारण भौतिक जीवन में से अधिक महत्व दिया गया है। विज्ञान की समस्त धाराएँ इसी के अन्तर्गत आती है। आज की भौतिक प्रगति को सावित्री साधना का एक अंग कहा जा सकता है, पर उसका मूल अभी तक भौतिक विज्ञान की पकड़ में नहीं आया। इसी कारण अच्छे से अच्छे यंत्र बना लेने पर भी मानवीय प्रतिभा अपूर्ण लगती है। उसकी पूर्णता सावित्री उपासना से होती है।
योग विज्ञान के अन्तर्गत कुण्डलिनी साधना की चर्चा प्रायः होती है। कुण्डलिनी साधना वस्तुतः चेतन प्रकृति द्वारा जड़ पदार्थों के नियंत्रण की ही विद्या है। भौतिक विज्ञान तो उपकरण और यंत्र साध्य होते हैं, पर परा और अपरा प्रकृति के संयोग से प्राप्त विज्ञान में ऐसी कोई जटिल प्रणाली आवश्यक नहीं होती। परमात्मा का बनाया हुआ सर्व समर्थ शरीर ही उन आवश्यकताओं को पूर्ण कर देता है। रेडियो, ट्रांसमिशन में तो केवल संदेश- संप्रेषण की एकांगी व्यवस्था रहती है, पर शरीर एक ऐसा समर्थ यंत्र है, यदि उसके पूरी तरह संचालन की जानकारी हो जाये तो मनुष्य ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने की किसी भी शक्ति सत्ता से सम्पर्क स्थापित कर सकता है, हलचल और परिवर्तन प्रस्तुत कर सकता है। इन साधनों के अन्तर्गत जिस परमाणु शक्ति का नियंत्रण, प्रयोग प्रक्षेपण होता है। उसे प्राण कहते हैं। प्राण वस्तुतः एक ऐसा आग्नेय स्फल्लिंग है जिसे जड़ भी कह सकते हैं, चेतन भी। इस अर्द्धचेतन परमाणु को देखने जानने, विकसित करने, विस्फोट करने नियंत्रित करने, आदि की विद्या का साधना का नाम कुण्डलिनी साधना है।
अतीत कालीन भारत को देखें तो पता चलता है कि हमारी प्रगति आत्मिक ही नहीं रही भौतिक दृष्टि से भी यह देश की समृद्धि और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचा है। इस जगत को माया, मिथ्या, भ्रम, जंजाल कहा गया, यह मध्य युग की देन है। दोनों अपेक्षाओं में संगति संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता कुण्डलिनी साधना द्वारा पूर्ण होती रही है। गायत्री उपासना द्वारा ऋतम्भरा प्रज्ञा का विकास और कुण्ड़लिनी साधना द्वारा भौतिक सिद्धियों सार्मर्थ्यों की उपलब्धि से यहाँ का जीवन क्रम परिपूर्ण बना रहा। लोक और परलोक दोनों में प्रत्यक्ष स्वर्ग की आनन्दानुभूति होती रही। इसीलिए गायत्री और सावित्री दोनों ही उपासनाओं को समान महत्व दिया गया है। कुण्डलिनी साधना में इन दोनों का समन्वय है। इस विज्ञान का सहयोग लिए बिना आज का विज्ञान भी मानवता का कल्याण नहीं कर सकता।
गायत्री और सावित्री दोनों परस्पर पूरक है। इनके मध्य कोई प्रतिद्वन्दिता नहीं। गंगा- यमुना की तरह ब्रह्म हिमालय की इन्हें दो निर्झरिणी कह सकते हैं। सच तो यह है कि दोनों अविच्छिन्न रूप से एक दूसरे के साथ गुँथी हुई हैं। इन्हें एक प्राण दो शरीर कहना चाहिए। ब्रह्मज्ञानी को भी रक्त मांस का शरीर और उसके निर्वाह का साधन चाहिए, पदार्थों का सूत्र संचालन चेतना के बिना सम्भव नहीं। इस प्रकार यह सृष्टि क्रम दोनों के संयुक्त प्रयास से चल रहा है। जड़ चेतन का संयोग बिखर जाय तो फिर दोनों में से एक का भी अस्तित्व शेष न रहेगा। दोनों अपने मूल कारण में विलीन हो जायेंगे। इसे सृष्टि के, प्रगति के दो पहिए कहना चाहिए। एक के बिना दूसरा निरर्थक है। अपंग तत्वज्ञानी और मूढ मति नर -पशु दोनों ही अधूरे हैं। शरीर में दो भुजाएँ, दो पैर, दो आँखें, दो फेंफड़े, दो गुर्दे आदि हैं। ब्रह्म शरीर भी दो शक्ति धाराओं आदि किसी भी शब्द प्रयोग के सहारे यह सृष्टि प्रपंच संजोये हुए है, इन्हें उसकी दो पत्नियाँ, दो धाराऐं आदि किसी भी शब्द प्रयोग के सहारे ठीक तरह वस्तुस्थिति को समझने का प्रयोजन पूरा किया जा सकता है। पत्नी शब्द अलंकार मात्र है। चेतन सत्ता का कुटुम्ब परिवार मनुष्यो जैसा कहाँ है ? अग्नि तत्व की दो विशेषताऐं हैं-गर्मी और रोशनी। कोई चाहे तो इन्हें अग्नि की दो पत्नियाँ कह सकते हैं। यह शब्द अरुचिकर लगे तो पुत्रियाँ कह सकते हैं। सरस्वती को कहीं ब्रह्मा की पुत्री कहीं पत्नी कहा गया है। इसे स्थूल मनुष्य व्यवहार जैसा नहीं समझना चाहिए। यह अलंकारिक वर्णन मात्र उपमा भर के लिए है। आत्मशक्ति को गायत्री और वस्तु शक्ति को सावित्री कहते हैं। सावित्री साधना को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। उसमें शरीरगत प्राण ऊर्जा की प्रसुप्ति विकृति के निवारण का प्रयास होता है। बिजली की ऋण और धन दो धाराएँ होती हैं। दोनों के मिलने से शक्ति प्रवाह बहता है। गायत्री और सवित्री के समन्वय से साधना की समग्र आवश्यकता पूरी होती है। गायत्री साधना का सन्तुलित लाभ उठाने के लिए सावित्री शक्ति को भी साथ लेकर चलना पड़ता है।
समन्वयात्मक साधना का जितना महत्व है उतना एकांगी का, असंबद्ध का नहीं। प्रायः साधना क्षेत्र में इन दिनों यही भूल होती रही है। ज्ञान -मार्गी राजयोगी, भक्तिपरक साधना तक सीमित रह जाते हैं और हठयोगी, कर्मकाण्डी तप साधनाओं में निमग्न रहते हैं। उपयोगिता दोनों की है। महत्ता किसी की भी कम नहीं, (पर उनका एकांगीपन उचित नहीं) दोनों को जोड़ा और मिलाया जाना चाहिए। यह शिव- पार्वती विवाह का गणेश जैसा भावनात्मक वरदान और कार्तिकेय जैसे पदार्थात्मक अनुदानों की भूमिका प्रस्तुत कर सकता है।
हम समन्वयात्मक साधना की उपयोगिता मानते रहे हैं और उसी का मार्गदर्शन करते रहते हैं। वैदिक योग साधना के साथ -साथ तान्त्रिक प्रयोगों को भी महत्व दिया है। गायत्री साधना को प्रमुखता देते हुए भी कुण्डलिनी जागरण की उपयोगिता को माना है। यही कारण है कि प्रथम पाठ पढ़ाने के बाद अब दूसरे पाठ की भी पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। इसे प्रकारान्तर न समझा जाय इसमें विरोधाभास न खोजा जाय। यह इकलौती सन्तान के बड़े होने पर उसका जोड़ा मिलाने, विवाह करने का प्रयत्न मार्ग यों गायत्री के देवता सविता को विष्णु या शिव मानते हैं और उनकी पत्नी अग्नि लक्ष्मी काली को कुण्डलिनी का प्रतीक माना गया है। इस प्रकार सुगम युग्म एक प्रकार से नर- नारी का शिव- पार्वती का विवाह ही हुआ है। धनुष तोड़ने की प्रक्रिया पूरी करके इसे सिया- स्वयंवर, राम- जानकी का विवाह सम्पन्न करना कहा जा सकता है। पर यदि कोई कुण्डलिनी और गायत्री में भाषा की दृष्टि से एक ही लिंग देखता हो तो भी उसे कुछ अचम्भा नहीं करना चाहिए। अभी पिछले ही दिनों में दो नारियों ने परस्पर कानूनी विवाह किया है। कुछ दिन पूर्व दो पुरुष भी ऐसा ही समलिंगी विवाह कर चुके हैं।
जीव और ब्रह्म दो पुल्लिंग होते हुए भी परस्पर विवाह करते हैं। साक्षी दृष्टा ब्रह्म निष्क्रिय है, उसकी परा-अपरा प्रकृतियाँ दोनों परस्पर मिल जुलकर ही अपने संयोग-संभोग से इस समस्त सृष्टि का सृजन कर संचालन कर रही है। यह कथन अलंकार भर हैं। वस्तुतः नर- नारी जैसा लिंग भेद सूक्ष्म जगत में कहीं है ही नहीं। गायत्री या कुण्डलिनी को स्त्री और ब्रह्म शिव को पुरुष मानना अपनी बात को चेतना का उदाहरण देकर समझाना भर है। तत्वतः इस उच्च शक्ति क्षेत्र में नर- नारी जैसा कोई भेद है ही नहीं। इस जगत में भी जिन ब्रह्मवादियों को तत्वज्ञान हो जाता है, वे नर- नारी के शरीर भेदों के अन्तर को भी सर्वथा भुला ही देते हैं। उन्हें सभी में एक लिंग, एक तत्व दिखाई पड़ता है। उनकी दृष्टि में न कोई नर है न नारी। अद्वैत ज्ञान में भेद बुद्धि समाप्त होते ही नर- नारी की भिन्नता भी समाप्त हो जाती है। कुण्डलिनी और गायत्री विद्याओं के सम्बन्ध में यदि विवाह, संयोग, समन्वय जैसी चर्चा अलंकारिक रूप से आ पड़े तो उसमें कुछ विस्मय न किया जाय, इसीलिए यह पंक्तियाँ लिखी गई हैं।
तत्वदर्शियों ने गायत्री और कुण्डलिनी को परस्पर पूरक माना है। और एकात्म भाव में देखा है। इसके कुछ प्रकरण आगे देखिए-
कुण्डलिनी साधना के अन्तर्गत षटचक्र वेधन प्रक्रिया मुख्य है। यही इस साधना का प्रधान आधार है। गायत्री शक्ति भी वही प्रजोयन पूरा करती है। इस प्रकार मूलतः वे दोनों एक ही छड़ के दो सिरों की तरह अभिन्न ही हैं। षट्चक्र जागरण में कुण्डलिनी शक्ति को गायत्री का सहकार प्राप्त हो जाता है।
गायत्री- मन्त्र का ‘भू-कार’ भू-तत्त्व या पृथ्वी -तत्व है। साधना के मार्ग में वह मूलाधार चक्र है। फिर जगन्माता के निम्नस्तर ब्राह्मी या इच्छा- शक्ति महायोनि पीठ में सृष्टि- तत्व है। ‘भुवः’ भुवर्लोक या अन्तरिक्ष तत्व। साधना की दृष्टि से यह विशुद्धि चक्र है और महाशक्ति के मध्यस्तर में पीनोन्नत पयोधर में, वैष्णवी या क्रिया- शक्ति पालन व सृष्टि तत्व है। ‘स्वःकार’ सुरलोक या स्वर्ग- तत्व। साधना के पथ में सहस्रार निर्दिष्ट चक्र एवं आद्यशक्ति के ऊर्ध्व या उच्चस्तर में गौरी या ज्ञान -शक्ति, संहार या लय तत्व है। यही वेदमाता गायत्री का स्वरूप तथा स्थान रहस्य है।’’
यों ज्ञान चेतना समस्त शरीर में संव्याप्त है पर उसका केन्द्र मस्तिष्क माना गया है। यों क्रिया संपूर्ण शरीर में फैली पड़ी है, पर उसका केन्द्र स्थल जननेन्द्रिय है। नपुंसक व्यक्ति प्रायः सभी उच्चगुणों के अभिवर्धन और साहस भरे पुरुषार्थो के सम्पादन में असमर्थ रहते हैं। किसी को नपुंसक क्लीव कहना उसकी अन्तःक्षमता को अपमानित करना है। शरीर के अन्य अंग दुर्बल हों तो उसके बिना प्रगति रुकेगी नहीं पर नपुंसक से कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य बन पड़ना कठिन है। सरकारी नौकरियों में भर्ती करते समय डाक्टरी जाँच में यह भी परीक्षा की जाती है कि वह व्यक्ति नपुंसक तो नहीं है। शारीरिक विशेषताओं का केन्द्र इसीलिए जननेन्द्रिय गह्वर के मर्मस्थल योनि केन्द्र को माना गया है।
साधना के यही दो मर्मस्थल है। उन्हें ही कायपिण्ड के दो ध्रुव कहते हैं। यों विद्युत एक ही है पर उसे दो भागों में विभाजित किया गया है-एक धन (पोजेटिव) दूसरी ऋण (नेगेटिव) मानवीय समान चेतना की धन विद्युत इस ज्ञान केन्द्र मस्तिष्क केन्द्र में केन्द्रित है -इस स्थल को अध्यात्म की भाषा में सहस्रर कहते हैं। दूसरी ऋण विद्युत काय केन्द्र जननेन्द्रिय मूल में ही जिसे मूलाधार कहते हैं। इन दो केन्द्रो में से ज्ञान केन्द्र को गायत्री का और काम केन्द्र को कुण्डलिनी का उद्गम केन्द्र कहा गया है। भौतिक क्षमताऐं- समृद्धियाँ, सिद्धियाँ कुण्डलिनी में प्रादुर्भूत होती है
जगत की दूसरी सत्ता जड़ प्रकृति है। परमाणुओं का अपनी धुरी पर परिभ्रमण और विभिन्न संयोगों के द्वारा अनेक पदार्थो तथा जड़ जगत की रचना इसी के अन्तर्गत आती है। बाह्य जीवन प्रकृति परमाणुओं से अत्यधिक प्रभावित प्रतीत होने के कारण भौतिक जीवन में से अधिक महत्व दिया गया है। विज्ञान की समस्त धाराएँ इसी के अन्तर्गत आती है। आज की भौतिक प्रगति को सावित्री साधना का एक अंग कहा जा सकता है, पर उसका मूल अभी तक भौतिक विज्ञान की पकड़ में नहीं आया। इसी कारण अच्छे से अच्छे यंत्र बना लेने पर भी मानवीय प्रतिभा अपूर्ण लगती है। उसकी पूर्णता सावित्री उपासना से होती है।
योग विज्ञान के अन्तर्गत कुण्डलिनी साधना की चर्चा प्रायः होती है। कुण्डलिनी साधना वस्तुतः चेतन प्रकृति द्वारा जड़ पदार्थों के नियंत्रण की ही विद्या है। भौतिक विज्ञान तो उपकरण और यंत्र साध्य होते हैं, पर परा और अपरा प्रकृति के संयोग से प्राप्त विज्ञान में ऐसी कोई जटिल प्रणाली आवश्यक नहीं होती। परमात्मा का बनाया हुआ सर्व समर्थ शरीर ही उन आवश्यकताओं को पूर्ण कर देता है। रेडियो, ट्रांसमिशन में तो केवल संदेश- संप्रेषण की एकांगी व्यवस्था रहती है, पर शरीर एक ऐसा समर्थ यंत्र है, यदि उसके पूरी तरह संचालन की जानकारी हो जाये तो मनुष्य ब्रह्माण्ड के किसी भी कोने की किसी भी शक्ति सत्ता से सम्पर्क स्थापित कर सकता है, हलचल और परिवर्तन प्रस्तुत कर सकता है। इन साधनों के अन्तर्गत जिस परमाणु शक्ति का नियंत्रण, प्रयोग प्रक्षेपण होता है। उसे प्राण कहते हैं। प्राण वस्तुतः एक ऐसा आग्नेय स्फल्लिंग है जिसे जड़ भी कह सकते हैं, चेतन भी। इस अर्द्धचेतन परमाणु को देखने जानने, विकसित करने, विस्फोट करने नियंत्रित करने, आदि की विद्या का साधना का नाम कुण्डलिनी साधना है।
अतीत कालीन भारत को देखें तो पता चलता है कि हमारी प्रगति आत्मिक ही नहीं रही भौतिक दृष्टि से भी यह देश की समृद्धि और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचा है। इस जगत को माया, मिथ्या, भ्रम, जंजाल कहा गया, यह मध्य युग की देन है। दोनों अपेक्षाओं में संगति संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता कुण्डलिनी साधना द्वारा पूर्ण होती रही है। गायत्री उपासना द्वारा ऋतम्भरा प्रज्ञा का विकास और कुण्ड़लिनी साधना द्वारा भौतिक सिद्धियों सार्मर्थ्यों की उपलब्धि से यहाँ का जीवन क्रम परिपूर्ण बना रहा। लोक और परलोक दोनों में प्रत्यक्ष स्वर्ग की आनन्दानुभूति होती रही। इसीलिए गायत्री और सावित्री दोनों ही उपासनाओं को समान महत्व दिया गया है। कुण्डलिनी साधना में इन दोनों का समन्वय है। इस विज्ञान का सहयोग लिए बिना आज का विज्ञान भी मानवता का कल्याण नहीं कर सकता।
गायत्री और सावित्री दोनों परस्पर पूरक है। इनके मध्य कोई प्रतिद्वन्दिता नहीं। गंगा- यमुना की तरह ब्रह्म हिमालय की इन्हें दो निर्झरिणी कह सकते हैं। सच तो यह है कि दोनों अविच्छिन्न रूप से एक दूसरे के साथ गुँथी हुई हैं। इन्हें एक प्राण दो शरीर कहना चाहिए। ब्रह्मज्ञानी को भी रक्त मांस का शरीर और उसके निर्वाह का साधन चाहिए, पदार्थों का सूत्र संचालन चेतना के बिना सम्भव नहीं। इस प्रकार यह सृष्टि क्रम दोनों के संयुक्त प्रयास से चल रहा है। जड़ चेतन का संयोग बिखर जाय तो फिर दोनों में से एक का भी अस्तित्व शेष न रहेगा। दोनों अपने मूल कारण में विलीन हो जायेंगे। इसे सृष्टि के, प्रगति के दो पहिए कहना चाहिए। एक के बिना दूसरा निरर्थक है। अपंग तत्वज्ञानी और मूढ मति नर -पशु दोनों ही अधूरे हैं। शरीर में दो भुजाएँ, दो पैर, दो आँखें, दो फेंफड़े, दो गुर्दे आदि हैं। ब्रह्म शरीर भी दो शक्ति धाराओं आदि किसी भी शब्द प्रयोग के सहारे यह सृष्टि प्रपंच संजोये हुए है, इन्हें उसकी दो पत्नियाँ, दो धाराऐं आदि किसी भी शब्द प्रयोग के सहारे ठीक तरह वस्तुस्थिति को समझने का प्रयोजन पूरा किया जा सकता है। पत्नी शब्द अलंकार मात्र है। चेतन सत्ता का कुटुम्ब परिवार मनुष्यो जैसा कहाँ है ? अग्नि तत्व की दो विशेषताऐं हैं-गर्मी और रोशनी। कोई चाहे तो इन्हें अग्नि की दो पत्नियाँ कह सकते हैं। यह शब्द अरुचिकर लगे तो पुत्रियाँ कह सकते हैं। सरस्वती को कहीं ब्रह्मा की पुत्री कहीं पत्नी कहा गया है। इसे स्थूल मनुष्य व्यवहार जैसा नहीं समझना चाहिए। यह अलंकारिक वर्णन मात्र उपमा भर के लिए है। आत्मशक्ति को गायत्री और वस्तु शक्ति को सावित्री कहते हैं। सावित्री साधना को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं। उसमें शरीरगत प्राण ऊर्जा की प्रसुप्ति विकृति के निवारण का प्रयास होता है। बिजली की ऋण और धन दो धाराएँ होती हैं। दोनों के मिलने से शक्ति प्रवाह बहता है। गायत्री और सवित्री के समन्वय से साधना की समग्र आवश्यकता पूरी होती है। गायत्री साधना का सन्तुलित लाभ उठाने के लिए सावित्री शक्ति को भी साथ लेकर चलना पड़ता है।
