आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की क्या आवश्यकता है
न्यास:-बायें हाथ में जल लें, दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियाँ मिलाकर जल का स्पर्श करें। गायत्री मंत्र से उस जल को अभिमंत्रित करें। अब गायत्री मंत्र का एक-एक खण्ड बोलते हुए एक-एक अंग को उस जल से स्पर्श (नीचे लिखे क्रम से) करें। भावना करें कि इस स्पर्श से हमारे प्रमुख अंग-उपांग देव प्रयोजनों के अनुरूप पवित्र और सशक्त बन रहे हैं।
१. ॐ भूर्भुवः स्व - मस्तक को।
२. तत्सवितुः - दोनों नेत्रों को।
३. वरेण्यम - दोनों कानों को।
४. भगों - मुख की।
५. देवस्य - कण्ठ को।
६. धीमहि -हृदय को।
७. धियो यो नः - नाभि को।
८. प्रचोदयात् - हाथों पैरों को।
पृथ्वी पूजन:- एक आचमनी जल गायत्री मंत्र के साथ पृथ्वी पर चढ़ायें तथा धरती माता को छूकर प्रणाम करें। भावना करें कि धरती माँ जिस तरह शरीर के पोषण के लिए अन्न आदि देती हैं, वैसे ही अन्त:करण के पोषण के लिए शुभ संस्कार प्रदान करे।
इस प्रकार षट्कर्म पूरे होने पर हाथ जोड़ कर गुरु वन्दना करें। भावना करें कि गुरु चेतना उपासना के समय हमारे संरक्षण एवं मार्गदर्शन के लिए हमारे साथ है:-
ॐ अखण्डमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
आदिशक्ति माँ गायत्री का स्मरण करें। प्रार्थना करें कि वे उपासना के समय हमें प्रेरणा और शक्ति प्रदान करने के लिए दव्य प्रवाह के रूप में प्रकट हों, हमें दिव्य बोध करायें:-
ॐ आयातु वरदे देवि ! अक्षरे ब्रह्मवादिनि।
गायात्रिच्छन्दसां भातः ब्रह्मयोने नमोऽस्तुते।।
इतना क्रस पूरा करने में लगभग ४-५ मिनट समय लग सकता है। जब भावनापूर्वक माला लेकर अथवा बिना माला लिए ही (जैसा अनुकूल पड़े) जप करें। जप के समय ध्यान करें कि सूर्य के प्रकाश की तरह माँ का तेज हमारे चारों ओर व्याप्त है। जप के प्रभाव से वह रोम-रोम में भिद रहा है, हमारी काया, मन, अन्त:करण सब उससे अनुप्राणित एकाकार हो रहे हैं।
जप पूरा होने पर हाथ जोड़कर परमात्म-चेतना एवं गुरु चेतना को प्रणाम करें। विसर्जन की प्रार्थना करें।
ॐ उत्तमे शिखरे देवि ! भूम्यां पर्वतमूर्धनि।
ब्राह्मणेभ्यो ह्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम्।।
विसर्जन के बाद जल-पात्र लेकर सूर्य की ओर मुख करके जल का अर्ध्य चढ़ायें। भावना करें कि जिस प्रकार पात्र छोड़कर जल सूर्य भगवान को अर्पित होकर वायुमंडल में संव्याप्त हो रहा है, उसी प्रकार हमारी प्रतिभा भी स्वार्थ के संकीर्ण पात्र से मुक्त होकर परमात्मा के निमित्त लगे और महानता को प्राप्त हो।
दीक्षित व्यक्ति आहार और निद्रा की तरह उपासना को भी जीवन का अंग बना ले। परम पू० गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी के संरक्षण में की गयी उपासना, जीवन के अंतरंग एवं बहिरंग दोनों पक्षों को विकसित करती है। साधक की भावनाओं, विचारों एवं गुण-कर्म-स्वभाव में दिव्यता समाविष्ट होकर असाधारण लाभ का सुयोग उपस्थित कर देती।
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- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान