आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की शक्ति और सिद्धि गायत्री की शक्ति और सिद्धिश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री की शक्ति और सिद्धि का कमाल
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गायत्री की असंख्य शक्तियाँ
संसार में जितना भी वैभव, उल्लास दिखाई पड़ता है या प्राप्त किया जाता है
वह शक्ति के मूल्य पर ही मिलता है। जिसमें जितनी क्षमता होती है वह उतना
ही वैभव उपार्जित कर लेता है। जीवन में शक्ति का इतना महत्वपूर्ण स्थान है
कि उसके बिना कोई आनन्द नहीं उठाया जा सकता। यहाँ तक कि अनायास उपलब्ध हुए
भागों को भी नहीं भोगा जा सकता। इंद्रियों में शक्ति रहने तक ही विषय
भोगों का सुक्ष प्राप्त किया जा सकता है। ये किसी प्रकार अशक्त हो जाय तो
आकर्षक से आकर्षक भोग भी उपेक्षणीय और घृणास्पद लगते हैं। नाडी संस्थान की
क्षमता क्षीण हो जाय तो शरीर का सामान्य क्रिया कलाप भी ठीक तरह नहीं चल
पाता। मानसिक शक्ति घट जाने पर मनुष्य की गणना विक्षिप्तों और
उपहासास्पदों में होने लगती है। धनशक्ति न रहने पर दर- दर का भिखारी बनना
पड़ता है। मित्र शक्ति न रहने पर एकाकी जीवन सर्वथा निरीह और निरर्थक
होनें लगता है। आत्मबल न होने पर प्रगति के पथ पर एक कदम भी यात्रा नहीं
बढ़ती। जीवनोद्देश्य की पूर्ति आत्मबल से रहित व्यक्ति के लिए सर्वथा
असंभव है।
अतएव शक्ति का संपादन भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने के लिए नितांत आवश्यक है। इसके साथ यह भी जान ही लेना चाहिए कि भौतिक जगत में पंचभूतों को प्रभावित करने तथा आध्यात्मिक विचारात्मक भावात्मक और संकल्पात्मक जितनी भी शक्तियाँ हैं उन सब का मूल उद्गम एवं असीम भण्डार वह महत्तत्व ही है जिसे गायत्री के नाम से संबोधित किया जाता है।
भारतीय मनीषियों ने विभिन्न शक्तियों को देव नामों से संबोधित किया है। यह समस्त देव शक्तियाँ उस परम् शक्ति की किरणें ही हैं, उनका अस्तित्व इस महत्त्व के अन्तर्गत ही है। विद्यमान सभी देव शक्तियाँ उस महत्त्व के ही स्फुलिंग हैं, जिसे अध्यात्म की भाषा में गायत्री कहकर पुकारते हैं। जैसे जलते हुए अग्नि कुण्ड में चिनगारियाँ उछलती हैं, उसी प्रकार विश्व की महान शक्ति सरिता गायत्री की लहरें उन देवशक्तियों के रूप में देखने में आती है। सम्पूर्ण देवताओं की सम्मिलित शक्ति को गायत्री कहा जाय तो उचित होगा।
इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीक होगा कि हमारे महान् पूर्वजों के चरित्र को उज्ज्वलतम तथा विचारों को उत्कृष्ट रखने के अतिरिक्त अपने व्यक्तित्व को महानता के शिखर तक पहुँचाने के लिए उपासनात्मक सम्बल गायत्री महामन्त्र को ही पकड़ा था, और इसी सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे देव पुरुषों में गिने जाने योग्य स्थिति प्राप्त कर सके थे। देवदूतों, अवतारों, गृहस्थियों, महिलाओं, साधु ब्राह्मणों सिद्ध पुरुषों का ही नहीं साधारण सद्गृहस्थों का उपास्य भी गायत्री ही रही है। और उस अवलम्बन के आधार पर न केवल आत्म- कल्याण का श्रेय साधन किया है वरन् भौतिक सुख -सम्पदाओं की सांसारिक आवश्यकताओं को भी आवश्यक मात्रा में उपलब्ध किया है।
