आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की क्या आवश्यकता है
गुरु-गरिमा आदर्शों को अपनाकर ही उन्हें उपलब्ध हुई होती है, वे उसे हस्तान्तरित भी उसी प्रयोजन के निमित्त करते हैं। साथ ही यह भी जानते, परखते हैं कि लेने वाला प्रामाणिक एवं ईमानदार भी है या नहीं ? यह सिद्ध न कर पाने पर, कुपात्र शिष्य जिस-तिस के सामने पल्ला पसरते फिरने पर भी खाली हाथ रहता है। गुरुओं की दीक्षा अनुदान, इस शर्त पर हस्तान्तरित होते हैं कि जो माँगा जा रहा है, उसका प्रयोग-उपयोग उच्चस्तरीय प्रयोजनों में हो। संकीर्ण स्वार्थपरता की पूर्ति के लिए चाटुकारिता करने भर की ओछी रिश्वत देकर किसी को उच्चस्तरीय अनुदान पाने में सफलता नहीं मिली। इस नंगी सच्चाई को जितनी जल्दी समझ लिया जाय, उतना ही अच्छा है।
पूज्य गुरुदेव की, वंदनीया माता जी की उनके महाप्राण गुरुदेव ने जो अनुदान दिया है, उसके पीछे यही शर्त रही, जिसे उन्होंने आदि से अन्त तक पूरी ईमानदारी के साथ पूरा किया है। पात्रता की कसौटी सदा उनके ऊपर लगी रही है। जितने खरे सिद्ध होते चले हैं उसी आधार पर क्रमशः उन्हें अधिकाधिक बड़े अनुदान मिलते चले आये हैं। विवेकानन्द, दयानंद, शिवाजी, चंद्रगुप्त आदि ने जो माँगा, पाया, वह उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए था। पाने से पूर्व इसमें से हर किसी को अपनी पात्रता सिद्ध करनी पड़ी है। मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने से पूर्व “प्री मेडिकल टेस्ट” देने पड़ते हैं। अफसरों के चुनाव में चुनाव आयोग के सामने कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना होता है। दंगल में इनाम पाने से पूर्व अपना पराक्रम अन्य प्रतियोगियों से अधिक होने का प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ता है।
सात लाख की लाटरी खुल जाने के उपरान्त एक हजार का दान करने का प्रलोभन देने वाले अध्यात्म क्षेत्र में बचकाने माने जाते हैं। लाटरी का नम्बर बताने की स्थिति में जो है, वह किसी को नम्बर बताने और मात्र हजार रुपये से संतोष करने की बात सोचेगा ही नहीं, किसी को बिचौलिया नहीं बनायेगा, अपनी ही लाटरी खोल लेगा। किसी का अहसान क्यों लेगा ? लाभ होने के उपरान्तदान देने की शर्त विवेकवानों के बीच काम नहीं देती, यह तो ओछे लोगों का, प्रलोभन देकर काम कराने का घिनौना तरीका है। उच्च क्षेत्रों में इस हेरा-फेरी की कोई गुंजाइश नहीं है। वरदान जिसे भी मिले हैं तप करके अपनी पत्रता सिद्ध करने के,
उपरान्त ही मिले हैं।
पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माता जी ने आदान-प्रदान की जो प्रक्रिया अपने महा-गुरुदेव के साथ निभायी है। उनका शिष्यत्व प्राप्त करने के इच्छुकों में से प्रत्येक को भी वही अपनानी चाहिए। पूज्य गुरुदेव के पास जो था, वह सच्चे मन से उन्होंने परमार्थ के लिए महान् गुरुदेव की इच्छा-आवश्यकता के निमित्त, अपने को-साधनों की खपा देने के रूप में समर्पित किया। उनके आदेशानुसार अपने आपको तपाया। यही है वह पात्रता, जिसके बदले में उनके महाप्राण गुरुदेव ने अपनी भारी कमाई उनकी समर्थता के निमित्त निछावर कर दीं। उसी आधार पर वंदनीया माता जी भी अपने आराध्य गुरुदेव की शक्ति पाकर अनन्त शक्तिरूपा बनी हैं। एक प्रत्यक्ष व दूसरे परोक्ष मिलकर समग्र गुरु तंत्र का निर्माण करते हैं।
मन बहलाना हो तो बात दूसरी है, अन्यथा गुरु-शिष्य की परम्परा अपनाने की, सच्चे अर्थों में कार्यान्वित करने की बात ही सोची जानी चाहिए और उसी आधार पर कोई बड़ा लाभ पाने, महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान का द्वार खोलने की चेष्टा उस प्रकार करनी चाहिए, जैसा कि उदार चेता करते आये हैं।
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- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान