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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री के प्रत्यक्ष चमत्कार

गायत्री के प्रत्यक्ष चमत्कार

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4113
आईएसबीएन :0000

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प्रस्तुत हैं गायत्री के प्रत्यक्ष चमत्कार

Gayatri Ke Pratyaksh Chamatkar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गायत्री द्वारा सम्पूर्ण दुःखों का निवारण

मनुष्य ईश्वर का उत्तराधिकारी एवं राजकुमार है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है। अपने पिता के सम्पूर्ण गुण एवं वैभव बीज रूप से उसमें मौजूद हैं। जलते हुए अंगार में जो शक्ति है वही छोटी चिनगारी में भी मौजूद है। इतना होते हुए भी हम देखते हैं कि मनुष्य बड़ी निम्न कोटि का जीवन बिता रहा है, दिव्य होते हुए भी दैवी सम्पदाओं से वंचित हो रहा है।
परमात्मा सत् है, परन्तु उसके पुत्र हम असत् में निमग्न हो रहे हैं। परमात्मा चित् है, हम अन्धकार में डूबे हुए हैं। परमात्मा आनन्द स्वरूप है, हम दुःखों से संत्रस्त हो रहे हैं। ऐसी उल्टी परिस्थिति उत्पन्न हो जाने का कारण क्या है ? यह विचारणीय प्रश्न है।

जब कि ईश्वर का अविनाशी राजकुमार अपने पिता के इस सुरम्य उपवन संसार में विनोद क्रीड़ा करने के लिये आया हुआ है तो उसकी जीवनयात्रा आनन्दमय न रहकर दुःख दारिद्र से भरी हुई क्यों बन गई है ? यह एक विचारणीय पहेली है।
अग्नि स्वभावतः उष्ण और प्रकाशवान् होती है, परन्तु जब जलता हुआ अंगार बुझने लगे तो उसका ऊपरी भाग राख से ढक जाता है तब उस राख से ढके हुए अंगार में वे दोनों ही गुण दुष्टिगोचर नहीं होते जो अग्नि में स्वभावतः होते हैं। बुझा हुआ, राख से ढका हुआ अंगार न तो गर्म होता है और न प्रकाशवान् वह काली कलूटी कुरूप भस्म का ढेर मात्र बना हुआ पड़ा रहता है। जलते हुए अंगार को इस दुर्दशा में ले पहुँचाने का कारण वह भस्म है जिसने उसे चारों ओर से घेर लिया है। यदि यह राख की परत ऊपर से जो अपनी उष्णता और प्रकाश के गुण से सुसम्पन्न हो।

परमात्मा सच्चिदानन्द है, वह आनन्द से ओतप्रोत है। उसका पुत्र आत्मा भी आनन्दमय ही होना चाहिए। जीवन की विनोद क्रीड़ा करते हुए इस नन्दनवन में आनन्द ही अनुभव होना चाहिए। इस वास्तविकता को छिपाकर जो उसके बिलकुल उलटी दुःख-दारिद्र और क्लेश-कलह की स्थिति उत्पन्न कर देती है वह कुबुद्धि रूपी राख है। जैसे अंगारे को राख ढककर उसको अपनी स्वाभाविक स्थिति से वंचित कर देती है वैसे ही आत्मा की परम सात्विक परम आनन्दमयी स्थिति को यह कुबुद्धि ढक लेती है और मनुष्य निकृष्ट कोटि का दीन-हीन जीवन व्यतीत करने लगता है।

‘कुबुद्धि’ को ही माया, असुरता, अन्धतमिसा अविद्या आदि नामों से पुकारते हैं। यह आवरण मनुष्य की मनोभूति पर जितना मोटा चढ़ा होता है वह उतना ही दुःखी पाया जाता है। शरीर पर मैल की जितनी मोटी तह जम रही होगी उतनी ही खुजली मचेगी और दुर्गन्ध उड़ेगी। यह तह जितनी ही कम होगी उतनी ही खुजली और दुर्गन्ध कम होगी। शरीर में दूषित, विजातीय विष एकत्रित न हो तो किसी प्रकार का कोई रोग न होगा, पर यह विकृतियाँ जितनी अधिक जमा होती जायेंगी शरीर उतना ही रोगग्रस्त होता जायेगा। कुबुद्धि एक प्रकार से शरीर पर जमी हुई मैल की तह या रक्त से भरी हुई विषैली विकृति है जिसके कारण खुजली, दुर्गन्ध बीमारी तथा अनेक प्रकार की अन्य असुविधाओं के समान जीवन में नाना प्रकार की पीड़ा, चिंता, बैचेनी और परेशानी उत्पन्न होती रहती है।

