आचार्य श्रीराम शर्मा >> संजीवनी विद्या का विस्तार संजीवनी विद्या का विस्तारश्रीराम शर्मा आचार्य
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संजीवनी विद्या का विस्तार
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
युग साहित्य का सृजन, जिसे किए बिना कोई गति नहीं
आवश्यक-अनावश्यक जानकारियाँ सिर पर लादने और नौकरी स्तर की कुछ आजीविका
कमा लेने के लक्ष्य तक सीमित वर्तमान स्कूली शिक्षा अपने ढर्रे पर चलती भी
रह सकती हैं। जिन्हें उसमें रुचि हो, वे उसे अपनाए भी रहें, पर उसी को सब
कुछ मानकर उसी परिधि में सीमित रहने से काम चलेगा नहीं। अगले दिनों
व्यक्ति और समाज को जिस ढाँचे में ढालना हैं, उसका प्रकाश-आभास भी उसमें
कहीं ढूँढ़े नहीं मिलता। जिस सुधार और सृजन की आवश्यकता पड़ेगी, उसके लिए
कोई संकेत तक उसमें नहीं है। आज तो सबसे अधिक आवश्यकता उसी की है, जिसको
प्राचीनकाल से विद्या या मेधा के नाम से जाना जाता है, जो स्वयं की हर
समस्या का निराकरण करने की स्थिति में होती है। अब आगमन-अवतरण उसी का होने
जा रहा है।
जिन अभिनव जानकारियों और प्रेरणाओं की इन्हीं दिनों आवश्यकता है, उन्हें प्राप्त करने के लिए स्कूलों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। उनमें एक तो उन विषयों का समावेश नहीं है, दूसरे वह पुस्तक-रटन से भी पूरी नहीं हो सकती। उसके लिए प्रत्यक्ष उदाहरणों का प्रेरणाप्रद माहौल सामने रहना चाहिए। विशेषतया अध्यापक इस स्तर के होने चाहिए, जो अपने साँचे में ढालकर छात्रों को प्रतिभावान-प्राणवान बना सकें, जो न केवल स्वयं बनें, वरन् अपने आलोक से समूचे संपर्क क्षेत्र को प्रकाशित कर सकें।
प्रज्ञा का अवतरण और विस्तार का कार्य असाधारण रूप से विस्तृत है। उसे शिक्षित-अशिक्षित, नर-नारी, बाल-वृद्ध, स्वस्थ-रोगी सभी को अवगत कराया जाना है। भाषाओं की छोटी-छोटी बिधि में बंटे हुए इस संसार में रहने वाले 600 करोड़ मनुष्यों को एक प्रकार से युग चेतना-तंत्र के अंतर्गत प्रशिक्षित किया जाना है। यह योजना इतनी बड़ी होगी कि उसे पूरी करने में कम से कम सौ वर्ष समय और अरबों-खरबों जितना धन जुटाना पड़ेगा। अध्यापक भर्ती और प्रशिक्षित करने पड़ेगे, सो अलग। इसलिए युग शिक्षा का स्वरूप उन आधारों को अपनाते हुए विनिर्मित करना पड़ेगा, जो आज की परिस्थितियों में इन्हीं दिनों कर सकना संभव हो। बड़े प्रयासों की प्रतीक्षा में रुके रहने की उपेक्षा, यही उपयुक्त समझा गया है कि वर्तमान परिस्थितियों में अपने छोटे साधनों से जो संभव हो उसे तुरंत आरंभ किया जाए और लोगों को देखने दिया जाए कि आरंभ का प्रतिफल किस रूप में उपलब्ध हो रहा है। बात यदि वजनदार होगी, तो लोग अपनाएँगे भी। प्रचलित शिक्षा प्रणाली किसी हद तक अपना अस्तित्व बनाए भी रह सकती है, पर उसकी आड़ में युग-शिक्षण को रोका नहीं जा सकता।
युग शिक्षण में यह विषय आवश्यक हैः- (1) व्यक्तित्व का समग्र विकास-परिष्कार। (2) समाज संरचना और उसके साथ जुड़े हुए प्रचलनों का नव निर्धारण। (3) अर्थ व्यवस्था। (4) सुलभ आजीविका कैसे उपलब्ध हो ? (5) मनुष्य के चितंन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता का समावेश किस प्रकार बढ़ता चले ? (6) परिवारों की वर्तमान संरचना में क्या सुधार-परिवर्तन किया जाए ? (7) शरीरिक और मानसिक रुग्णता से सुनिश्चित छुटकारा किस प्रकार मिले ? (8) अवांछनीयता से किस प्रकार निपटा जाए ? (9) अब अपेक्षा कहीं सुखद और सरल परिस्थितियों का निर्धारण कैसे किया जाए ? (10) सहकारिता और सद्भावना का क्षेत्र कैसे बढे ? (11) तत्त्व दर्शन क्षेत्र में परिष्कार विरोधी मान्यताओं का समीकरण कैसे किया जाए ? (12) राजतंत्र और धर्मतंत्र की उभयपक्षीय समर्थ शक्तिओं को किस प्रकार नए के युग के अनुरूप साँचे में ढाला जाए ?
यह कुछ थोड़े से विषयों की ही चर्चा है। इन्ही विषयों में से प्रत्येक की अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ फूटती हैं और वे अपने आपको एक मात्र स्वतंत्र विषय-क्षेत्र घोषित करती हैं। ऐसी दशा में युग शिक्षा का पुस्तकीय मौखिक व्यवहारिक स्वरूप प्रस्तुत करना इतना बड़ा काम हो जाता है, जिसे वर्तमान शिक्षा तंत्र की उपेक्षा कहीं अधिक व्यापक और वजनदार कहा ही जाएगा।
विलंब से बनने वाले किले या महल की तुलना में यही अच्छा है कि आज की आवश्यकता पूरी कर सकने वाली झोपड़ी का ढाँचा अपने ही हाथों अपने साधनों से खड़ा कर लिया जाए।
युग साहित्य का सृजन इस संदर्भ में प्रयत्क्ष कार्य है, ताकि अभिनव प्रसंग की पृष्ठभूमि और रूपरेखा के संबंध में जिन बातों की अनिवार्य रूप से तात्कालिक आवश्यकता है, उसे पूरा न सही, मार्गदर्शन रूप में तो प्रस्तुत किया ही जा सके। लोग उपयोगिता समझेंगे तो उस प्रयोग को विस्तार देने में भी उत्साह प्रदर्शित करेंगे।
प्रदर्शनियाँ इसीलिए लगाई जाती हैं कि उन्हें देखकर लोग किसी सुव्यवस्थित विषय की जानकारी कम समय में प्राप्त कर सकें। अपनी सामर्थ्य और कार्य की विशालता का मध्यवर्ती तालमेल जिस प्रकार बैठ सकता था, उसी को इन दिनों अपनी सूक्ष-बूझ और प्रभाव के अनुरूप प्रस्तुत किया जा रहा है।
युग निर्माण योजना, मथुरा और शांतिकुंज हरिद्वार से ऐसा साहित्य प्रकाशित करना आरंभ कर दिया गया है, जो प्रस्तुत समस्याओं के अनेकानेक विषयों पर प्रकाश डालता है। इन विषयों के संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण से काम न चलेगा, उसका अनेक भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन होना चाहिए। सीमित लेखन भी पर्याप्त नहीं। अब हर विषय को अनेक तर्कों, प्रमाणों और उदाहरणों के साथ प्रस्तुत करने की आवश्यकता अनुभव की जाती है। अगले दिनों युग साहित्य के ऐसे ही विस्तार की आवश्यकता है। बिना किसी प्रतीक्षा के वर्तमान साधनों से ही उसका शुभारंभ कर दिया गया है। आशा यह रखी गई है, कि रोपा यह अंकुर अगले दिनों बट-वृक्षों जैसा विशाल कलेवर धारण करेगा।
इस कार्यक्रम में कितनी ही कठिनाइयां हैं। एक यह कि अपने देश की दो तिहाई जनता अशिक्षित है, वह साहित्य का लाभ कैसे उठाए ? फिर इस घोर महँगाई के जमाने में आर्थिक कठिनाइयों से ग्रस्त अशिक्षित स्तर की जनता उसे किस आधार पर खरीदे ? थोड़े से जो शिक्षित बच जाते हैं, वे भी मनोरंजन के लिए चटपटा साहित्य भर खरीदते हैं। युग साहित्य का लेखन भी मात्र युगद्रष्टा के ही बलबूते का काम है। दूसरे उसके प्रकाशनों में बड़ी पूँजी लगती है। इतने पर भी बिक्री की माँग अत्यंत धीमी रहने से उसका प्रचार-प्रसार कैसे हो ? मँहगे मूल्य की बढ़िया सजधज वाली पुस्तकें छापी जाएँ, तो उन्हें या तो सरकारी शिक्षा तंत्र के ऊपर अतिरिक्त सुविधा शुल्क देकर थोपा जा सकता है, या फिर कोई संपन्न अपनी आलमारियों की शोभा बढ़ाने के लिए उसे खरीद सकते हैं।