वेद, उपनिषद्, से लेकर पुराण -शास्त्रों और रामायण, महाभारत आदि तक ऐसा कोई भी आगम- निगम ग्रंथ नहीं है, जिसमें गायत्री महाशक्ति की अभिवन्दना न की गई हो। ऋग्वेद में 6।62।10, सामवेद में 2।8।12, यजुर्वेद वा. सं. में 3।35-22।9-30।2।36।3। अथर्ववेद में 19।71।1 में गायत्री की महिमा विस्तार पूर्वक गाई गई है। ब्राह्मणग्रन्थों में गायत्री मन्त्र का उल्लेख अनेक स्थानो पर है। यथा- ऐतरेय ब्राह्मण 4।32।2-5।5।6-13।8-19।8 कौशीतकी ब्राह्मण 23।3-26।10, गोपथ ब्राह्मण 1।1।34, दैवत ब्राह्मण 3।25, शतपथ ब्राह्मण 2।3।4।39-23।6।2।9-14।9।3।11, तैत्तरीय सं. में 1।5।6।4-4।1।11।1, मैत्रायणी सं. 4।10।3-149।14। आरण्यकों में गायत्री का उल्लेख इन स्थानों पर है -तैत्तरीय आरण्यक 1। 11।210।27।1, वृहदारण्यक 6।3।11।4।8 उपनिषदों में इस महामन्त्र की चर्चा निम्न प्रकरणों में – नारायण उपनिषद् 65-2 मैत्रेय उपनिषद् 6।7।35, जैमिनी उपनिषद्, 4।28।1, श्वेताश्वर उपनिषद् 4।18। सूत्र ग्रंथों में गायत्री का विवेचन निम्न प्रसंगों में आया है-आश्वालायन श्रौत सूत्र 7।6।6-8।1।18, शांखायन श्रौत सूत्र 2।10।2-2।7-5।5।2-10।6।10-9।16 आप स्तम्भ श्रौत सूत्र 6।18।1 शंखायन गृह सूत्र 2।5।12, 7।19, 6।4।8। कौशकी सूत्र गृहा सूत्र 2।4।21 आप स्तम्भ गृह सूत्र 2।4।21 बोधायन घ. शा. 2।10।17।14 मान. ध. शा. 2।77 ऋग्विधान 1।12।5। मान गृ. स. 1।2।3-4।4।8-5।2
गायत्री का महत्व बताते हुए महर्षियों ने एक स्वर से गाया है-
‘‘गायत्री वेदमातरम्।’’
अर्थात्- गायत्री वेदों की माता- ज्ञान का आदि कारण है।
इस उक्ति में गायत्री को समस्त ज्ञान- विज्ञान को, शक्ति साधनों, को, व्यक्तित्व, समाज और संस्कृति को ऊँचा उठाने वाली कहा गया हैं, इन सब की गंगोत्री बता दिया गया है।
कहा जा चुका है कि संसार में कुछ भी प्राप्त करने का एकमेव मार्ग शक्ति साधन है और परम कारुणिक ईश्वरीय शक्ति ने इस निखिल ब्रह्माण्ड में अपनी अनन्त शक्तियाँ बिखेर रखी हैं। उनमें से जिनकी आवश्यकता होती है उन्हें मनुष्य अपने प्रबल पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त कर सकता है। विज्ञान द्वारा प्रकृति की अनेकों शक्तियों को मनुष्य ने अपने अधिकार में कर लिया है। विद्युत, ताप, प्रकाश, चुम्बक शब्द अणु -शक्ति जैसी प्रकृति की कितनी ही अदृश्य और अविज्ञात शक्तियों को उसनें ढूँढ़ा और करतलगत किया है, परब्रह्मा की चेतनात्मक शक्तियाँ भी कितनी ही हैं, उन्हें आत्मिक प्रयासों द्वारा करतलगत किया जा सकता है। मनुष्य का अपना चुम्बकत्व असाधारण है। वह उसी क्षमता के सहारे भौतिक जीवन में अनेकों को प्रभावित एवं आकर्षित करता है। इसी चुम्बकत्व शक्ति के सहारे वह व्यापक ब्रह्मचेतना के महासमुद्र में से उपयोगी चेतन तत्वों को आकर्षित एवं करतलगत कर सकता है।