लोग नाना प्रकार के कष्टों से दुःखी है। कोई बीमारी में कराह रहा है, कोई गरीबी से दुःखी है, किसी का दाम्पत्य जीवन कष्टमय है, किसी को सन्तान की चिन्ता है, व्यापार में घाटा, उन्नति में अड़चन असफलता की आशंका, मुकदमा शत्रु के आक्रमण का भय, अन्याय से उत्पीड़न, मित्रों का विश्वासघात दहेज की चिन्ता, प्रियजनों का विछोह आदि का दुःख आये दिन दुःखी बनाये रहता है। व्यक्तिगत जीवन की भाँति धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में भी अशांति कम नहीं है। यदि कोई व्यक्ति अपने आपको बहुत संभाल कर रखे तो भी व्यापक बुराईयों एवं कुव्यवस्थाओं के कारण उसकी शांति नष्ट हो जाती है और जीवन का आनन्दमय उद्देश्य प्राप्त करने में बाधा पड़ती है।

दुःख चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक उसका कारण एक ही है और वह है-कुबुद्धि संसार में इतने प्रचुर परिमाण में सुख साधन भरे पड़े हैं कि इन खिलौनों से खेलते सारा जीवन हँसी-खुशी में बीत सकता है। मनुष्य को ऐसा अमूल्य शरीर, मस्तिष्क एवं इन्द्रिय समूह मिला हुआ है कि इनके द्वारा साधारण वस्तुओं एवं परिस्थितियों में भी इतना आनन्द लिया जा सकता है कि स्वर्ग भी उसकी तुलना में तुच्छ सिद्ध होगा। इतना सब होते हुए भी लोग बेतरह दुःखी हैं, जिन्दगी में कोई रस नहीं, मौत के दिन पूरे करने के लिए जीवन बोझ की तरह काटा जा रहा है। मन में चिन्ता, बेबसी, भय, दीनता और बेचैनी की अग्नि दिन भर जलती रहती है, जिसके कारण पुराणों में वर्णित नारकीय यातनाओं जैसी व्यथायें सहनी पड़ती हैं।
इस संसार का चित्र सुन्दर है, इसमें कुरूपता का एक कण भी नहीं। यह विश्व विनोदमयी क्रीड़ा का प्रांगण है, इसमें चिन्ता और भय के लिए कोई स्थान नहीं। यह जीवन आनन्द का निर्बाध निर्झर है, इसमें दुःखी रहने का कोई कारण नहीं। स्वर्गदपि गरीयसी इस जननी जन्मभूमि में वे सभी तत्व मौजूद हैं जो मानस की कली को खिलाते हैं। इस सुर दुर्लभ नर तन की रचना ऐसे सुन्दर ढंग से हुई है कि साधारण वस्तुओं को वह अपने स्पर्श मात्र से ही सरस बना लेता है। परमात्मा का राजकुमार आत्मा इस संसार में क्रीड़ा कल्लोल करने आता है, उसे शरीर रूपी रथ, इन्द्रियों रूपी सेवक, मस्तिष्क रूपी मन्त्री देकर परमात्मा ने यहाँ इसलिये भेजा है कि इस नन्दन वन जैसे संसार की शोभा को देखें, उसमें सर्वत्र बिखरी हुई सरलता का स्पर्श और आस्वादन करे। यदि इस महान उद्देश्य में बाधा उपस्थित करने वाली, स्वर्ग को नरक बना देने वाली कोई वस्तु है तो वह केवल कुबुद्धि ही है।

स्वस्थता हमारी स्वाभाविक स्थिति है, बीमारी अस्वाभाविक एवं अपनी भूल से पैदा हुई है। पशु-पक्षी जो प्रकृति का स्वाभाविक अनुसरण करते हैं, बीमार नहीं पड़ते वे सदा स्वास्थ का सुख भोगते हैं, पर मनुष्य नाना प्रकार के मिथ्या आहार-विहार के द्वारा बीमारी को न्योंत बुलाता है। यदि वह अपना आहार-विहार प्रकृति के अनुकूल रखे तो कभी बीमार न पड़े। इसी प्रकार सद्बुद्धि स्वाभाविक है। यह ईश्वर प्रदत्त है दैवी है, जन्मजात है, जीवन संगिनी है। संसार में भेजते समय प्रभु हमें सद्बुद्धि रूपी कामधेनु भी देते हैं ताकि हमारे सम्पूर्ण सुख साधन जुटाती रहे, परन्तु हम भूलवश, भ्रमवश, अज्ञानवश, मायाग्रस्त होकर सद्बबुद्धि को त्यागकर कुबुद्धि को अपना लेते हैं और जैसे मिथ्याचरण से बीमारी न्योंत बुलाई जाती है, वैसे ही मानसिक अव्यवस्था के कारण कुबुद्धि को आमन्त्रित किया जाता है। यह पिशाचिनी जहाँ आई नहीं कि जीवन का सारा क्रम उलटा नहीं, दोनों एक साथ रह नहीं सकतीं। जहाँ कुबुद्धि होगी वहां तो अशांति, चिंता, तृष्णा, नीचता, कायरता आदि की कष्टकारक स्थितियों का ही निवास होगा।

