आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकताश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की क्या आवश्यकता है
अनिश्चय की दशा में जहाँ-तहाँ से चंचु प्रवेश करते रहने से उपर्युक्त कार्यों में से एक भी नहीं सधता। इसलिए परम्परा ऐसी ही बनायी गई है कि महत्वपूर्ण कार्यों के लिए विधिवत् एवम् निर्धारित प्रशिक्षण हो, चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट, एडवोकेट, डॉक्टर आदि का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने की अवधि में भी किन्हीं विशिष्टों के साथ जुड़े रहने की विधि-व्यवस्था है। इस मर्यादा का उल्लंघन कर, जहाँ-तहाँ से जब तब शिक्षण प्राप्त करते रहने की व्यवस्था करने से भी बात बनती नहीं। यों अन्यों से पूछताछ करके, तदविषयक अनेकानेक पुस्तकें पढ़कर, अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करते रहने पर कोई रोक नहीं हैं, फिर भी निश्चित उत्तरदायित्व में बँधने की प्रचलित विद्या का उल्लंघन करने, उसे निरर्थक मानकर उपेक्षा करने से भी बात बनती नहीं। अध्यात्म क्षेत्र में भी वही बात इसी तरह लागू होती हैं। आत्मिक क्षेत्र की प्रगति भौतिक प्रगति से कम नहीं, अधिक ही अभीष्ट है। आत्मिक प्रगति से ही व्यक्ति को अनगढ़ से सुगढ़ बनने एवं अपने व्यक्तित्व की गरिमा को असाधारण रूप से बढ़ाने का अवसर मिलता है। उसकी जो फलश्रुतियाँ हैं, अपरिमित उपलब्धियाँ हैं उन्हें देखते हुए गुरु का आश्रय लेना हर दृष्टि से अनिवार्य माना जाना चाहिए।
भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की तरह तीन देवता धरती के माने गये हैं। माता, पिता और गुरु की तुलना उन त्रिदेवों से की गयी है। माता ब्रह्मा क्योंकि वह बालक को पेट में रखती और अपना शरीर काट कर, बालक का शरीर बनाकर जन्म देती है। पिता को विष्णु माना गया है, क्योंकि वह बालक के भरण-पोषण की, शिक्षा, करके उसे समर्थ बनाता है। इस प्रकार पिता विष्णु ठहरता है। गुरु की गरिमा इन दोनों से ऊँची है। माता-पिता तो मात्र शरीर का ही सृजन, और पोषण करते हैं जबकि गुरु आत्मा में व्यक्तित्व में सुसंस्करिता का आरोपण करके, उसे इसी जन्म में दूसरा जन्म प्रदान करता है। द्विजत्व एक उच्चस्तरीय संस्कार है, जिसे यज्ञोपवीत दीक्षा के साथ कर्मकाण्ड के रूप में सम्पन्न किया जाता है। यह प्रतीक पूजा हुई। वस्तुत: इस कृत्य के पीछे गुरु वरण की भूमिका ही काम करती है। माता पिता के सहयोग से मानव शरीर की उपलब्धि जितनी महत्वपूर्ण है, उससे भी अधिक गुरु महिमा की सहायता नर-पशु का, नर-नारायण बनने की संभावना के सम्बन्ध में समझी जा सकती है। आत्मिक क्षेत्र का परिशोधन परिष्कार कर सकने वाली गुरु गरिमा को वस्तुत: मूर्तिमान शिव कहा जा सकता है। इसी रूप में वंदना अभ्यर्थना के स्तवन छद भी बने और गाये गये हैं।
गुरुजनों के सान्निध्य अवलम्बन से कितने ही सामान्य व्यक्तियों को असामान्य बनने का अवसर मिला है। बुद्ध के अनुग्रह से हर्षवर्धन, अशोक, आनन्द, कुमारजीव जैसे कितनों को महानता के उच्च शिखर तक पहुँचने का सुयोग मिला। अंगुलिमाल, अम्रपाली जैसे कितने ही हीन व्यक्ति महामानव के रूप में कायाकल्प कर सकने का सौभाग्य अर्जित कर सके। समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी की, विरजानन्द और दयानन्द की आत्मिक घनिष्ठता यदि बन न पड़ी होती, तो यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि दोनों ही पक्ष घाटे में रहते। विशेषतया इन युग्मों से सम्बन्धित शिष्य पक्ष को ही अपेक्षाकृत अधिक घाटे में रहना पड़ता। कल्पना की जा सकती है कि यदि स्वराजेन्द्र बाबू, पटेल नेहरू, राजगोपालाचार्य विनोबा आदि की गाँधी जी के साथ घनिष्ठता न जुड़ी होती, वे अपना-अपना अभ्यस्त ढर्रा अपनाये रहे होते, तो निश्चय ही दोनों पक्षों को उतना गौरवान्वित होने का अवसर न मिलता जितना कि संभव हो सका। संभव हैउस स्थिति, में गाँधी जी अपनी तपश्चर्या को भगीरथ दधीचि, आदि की तरह एकाकी भी चलाते रहते और महानता के उच्च शिखर पर पहुँच जाते किन्तु उनसे सम्बधित अगणित व्यक्तियों की स्थिति सर्वथा भिन्न होती, वे कामकाजी लोगों की तरह मात्र अपना निर्वाह ही चलाते एक छोटे दायरे में ही दिन गुजारते और धनी-निर्धन रहकर जिन्दगी के दिन पूरे करते। उन्हें यह सौभाग्य न मिल पाता जो गाँधी जी की छत्र-छाया का आश्रय लेने पर मिल सका। यह श्रेष्ठता के सान्निध्य, सामीप्य, अवलम्बन का ही चमत्कार है कि साधारण व्यक्ति असाधारण बनता देखा जाता है। गुरुवरण की आवश्यकता व महत्ता इसीलिए बतायी जाती रही है। श्रद्धा इस प्रक्रिया का प्राण है। इतना समझ लेने पर आत्मिक प्रगति के इच्छुकों को वह राजमार्ग मिल जाता है, जिस पर चलकर वे अनुग्रह -अनुदानों से लाभान्वित होते हैं।
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- श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
- समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
- इष्टदेव का निर्धारण
- दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
- देने की क्षमता और लेने की पात्रता
- तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
- गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान