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आचार्य श्रीराम शर्मा >> चूड़ा कर्म संस्कार विवेचन

चूड़ा कर्म संस्कार विवेचन

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4158
आईएसबीएन :000

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चूड़ा कर्म संस्कार विवेचन

Choda Karm Saskar Vivechan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

चूड़ा-कर्म संस्कार विवेचन

शिर के बाल जब प्रथम बार उतारे जाते हैं, तब वह चूड़ा कर्म या मुण्डन संस्कार कहलाता है। यह संस्कार शिशु-पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाय।
मस्तिष्क बालों से ढका रहता है। बाल सर्दी-गर्मी और बाहरी उतार-चढ़ावों से सिर की रक्षा करते हैं, इसलिए प्रकृति ने शरीर के इस सबसे महत्वपूर्ण स्थान की सुरक्षा के लिए एक स्थायी परिधान लपेट दिया है। यह प्रकृति की दी हुई चिर स्थायी टोपी है। इसलिए आमतौर से यही उचित रहता है कि सिर पर बाल रखे रहें। सफाई में अड़चन पड़ती हो तो बहुत लंबे केश न रखकर उन्हें छोटे भी कटाया जा सकता है, जैसा की आजकल लोग मझोले बाल रखते भी हैं। महिलाओं को अवकाश भी रहता है और वे उसे श्रृंगार, सौन्दर्य का साधन भी मानती हैं इसलिए पूरे लम्बे केश रखे रहती है। मस्तिष्क की सुरक्षा की दृष्टि से यह उच्च भी है। प्राचीनकाल में ब्रह्मचारी और साधु महात्मा पंच-केश रखाये भी रहते थे।

चूड़ा-कर्म का रहस्य-

मुण्डन का एक विशेष वैज्ञानिक प्रयोजन है। अब तक चल रही विचारधारा में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन करना हो तो उसके लिए विचार संस्थान को विशेष रूप से प्रभावित करना पड़ता है। चूंकि केश मस्तिष्क पर पड़ने वाले वाह्य प्रभावों को रोकते हैं इसलिए उन्हें हटाकर यह सुविधा उत्पन्न कर ली जाती है कि शिर के रोम कूपों द्वारा कोई विशिष्ठ प्रेरणा मस्तिष्क के अन्तराल विचार संस्थान तक पहुँचाई जा सके। ऐसे मुण्डन किसी विशेष अवसरों पर ही कराये जाते हैं। चूड़ा कर्म संस्कार के अवसर पर इसलिए कि अब तक चले आ रहे जन्म-जन्मान्तरों के पशु संस्कारों को संकीर्ण स्वार्थ में ग्रस्त विचारों को बदल कर मानवीय आदर्शों को अपनाने के लिए मस्तिष्क प्रशिक्षित किया जाय, यज्ञोपवीत वेदारंभ संस्कार के अवसर पर इसलिए कि जिस ज्ञान को मस्तिष्क में धारण किया जा रहा है उसका प्रयोजन एवं लक्ष्य समझ लिया जाय।

मरणोत्तर संस्कार में उत्तराधिकारी तथा कुटुम्बीजन इसलिए मुण्डन कराते हैं कि प्रियजन के स्वर्गवास से जो आघात लगा है, जो शोक और मोह उत्पन्न हुआ है उसे हटाया जा सके। कुछ संप्रदायों के संन्यासी शिर मुड़ाते हैं ताकि जीवन क्रम में अब तक चली आ रही व्यक्तिवादी विचारधारा को बदल कर विश्वात्मा के साथ अपने तादात्मय की नई भाव चेतना को विकसित किया जा सके। बंगाल आदि प्रान्तों में विधवायें भी इसी प्रयोजन के लिए शिर मुंडाती हैं कि वे गृहस्थ निर्माण संबंधी अपने सपनों को मिटाकर उसके स्थान पर आत्म निर्माण, विश्व-निर्माण के परिष्कृत दृष्टिकोण को अपना सकें।

तात्पर्य यह है कि जीवन-क्रम के प्रचलित ढर्रे को बदल डालने का वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक माध्यम मुण्डन माना गया है। वैज्ञानिक इसलिए कि संस्कार विधान के अवसर पर होने वाले मंत्रोच्चार, यज्ञ एवं कर्मकाण्ड की अध्यात्म विधा के आधार पर बनी हुई पद्धति का प्रयोग करके शिर संस्थान के तन्तुओं को अमुक दिशा में चलने के लिए प्रभावित किया जाता है। इस माध्यम से मस्तिष्क के गहन अन्तराल में भी हलचल मचती है और उससे अभीष्ट प्रयोजन भावनात्मक परिवर्तन सरल हो जाता है।

मनोवैज्ञानिक इसलिए कि किसी विचार का कार्य के साथ संबंध जोड़ देने से वह अपना एक प्रभाव एवं संस्कार बनाकर चिरस्थाई हो जाता है। चोटी रखने से व्यक्ति यह विश्वास जमा लेता है कि वह हिन्दू है। मुसलमानों में सुन्नत का रिवाज इसलिए भी है कि वह सदा यह समझते रहें कि वह मुस्लिम धर्म में दीक्षित है। भावरें फिर लेने से यह मान लेता है कि विवाह हो गया। दुपट्टे में गाँठ बाँध लेने से यह बात भूल जाने की सम्भावना नहीं रहती। गलती का प्रायश्चित करते हुए भविष्य में उसे न करने का स्मरण बनाये रखने के लिए कान पकड़ कर उठक-बैठक करने का दण्ड भी मिलता है।

किसी परास्त पराजित से उसका गर्व समाप्त करने और दीनता अनुभव कराने के लिए विजेता लोग मूँछें मुड़ा देते थे। बाजी हारने का सार्वजनिक प्रदर्शन करने के लिए लोग मूँछ मुड़ाने की शर्त लगाते हैं। नाक छिदा लेने से लड़की को अपनी नारीत्व का बोध होता रहता है। अन्यथा यदि वेश-विन्यास, बोल-चाल, रीति-रिवाजों का अन्तर जहाँ न हो वहाँ रहने पर लड़का-लड़की में कोई विशेष अन्तर न रहेगा।

 नारी से नर में जो भिन्नता दिखाई देती है, वह उसकी संस्कृति बदल जाने के कारण ही होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ शारीरिक क्रियाकृत्य या वेश-विन्यास में हेर-फेर के साथ-साथ भावनात्मक परिवर्तन का तारतम्य भी छिपा रहता है। मुण्डन जैसे संस्कारों का यह भी प्रयोजन है कि इस प्रदर्शन घोषणा के आधार पर व्यक्ति स्वयं वैसे ही अनुभव करे और दूसरे भी वैसा ही समझें जैसा कि उस कृत्य का मूल प्रयोजन था। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मुण्डन एक सार्वजनिक घोषणा प्रदर्शन है जिसका प्रयोजन अब तक चली आ रही मान्यता कार्य पद्धतियों को बदल देना है।

अन्य योनियों के संस्कार-

चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते रहने के कारण मनुष्य कितने ही ऐसे पाशविक संस्कार, विचार एवं मनोभाव अपने भीतर धारण किये रहता है, जो मानव जीवन में अनुपयुक्त एवं अवांछनीय होते हैं। इन्हें हटाने और उस स्थान पर मानवतावादी आदर्शों के प्रतिष्ठापित किये जाने का कार्य इतना महान एवं आवश्यक है कि वह पूरा न हो सका तो यही कहना होगा कि आकृति मात्र मनुष्य की हुई-प्रवृत्ति तो पशि की ही बनी रही। ऐसे नर-पशुओं की इस संसार में कमी नहीं चलते-बोलते, खाते-पहनते तो मनुष्यों की तरह ही हैं, पर उनके आदर्श और मनोभाव पशुओं जैसे होते हैं। ऐसे लोग मानव-जीवन को कलंकित ही करते हैं। ईश्वर को अनुपम देने को निरर्थक गँवाने वाले इन लोगों को अभागा ही कहना पड़ता है।

जीव साँप की योनि में रहते हुए बड़ा क्रोधी होता है, अपने बिल के आस-पास किसी को निकलते देख ले तो उस पर कुद्र होकर प्राण हरण करने वाला आक्रमण करने से नहीं चूकता। कितने ही मनुष्य उन क्रूर संस्कारों को धारण किये रहते हैं और छोटा-सा कारण होने पर भी इतने कुद्र कुपुत होते हैं कि उस आवेश में सामने वाले का प्राण हरण कर लेना भी उनके लिए सब कुछ कठिन नहीं रहता। जिन जीवों को शूकर की योनि के अभ्यास बने हुए हैं, वे अभक्ष्य खाने में कोई संकोच नहीं करते। मल-मूत्र, रक्त-मांस, कुछ भी वे रुचिपूर्वक खा सकते हैं, वरन् फल-मेवा, दूध, घी जैसे सात्त्विक पदार्थों की उपेक्षा करते हुए वे उन अभक्ष्यों में ही अधिक रुचि एवं तृप्त अनुभव करते हैं। कुत्ते की तरह पेट के लिए हम हिलाने वाले, लक्कड़बग्घे की तरह निष्ठुर, लोमड़ी की तरह धूर्त, बन्दर की तरह चंचल, जोंक की तरह रक्त पिपासु, कौए की तरह चालाक, मधु-मक्खियों की तरह जमाखोर, बिच्छुओं की तरह दुष्ट, छिपकली की तरह घिनौने, कितने ही मनुष्य होते हैं। किसी का भी खेत चरने में संकोच न हो, ऐसे सांड कम नहीं, जिन्होंने कामुकता के उफान में लज्जा और मर्यादा को तिलाञ्जलि दे दी हों ऐसे श्वास प्रकृति नर-पशुओं की कमी नहीं।

 दूसरों के घोसले में अपने अण्डे पालने के लिए रखा जाने वाली हरामखोर कोयले कम नहीं, जो आरामतलवी के लिए अपने शिशु-पोषण जैसे महत्वपूर्ण कर्तव्यों को भुलाये हुए दूसरों का मनोरंजन करने के लिए फूल वाली डाली पर गाती-नाचती फिरती है। ऐसे लोभी भौरे जो फूल के मुरझाते ही बेवफाई के साथ मुँह मोड़ लेते हैं, मनुष्य समाज में कम नहीं है। शतुरमुर्ग की तरह अदूरदर्शी, भैंस की तरह आलसी, खटमल की तरह-पीडक, मकड़ी और मक्खियों की तरह निरर्थक मनुष्यों की यहाँ कुछ कमी नहीं।

यही प्रकृति मनुष्यों में भी रहे तो उसका मनुष्य शरीर धारण करना निरर्थक ही नहीं मानवता को कलंकित करने वाली ही कहा जायगा। समझदार व्यक्तियों का सदा प्रयत्न रहता है कि उनके द्वारा पाली-पोसी गई सन्तान ऐसी न हो, संस्कारों की प्रतिष्ठापना प्रधानतया बालकपन में ही होती है, इसलिए हमें अपने माता-पिता की वैसी सहायता न मिलने से मानवोचित्त विकास करने का अवसर भले ही न मिला हो पर अपने बालकों के संबंध में जो वैसी भूल न की जाय, उन्हें तो सुसंस्कारी बनाया ही जाय। चूडा-कर्म-मुण्डन-संस्कार के माध्यम से किसी बालक के संबंध में उसके संबंधी, परिजन, शुभचिन्तक यही योजना बनावें कि उसे पाश्विक संस्कारों से विमुक्त एवं मानवीय आदर्शवादिता से ओत-प्रोत किस प्रकार बनाया जाय ?

चूड़ा-कर्म आरम्भ-

अन्य संस्कारों की भाँति माता-पिता बालक के साथ मण्डप में उपस्थित होते हैं। पवित्रीकरण, आचमन, शिखा बन्धन, प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी पूजन, कलश पूजन, देव पूजन नमस्कार, षोडशोपचार, चन्दनधारण, स्वस्तिवाचन, रक्षा विधान के उपरान्त इस संस्कार का विशेष कार्यक्रम आरम्भ हो जाता है।


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