आचार्य श्रीराम शर्मा >> जीवन देवता की साधना-आराधना जीवन देवता की साधना-आराधनाश्रीराम शर्मा आचार्य
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जीवन देवता की साधना और आराधना....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ईश्वर छोटी मोटी भेंट पूजाओं या गुणगान से प्रसन्न नहीं होता। ऐसी प्रकृति
तो क्षुद्र लोगों की होती है। ईश्वर तो न्यायनिष्ठ और विवेकवान है।
व्यक्तित्व में आदर्शवादिता का समावेश होने पर जो गरिमा उभरती है, उसी के
आधार पर वह प्रसन्न होता और अनुग्रह बरसाता है।
प्रतीक पूजा की अनेक विधियाँ हैं, उन सभी का उद्देश्य एक ही है, मनुष्य के विकारों को हटाकर, संस्कारों को उभारकर, देवी अनुग्रह के अनुकूल बनाना।
साधना से सिद्धि का सिद्धान्त सर्वमान्य है। प्रश्न है। साधना किसकी की जाय ? उत्तर है जीवन को ही देवता मानकर चला जाय। यह इस हाथ दे, उस हाथ ले का क्रम है। इसी आधार पर आत्म संतोष, लोक सम्मान और देव अनुग्रह जैसे अमूल्य अनुदान प्राप्त होते हैं।
प्रतीक पूजा की अनेक विधियाँ हैं, उन सभी का उद्देश्य एक ही है, मनुष्य के विकारों को हटाकर, संस्कारों को उभारकर, देवी अनुग्रह के अनुकूल बनाना।
साधना से सिद्धि का सिद्धान्त सर्वमान्य है। प्रश्न है। साधना किसकी की जाय ? उत्तर है जीवन को ही देवता मानकर चला जाय। यह इस हाथ दे, उस हाथ ले का क्रम है। इसी आधार पर आत्म संतोष, लोक सम्मान और देव अनुग्रह जैसे अमूल्य अनुदान प्राप्त होते हैं।
अध्यात्म तत्व ज्ञान का मर्म जीवन साधना
अति निकट और अति दूर की उपेक्षा करना मानव का सहज स्वभाव है। यह उक्ति
सम्पदा के हर क्षेत्र में लागू होती है। जीवन हम हर घड़ी जीते हैं, पर न
तो उसकी गरिमा समझते और न यह सोच पाते हैं कि इसके सदुपयोग से क्या-क्या
सिद्धियाँ उपलब्ध हो सकती हैं। प्राणी जन्म लेता और पेट प्रजनन की,
प्राकृतिक उत्तेजनाओं से विक्षुब्ध होकर, निर्वाह की जरूरतें पूरी करते
हुए दम तोड़ देता है। ऐसे क्षण कदाचित् ही कभी आते हैं, जब यह सोचा जाता
हो कि सृष्टा की तिजोरी का सर्वोपरि उपहार मनुष्य जीवन हो। जिसे अनुग्रह
पूर्वक यह जीवन दिया गया है। उससे यह आशा की गई है कि वह उसका श्रेष्ठतम
सदुपयोग करेगा। अपनी अपूर्णता पूरी करके तुच्छ से महान बनेगा, साथ ही
विश्व उद्यान को कुशल माली की तरह सीचते-संजोते, यह सिद्ध करेगा कि उसे
स्वार्थ और परमार्थ के सही रूप का ज्ञान है। स्वार्थ इसमें है कि पशु
प्रवृत्तियों की कुसंस्कारिता से पीछा छु़ड़ाएँ और सत्प्रवृत्तियों की
आवश्यक मात्रा में अवधारणा करते हुए उस परीक्षा में उत्तीर्ण हों, जो
धरोहर का सदुपयोग कर सकने के रूप में सामने प्रस्तुत हुई है। जो उसमें
उत्तीर्ण होता है, वह देव मानव की कक्षा में प्रवेश करता है। अपना ही भला
नहीं करता, असंख्यों को अपनी नाव में बिठाकर पार करता है। ऐसों को ही
अभिन्दनीय, अनुकरणीय महामानव कहा जाता है। तृप्ति, तुष्टि-शान्ति के
त्रिविधि आनन्द ऐसों को ही मिलते हैं।
मनुष्य जीवन दिव्य सत्ता की एक बहुमूल्य धरोहर है, जिसे सौंपते समय उसकी सत्पात्रता पर विश्वास किया जाता है। मनुष्य के साथ यह पक्षपात नहीं है, वरन् ऊँचे अनुदान देने के लिए यह प्रयोग परीक्षण है। अन्य जीवधारी शरीर भर की बात सोचते और क्रिया करते हैं, किन्तु मनुष्य को सृष्टा का उत्तराधिकारी युवराज होने के नाते अनेकानेक कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व निबाहने पड़ते हैं। उसी में उसकी गरिमा और सार्थकता है। यदि पेट प्रजनन तक, लोभ, मोह तक उसकी गतिविधियाँ सीमित रहें तो उसे नर पशु के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा। लोभमोह के साथ अहंकार और जुड़ जाने पर तो बात और भी अधिक बिगड़ती है। महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उभरी अहमन्यता अनेकों प्रकार के कुचक्र रचती और पतन पराभव के गर्त में गिरती है। अहंता से प्रेरित व्यक्ति अनाचारी बनता है और आक्रमण भी। ऐसी दशा में उसका स्वरूप और भी भयंकर हो जाता हो। दुष्ट दुरात्मा एवं नर पिशाच स्तर की आसुरी गतिविधियाँ अपनाता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन जहाँ श्रेष्ठ सौभाग्य का प्रतीक था, वहाँ वह दुर्भाग्य और दुर्गति का कारण ही बनता है। इसी को कहते हैं वरदान को अभिशाप बना लेना। दोनों ही दिशाएँ हर किसी के लिए खुली हैं। जो इनमें से जिसे चाहता है उसे चुन लेता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप जो है।
साधकों में भिन्नता देखी जाती है। उनके भिन्न- भिन्न इष्ट देव उपास्य होते हैं। उनसे अनुग्रह अनुकम्पा की आशा की जाती है और विभिन्न मनोकामनायें पूर्ण करने की अपेक्षा रखी जाती है। इनमें से कितने सफल होते हैं, इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि पराधीनता की स्थिति में स्वामी की इच्छा पर सबकुछ निर्भर रहता है। सेवक तो अनुनय-विनय ही करता रह सकता है। किन्तु जीवन देवता के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उसकी अभ्यर्थना सही रूप में बन पड़ने पर, वह सब कुछ इसी कल्प वृक्ष के नीचे प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी कहीं अन्यत्र से पाने की आशा लगाई जाती है।
ब्रह्माण्ड का छोटा सा रूप पिण्ड परमाणु है। जो ब्रह्माण्ड में है वह सब कुछ पदार्थ के सबसे छोटे घटक परमाणु में भी विद्यमान है और सौर मण्डल की समस्त क्रिया प्रक्रिया अपने में धारण किये हुए हैं। इसे विज्ञान वेत्ताओं ने एक स्वर से स्वीकार किया है। इसी प्रतिपादन का दूसरा पक्ष यह है कि परम सत्ता ब्रह्माण्डीय चेतना का छोटा किन्तु समग्र प्रतीक जीव है। वेदान्त दर्शन के अनुसार परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा है। तत्व दर्शन के अनुसार इसी कार्य कलेवर में समस्त देवताओं का निवास है। परब्रह्म की दिव्य क्षमताओं का समस्त वैभव जीवब्रह्म के प्रसुप्त संस्थानों में समग्र रूप से विद्यमान है। यदि उन्हें जगाया जा सके तो विज्ञात अतीन्द्रिय क्षमताएँ और अविज्ञात दिव्य विभूतियाँ जागृत, सक्षम एवं क्रियाशील हो सकती हैं। तपस्वी, योगी, ऋषि, मनीषि, महामानव सिद्ध पुरुष ऐसी ही विभूतियों से सम्पन्न देखे गये हैं। तथ्य शाश्वत और सनातन हैं। जो कभी हो चुका है वह अब भी हो सकता है जीवन देवता की साधना से ही महा सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। कस्तूरी के हिरण जैसी बात है। बाहर खोजने में थकान और खीझ ही हाथ लगती है। शान्ति तब मिलती है जब उस सुगन्ध का केन्द्र अपनी ही नाभि में होने का पता चलता है। परमात्मा के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिए अन्यत्र खोजबीन करने की योजना व्यर्थ है। वह एक देशकाल तक सीमित नहीं। कलेवरधारी भी नहीं। उसे अति निकटवर्ती क्षेत्र में देखना हो तो वह अपना अन्तःकरण ही हो सकता है। समग्र जीवन इसी की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है।
गीताकार ने उस परब्रह्म को श्रद्धा में ही समाहित बताया है और कहा है कि जिसकी जैसी श्रद्धा हो वह वैसा ही है, जो अपने को जैसा मानता है वह वैसा ही बन जाता है। यदि अपने को तुच्छ और हेय समझते रहा जायेगा तो व्यक्तित्व उसी ढाँचे में ढल जायेगा। जिसने अपने अन्दर में महानता आरोपित की है उसे अपना अस्तित्व मानवी गरिमा से ओत-प्रोत दिखाई पड़ेगा।
परमात्मा सब कुछ करने में समर्थ है। उसमें समस्त विभूतियाँ विद्यमान हैं। इसी शास्त्र वचन को यों भी कहा जा सकता है कि उसका प्रतीक प्रतिनिधि उत्तराधिकार युवराज भी, अपने सृजेता की विशेषताओं से सम्पन्न है। कठिनाई तब पड़ती है जब आत्म विस्मृति का अज्ञानान्धकार अपनी सघनता से वस्तु स्थिति को आच्छादित कर लेता है। अँधेरे में झाड़ी को भूत और रस्सी को सांप के रूप में देखा जाता है। जिधर भी कदम बढ़ाया जाय उधर ही ठोकरें लगती हैं, किन्तु यदि प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध को उस प्रकाश का उदय माना जाता है, जिसमें अपने सही स्वरूप का आभास भी मिलता है और सही मार्ग ढूँढ़ने में विलम्ब नहीं लगता।
भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह शावक की कथा सर्वविदित है। अपने इर्द-गिर्द का वातावरण और प्रचलन मनुष्य को अपने समूह में ही घसीट ले जाता है। पर जब आत्मबोध होता है तब पता चलता है कि आत्म सत्ता ‘‘शुद्धोऽसि-बुद्धोऽसि-निरंजनोऽसि-’’ के सिद्धान्त को अक्षरशः चरितार्थ करती है। ‘‘मनुष्य भटका हुआ देवता है’’, इस कथन में उसका सही विश्लेषण देखा जा सकता है। यदि भटकाव दूर हो जाय तो समझना चाहिए कि समस्त समस्याओं का हल निकल आया। समस्त भवबन्धनों से छुटकारा मिल गया। मोक्ष और कुछ नहीं अपने सम्बन्ध में जो अचितन्त्य चिन्तनवश भूल हो गई है, उससे त्राण पा लेने का परम पुरुषार्थ है। मकड़ी अपने लिए जाला अपने भीतर का द्रव निकाल कर स्वयं ही बुनती है, स्वयं ही उसमें उलझती और छटपटाती है, किन्तु देखा यह भी गया है कि जब उसे उमंग है तो उस जाले को समेट बटोर कर स्वयं ही निगल भी जाती है। हेय जीवन स्वकृत है। जैसा सोचा गया, चाहा गया वैसी ही परिस्थितियाँ बन गई। अब उसे बदलने का मन हो तो मान्यताओं आकांक्षाओं और गतिविधियों को उलटने की देर हैं। निकृष्ट को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है। क्षुद्र से महान बना जा सकता है।
‘‘साधना से सिद्धि’’ का सिद्धान्त सर्वमान्य है। देखना इतना भर है कि साधना किसकी की जाय। अन्यान्य इष्ट देवों के बारे में कहा नहीं जा सकता कि उनका निर्धारित स्वरूप और स्वभाव वैसा है या नहीं, जैसा कि सोचा जाना गया है। इसमें सन्देह होने का कारण भी स्पष्ट है। समूची विश्व व्यवस्था एक है। सूर्य, चन्द्र, पवन आदि सार्वभौम है। ईश्वर भी सर्वजनीन है, सर्वव्यापी भी। फिर उसके अनेक रूप कैसे बने ? अनेक आकार प्रकार और गुण स्वभाव का उसे कैसे देखा गया ?