इन सभी शक्तियों में सर्वप्रमुख और सर्वाधिक प्रभावशील प्रज्ञाशक्ति है। प्रज्ञा की अभीष्ट मात्रा विद्यमान हो तो फिर कोई ऐसी कठिनाई शेष नहीं रह जाती जो नर को नारायण पुरूष को पुरुषोत्तम बनाने से वंचित रख सके। श्रम और मनोयोग तो आत्मिक प्रगति में भी उतना ही लगाना पर्याप्त होता है, जितना कि भौतिक समस्याऐं हल करने में आये दिन लगाना पड़ता हैं। महामानवों को अधिक कष्ट नहीं सहने पड़ते जितने कि सामान्य जीवन में आये दिन हर किसी को सहने पड़ते हैं। लोभ और मोह की पूर्ति में जितना पुरुषार्थ और साहस करना पड़ता है उससे कम में ही उत्कृष्ट आदर्शवादी जीवन का निर्धारण किया जा सकता है। मूल कठिनाई एक ही है। प्रज्ञा प्रखरता की। वह प्राप्त हो सके तो समझना चाहिए कि जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बनाने वाली, ऋद्धि- सिद्धियों की उपलब्धियों से भर देने वाली सम्भावनाओ को प्राप्त कर सकने में अब कोई कठिनाई शेष नहीं रह गई।
गायत्री महाशक्ति को तत्व ज्ञानियों ने सर्वोपरि दिव्य क्षमता कहा है। उसका अत्यधिक महात्म्य बताया है। गायत्री प्रज्ञातत्व का ही दूसरा नाम है। इसे दूरदर्शी विवेकशीलता एवं आत्मोत्कर्ष के लिए अभीष्ट बल प्रदान करने वाली साहसिकता भी कह सकते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए किये जाने वाले अभीष्ट पुरुषार्थों में गायत्री उपासना को अग्रणी के लिए किये जाने वाले अभीष्ट पुरुषार्थों में गायत्री उपासना को अग्रणी माना गया है, यह विशुद्ध रूप से प्रज्ञा को प्राप्त करने की वैज्ञानिक पद्धति है।
‘प्रज्ञा’ शक्ति मनुष्य को आत्मिक दृष्टि से सुविकसित एवं सुसम्पन्न बनाती है। वह अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठाकर महामानवों के उच्च स्तर तक पहुँचाता है और सामान्य जीवात्मा न रहकर महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा स्तर की क्रमिक प्रगति करता चला जाता है। जहाँ आत्मिक सम्पन्नता होगी वहाँ उसकी अनुचरी भौतिक समृद्धि की भी कमी न पड़ेगी। यह बात अलग है कि आत्मिक क्षमताओं का धनी व्यक्ति उन्हें उद्धत प्रदर्शन में खर्च न करके किसी महान प्रयोजन में लगाने के लिए नियोजित करता रहे और सांसारिक दृष्टि से निर्धनों जैसी स्थिति में बना रहे। इसमें दूसरों को दरिद्रता प्रतीत हो सकती है, पर आत्मिक पूँजी का धनी अपने आप में संतुष्ट रहता है और अनुभव करता है कि वह सच्चे अर्थो में सुसम्पन्न है।
गायत्री उपासना उस ‘प्रज्ञा’ को आकर्षित करने और धारण करने की अद्भुत प्रक्रिया है जो परब्रह्म की विशिष्ट अनुकम्पा, दूरदर्शी विवेकशीलता और सन्मार्ग अपना सकने की प्रखरता के रूप में साधक को प्राप्त होती है। इस अनुदान को पाकर वह स्वयं धन्य बनता है और समूचे वातावरण में मलय पवन का संचार करता है। उसके व्यक्तित्व से सारा सम्पर्क क्षेत्र प्रभावित होता है और सुखद सम्भावनाओं का प्रवाह चल पड़ता है।
अतएव शक्ति का संपादन भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने के लिए नितांत आवश्यक है। इसके साथ यह भी जान ही लेना चाहिए कि भौतिक जगत में पंचभूतों को प्रभावित करने तथा आध्यात्मिक विचारात्मक भावात्मक और संकल्पात्मक जितनी भी शक्तियाँ हैं उन सब का मूल उद्गम एवं असीम भण्डार वह महत्तत्व ही है जिसे गायत्री के नाम से संबोधित किया जाता है।