यह समूची विडंबना भी ऐसी है, जिसके कारण लेखन, प्रकाशन, मुद्रण, विक्रय, आदि सभी ओर से अवरोध खड़े हो जाते हैं। आवश्यकता हर भाषा में स्थानीय मनः स्थिति और परिस्थिति के साथ ताल-मेल बिठाने वाले साहित्य सृजन की है। कठिन और असंभव दीखने वाले इस माध्यम को, सर्वत्र निराशा दीख पड़ने पर भी इन्हीं दिनों आरंभ कर भी दिया गया है।
जिन अभिनव जानकारियों और प्रेरणाओं की इन्हीं दिनों आवश्यकता है, उन्हें प्राप्त करने के लिए स्कूलों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। उनमें एक तो उन विषयों का समावेश नहीं है, दूसरे वह पुस्तक-रटन से भी पूरी नहीं हो सकती। उसके लिए प्रत्यक्ष उदाहरणों का प्रेरणाप्रद माहौल सामने रहना चाहिए। विशेषतया अध्यापक इस स्तर के होने चाहिए, जो अपने साँचे में ढालकर छात्रों को प्रतिभावान-प्राणवान बना सकें, जो न केवल स्वयं बनें, वरन् अपने आलोक से समूचे संपर्क क्षेत्र को प्रकाशित कर सकें।
प्रज्ञा का अवतरण और विस्तार का कार्य असाधारण रूप से विस्तृत है। उसे शिक्षित-अशिक्षित, नर-नारी, बाल-वृद्ध, स्वस्थ-रोगी सभी को अवगत कराया जाना है। भाषाओं की छोटी-छोटी बिधि में बंटे हुए इस संसार में रहने वाले 600 करोड़ मनुष्यों को एक प्रकार से युग चेतना-तंत्र के अंतर्गत प्रशिक्षित किया जाना है। यह योजना इतनी बड़ी होगी कि उसे पूरी करने में कम से कम सौ वर्ष समय और अरबों-खरबों जितना धन जुटाना पड़ेगा। अध्यापक भर्ती और प्रशिक्षित करने पड़ेगे, सो अलग। इसलिए युग शिक्षा का स्वरूप उन आधारों को अपनाते हुए विनिर्मित करना पड़ेगा, जो आज की परिस्थितियों में इन्हीं दिनों कर सकना संभव हो। बड़े प्रयासों की प्रतीक्षा में रुके रहने की उपेक्षा, यही उपयुक्त समझा गया है कि वर्तमान परिस्थितियों में अपने छोटे साधनों से जो संभव हो उसे तुरंत आरंभ किया जाए और लोगों को देखने दिया जाए कि आरंभ का प्रतिफल किस रूप में उपलब्ध हो रहा है। बात यदि वजनदार होगी, तो लोग अपनाएँगे भी। प्रचलित शिक्षा प्रणाली किसी हद तक अपना अस्तित्व बनाए भी रह सकती है, पर उसकी आड़ में युग-शिक्षण को रोका नहीं जा सकता।
युग शिक्षण में यह विषय आवश्यक हैः- (1) व्यक्तित्व का समग्र विकास-परिष्कार। (2) समाज संरचना और उसके साथ जुड़े हुए प्रचलनों का नव निर्धारण। (3) अर्थ व्यवस्था। (4) सुलभ आजीविका कैसे उपलब्ध हो ? (5) मनुष्य के चितंन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता का समावेश किस प्रकार बढ़ता चले ? (6) परिवारों की वर्तमान संरचना में क्या सुधार-परिवर्तन किया जाए ? (7) शरीरिक और मानसिक रुग्णता से सुनिश्चित छुटकारा किस प्रकार मिले ? (8) अवांछनीयता से किस प्रकार निपटा जाए ? (9) अब अपेक्षा कहीं सुखद और सरल परिस्थितियों का निर्धारण कैसे किया जाए ? (10) सहकारिता और सद्भावना का क्षेत्र कैसे बढे ? (11) तत्त्व दर्शन क्षेत्र में परिष्कार विरोधी मान्यताओं का समीकरण कैसे किया जाए ? (12) राजतंत्र और धर्मतंत्र की उभयपक्षीय समर्थ शक्तिओं को किस प्रकार नए के युग के अनुरूप साँचे में ढाला जाए ?