मान्यता यदि यथार्थ है तो उसका स्वरूप सार्वभौम होना चाहिए। यदि वह मतमतान्तरों के कारण अनेक प्रकार का होता है, तो समझना चाहिए कि यह मान्यताओं की ही चित्र विचित्र अभिव्यक्तियाँ हैं। ऐसी दशा में सत्य तक कैसे पहुँचा जाय ? प्रश्न का सही उत्तर यह है कि जीवन को ही जीवित जागृत देवता माना जाय। उसके ऊपर चढ़े कषाय-कल्पषों का परिमार्जन करने का प्रयत्न किया जाय। अंगार पर राख की परत जम जाने पर वह काला कलूटा दिख पड़ता है, पर जब वह परत हटा दी जाती है तो भीतर छिपी अग्नि स्पष्ट दीखने लगती है। साधना का उद्देश्य इन आवरण आच्छादनों को हटा देना भर है। इसे प्रसुप्ति को जागरण में बदल देना ही कहा जा सकता है।
मनुष्य जीवन दिव्य सत्ता की एक बहुमूल्य धरोहर है, जिसे सौंपते समय उसकी सत्पात्रता पर विश्वास किया जाता है। मनुष्य के साथ यह पक्षपात नहीं है, वरन् ऊँचे अनुदान देने के लिए यह प्रयोग परीक्षण है। अन्य जीवधारी शरीर भर की बात सोचते और क्रिया करते हैं, किन्तु मनुष्य को सृष्टा का उत्तराधिकारी युवराज होने के नाते अनेकानेक कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व निबाहने पड़ते हैं। उसी में उसकी गरिमा और सार्थकता है। यदि पेट प्रजनन तक, लोभ, मोह तक उसकी गतिविधियाँ सीमित रहें तो उसे नर पशु के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा। लोभमोह के साथ अहंकार और जुड़ जाने पर तो बात और भी अधिक बिगड़ती है। महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उभरी अहमन्यता अनेकों प्रकार के कुचक्र रचती और पतन पराभव के गर्त में गिरती है। अहंता से प्रेरित व्यक्ति अनाचारी बनता है और आक्रमण भी। ऐसी दशा में उसका स्वरूप और भी भयंकर हो जाता हो। दुष्ट दुरात्मा एवं नर पिशाच स्तर की आसुरी गतिविधियाँ अपनाता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन जहाँ श्रेष्ठ सौभाग्य का प्रतीक था, वहाँ वह दुर्भाग्य और दुर्गति का कारण ही बनता है। इसी को कहते हैं वरदान को अभिशाप बना लेना। दोनों ही दिशाएँ हर किसी के लिए खुली हैं। जो इनमें से जिसे चाहता है उसे चुन लेता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप जो है।
साधकों में भिन्नता देखी जाती है। उनके भिन्न- भिन्न इष्ट देव उपास्य होते हैं। उनसे अनुग्रह अनुकम्पा की आशा की जाती है और विभिन्न मनोकामनायें पूर्ण करने की अपेक्षा रखी जाती है। इनमें से कितने सफल होते हैं, इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि पराधीनता की स्थिति में स्वामी की इच्छा पर सबकुछ निर्भर रहता है। सेवक तो अनुनय-विनय ही करता रह सकता है। किन्तु जीवन देवता के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। उसकी अभ्यर्थना सही रूप में बन पड़ने पर, वह सब कुछ इसी कल्प वृक्ष के नीचे प्राप्त किया जा सकता है, जिसकी कहीं अन्यत्र से पाने की आशा लगाई जाती है।
ब्रह्माण्ड का छोटा सा रूप पिण्ड परमाणु है। जो ब्रह्माण्ड में है वह सब कुछ पदार्थ के सबसे छोटे घटक परमाणु में भी विद्यमान है और सौर मण्डल की समस्त क्रिया प्रक्रिया अपने में धारण किये हुए हैं। इसे विज्ञान वेत्ताओं ने एक स्वर से स्वीकार किया है। इसी प्रतिपादन का दूसरा पक्ष यह है कि परम सत्ता ब्रह्माण्डीय चेतना का छोटा किन्तु समग्र प्रतीक जीव है। वेदान्त दर्शन के अनुसार परिष्कृत आत्मा ही परमात्मा है। तत्व दर्शन के अनुसार इसी कार्य कलेवर में समस्त देवताओं का निवास है। परब्रह्म की दिव्य क्षमताओं का समस्त वैभव जीवब्रह्म के प्रसुप्त संस्थानों में समग्र रूप से विद्यमान है। यदि उन्हें जगाया जा सके तो विज्ञात अतीन्द्रिय क्षमताएँ और अविज्ञात दिव्य विभूतियाँ जागृत, सक्षम एवं क्रियाशील हो सकती हैं। तपस्वी, योगी, ऋषि, मनीषि, महामानव सिद्ध पुरुष ऐसी ही विभूतियों से सम्पन्न देखे गये हैं। तथ्य शाश्वत और सनातन हैं। जो कभी हो चुका है वह अब भी हो सकता है जीवन देवता की साधना से ही महा सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। कस्तूरी के हिरण जैसी बात है। बाहर खोजने में थकान और खीझ ही हाथ लगती है। शान्ति तब मिलती है जब उस सुगन्ध का केन्द्र अपनी ही नाभि में होने का पता चलता है। परमात्मा के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिए अन्यत्र खोजबीन करने की योजना व्यर्थ है। वह एक देशकाल तक सीमित नहीं। कलेवरधारी भी नहीं। उसे अति निकटवर्ती क्षेत्र में देखना हो तो वह अपना अन्तःकरण ही हो सकता है। समग्र जीवन इसी की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है।
गीताकार ने उस परब्रह्म को श्रद्धा में ही समाहित बताया है और कहा है कि जिसकी जैसी श्रद्धा हो वह वैसा ही है, जो अपने को जैसा मानता है वह वैसा ही बन जाता है। यदि अपने को तुच्छ और हेय समझते रहा जायेगा तो व्यक्तित्व उसी ढाँचे में ढल जायेगा। जिसने अपने अन्दर में महानता आरोपित की है उसे अपना अस्तित्व मानवी गरिमा से ओत-प्रोत दिखाई पड़ेगा।
परमात्मा सब कुछ करने में समर्थ है। उसमें समस्त विभूतियाँ विद्यमान हैं। इसी शास्त्र वचन को यों भी कहा जा सकता है कि उसका प्रतीक प्रतिनिधि उत्तराधिकार युवराज भी, अपने सृजेता की विशेषताओं से सम्पन्न है। कठिनाई तब पड़ती है जब आत्म विस्मृति का अज्ञानान्धकार अपनी सघनता से वस्तु स्थिति को आच्छादित कर लेता है। अँधेरे में झाड़ी को भूत और रस्सी को सांप के रूप में देखा जाता है। जिधर भी कदम बढ़ाया जाय उधर ही ठोकरें लगती हैं, किन्तु यदि प्रकाश की व्यवस्था बन जाये तो सब कुछ यथावत दिखाई पड़ेगा। आत्मबोध को उस प्रकाश का उदय माना जाता है, जिसमें अपने सही स्वरूप का आभास भी मिलता है और सही मार्ग ढूँढ़ने में विलम्ब नहीं लगता।