गायत्री सद्बुद्धि ही है। इस महामन्त्र में सद्बुद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है। इसके 24 अक्षरों में 24 अमूल्य शिक्षा सन्देश भरे हुए हैं, वे सद्बुद्धि के मूर्तिमान प्रतीक हैं। उन शिक्षाओं में वे सभी आधार मौजूद हैं, उन्हें हृदयगम करने वाले का सम्पूर्ण दृष्टिकोण शुद्ध हो जाता है और उस भयजन्य अविद्या का नाश हो जाता है जो आये दिन कोई न कोई कष्ट उत्पन्न करती है। गायत्री महामन्त्र की रचना ऐसे वैज्ञानिक आधार पर हुई है कि उसकी साधना से अपने भीतर छिपे हुए अनेकों गुप्त शक्ति केन्द्र खुल जाते हैं और अन्तःस्थल में सात्विकता की निर्झरिणी बहने लगती है। विश्वव्यापी अपनी प्रबल चुम्बक शक्ति को खींचकर अन्तःप्रदेश में जमा करने की अद्भुत शक्ति गायत्री में मौजूद है। इन सब कारणों से कुबुद्धि का शमन करने में गायत्री अचूक रामबाण मंत्र की तरह प्रभावशाली सिद्ध होती है। इस शमन के साथ- साथ अनेकों दुःखों का समाप्त हो जाना भी पूर्णतया निश्चय है। गायत्री दैवी प्रकाश की वह अखण्ड ज्योति है जिसके कारण कुबुद्धि का अज्ञानान्धकार दूर होता है और अपनी स्वाभाविक स्थिति प्राप्त हो जाती है जिसको लेकर आत्मा इस पुण्यमयी धरती माता की परम शक्तिदायक गोदी में किलोल करने आया है।
 
रंगीन काँच का चश्मा पहन लेने पर आंखों से सब चीजें उसी रंग की दिखती है जिस रंग का वह काँच होता है। कुबुद्धि का चश्मा लगा लेने से सीधी साधारण से परिस्थितियाँ और घटनायें भी दुःखदायी दिखाई देने लगती हैं जिस मनुष्य को भौंरा रोग हो जाता है, सिर घूमता है मस्तिष्क में चक्कर आते हैं, उसे दिखाई देता है कि सारी पृथ्वी, मकान, वृक्ष आदि घूम रहे हैं। डरपोक आदमी को झाड़ी में भूत दिखाई देता है। जिसके भीतर दोष है उसे बाहर के सुधार से कुछ लाभ नहीं हो सकता, उसका रोग मिटेगा तभी जब बाहरी अनुभूतियों का निवारण होगा। पीला चश्मा पहनने वाले के सामने चाहे कितनी ही चीजें बदल कर रखी जायें, पर पीलेपन के अतिरिक्त और कुछ दिखाई न देगा। बुखार से मुँह कड़ुआ हो रहा है तो उसे स्वादिष्ट पदार्थ भी कड़ुए लगेंगे। कुबुद्धि ने जिसके दृष्टिकोण को, विचार प्रवाह को दूषित बना दिया है वह चाहे स्वर्ग में रखा जाये, चाहे कुबेर सा धनपति या इन्द्र सा सत्ता सम्पन्न बना दिया जाये, तो भी दुःखों से छूट न सकेगा।  

गायत्री महामन्त्र का प्रधान कार्य कुबुद्धि का निवारण है। जो व्यक्ति कुबुद्धि से बचने और सदमार्ग की ओर अग्रसर होने का व्रत लेता है वही गायत्री का उपासक है। इस उपासना का फल तत्काल मिलता है। जो अपने अन्तःकरण में सद्बुद्धि को जितना स्थान देता है, उसे उतनी ही मात्रा में तत्काल आनन्दमयी स्थिति का लाभ प्राप्त होता है।

इसे यह नहीं मान लेना चाहिए कि गायत्री उपासना जीवन सुधार का एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग मात्र है। वस्तुतः उसका दर्शन और भाव पक्ष इतना समर्थ है कि सांसारिक कठिनाइयों के निवारण के साथ ही साधक के शरीरस्थ शक्ति केन्द्रों का तेजी से विकास होता है। इन चक्रों, उपत्यिकाओं आदि में ऐसी विलक्षण क्षमतायें भरी पड़ी हैं जो साधक को अणिमा, गरिमा, लघिमा, महिला, ऋद्धि-सिद्धियों से विभूषित कर देती है। इस जागृति का प्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व को समान रूप से विकसित करने में सहायक सिद्ध होता है।

व्यायाम से शरीर पुष्ट होता है, अध्ययन से विद्या आती है, श्रम करने से धन कमाया जाता है, सत्कर्मों से यश मिलता है, सद्गुणों से मित्र बढ़ते हैं। इसी प्रकार उपासना द्वारा अन्तरंग जीवन में प्रसुप्त पड़ी हुई अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ सजग हो उठती हैं और उस जागृति का प्रकाश मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक विशिष्टता का रूप धारण करके प्रकट हुआ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। गायत्री उपासक में तेजस्विता की अभिवृद्धि स्वाभाविक है। तेजस्वी एवं मनस्वी व्यक्ति स्वभावतः हर दिशा में सहज सफलता प्राप्त करता चलता है।



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