यह कुछ थोड़े से विषयों की ही चर्चा है। इन्ही विषयों में से प्रत्येक की अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ फूटती हैं और वे अपने आपको एक मात्र स्वतंत्र विषय-क्षेत्र घोषित करती हैं। ऐसी दशा में युग शिक्षा का पुस्तकीय मौखिक व्यवहारिक स्वरूप प्रस्तुत करना इतना बड़ा काम हो जाता है, जिसे वर्तमान शिक्षा तंत्र की उपेक्षा कहीं अधिक व्यापक और वजनदार कहा ही जाएगा।
विलंब से बनने वाले किले या महल की तुलना में यही अच्छा है कि आज की आवश्यकता पूरी कर सकने वाली झोपड़ी का ढाँचा अपने ही हाथों अपने साधनों से खड़ा कर लिया जाए।
युग साहित्य का सृजन इस संदर्भ में प्रयत्क्ष कार्य है, ताकि अभिनव प्रसंग की पृष्ठभूमि और रूपरेखा के संबंध में जिन बातों की अनिवार्य रूप से तात्कालिक आवश्यकता है, उसे पूरा न सही, मार्गदर्शन रूप में तो प्रस्तुत किया ही जा सके। लोग उपयोगिता समझेंगे तो उस प्रयोग को विस्तार देने में भी उत्साह प्रदर्शित करेंगे।
प्रदर्शनियाँ इसीलिए लगाई जाती हैं कि उन्हें देखकर लोग किसी सुव्यवस्थित विषय की जानकारी कम समय में प्राप्त कर सकें। अपनी सामर्थ्य और कार्य की विशालता का मध्यवर्ती तालमेल जिस प्रकार बैठ सकता था, उसी को इन दिनों अपनी सूक्ष-बूझ और प्रभाव के अनुरूप प्रस्तुत किया जा रहा है।
युग निर्माण योजना, मथुरा और शांतिकुंज हरिद्वार से ऐसा साहित्य प्रकाशित करना आरंभ कर दिया गया है, जो प्रस्तुत समस्याओं के अनेकानेक विषयों पर प्रकाश डालता है। इन विषयों के संक्षिप्त प्रस्तुतीकरण से काम न चलेगा, उसका अनेक भाषाओं में अनुवाद और प्रकाशन होना चाहिए। सीमित लेखन भी पर्याप्त नहीं। अब हर विषय को अनेक तर्कों, प्रमाणों और उदाहरणों के साथ प्रस्तुत करने की आवश्यकता अनुभव की जाती है। अगले दिनों युग साहित्य के ऐसे ही विस्तार की आवश्यकता है। बिना किसी प्रतीक्षा के वर्तमान साधनों से ही उसका शुभारंभ कर दिया गया है। आशा यह रखी गई है, कि रोपा यह अंकुर अगले दिनों बट-वृक्षों जैसा विशाल कलेवर धारण करेगा।
इस कार्यक्रम में कितनी ही कठिनाइयां हैं। एक यह कि अपने देश की दो तिहाई जनता अशिक्षित है, वह साहित्य का लाभ कैसे उठाए ? फिर इस घोर महँगाई के जमाने में आर्थिक कठिनाइयों से ग्रस्त अशिक्षित स्तर की जनता उसे किस आधार पर खरीदे ? थोड़े से जो शिक्षित बच जाते हैं, वे भी मनोरंजन के लिए चटपटा साहित्य भर खरीदते हैं। युग साहित्य का लेखन भी मात्र युगद्रष्टा के ही बलबूते का काम है। दूसरे उसके प्रकाशनों में बड़ी पूँजी लगती है। इतने पर भी बिक्री की माँग अत्यंत धीमी रहने से उसका प्रचार-प्रसार कैसे हो ? मँहगे मूल्य की बढ़िया सजधज वाली पुस्तकें छापी जाएँ, तो उन्हें या तो सरकारी शिक्षा तंत्र के ऊपर अतिरिक्त सुविधा शुल्क देकर थोपा जा सकता है, या फिर कोई संपन्न अपनी आलमारियों की शोभा बढ़ाने के लिए उसे खरीद सकते हैं।
यह समूची विडंबना भी ऐसी है, जिसके कारण लेखन, प्रकाशन, मुद्रण, विक्रय, आदि सभी ओर से अवरोध खड़े हो जाते हैं। आवश्यकता हर भाषा में स्थानीय मनः स्थिति और परिस्थिति के साथ ताल-मेल बिठाने वाले साहित्य सृजन की है। कठिन और असंभव दीखने वाले इस माध्यम को, सर्वत्र निराशा दीख पड़ने पर भी इन्हीं दिनों आरंभ कर भी दिया गया है।
एक लाख अध्यापकों द्वारा विद्या विस्तार का श्रीगणेश
युग साहित्य के विक्रय को महत्त्व न देते हुए सोचा गया है कि उसे हर
शिक्षित को पढ़ाने और हर अशिक्षित को सुनाने की एक ऐसी योजना अपनाई जाए।
अन्यत्र कदाचित् ही कहीं और क्रियान्वित होती देखी जाती है।
युग-शिल्पियों में से प्रत्येक को कहा गया है कि वे न्यूनतम 20 पैसा नित्य का अंशदान और दो घंटे का समयदान प्रस्तुत ज्ञानयज्ञ के लिए नियमित रूप से दें। इस पैसे से हर महीने नया छपने वाला साहित्य खरीदते रहें। उसे स्वयं तो पढ़े ही, परिवार वालों को पढ़ाएँ या सुनाएं ही, झोला पुस्तकालय योजना के अंतर्गत अपने परिचय क्षेत्र में शिक्षितों से सम्पर्क साधें और युग साहित्य बिना मूल्य घर पर बैठे पहुँचाने, पढ़ लेने पर वापस लेने एवम् अगली पुस्तकें पढ़ने के लिए देने का क्रम चलाएँ।
यह सिलसिला सदा सर्वदा चलता रह सकता है। पढ़ने वाला बिना पढ़ों को सुनाता भी रह सकता है। दो ऐसे व्यक्ति साथ जुड़े तो सौ शिक्षित सदस्यों को पढ़ा कर, दो सौ बिना पढ़ों को सुनाकर तीन सौ की एक मंडली बना सकते हैं। उसका सुसंतुलन एक युग-शिल्पी के बीस पैसे नित्य और दो घंटे समयदान के माध्यम से बिना किसी कठिनाई के गतिशील रह सकता है। यह सारा साहित्य संचालन की घरेलू लाइब्रेरी से लेकर स्वजन-संबंधी, परिचित-पड़ोसी बिना किसी प्रकार का खर्च किए, दीर्घ काल तक पढ़ते और पढ़ाते रह सकते हैं।
युग-शिल्पियों में से प्रत्येक को कहा गया है कि वे न्यूनतम 20 पैसा नित्य का अंशदान और दो घंटे का समयदान प्रस्तुत ज्ञानयज्ञ के लिए नियमित रूप से दें। इस पैसे से हर महीने नया छपने वाला साहित्य खरीदते रहें। उसे स्वयं तो पढ़े ही, परिवार वालों को पढ़ाएँ या सुनाएं ही, झोला पुस्तकालय योजना के अंतर्गत अपने परिचय क्षेत्र में शिक्षितों से सम्पर्क साधें और युग साहित्य बिना मूल्य घर पर बैठे पहुँचाने, पढ़ लेने पर वापस लेने एवम् अगली पुस्तकें पढ़ने के लिए देने का क्रम चलाएँ।
यह सिलसिला सदा सर्वदा चलता रह सकता है। पढ़ने वाला बिना पढ़ों को सुनाता भी रह सकता है। दो ऐसे व्यक्ति साथ जुड़े तो सौ शिक्षित सदस्यों को पढ़ा कर, दो सौ बिना पढ़ों को सुनाकर तीन सौ की एक मंडली बना सकते हैं। उसका सुसंतुलन एक युग-शिल्पी के बीस पैसे नित्य और दो घंटे समयदान के माध्यम से बिना किसी कठिनाई के गतिशील रह सकता है। यह सारा साहित्य संचालन की घरेलू लाइब्रेरी से लेकर स्वजन-संबंधी, परिचित-पड़ोसी बिना किसी प्रकार का खर्च किए, दीर्घ काल तक पढ़ते और पढ़ाते रह सकते हैं।
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