भेड़ों के झुण्ड में पले सिंह शावक की कथा सर्वविदित है। अपने इर्द-गिर्द का वातावरण और प्रचलन मनुष्य को अपने समूह में ही घसीट ले जाता है। पर जब आत्मबोध होता है तब पता चलता है कि आत्म सत्ता ‘‘शुद्धोऽसि-बुद्धोऽसि-निरंजनोऽसि-’’ के सिद्धान्त को अक्षरशः चरितार्थ करती है। ‘‘मनुष्य भटका हुआ देवता है’’, इस कथन में उसका सही विश्लेषण देखा जा सकता है। यदि भटकाव दूर हो जाय तो समझना चाहिए कि समस्त समस्याओं का हल निकल आया। समस्त भवबन्धनों से छुटकारा मिल गया। मोक्ष और कुछ नहीं अपने सम्बन्ध में जो अचितन्त्य चिन्तनवश भूल हो गई है, उससे त्राण पा लेने का परम पुरुषार्थ है। मकड़ी अपने लिए जाला अपने भीतर का द्रव निकाल कर स्वयं ही बुनती है, स्वयं ही उसमें उलझती और छटपटाती है, किन्तु देखा यह भी गया है कि जब उसे उमंग है तो उस जाले को समेट बटोर कर स्वयं ही निगल भी जाती है। हेय जीवन स्वकृत है। जैसा सोचा गया, चाहा गया वैसी ही परिस्थितियाँ बन गई। अब उसे बदलने का मन हो तो मान्यताओं आकांक्षाओं और गतिविधियों को उलटने की देर हैं। निकृष्ट को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है। क्षुद्र से महान बना जा सकता है।
‘‘साधना से सिद्धि’’ का सिद्धान्त सर्वमान्य है। देखना इतना भर है कि साधना किसकी की जाय। अन्यान्य इष्ट देवों के बारे में कहा नहीं जा सकता कि उनका निर्धारित स्वरूप और स्वभाव वैसा है या नहीं, जैसा कि सोचा जाना गया है। इसमें सन्देह होने का कारण भी स्पष्ट है। समूची विश्व व्यवस्था एक है। सूर्य, चन्द्र, पवन आदि सार्वभौम है। ईश्वर भी सर्वजनीन है, सर्वव्यापी भी। फिर उसके अनेक रूप कैसे बने ? अनेक आकार प्रकार और गुण स्वभाव का उसे कैसे देखा गया ?
मान्यता यदि यथार्थ है तो उसका स्वरूप सार्वभौम होना चाहिए। यदि वह मतमतान्तरों के कारण अनेक प्रकार का होता है, तो समझना चाहिए कि यह मान्यताओं की ही चित्र विचित्र अभिव्यक्तियाँ हैं। ऐसी दशा में सत्य तक कैसे पहुँचा जाय ? प्रश्न का सही उत्तर यह है कि जीवन को ही जीवित जागृत देवता माना जाय। उसके ऊपर चढ़े कषाय-कल्पषों का परिमार्जन करने का प्रयत्न किया जाय। अंगार पर राख की परत जम जाने पर वह काला कलूटा दिख पड़ता है, पर जब वह परत हटा दी जाती है तो भीतर छिपी अग्नि स्पष्ट दीखने लगती है। साधना का उद्देश्य इन आवरण आच्छादनों को हटा देना भर है। इसे प्रसुप्ति को जागरण में बदल देना ही कहा जा सकता है।
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