आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री साधना की सर्वसुलभ विधि गायत्री साधना की सर्वसुलभ विधिश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री साधना की सर्वसुलभ विधि
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उपासना अनिवार्य है -आवश्यक है।
मनुष्य का अस्तित्व दो तत्वों के संयोग से है, एक है पदार्थपरक
भौतिक शरीर और दूसरा है- चेतनापरक अन्तःकरण। शरीर और चेतना दोनों ही मानवी
गरिमा के अनुरूप हों तो ही परिपूर्ण गौरवमय मनुष्य बन सकता है अन्यथा
एंकागी व्यक्तियों से मनुष्य का और उसके फलस्वरूप सारे संसार का संतुलन
बिगड़ता रहेगा।
मनुष्य के भौतिक पक्ष शरीर से लेकर परिस्थितियों तक के सुधार-संभाल के लिए अनेकानेक माध्यम विकसित हो गये हैं और हो रहे हैं, किन्तु चेतना से परिष्कार की ओर काफी उपेक्षा पिछले दिनों बरती गई है। वह उपेक्षा भौतिकता के नाम पर भी आई और धार्मिक मूढ़ताओं के कारण भी। जो भी हो मानवीय चेतना के परिष्कार का क्रम छूटने की अगणित हानियाँ मनुष्य समाज को उठानी पड़ी हैं साधना सम्पन्नता बढ़ने पर भी सुख-संतोष न बढने का कारण यही है। चेतना परिस्कार का-मानवी अंतःसंस्थान को पुष्ट और प्रामाणिक बनाने का बहुत ही सशक्त माध्यम ईश्वर उपासना है। आज बड़े से बड़े वैज्ञानिक भी सशक्त माध्यम ईश्वर उपासना है। आज बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक भी ब्राह्माण्ड व्यापी किसी चेतना सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करने लगे हैं। उसकी उपस्थिति का आभास ब्रह्माण्ड से लेकर परमाणु तक में होता है। उसी महत् चेतना का अंश मनुष्य के अन्दर भी है। उसी के नाते मनुष्य, अद्भुत, अनुपम कहा जा सकता है। उस चेतना के धूमिल पड़ते ही मनुष्य और पशु में नहीं के बराबर ही अन्तर रह जाता है। अंतः चेतना को जीवन्त एवं प्रखर बनाये रखने का एक ही माध्यम है- उसे महत् चेतना से सम्बद्ध रखना। उस सम्बन्ध को अधिक सघन, अधिक सशक्त बनाना। ईश्वर उपासना इसी प्रक्रिया के विधि-विधान का नाम है।
बिजली घर के साथ सम्बन्ध जुड़े रहने पर ही घर के बल्व, पंखे, हीटर, रेडियो आदि में गतिशीलता रहती है। सम्बन्ध कट जाने पर यह सब यन्त्र ठीक रहने पर भी निष्क्रिय बन जाते हैं। ईश्वर इस ब्रह्माण्ड में संव्याप्त वह दिव्य चेतना है जिसका एक छोटा अंश तो जीवन-यापन के लिए आवश्यक क्षमता प्राप्त करने जितनी मात्रा में हर किसी को मिला हुआ है। उतने से ही हर प्राणी को अपनी जीवन चर्या चलानी पड़ती है। जीव को ईश्वर का अंश इसी अर्थ में कहा जाता है कि उसे ब्रह्म चेतना का उतनी मात्रा सहज ही उपलब्ध है जिसके आधार पर शरीर में क्रियाशीलता और मन में विचारण की उतनी क्षमता संजोये रहता है जिससे जीवन यापन के आवश्यक साधन जुटा सके। यह ईश्वरी अनुदान की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया हुई। इससे आगे की बात यह है कि चेतना के पास विशाल सागर में से प्रयत्नपूर्वक अधिक मात्रा में विशिष्टता खींची और धारण की जा सके। इसी प्रयास-पुरुषार्थ को उपासना कहते हैं।
सूर्य की धूप हर जगह एक जैसी पड़ती है, पर आतिशी शीशे पर कुछ किरणें एकत्रित करने भर से आग जलने जैसी गर्मी उत्पन्न हो सकती है। भगवान की बिखरी हुई सत्ता को आकर्षित एवं एकत्रित करने से व्यक्ति की आत्मिक क्षमता अत्यधिक बढ़ सकती है और उस संचय के बल पर भौतिक दृष्टि से सुसंपन्न एवं आत्मिक दृष्टि से सुसंस्कृति बना जा सकता है। बिजलीघर में शक्ति का भण्डार भरा रहता है, उस के साथ संबंध जोड़ने वाले सूत्र जितने दुर्बल होते हैं, उसी अनुपात से बिजली की मात्रा का आगमन होता है और उससे मशीनें चलती हैं। हल्की फिटिंग तो हर किसी में है उतने में से थोड़ी शक्ति के कुछ ही बल्व जल सकते है, पर यदि मीटर तथा सम्बन्ध सूत्रों को बलिष्ठ बना दिया जाय तो उसी स्थान पर शक्तिशाली कारखाना धड़धड़ाने लगता है। यह बिजली की अधिक मात्रा प्राप्त होने का परिणाम है।
बादलों से वर्षा होती रहती है और गिरने वाला पानी नालियों से होकर थोड़ी ही देर में अन्यत्र चला जाता है किन्तु जहां जितनी गहराई है वहां उसी अनुपात में पानी के भण्डार जमा होने लगते हैं। सूर्य की किरणों, बिजली की मात्रा, बादलों के अनुदान की भाँति ही ईश्वरी सामर्थ्य को आत्म-सत्ता में एकत्रित कर लेने की बात है। यह कार्य उपासना द्वारा ही सम्भव होता है। यदि उसे मात्र क्रिया –कृत्य तक सीमित न किया जाए और चिन्तन-मनन के तथ्यों को जोड़कर रखा जाय तो निस्संदेह उपासना बहुत ही फलवती हो सकती है। यह दैवी अनुदान भौतिक धन, सम्पत्ति, विद्या, बुद्घि-प्रतिभा, प्रगति आदि साधन जमा कर लेने की तुलना में सत्ता में उसकी चेतना ही सब कुछ है। पंच तत्वों से बना काय-कलेवर तो औजार-उपकरण मात्र है। चेतना में ईश्वरीय प्रखरता ब़ढ़ने और भरने लगे तो समझना चाहिए कि सच्ची, चिरस्थायी एवं सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल गया है। स्पष्ट है कि मनुष्य के बाह्य जीवन में जैसी भी कुछ परिस्थिति दिखाई पड़ती हैं वह उसकी आन्तरिक स्थिति का ही परिणाम हैं।
यदि आंतरिक स्थिति की उत्कृष्टता का समावेश हो सके तो निश्चय रूप से बाह्य जीवन समृद्ध एवं सुसंस्कृत होकर ही रहेगा। उपासना से इसी सच्ची प्रगति की भूमिका विनिर्मित होती है।
उपासना का अर्थ है-समीप बैठना। शक्तिशाली तत्वों के जितना ही निकट पहुँचते हैं उतना ही उसकी विशिष्टता का लाभ मिलता है। आग के पास जाने से गर्मी मिलती है। चन्दन वृक्ष के पास उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। दुर्गन्ध अथवा सुगन्ध के जितने समीप पहुँचते हैं उतनी ही उनकी भली और बुरी अनुभूति होती है। सत्संग और कुसंग के सुखद-दुखद परिणामों में समीपता ही कारण होती है। पारस को छूकर लोहे का सोना बन जाना प्रसिद्ध है। चुम्बक से कुछ समय लोहा सटा रहे तो वह लौह खण्ड भी चुम्बक की विशेषताओं से युक्त हो जाता है। ईश्वर की समीपता, उपासना-यदि इसी सिद्धान्त को समझते हुए गई है तो उसका प्रभाव भी ऐसा ही मंगलमय होना चाहिए। पेड़ का आश्रय पाकर बेल उतनी ही उपर चढ़ सकती है जितनी कि वृक्ष की ऊँचाई होती है। वादक के होठों से लगने पर बाँसुरी बजती है। पतंग अपनी डोरी उड़ाने वाले के हाथ में सौंप कर आकांश में ऊँची उड़ने लगती है। कठपुतली के धागे जब बाजीगर की उगली से बँध जाते है तो उन लकड़ी के टुकड़ों का मनोरम दिव्य कौशल देखते ही बनता है। उपासना में जीव और ईश्वर की ही निकटता बनती है, फलतः उसका लाभ भी वैसा ही हो सकता है जैसा कि इतिहास के पृष्ठों पर अंकित अगणित भक्तजनों का मिलने का उल्लेख है।