समन्वयात्मक साधना का जितना महत्व है उतना एकांगी का, असंबद्ध का नहीं। प्रायः साधना क्षेत्र में इन दिनों यही भूल होती रही है। ज्ञान -मार्गी राजयोगी, भक्तिपरक साधना तक सीमित रह जाते हैं और हठयोगी, कर्मकाण्डी तप साधनाओं में निमग्न रहते हैं। उपयोगिता दोनों की है। महत्ता किसी की भी कम नहीं, (पर उनका एकांगीपन उचित नहीं) दोनों को जोड़ा और मिलाया जाना चाहिए। यह शिव- पार्वती विवाह का गणेश जैसा भावनात्मक वरदान और कार्तिकेय जैसे पदार्थात्मक अनुदानों की भूमिका प्रस्तुत कर सकता है।
हम समन्वयात्मक साधना की उपयोगिता मानते रहे हैं और उसी का मार्गदर्शन करते रहते हैं। वैदिक योग साधना के साथ -साथ तान्त्रिक प्रयोगों को भी महत्व दिया है। गायत्री साधना को प्रमुखता देते हुए भी कुण्डलिनी जागरण की उपयोगिता को माना है। यही कारण है कि प्रथम पाठ पढ़ाने के बाद अब दूसरे पाठ की भी पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। इसे प्रकारान्तर न समझा जाय इसमें विरोधाभास न खोजा जाय। यह इकलौती सन्तान के बड़े होने पर उसका जोड़ा मिलाने, विवाह करने का प्रयत्न मार्ग यों गायत्री के देवता सविता को विष्णु या शिव मानते हैं और उनकी पत्नी अग्नि लक्ष्मी काली को कुण्डलिनी का प्रतीक माना गया है। इस प्रकार सुगम युग्म एक प्रकार से नर- नारी का शिव- पार्वती का विवाह ही हुआ है। धनुष तोड़ने की प्रक्रिया पूरी करके इसे सिया- स्वयंवर, राम- जानकी का विवाह सम्पन्न करना कहा जा सकता है। पर यदि कोई कुण्डलिनी और गायत्री में भाषा की दृष्टि से एक ही लिंग देखता हो तो भी उसे कुछ अचम्भा नहीं करना चाहिए। अभी पिछले ही दिनों में दो नारियों ने परस्पर कानूनी विवाह किया है। कुछ दिन पूर्व दो पुरुष भी ऐसा ही समलिंगी विवाह कर चुके हैं।
जीव और ब्रह्म दो पुल्लिंग होते हुए भी परस्पर विवाह करते हैं। साक्षी दृष्टा ब्रह्म निष्क्रिय है, उसकी परा-अपरा प्रकृतियाँ दोनों परस्पर मिल जुलकर ही अपने संयोग-संभोग से इस समस्त सृष्टि का सृजन कर संचालन कर रही है। यह कथन अलंकार भर हैं। वस्तुतः नर- नारी जैसा लिंग भेद सूक्ष्म जगत में कहीं है ही नहीं। गायत्री या कुण्डलिनी को स्त्री और ब्रह्म शिव को पुरुष मानना अपनी बात को चेतना का उदाहरण देकर समझाना भर है। तत्वतः इस उच्च शक्ति क्षेत्र में नर- नारी जैसा कोई भेद है ही नहीं। इस जगत में भी जिन ब्रह्मवादियों को तत्वज्ञान हो जाता है, वे नर- नारी के शरीर भेदों के अन्तर को भी सर्वथा भुला ही देते हैं। उन्हें सभी में एक लिंग, एक तत्व दिखाई पड़ता है। उनकी दृष्टि में न कोई नर है न नारी। अद्वैत ज्ञान में भेद बुद्धि समाप्त होते ही नर- नारी की भिन्नता भी समाप्त हो जाती है। कुण्डलिनी और गायत्री विद्याओं के सम्बन्ध में यदि विवाह, संयोग, समन्वय जैसी चर्चा अलंकारिक रूप से आ पड़े तो उसमें कुछ विस्मय न किया जाय, इसीलिए यह पंक्तियाँ लिखी गई हैं।
