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आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की आवश्यकता

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4120
आईएसबीएन :000000

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आत्मिक प्रगति के लिए अवलम्बन की क्या आवश्यकता है


यदि आत्म-विज्ञान का महत्व समझ जाय और उस दिशा में बढ़ने का साहस किया जाय तो साथ-साथ इतना और भी होना चाहिए। कि श्रद्धा विश्वास बनाये रहने, उसे बढ़ाते चलने वाले आधार को भी किसी प्रकार उपलब्ध कर लिया जाय। किसी निर्धारित नियुक्त गुरु के अभाव में अपनायी गई गतिविधियों के संबंध में संशय ही बना रहता है। व्यक्तियों के कथनों के और ग्रन्थों के उल्लेखों में असाधारण अन्तर और भारी मतभेद पाया जाता है। उनकी जितनी अधिक टटोल की जाय, उतना ही सन्देह बढ़ेगा। किसे-सही किसे गलत माना जाय इसमें तर्क भी कुछ काम नहीं देते। श्रद्धा को संशय खा जाता है, फलत: अनिश्चय की मन: स्थिति बनी रहती है। एक क्रम अपनाने, दूसरे को छोड़ने का सिलसिला चलता रहता है, फलत: दिग्भ्रान्त की तरह आगे बढ़ते-पीछे हटते, छोड़ते, चक्कर काटते, समय गुजरता है। थकान और खीझ के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ता। इस चक्रव्यूह से निकलना उन्हीं के लिए संभव हो सकता है, जो आत्मिक प्रगति की दिशा में सुनिश्चित विधि-व्यवस्था अपना कर, उसे श्रद्धा एवं दृढ़ता के साथ अविच्छिन्न रूप से अपनाये रह सकें। इसके लिए फिर गुरु-वरण की आवश्यकता, अपनी अनिवार्यता सिद्ध करती हुई सामने आ खड़ी होती है।

सदगुरु की तलाश प्रत्येक श्रेयार्थी साधक को करनी चाहिए। इस पुण्य प्रयोजन के लिए प्रज्ञा अभियान के संचालन तंत्र पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माता जी का चयन किया जा सकता है। वे इन दिनों प्रज्ञा परिजनों की तात्कालिक आवश्यकता पूरी करने के लिए युग सन्धि में आत्मशक्ति के व्यापक उत्पादन का महत्व समझते हुए ब्रह्मनिष्ठ आत्माओं के सृजन में निरत हैं। सूक्ष्म व कारण शरीर से वे स्वयं तथा प्रत्यक्ष रूप में वंदनीया माता भगवती देवी सबकी परोक्ष सहायता करने में पूर्ण सक्षम हैं।

भगवान राम के दो गुरु थे, एक गुरु - वशिष्ठ दूसरे, विश्वामित्र। वशिष्ठ कुल-गुरु थे, योग वशिष्ट उन्हीं ने पढ़ाया था।

किन्तु बला और अतिबला विद्याएँ प्राप्त करने के लिए उन्हें यज्ञ रक्षा के बहाने विश्वामित्र आश्रम में रहना पड़ा। जो वहाँ सीखा जा सका, वह वशिष्ठ की सीमा से बाहर था। बला और अतिबला सावित्री-गायत्री रूपी भौतिकी एवं आत्मिकी को कहते हैं। प्रथम के द्वारा उन्होंने असुरों को परास्त किया और दूसरे के माध्यम से राम राज्य की स्थापना वाले और कठिन उत्तरदायित्वों को पूर्ण कर सकने में समर्थ हुए।

एक व्यक्ति के कई गुरु होने में कोई दोष नहीं। पूज्य गुरुदेव को गायत्री मंत्र और उपनयन महामना मालवीय जी ने प्रदान किया था। इसके अतिरिक्त हिमालय से युगान्तरीय चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रज्ञात्मा को वे सूक्ष्म गुरु मानते और उन्हीं के संकेतों पर अपनी गतिविधियों का ताना-बाना बुनते हैं। ऐसा हर कोई कर सकता है। दत्तात्रेय जी के चौबीस गुरुओं की बात सर्वविदित है। प्राचीनकाल में भी ऐसा होता रहा है। इसकी असंख्य साक्षियाँ विद्यमान हैं।

समर्थ सत्ता के साथ जुड़ जाने पर किसी भी सामान्य को असामान्य बनने का अवसर मिल सकता है। बिजलीघर के साथ सम्बन्ध जुड़ जाने पर ही, बल्ब, पंखे, हीटर, कूलर आदि उपकरण अपना काम करते हैं। टंकी के साथ जुड़े रहने पर नल तब तक पानी देता रहता है, जब तक टंकी खाली नहीं हो जाती। चन्द्रमा, सूर्य की चमक से चमकता है। हिमालय से जुड़ी हुई नदियों का जल सूखता नहीं। पुलिस का अदना सा सिपाही भी अपने को शासन तंत्र का प्रतिनिधि मानता और गर्दन ऊंची उठाकर चलता है। यह सम्बन्ध जुड़ने की बात हुई। समर्थता के साथ जुड़ जाने पर असमर्थता भी समर्थता में बदल जाती है। गन्दे नाले का पानी गंगा में मिल जाने पर गंगा जल की तरह सम्मान पाता है। पेड़ से लिपटने पर बेल उतनी ही ऊंची उठ जाती है, जबकि वह सामान्यतया अपने बल-बूते जमीन पर ही रेंगती है। अशिक्षित और निर्धन घर की बेटी भी किसी विद्वान या सम्पन व्यक्ति की पत्नी बन जाती है तो उसका, सम्मान एवं वैभव पति जितना ही हो जाता है।

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    अनुक्रम

  1. श्रद्धा का आरोपण - गुरू तत्त्व का वरण
  2. समर्थ बनना हो, तो समर्थों का आश्रय लें
  3. इष्टदेव का निर्धारण
  4. दीक्षा की प्रक्रिया और व्यवस्था
  5. देने की क्षमता और लेने की पात्रता
  6. तथ्य समझने के उपरान्त ही गुरुदीक्षा की बात सोचें
  7. गायत्री उपासना का संक्षिप्त विधान

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