उपासना का स्तर यदि और भी गहरा हो जाय तो समीपता की श्रद्धा एक कदम और आगे बढ़कर एकता के स्तर तक पहुँच जाय तो भक्त और भगवान की स्थिति एक जैसी हो जाती है। आग में पड़ी हुई लकड़ी भी जलने लगती है। गंगा में मिलने पर गंदा नाला भी गंगाजल बन जाता है। पति-पत्नी मान एवं वैभव सयुक्त हो जाता है। बूँद जब समुद्र से मिलती है, तो समुद्र ही बन जाती है। दूध और पानी जब परस्पर मिल जाते है तो दोनों का भाव एक जैसा हो जाता है। चेतना के संयोग से जुड़ शरीर भी विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करता है। जब यह संयोग में बदल जाता है, तो फिर शरीर को सड़-गल कर नष्ट होते देर नहीं लगती। ऐसी दशा में कुछ काम कर सकना तो सम्भव ही नहीं रहता। ईश्वर और जीव की समीपता, सघनता की बात भी ऐसी ही है। यह महान प्रयोजन उपासना के माध्यम से ही सिद्ध होता है।
व्यक्ति और समाज का वास्विक हित-साधन आस्तिकता का अलग कर देने से संभव न हो सकेगा। आस्तिकता मात्र मान्यता तक सीमित रहे तो वह उसे निरन्तर परिपुष्ट करना होगा। इसलिए प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति को निजी जीवन क्रम में उपासना की प्रक्रिया सम्मिलित रखनी चाहिए और उसे अपने-अपने परिवार में आरोपित करने के साथ-साथ सामाजिक प्रचलन के रूप में अधिकाधिक व्यापक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
उपासना पद्धतियाँ अनेकानेक प्रचलित हैं। सम्प्रदाय भेद से उनके अनेकों स्वरूप और विधान दृष्टिगोचर होते हैं। इन सभी को मान्यता दी जाती है तो दार्शनिक और भावात्मक विश्रृंखलता बनी ही रहेगी। अगला युग एकता का है। इसके बिना विग्रह बढ़ेगे और संकट खड़े होंगे। एक भाषा, एक राष्ट्र, एक संस्कृति अपनाये बिना विश्व मानव का स्वरूप ही नहीं निखरेगा। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना शब्दाडम्बर बनकर रह जाएगी। मानवी संस्कृति-आचार व्यवहार में एकता स्थापित करनी होगी। साथ ही आस्तिकता का स्वरूप और व्यवहार भी एकता के केन्द्र पर ही केन्द्रित करना होगा। समस्त विश्व में प्रचलित आस्तिकतावादी मान्यताओं और उपासनाओं का सारतत्व ढूँढना हो तो वह गायत्री मंत्र में बीज रूप में विद्यमान पाया जा सकता है। इसमें सर्वजनीन एवं सार्वभौम बनने योग्य सभी विशिष्टतायें विद्यमान हैं।
मनुष्य के भौतिक पक्ष शरीर से लेकर परिस्थितियों तक के सुधार-संभाल के लिए अनेकानेक माध्यम विकसित हो गये हैं और हो रहे हैं, किन्तु चेतना से परिष्कार की ओर काफी उपेक्षा पिछले दिनों बरती गई है। वह उपेक्षा भौतिकता के नाम पर भी आई और धार्मिक मूढ़ताओं के कारण भी। जो भी हो मानवीय चेतना के परिष्कार का क्रम छूटने की अगणित हानियाँ मनुष्य समाज को उठानी पड़ी हैं साधना सम्पन्नता बढ़ने पर भी सुख-संतोष न बढने का कारण यही है। चेतना परिस्कार का-मानवी अंतःसंस्थान को पुष्ट और प्रामाणिक बनाने का बहुत ही सशक्त माध्यम ईश्वर उपासना है। आज बड़े से बड़े वैज्ञानिक भी सशक्त माध्यम ईश्वर उपासना है। आज बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक भी ब्राह्माण्ड व्यापी किसी चेतना सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करने लगे हैं। उसकी उपस्थिति का आभास ब्रह्माण्ड से लेकर परमाणु तक में होता है। उसी महत् चेतना का अंश मनुष्य के अन्दर भी है। उसी के नाते मनुष्य, अद्भुत, अनुपम कहा जा सकता है। उस चेतना के धूमिल पड़ते ही मनुष्य और पशु में नहीं के बराबर ही अन्तर रह जाता है। अंतः चेतना को जीवन्त एवं प्रखर बनाये रखने का एक ही माध्यम है- उसे महत् चेतना से सम्बद्ध रखना। उस सम्बन्ध को अधिक सघन, अधिक सशक्त बनाना। ईश्वर उपासना इसी प्रक्रिया के विधि-विधान का नाम है।
बिजली घर के साथ सम्बन्ध जुड़े रहने पर ही घर के बल्व, पंखे, हीटर, रेडियो आदि में गतिशीलता रहती है। सम्बन्ध कट जाने पर यह सब यन्त्र ठीक रहने पर भी निष्क्रिय बन जाते हैं। ईश्वर इस ब्रह्माण्ड में संव्याप्त वह दिव्य चेतना है जिसका एक छोटा अंश तो जीवन-यापन के लिए आवश्यक क्षमता प्राप्त करने जितनी मात्रा में हर किसी को मिला हुआ है। उतने से ही हर प्राणी को अपनी जीवन चर्या चलानी पड़ती है। जीव को ईश्वर का अंश इसी अर्थ में कहा जाता है कि उसे ब्रह्म चेतना का उतनी मात्रा सहज ही उपलब्ध है जिसके आधार पर शरीर में क्रियाशीलता और मन में विचारण की उतनी क्षमता संजोये रहता है जिससे जीवन यापन के आवश्यक साधन जुटा सके। यह ईश्वरी अनुदान की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया हुई। इससे आगे की बात यह है कि चेतना के पास विशाल सागर में से प्रयत्नपूर्वक अधिक मात्रा में विशिष्टता खींची और धारण की जा सके। इसी प्रयास-पुरुषार्थ को उपासना कहते हैं।
सूर्य की धूप हर जगह एक जैसी पड़ती है, पर आतिशी शीशे पर कुछ किरणें एकत्रित करने भर से आग जलने जैसी गर्मी उत्पन्न हो सकती है। भगवान की बिखरी हुई सत्ता को आकर्षित एवं एकत्रित करने से व्यक्ति की आत्मिक क्षमता अत्यधिक बढ़ सकती है और उस संचय के बल पर भौतिक दृष्टि से सुसंपन्न एवं आत्मिक दृष्टि से सुसंस्कृति बना जा सकता है। बिजलीघर में शक्ति का भण्डार भरा रहता है, उस के साथ संबंध जोड़ने वाले सूत्र जितने दुर्बल होते हैं, उसी अनुपात से बिजली की मात्रा का आगमन होता है और उससे मशीनें चलती हैं। हल्की फिटिंग तो हर किसी में है उतने में से थोड़ी शक्ति के कुछ ही बल्व जल सकते है, पर यदि मीटर तथा सम्बन्ध सूत्रों को बलिष्ठ बना दिया जाय तो उसी स्थान पर शक्तिशाली कारखाना धड़धड़ाने लगता है। यह बिजली की अधिक मात्रा प्राप्त होने का परिणाम है।
बादलों से वर्षा होती रहती है और गिरने वाला पानी नालियों से होकर थोड़ी ही देर में अन्यत्र चला जाता है किन्तु जहां जितनी गहराई है वहां उसी अनुपात में पानी के भण्डार जमा होने लगते हैं। सूर्य की किरणों, बिजली की मात्रा, बादलों के अनुदान की भाँति ही ईश्वरी सामर्थ्य को आत्म-सत्ता में एकत्रित कर लेने की बात है। यह कार्य उपासना द्वारा ही सम्भव होता है। यदि उसे मात्र क्रिया –कृत्य तक सीमित न किया जाए और चिन्तन-मनन के तथ्यों को जोड़कर रखा जाय तो निस्संदेह उपासना बहुत ही फलवती हो सकती है। यह दैवी अनुदान भौतिक धन, सम्पत्ति, विद्या, बुद्घि-प्रतिभा, प्रगति आदि साधन जमा कर लेने की तुलना में सत्ता में उसकी चेतना ही सब कुछ है। पंच तत्वों से बना काय-कलेवर तो औजार-उपकरण मात्र है। चेतना में ईश्वरीय प्रखरता ब़ढ़ने और भरने लगे तो समझना चाहिए कि सच्ची, चिरस्थायी एवं सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल गया है। स्पष्ट है कि मनुष्य के बाह्य जीवन में जैसी भी कुछ परिस्थिति दिखाई पड़ती हैं वह उसकी आन्तरिक स्थिति का ही परिणाम हैं।
यदि आंतरिक स्थिति की उत्कृष्टता का समावेश हो सके तो निश्चय रूप से बाह्य जीवन समृद्ध एवं सुसंस्कृत होकर ही रहेगा। उपासना से इसी सच्ची प्रगति की भूमिका विनिर्मित होती है।
उपासना का अर्थ है-समीप बैठना। शक्तिशाली तत्वों के जितना ही निकट पहुँचते हैं उतना ही उसकी विशिष्टता का लाभ मिलता है। आग के पास जाने से गर्मी मिलती है। चन्दन वृक्ष के पास उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। दुर्गन्ध अथवा सुगन्ध के जितने समीप पहुँचते हैं उतनी ही उनकी भली और बुरी अनुभूति होती है। सत्संग और कुसंग के सुखद-दुखद परिणामों में समीपता ही कारण होती है। पारस को छूकर लोहे का सोना बन जाना प्रसिद्ध है। चुम्बक से कुछ समय लोहा सटा रहे तो वह लौह खण्ड भी चुम्बक की विशेषताओं से युक्त हो जाता है। ईश्वर की समीपता, उपासना-यदि इसी सिद्धान्त को समझते हुए गई है तो उसका प्रभाव भी ऐसा ही मंगलमय होना चाहिए। पेड़ का आश्रय पाकर बेल उतनी ही उपर चढ़ सकती है जितनी कि वृक्ष की ऊँचाई होती है। वादक के होठों से लगने पर बाँसुरी बजती है। पतंग अपनी डोरी उड़ाने वाले के हाथ में सौंप कर आकांश में ऊँची उड़ने लगती है। कठपुतली के धागे जब बाजीगर की उगली से बँध जाते है तो उन लकड़ी के टुकड़ों का मनोरम दिव्य कौशल देखते ही बनता है। उपासना में जीव और ईश्वर की ही निकटता बनती है, फलतः उसका लाभ भी वैसा ही हो सकता है जैसा कि इतिहास के पृष्ठों पर अंकित अगणित भक्तजनों का मिलने का उल्लेख है।
उपासना का स्तर यदि और भी गहरा हो जाय तो समीपता की श्रद्धा एक कदम और आगे बढ़कर एकता के स्तर तक पहुँच जाय तो भक्त और भगवान की स्थिति एक जैसी हो जाती है। आग में पड़ी हुई लकड़ी भी जलने लगती है। गंगा में मिलने पर गंदा नाला भी गंगाजल बन जाता है। पति-पत्नी मान एवं वैभव सयुक्त हो जाता है। बूँद जब समुद्र से मिलती है, तो समुद्र ही बन जाती है। दूध और पानी जब परस्पर मिल जाते है तो दोनों का भाव एक जैसा हो जाता है। चेतना के संयोग से जुड़ शरीर भी विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करता है। जब यह संयोग में बदल जाता है, तो फिर शरीर को सड़-गल कर नष्ट होते देर नहीं लगती। ऐसी दशा में कुछ काम कर सकना तो सम्भव ही नहीं रहता। ईश्वर और जीव की समीपता, सघनता की बात भी ऐसी ही है। यह महान प्रयोजन उपासना के माध्यम से ही सिद्ध होता है।
व्यक्ति और समाज का वास्विक हित-साधन आस्तिकता का अलग कर देने से संभव न हो सकेगा। आस्तिकता मात्र मान्यता तक सीमित रहे तो वह उसे निरन्तर परिपुष्ट करना होगा। इसलिए प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति को निजी जीवन क्रम में उपासना की प्रक्रिया सम्मिलित रखनी चाहिए और उसे अपने-अपने परिवार में आरोपित करने के साथ-साथ सामाजिक प्रचलन के रूप में अधिकाधिक व्यापक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
उपासना पद्धतियाँ अनेकानेक प्रचलित हैं। सम्प्रदाय भेद से उनके अनेकों स्वरूप और विधान दृष्टिगोचर होते हैं। इन सभी को मान्यता दी जाती है तो दार्शनिक और भावात्मक विश्रृंखलता बनी ही रहेगी। अगला युग एकता का है। इसके बिना विग्रह बढ़ेगे और संकट खड़े होंगे। एक भाषा, एक राष्ट्र, एक संस्कृति अपनाये बिना विश्व मानव का स्वरूप ही नहीं निखरेगा। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना शब्दाडम्बर बनकर रह जाएगी। मानवी संस्कृति-आचार व्यवहार में एकता स्थापित करनी होगी। साथ ही आस्तिकता का स्वरूप और व्यवहार भी एकता के केन्द्र पर ही केन्द्रित करना होगा। समस्त विश्व में प्रचलित आस्तिकतावादी मान्यताओं और उपासनाओं का सारतत्व ढूँढना हो तो वह गायत्री मंत्र में बीज रूप में विद्यमान पाया जा सकता है। इसमें सर्वजनीन एवं सार्वभौम बनने योग्य सभी विशिष्टतायें विद्यमान हैं।
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