भारतीय मनीषियों ने विभिन्न शक्तियों को देव नामों से संबोधित किया है। यह समस्त देव शक्तियाँ उस परम् शक्ति की किरणें ही हैं, उनका अस्तित्व इस महत्त्व के अन्तर्गत ही है। विद्यमान सभी देव शक्तियाँ उस महत्त्व के ही स्फुलिंग हैं, जिसे अध्यात्म की भाषा में गायत्री कहकर पुकारते हैं। जैसे जलते हुए अग्नि कुण्ड में चिनगारियाँ उछलती हैं, उसी प्रकार विश्व की महान शक्ति सरिता गायत्री की लहरें उन देवशक्तियों के रूप में देखने में आती है। सम्पूर्ण देवताओं की सम्मिलित शक्ति को गायत्री कहा जाय तो उचित होगा।
इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीक होगा कि हमारे महान् पूर्वजों के चरित्र को उज्ज्वलतम तथा विचारों को उत्कृष्ट रखने के अतिरिक्त अपने व्यक्तित्व को महानता के शिखर तक पहुँचाने के लिए उपासनात्मक सम्बल गायत्री महामन्त्र को ही पकड़ा था, और इसी सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे देव पुरुषों में गिने जाने योग्य स्थिति प्राप्त कर सके थे। देवदूतों, अवतारों, गृहस्थियों, महिलाओं, साधु ब्राह्मणों सिद्ध पुरुषों का ही नहीं साधारण सद्गृहस्थों का उपास्य भी गायत्री ही रही है। और उस अवलम्बन के आधार पर न केवल आत्म- कल्याण का श्रेय साधन किया है वरन् भौतिक सुख -सम्पदाओं की सांसारिक आवश्यकताओं को भी आवश्यक मात्रा में उपलब्ध किया है।
वेद, उपनिषद्, से लेकर पुराण -शास्त्रों और रामायण, महाभारत आदि तक ऐसा कोई भी आगम- निगम ग्रंथ नहीं है, जिसमें गायत्री महाशक्ति की अभिवन्दना न की गई हो। ऋग्वेद में 6।62।10, सामवेद में 2।8।12, यजुर्वेद वा. सं. में 3।35-22।9-30।2।36।3। अथर्ववेद में 19।71।1 में गायत्री की महिमा विस्तार पूर्वक गाई गई है। ब्राह्मणग्रन्थों में गायत्री मन्त्र का उल्लेख अनेक स्थानो पर है। यथा- ऐतरेय ब्राह्मण 4।32।2-5।5।6-13।8-19।8 कौशीतकी ब्राह्मण 23।3-26।10, गोपथ ब्राह्मण 1।1।34, दैवत ब्राह्मण 3।25, शतपथ ब्राह्मण 2।3।4।39-23।6।2।9-14।9।3।11, तैत्तरीय सं. में 1।5।6।4-4।1।11।1, मैत्रायणी सं. 4।10।3-149।14। आरण्यकों में गायत्री का उल्लेख इन स्थानों पर है -तैत्तरीय आरण्यक 1। 11।210।27।1, वृहदारण्यक 6।3।11।4।8 उपनिषदों में इस महामन्त्र की चर्चा निम्न प्रकरणों में – नारायण उपनिषद् 65-2 मैत्रेय उपनिषद् 6।7।35, जैमिनी उपनिषद्, 4।28।1, श्वेताश्वर उपनिषद् 4।18। सूत्र ग्रंथों में गायत्री का विवेचन निम्न प्रसंगों में आया है-आश्वालायन श्रौत सूत्र 7।6।6-8।1।18, शांखायन श्रौत सूत्र 2।10।2-2।7-5।5।2-10।6।10-9।16 आप स्तम्भ श्रौत सूत्र 6।18।1 शंखायन गृह सूत्र 2।5।12, 7।19, 6।4।8। कौशकी सूत्र गृहा सूत्र 2।4।21 आप स्तम्भ गृह सूत्र 2।4।21 बोधायन घ. शा. 2।10।17।14 मान. ध. शा. 2।77 ऋग्विधान 1।12।5। मान गृ. स. 1।2।3-4।4।8-5।2
गायत्री का महत्व बताते हुए महर्षियों ने एक स्वर से गाया है-
‘‘गायत्री वेदमातरम्।’’
अर्थात्- गायत्री वेदों की माता- ज्ञान का आदि कारण है।
इस उक्ति में गायत्री को समस्त ज्ञान- विज्ञान को, शक्ति साधनों, को, व्यक्तित्व, समाज और संस्कृति को ऊँचा उठाने वाली कहा गया हैं, इन सब की गंगोत्री बता दिया गया है।
कहा जा चुका है कि संसार में कुछ भी प्राप्त करने का एकमेव मार्ग शक्ति साधन है और परम कारुणिक ईश्वरीय शक्ति ने इस निखिल ब्रह्माण्ड में अपनी अनन्त शक्तियाँ बिखेर रखी हैं। उनमें से जिनकी आवश्यकता होती है उन्हें मनुष्य अपने प्रबल पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त कर सकता है। विज्ञान द्वारा प्रकृति की अनेकों शक्तियों को मनुष्य ने अपने अधिकार में कर लिया है। विद्युत, ताप, प्रकाश, चुम्बक शब्द अणु -शक्ति जैसी प्रकृति की कितनी ही अदृश्य और अविज्ञात शक्तियों को उसनें ढूँढ़ा और करतलगत किया है, परब्रह्मा की चेतनात्मक शक्तियाँ भी कितनी ही हैं, उन्हें आत्मिक प्रयासों द्वारा करतलगत किया जा सकता है। मनुष्य का अपना चुम्बकत्व असाधारण है। वह उसी क्षमता के सहारे भौतिक जीवन में अनेकों को प्रभावित एवं आकर्षित करता है। इसी चुम्बकत्व शक्ति के सहारे वह व्यापक ब्रह्मचेतना के महासमुद्र में से उपयोगी चेतन तत्वों को आकर्षित एवं करतलगत कर सकता है।
इन सभी शक्तियों में सर्वप्रमुख और सर्वाधिक प्रभावशील प्रज्ञाशक्ति है। प्रज्ञा की अभीष्ट मात्रा विद्यमान हो तो फिर कोई ऐसी कठिनाई शेष नहीं रह जाती जो नर को नारायण पुरूष को पुरुषोत्तम बनाने से वंचित रख सके। श्रम और मनोयोग तो आत्मिक प्रगति में भी उतना ही लगाना पर्याप्त होता है, जितना कि भौतिक समस्याऐं हल करने में आये दिन लगाना पड़ता हैं। महामानवों को अधिक कष्ट नहीं सहने पड़ते जितने कि सामान्य जीवन में आये दिन हर किसी को सहने पड़ते हैं। लोभ और मोह की पूर्ति में जितना पुरुषार्थ और साहस करना पड़ता है उससे कम में ही उत्कृष्ट आदर्शवादी जीवन का निर्धारण किया जा सकता है। मूल कठिनाई एक ही है। प्रज्ञा प्रखरता की। वह प्राप्त हो सके तो समझना चाहिए कि जीवन को सच्चे अर्थों में सार्थक बनाने वाली, ऋद्धि- सिद्धियों की उपलब्धियों से भर देने वाली सम्भावनाओ को प्राप्त कर सकने में अब कोई कठिनाई शेष नहीं रह गई।
गायत्री महाशक्ति को तत्व ज्ञानियों ने सर्वोपरि दिव्य क्षमता कहा है। उसका अत्यधिक महात्म्य बताया है। गायत्री प्रज्ञातत्व का ही दूसरा नाम है। इसे दूरदर्शी विवेकशीलता एवं आत्मोत्कर्ष के लिए अभीष्ट बल प्रदान करने वाली साहसिकता भी कह सकते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए किये जाने वाले अभीष्ट पुरुषार्थों में गायत्री उपासना को अग्रणी के लिए किये जाने वाले अभीष्ट पुरुषार्थों में गायत्री उपासना को अग्रणी माना गया है, यह विशुद्ध रूप से प्रज्ञा को प्राप्त करने की वैज्ञानिक पद्धति है।
‘प्रज्ञा’ शक्ति मनुष्य को आत्मिक दृष्टि से सुविकसित एवं सुसम्पन्न बनाती है। वह अपने जीवन स्तर को ऊँचा उठाकर महामानवों के उच्च स्तर तक पहुँचाता है और सामान्य जीवात्मा न रहकर महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा स्तर की क्रमिक प्रगति करता चला जाता है। जहाँ आत्मिक सम्पन्नता होगी वहाँ उसकी अनुचरी भौतिक समृद्धि की भी कमी न पड़ेगी। यह बात अलग है कि आत्मिक क्षमताओं का धनी व्यक्ति उन्हें उद्धत प्रदर्शन में खर्च न करके किसी महान प्रयोजन में लगाने के लिए नियोजित करता रहे और सांसारिक दृष्टि से निर्धनों जैसी स्थिति में बना रहे। इसमें दूसरों को दरिद्रता प्रतीत हो सकती है, पर आत्मिक पूँजी का धनी अपने आप में संतुष्ट रहता है और अनुभव करता है कि वह सच्चे अर्थो में सुसम्पन्न है।