तत्वदर्शियों ने गायत्री और कुण्डलिनी को परस्पर पूरक माना है। और एकात्म भाव में देखा है। इसके कुछ प्रकरण आगे देखिए-
कुण्डलिनी साधना के अन्तर्गत षटचक्र वेधन प्रक्रिया मुख्य है। यही इस साधना का प्रधान आधार है। गायत्री शक्ति भी वही प्रजोयन पूरा करती है। इस प्रकार मूलतः वे दोनों एक ही छड़ के दो सिरों की तरह अभिन्न ही हैं। षट्चक्र जागरण में कुण्डलिनी शक्ति को गायत्री का सहकार प्राप्त हो जाता है।
गायत्री- मन्त्र का ‘भू-कार’ भू-तत्त्व या पृथ्वी -तत्व है। साधना के मार्ग में वह मूलाधार चक्र है। फिर जगन्माता के निम्नस्तर ब्राह्मी या इच्छा- शक्ति महायोनि पीठ में सृष्टि- तत्व है। ‘भुवः’ भुवर्लोक या अन्तरिक्ष तत्व। साधना की दृष्टि से यह विशुद्धि चक्र है और महाशक्ति के मध्यस्तर में पीनोन्नत पयोधर में, वैष्णवी या क्रिया- शक्ति पालन व सृष्टि तत्व है। ‘स्वःकार’ सुरलोक या स्वर्ग- तत्व। साधना के पथ में सहस्रार निर्दिष्ट चक्र एवं आद्यशक्ति के ऊर्ध्व या उच्चस्तर में गौरी या ज्ञान -शक्ति, संहार या लय तत्व है। यही वेदमाता गायत्री का स्वरूप तथा स्थान रहस्य है।’’
यों ज्ञान चेतना समस्त शरीर में संव्याप्त है पर उसका केन्द्र मस्तिष्क माना गया है। यों क्रिया संपूर्ण शरीर में फैली पड़ी है, पर उसका केन्द्र स्थल जननेन्द्रिय है। नपुंसक व्यक्ति प्रायः सभी उच्चगुणों के अभिवर्धन और साहस भरे पुरुषार्थो के सम्पादन में असमर्थ रहते हैं। किसी को नपुंसक क्लीव कहना उसकी अन्तःक्षमता को अपमानित करना है। शरीर के अन्य अंग दुर्बल हों तो उसके बिना प्रगति रुकेगी नहीं पर नपुंसक से कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य बन पड़ना कठिन है। सरकारी नौकरियों में भर्ती करते समय डाक्टरी जाँच में यह भी परीक्षा की जाती है कि वह व्यक्ति नपुंसक तो नहीं है। शारीरिक विशेषताओं का केन्द्र इसीलिए जननेन्द्रिय गह्वर के मर्मस्थल योनि केन्द्र को माना गया है।
साधना के यही दो मर्मस्थल है। उन्हें ही कायपिण्ड के दो ध्रुव कहते हैं। यों विद्युत एक ही है पर उसे दो भागों में विभाजित किया गया है-एक धन (पोजेटिव) दूसरी ऋण (नेगेटिव) मानवीय समान चेतना की धन विद्युत इस ज्ञान केन्द्र मस्तिष्क केन्द्र में केन्द्रित है -इस स्थल को अध्यात्म की भाषा में सहस्रर कहते हैं। दूसरी ऋण विद्युत काय केन्द्र जननेन्द्रिय मूल में ही जिसे मूलाधार कहते हैं। इन दो केन्द्रो में से ज्ञान केन्द्र को गायत्री का और काम केन्द्र को कुण्डलिनी का उद्गम केन्द्र कहा गया है। भौतिक क्षमताऐं- समृद्धियाँ, सिद्धियाँ कुण्डलिनी में प्रादुर्भूत होती है
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book