गायत्री उपासना उस ‘प्रज्ञा’ को आकर्षित करने और धारण करने की अद्भुत प्रक्रिया है जो परब्रह्म की विशिष्ट अनुकम्पा, दूरदर्शी विवेकशीलता और सन्मार्ग अपना सकने की प्रखरता के रूप में साधक को प्राप्त होती है। इस अनुदान को पाकर वह स्वयं धन्य बनता है और समूचे वातावरण में मलय पवन का संचार करता है। उसके व्यक्तित्व से सारा सम्पर्क क्षेत्र प्रभावित होता है और सुखद सम्भावनाओं का प्रवाह चल पड़ता है।
सं उतत्वः पश्यत्रददर्शवाचमुतत्तः श्रृवत्रशृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्मैतन्वां विस्रसे जायेपत्यवउशतीसुवासाः।।
उतो त्वस्मैतन्वां विस्रसे जायेपत्यवउशतीसुवासाः।।
सरस्वती रहस्योपनिषद्
हे भगवती वाक्। तुम्हारी कृपा से ही सब बोलते हैं। तुम्हारी कृपा से ही
विचार करना संभव होता है। तुम्हें जानते हुए भी जान नहीं पाते देखते हुए
भी नहीं देख पाते। जिस पर तुम्हारी कृपा होती है वही तुम्हें समझ पाता है।
यह दृश्य जगत् पदार्थमय है। इसमें जो सौन्दर्य, वैभव, उपभोग, सुख दिखाई पड़ता है, वह ब्रह्म की अपरा प्रकृति का अनुदान है। यह सब गायत्रीमय है। सुविधा की दृष्टि से इसे सावित्री नाम दे दिया गया है। ताकि पदार्थ क्षेत्र में उसके चमत्कारों को समझने में सुविधा रहे। गायत्री की स्थूलधारा सावित्री को जो जितनी मात्रा में धारण करता है, वह भौतिक क्षेत्र में उतना ही समृद्ध सम्पन्न बनता जाता है। इस विश्व में बिखरी हुई शोभा सम्पन्नता को उसी महाशक्ति का इन्द्रियों से अनुभव किया जा सकने वाला स्वरूप कह सकते हैं।
गायत्री की चेतनात्मक धारा सद्बुद्धि के- ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में देवत्व का अनुदान बरसता चला जाता है, साथ ही आत्मबल के साथ जुड़ी हुई दिव्य विभूतियाँ भी उस व्यक्ति में बढ़ती चली जाती है। इस तथ्य का उल्लेख शास्त्रो में इस प्रकार हुआ है-
यह दृश्य जगत् पदार्थमय है। इसमें जो सौन्दर्य, वैभव, उपभोग, सुख दिखाई पड़ता है, वह ब्रह्म की अपरा प्रकृति का अनुदान है। यह सब गायत्रीमय है। सुविधा की दृष्टि से इसे सावित्री नाम दे दिया गया है। ताकि पदार्थ क्षेत्र में उसके चमत्कारों को समझने में सुविधा रहे। गायत्री की स्थूलधारा सावित्री को जो जितनी मात्रा में धारण करता है, वह भौतिक क्षेत्र में उतना ही समृद्ध सम्पन्न बनता जाता है। इस विश्व में बिखरी हुई शोभा सम्पन्नता को उसी महाशक्ति का इन्द्रियों से अनुभव किया जा सकने वाला स्वरूप कह सकते हैं।
गायत्री की चेतनात्मक धारा सद्बुद्धि के- ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में देवत्व का अनुदान बरसता चला जाता है, साथ ही आत्मबल के साथ जुड़ी हुई दिव्य विभूतियाँ भी उस व्यक्ति में बढ़ती चली जाती है। इस तथ्य का उल्लेख शास्त्रो में इस प्रकार हुआ है-
भूलोकस्यास्य गायत्री कामधेनुर्मता बुधैः।
लोक आश्रायणे नामुं सर्व मेवाधि गच्छति।।
लोक आश्रायणे नामुं सर्व मेवाधि गच्छति।।
गायत्री मंजरी
‘‘विद्वानों ने गायत्री को भूलोक की कामधेनु माना है।
उसका आश्रय लेकर हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।’’
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